आज शायद ही कोई ऐसा हिन्दुस्तानी हो जिसने अपने बचपन में अमीर खुसरो की पहेलियाँ न बूझी हों. यों देखा जाए तो अमीर खुसरो का पूरा व्यक्तित्व ह...
आज शायद ही कोई ऐसा हिन्दुस्तानी हो जिसने अपने बचपन में अमीर खुसरो की पहेलियाँ न बूझी हों. यों देखा जाए तो अमीर खुसरो का पूरा व्यक्तित्व ही एक अबूझ पहेली सा प्रतीत होता है. वे मूलत: तुर्क थे. उनके पिता और पूर्वज हजारा तुर्क के ‘लाचीन’ या ‘हजारा लाचीन’ नामक कबीले से ताल्लुक़ रखते थे. तुर्की भाषा में ‘लाचीन’ का अर्थ होता है ‘गुलाम’. लेकिन अमीर खुसरो हिन्दुस्तान में पैदा और बड़े हुए और तुर्क होते हुए भी वे हमेशा हिन्दुस्तानी ही रहे. गुलाम खानदान से दूर दूर तक उनका कोई रिश्ता नहीं रहा. उन्हें जलालुद्दीन फ़िरोज़ खिलजी ने ‘अमीर’ का खिताब दिया था और ‘खुसरो’ उनका तक़ल्लुस था. इस तरह वे अमीर खुसरो कहलाए. वैसे पिता का दिया हुआ उनका नाम ‘अबुल हसन’ था. आज उन्हें अबुल हसन नाम से कोई नहीं जानता. जन जन के मन में बसे वे बस, एक महान हिन्दुस्तानी शायर और संगीतकार है. वे अपने को हिन्दुस्तान की तूती कहते थे. उनका कहना था कि अगर तुम सचमुच मुझे जानना चाहते हो तो हिन्दवी में पूछो! मैं तुन्हें अनुपम बातें बताऊँगा. हिन्दुस्तान के बारे में उन्होंने न जाने कितनी अनुपम बातें कही हैं उनके काव्य में भारतीय पक्षियों और प्रकृति का वर्णन अत्यंत बारीकी से किया गया वर्णन है. मैना और मोर की प्रशंसा में उन्होंने कभी कोई कोताई नहीं की. उनका कहना था की मैना के समान अरब और ईरान में कोई पक्षी नहीं है. उनका एक प्रसिद्ध कथन है, ‘तर्क हिन्दुस्तानियम मन हिन्दी गोयम जवाब’ अर्थात, मैं हिन्दुस्तानी हूँ, हिन्दवी में जवाब देता हूँ.
संत कवि अमीर खुसरो हिन्दी (खडी बोली/ हिन्दवी) के पहले कवि माने जाते हैं. उन्होंने पहेलियाँ, दोहे, पद, गीत, गजल, मुकरियों आदि, सभी काव्य-विधाओं में अद्भुत लोकप्रिय प्रयोग किए. वे शायर होने के साथ-साथ एक संगीतज्ञ भी थे. सितार और तबले का आविष्कार उन्हींने किया. गायन-वादन और नर्तन में उनकी विशेष अभिरुचि थी. कव्वाली शैली के गायन के वे प्रवर्तक थे. सूफियाना मिज़ाज और कवि स्वभाव होने के बावजूद वे एक कुशल राजनीतिज्ञ और शूरवीर सैनिक और योद्धा भी थे. तुर्की, फारसी, अरबी के अलावा वे संस्कृत के भी अच्छे ज्ञाता थे. वे बारह वर्ष की छोटी सी उम्र में ही रुबाई कहने लगे थे. बचपन से ही आशु कविता बड़ी आसानी से कर लेते थे. उनका कंठ भी बहुत मधुर था. अमीर खुसरो के पिता पढ़े-लिखे नहीं थे. खुद खुसरो ने उन्हें ‘उम्मी’ (अनपढ़) बताया है. लेकिन उम्मी पिता ने अपने बेटे को नायाब शिक्षा दिलाई. बचपन से ही उन्हें मदरसे भेजा जाने लगा. मदरसों में उन दिनों खुश-ख़त पर बड़ा जोर दिया जाता था. खुसरो ने भी सुन्दर लेखन में दक्षता प्राप्त कर ली थी. लेकिन वे तो विद्या-व्यसनी थे. उनकी रूचि तो काव्य में थी. उन्होंने कविता करना बाकायदा किसी उस्ताद से नहीं सीखा किन्तु सादी, सनाई और अनवरी के काव्य को न सिर्फ उन्होंने तबियत से पढ़ा बल्कि उनका प्रभाव उनके अपने काव्य में स्पष्ट देखा जा सकता है.
