अतीत के प्रेरक भारतीय वैज्ञानिक अरविन्द गुप्ता चित्रांकनः कैरन हैडॉक नैन सिंह रावत (1830 . 1895) भारत में अपना साम्राज्य...
अतीत के
प्रेरक भारतीय वैज्ञानिक
अरविन्द गुप्ता
चित्रांकनः कैरन हैडॉक
नैन सिंह रावत
(1830 . 1895)
भारत में अपना साम्राज्य स्थापित करने के बाद यह तय था कि अंग्रेजों की निगाहें हिमालय क्षेत्र की अपार सम्पदा पर पड़ेंगी। पर यह काम आसान न था। चीन के सम्राट ने तिब्बत की सीमाएं विदेशियों के लिए सील कर दी थीं और उल्लंघन की सजा मौत थी। सर्वेक्षण विभाग के कई सूरमा इस दुर्गम क्षेत्र का सर्वे करते हुए शहीद हो चुके थे। अंत में थॉमस मांटेगोमरी को एक विलक्षण उपाय सूझा। क्यों न लामाओं के वेश में भारतीय ‘जासूस’ वहां भेजो और इन दुर्गम स्थानों के नक्शे बनवाओ। चुने लोगों के नाक-नक्श तिब्बतियों जैसे हों, वे पहाड़ी तौर-तरीकों से वाकिफ हों, पढ़े लिखें हों और ज्यादा तनख्वाह न मांगें। हिमालयी सर्वेक्षण के इस काम के लिए मांटेगोमरी ने नैन सिंह और उसके चचेरे भाई मणी सिंह को चुना।
नैन सिंह का बचपन अथाह गरीबी में बीता था। उनकी कोई पुश्तैनी जमीन-जायदाद नहीं थी और परिवार बहुत बड़ा था। उनके लिए घर खर्च चला पाना भी मुश्किल था। उन्होंनें जवानी में कर्ज लेकर व्यापार शुरु किया पर उसमें भी वो असफल रहा। कुछ समय उन्होंनें हिमालय के मिलन गांव में स्कूल की मास्टरी भी की। मणी सिंह, नैन सिंह से बड़ा था। 1863 में मांटेगोमरी ने दोनों भाईयों को सर्वेक्षण का कठिन प्रशिक्षण दिया। यह ट्रेनिंग बाद में हर सर्वेयर या ‘चेन-मैन’ के लिए अनिवार्य हो गई। उन्हें एक निश्चित गति से चलना सिखाया गया जिससे उनका हर कदम एक निश्चित - 33 इंच की दूरी ही तय करे। कदमों की संख्या गिनने के लिए उन्हें 100 मोतियों वाली माला दी गई थी (सामान्य मालाओं में 108 मोती होते हैं)। एक माला खत्म होने पर वो कुल 10,000 कदम चले होंगें और उन्होंनें 5-मील की दूरी तय होगी!
धार्मिक सैलानी के भेष में नैन सिंह के बोरी-बिस्तर में कई यंत्र छिपे थे। चाय के मग में एक छिपा तहखाना था जो पारे से भरा था - जिससे क्षैतिज (होराइजन) ढूंढने में मदद मिलती थी। उसकी छड़ी में एक तापमापी (थरमामीटर) छिपा था जिसे वो उबलते पानी में डुबोकर वहां की ऊंचाई मापता था। हर स्कूली छात्र जानता है कि पानी उबलने का बिन्दु ऊंचाई पर निर्भर करता है।
पर सबसे महत्वपूर्ण चीजें नैन सिंह की प्रार्थना-चक्र में छिपी थीं। सामान्यतः प्रार्थना-चक्र में कागजों पर लिखे मंत्र भरे होते हैं जैसे - ‘ओम मने पद्यः हुम’ आदि। परंतु नैन सिंह का विशेष प्रार्थना-चक्र उसके फील्ड-नोट्स - दूरियों, नक्शों, ऊंचाईयों के आंकड़ों से भरा था। इन पैदल सर्वेयरों के नाम भी अजीब थे। उदाहरण के लिए नैन सिंह का नाम ‘चीफ पंडित’ और उसके चचेरे भाई का नाम ‘सेकंड पंडित’ था। यह विशेष नाम सर्वे करने वालों पर सदा के लिए चिपक गए और बाद में सभी सर्वेयर ‘पंडित’ के नाम से पुकारे जाने लगे।
1865 में दोनों पंडितों ने अपना पहला अभियान शुरु किया। तिब्बती बार्डर पार करते वक्त उन्हें अपना भेष बदलना पड़ा।
नेपाल पहुंचने पर दोनों भाई अलग हुए। नैन सिंह ल्हासा जाने के लिए तिब्बत के बार्डर की ओर बढ़ा। एक व्यापारियों के दल में मिल कर उसने तिब्बत में प्रवेश किया। रास्ते में व्यापारियों ने उसे धोखा दिया और उसके सारे पैसे लूट लिए। सौभाग्य से उसके सर्वे के उपकरण बच गए जो एक डिब्बे के झूठे पेंदे में छिपे थे।