अमीर खुसरो के पिता तुर्क थे किन्तु उनकी माता हिन्दू राजपूत थीं. वे बलवन के युद्ध मंत्री को विवाहित थीं. अमीर खुसरो का जन्म ६५२ हि.संवत में हुआ था. तदनुसार वे सन १२५०-१२५९ के दशक में पैदा हुए थे. सामान्यत: यह माना जाता है कि वे १२५३ में जन्में होंगे. उनकी मृत्यु लगभग ७३ वर्ष की अवस्था में सन ७२५ हिजरी में हुई थी. अमीर खुसरो का जन्म स्थान काफी विवादास्पद है. कुछ विद्वान उनका जन्म तुर्किस्तान में मानते हैं किन्तु अधिकतर लोग उनका जन्मस्थान भारत में ही स्वीकार करते है. आम राय यह है कि उनका जन्म भारत में एटा, ‘पटियाली’, (पंजाब का पटियाला नहीं) में हुआ था. पटियाली को मोमिनपुर या मोमिनाबाद भी कहा जाता था. कुछ अन्य विद्वानों का मत है कि उनका जन्म दिल्ली में दिल्ली दरवाज़े के पास नमक सराय में हुआ था. जो भी हो उनका अधिकतर समय दिल्ली में गुज़रा और दिल्ली उन्हें अत्यधिक प्रिय भी थी. उनके दिल्ली प्रेम के कारण उन्हें कभी कभी अमीर खुसरो देहलवी भी कहा गया है.
निजामुद्दीन औलिया को अमीर खुसरो अपना गुरु मानते थे, और उनके प्रति वे अगाध श्रृद्धा भाव रखते थे. गुरु-शिष्य का यह एक अद्भुत रिश्ता था. अमिर खुसरो आठ वर्ष की अवस्था में ही निजामुदीन औलिया के शिष्य बन गए थे. सूफी मत की धर्म-शिक्षा उन्हें अपने इसी गुरु से मिली. निजामुद्दीन औलिया के वे मुरीद थे. और आखिरी समय तक मुरीद बने रहे. गुरु और शिष्य का यह प्रेम एक-तरफा न होकर परस्पर था. अपने गुरु के सम्मान में उनका यह पद बड़ा मशहूर हुआ है –
आज रंग है री, मेरे महबूब के घर रंग है री मोहे पीर पायो निजामुदीन औलिया - वो तो जहां देखो संग है री.
खुसरो को जब अपने गुरु के देहांत का समाचार मिला, तब वे दिल्ली में नहीं थे. वे तुरंत दिल्ली वापस आ गए और काले कपडे पहनकर निजामुद्दीन औलिया की समाधि पर मत्था टेकने चले गए. तभी उन्होंने यह छंद कहा -
गोरी सोवे सेज पर डारे केस चल खुसरो घर आपने रेन भई चहूँ ओर
कहकर वे बेहोश हो गए. अपने गुरु के सदमें को वे बर्दाश्त न कर सके और छ: माह के भीतर ही उनकी इह लीला समाप्त हो गई.
अमीर खुसरो को ज़िंदगी भर राज–आश्रय मिला. सूफी मत के प्रभाव में वे, राजनीतिक छलकपट की उथल पुथल से भरे माहौल में रह कर भी, धार्मिक संकीर्णता के विरुद्ध अपनी आवाज़ बुलंद करते रहे. हिन्दू-मुस्लिम एकता, प्रेम, सौहार्द, मानवतावाद और सांस्कृतिक समन्वय के लिए पूरी ईमानदारी और निष्ठा से उन्होंने काम किया. बादशाहों की अय्याशी से उन्होंने अपने को पूरी तरह बचाए रखा. उनकी शायरी इसीलिए जन जन में लोकप्रिय हुई और अभी तक उसकी लोकप्रियता पर आंच नहीं आई है.