नैन सिंह ने 1865 की गर्मियां अपने पुराने किस्म के उपकरणों के साथ ल्हासा में घूमते हुए बितायीं। खाने के लिए वो गुजरते लोगों से भीख मांगता। जनवरी 1866 में वो ल्हासा पहुंचा और वहां एक फकीर जैसे रहने लगा। उसने एक धर्मशाला में कई हफ्ते बिताए। रात के समय वो धर्मशाला की छत से तारों का अध्ययन करता। पानी उबलने के तापमान के आधार पर उसने समुद्र तट से ल्हासा की ऊंचाई का अनुमान 3240 मीटर लगाया। आज नवीनतम उपकरणों द्वारा यह ऊंचाई 3540 मीटर मापी गई है! तारों की कोणीय ऊंचाई नापकर नैन सिंह ने ल्हासा के अक्षांश का अनुमान भी लगाया।
अप्रैल में नैन सिंह अपने सारे उपकरण बटोर कर एक कारवां से साथ वापस भारत लौटा। कारवां तिब्बत की एक प्रमुख नदी सांगपो के साथ-साथ पश्चिम की ओर बढ़ रहा था। एक रात नैन सिंह चुपके से कारवां छोड़कर भाग निकला। फिर उसने उत्तर की ओर बढ़ा और 27 अक्टूबर 1866 को वो सर्वे के देहरादून स्थित मुख्यालय में पहुंचा।
नैन सिंह ने दो और यात्राएं कीं। 1867 की अपनी दूसरी यात्रा के दौरान उसने पश्चिमी तिब्बत का दौरा किया और वहां स्थित प्रख्यात ठोक-जालुंग सोने की खदानों को देखा। वहां के मजदूर केवल सतह को ही खोद रहे थे। उनका मानना था कि गहरी खुदाई करना पृथ्वी के खिलाफ एक अन्याय होगा और उससे पृथ्वी की उर्वरता कम होगी।
1873-75 के बीच नैन सिंह ने कश्मीर में लेह से ल्हासा की यात्रा की। पिछली बार वो सांगपो नदी के किनारे गया था इसलिए इस बार उसने उत्तर का रास्ता चुना। पचास साल तक इस क्षेत्र की ठोस जानकारी का आधार नैन सिंह द्वारा बनाए नक्शे ही थे। अंतिम अभियान का नैन सिंह की सेहत पर बुरा प्रभाव पड़ा। उसकी आंखें बहुत कमजोर हो गयीं।
उसके बाद भी वो कई सालों तक अन्य पंडितों को सर्वे और जासूसी की कला सिखाता रहा। अपने काम में नैन सिंह बहुत पारंगत था।
देहरादून में नैन सिंह के नक्शों के आधार पर बेहतर नक्शे बनाए गए। इस काम को ‘ग्रेट ट्रिगनोमैट्रिकल सर्वे’ की स्थापना के बाद अधिक बल मिला। इस विस्तृत सर्वे में शुद्धता से अक्षांश और दक्षांश स्थापित किए गए और फिर धीरे-धीरे बिन्दुओं के बीच त्रिकोण बनाकर भारत के तटवर्ती और अंदर के क्षेत्रों का पूरा नक्शा बनाया गया।
नैन सिंह के काम की ख्याति अब दूर-दूर तक फैल चुकी थी। 1876 में नैन सिंह की उपलब्धियों के बारे में ज्योग्राफिकल मैगजीन में लिखा गया। उसके बाद तो बस पुरुस्कारों का तांता ही लग गया। सेवानिवृत्ति के बाद भारत सरकार ने नैन सिंह को बख्शीश में एक गांव और एक हजार रुपए का इनाम दिया। 1868 में रॉयल ज्योग्राफिक सोसायटी ने नैन सिंह को एक सोने की घड़ी पुरुस्कार में दी। 1877 में इसी संस्था ने नैन सिंह को विक्टोरिया पेट्रन्स मैडल से भी सम्मानित किया। मैडल पर यह शब्द अंकित थेः ‘यह वो इंसान है जिसने एशिया के बारे में हमारे ज्ञान को बेहद समृद्ध किया। उस समय कोई अन्य व्यक्ति यह काम नहीं कर सका।’ पैरिस स्थित सोसायटी ऑफ ज्योग्रफर्स ने भी नैन सिंह को एक घड़ी भेंट की। जून 27, 2004 को भारत सरकार ने ‘ग्रेट ट्रिगनोमैट्रिकल सर्वे’ में नैन सिंह के अहम रोल के उपलक्ष में एक डाक टिकट जारी किया।
नैन सिंह को काफी बूढ़ी उम्र में ही तमाम सम्मानों से अलंकृत किया गया। आखिर क्यों उसने मात्र बीस रुपए माहवाी पर दुर्गम पहाड़ी इलाकों में 16,000 मील की कठिन यात्रा की? शायद उसने जो कुछ भी किया, ठीक ही किया। नैन सिंह ने जो करके दिखाया उसे कभी कोई गोरा नहीं कर पाया!
(अनुमति से साभार प्रकाशित)
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