अमीर खुसुरो की शायरी में रोज़मर्रा की चीजों का ज़िक्र बहुतायत से आता है. उनकी मुकरियों में पंखा, लोटा, जूता, नमक, दीपक, मैना, मोर, मक्खी, पानी, अंजन जैसी वस्तुओं की भरमार है –
जब मांगूं तब जल भर लावे / मेरे मन की तपन बुझावे मन का भारी तन का छोटा / ऐ सखी साजन? ना सखि तोता
आप हिले और मोह हिलावे / वा का हिलना मोए न भावे हिल हिल के वो हुआ निसंग / ऐ सखी साजन? ना सखि पंखा
खुसरो के गीतों में सांसारिक प्रेम का अनूठा उदात्तीकरण देखने को मिलता है –
खुसरो दरिया प्रेम का सो उलटी बाक़ी धार जो उबारो सो डूब गयो जो डूबा हुआ पार
सेज वो सूनी देख के रोवूँ मैं दिनरात पिया पिया मैं करत हूँ पल भर सुख ना चैन
गांधी जी ने चरखे को लोकप्रिय बनाया था, लेकिन चरखा तो खुसरो के ज़माने से ही लोकप्रिय रहा है. इसका प्रमाण उनके काव्य में, खासतौर पर उनकी उलटबासियों में मिलता है –
भार भुजावन हम गए, पल्ले बांधी ऊन कुता चरखा ले गयो, कायते फटकू चून
खीर पकाई जतन से और चरखा दिया जलाय आयो कुत्तो गयी तू बैठी ढोल बजाय - ला पानी पिलाय
अमीर खुसरो के काव्य में जहां एक ओर आध्यात्मिक और दार्शनिक तत्व हैं वहीं यह कवि प्रकृति-प्रेम से भी ओतप्रोत है. प्रकृति, प्रेम और अध्यात्म का सुन्दर समन्वय प्राय: उनके गीतों में स्पष्ट देखा जा सकता है. अमीर खुसरो को बच्चों से बेहद प्रेम था. उनके लिए उन्होंने जो पहेलियाँ लिखी हैं वो आज भी घर घर बच्चों से बुझाई जारी है. कुछ लोकप्रिय पहेलियाँ इस प्रकार हैं –
जूता पहना नहीं / समोसा खाया नहीं (उत्तर, तला न था.) पंडित प्यासा क्यों / गधा उदास क्यों (उत्तर, लोटा न था) रोटी जली क्यों / घोड़ा अड़ा क्यों / पान सडा क्यों (उत्तर, फेरा न था) एक गुनी ने यह गुन कीना – हरियल पिंजरे में दे दीना देखा जादूगर का हाल – डाले हरा निकाले लाल (उत्तर, पान)
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अमीर खुसुरो से क्षमा याचना सहित उनके कुछ गीतों का ‘हाइकु’ रूपांतरण
(१) छाप तिलक
छाप तिलक धरी की धरी रही नैना मिले जो
मदवा प्रेम मैं पी गई जब से नैना मिले दो
बचा न पाई कर ली अपनी सी नैना झुके जो
गोरी बहियाँ पकड़ लीनीं मोरी नैना झुके जो
(२) अंधेरी रात
ना नींद नैना ना अंग अंग चैना भेजी न पात
देखूँ न पिया फिर कैसे कटे ये अंधेरी रात
कौन बताए पिया पास जाकर हमारी बात
(३) फूली सरसों
सकल वन फूल रही सरसों सघन वन
अम्बवा फूला मालिन घर आई ठसक बन
बरसों बीते आए न सजनवा उन्मन मन
- डॉ. सुरेन्द्र वर्मा , १०, एच आई जी १, सर्कुलर रोड इलाहाबाद – २११००१ (मो) ०९६२१२२२७७८
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