प्रसिद्ध संवृतशास्त्री, एडमंड हुस्सर्ल, की यह मान्यता है कि हमारी चेतना अनिवार्यतः विषयोन्मुख होती है. लेकिन जिनकी ओर वह अभिप्रेरित है, वे व...
प्रसिद्ध संवृतशास्त्री, एडमंड हुस्सर्ल, की यह मान्यता है कि हमारी चेतना अनिवार्यतः विषयोन्मुख होती है. लेकिन जिनकी ओर वह अभिप्रेरित है, वे वस्तुएं ज़रूरी नहीं देश-काल में स्थित वस्तुएं ही हों. सच तो यह है कि ये वस्तुएं हमारी चेतना का विषय हो भी नहीं सकतीं. इनका स्वभाव चेतना के ठीक विपरीत है. हम उन्हें चेतना का विषय केवल इसलिए मानते हैं कि हम अपनी इंद्रियानुभव वाली पूर्वमान्यता से स्वतंत्र नहीं हो पाते. इस पूर्वमान्यता के अनुसार जो भी है वह देश-काल में स्थित है और हमारे इंद्रियानुभव द्वारा हमें प्राप्त है. यदि हम अपनी इस पूर्वमान्यता से स्वतंत्र होकर वस्तुओं को देखें तो पाएंगे कि वस्तुएं नहीं बल्कि वस्तुओं का सारतत्व, उनका अपना आंतरिक स्वभाव, उनकी वह विशेषता जो उन्हें वैसा बनाती है कि जैसी वे हैं - चेतना का विषय होता है. इनका स्वभाव चेतना के स्वभाव से –आत्मा से- अलग नहीं है. हमारी चेतना इन्हीं सार-तत्वों का –संवृतियों का- घर है. शायद इसीलिए हाइडागर ने एक बार कहा था, ‘स्रोत ही गंतव्य’ है.
अमृता भारती भी ठीक संवृतशास्त्रियों की तरह ही मनुष्य को, समाज और दुनिया को और सम्बंधों को, वहीं देखना चाहती हैं जहां उन्हें होना चाहिए. वे अपनी काव्य- रचनाओं में ‘परभाव के अंधेरों से अलग’ वस्तुओं की उनकी मूल या मौलिक प्रकृति के अंतरगत, उनकी अपनी ही रोशनी में देखना जानती हैं,-अपने पूरे वैशिष्ट के साथ.
अमृता जी की दृष्टि अंदर की तरफ है. अतः जब वे स्वयं अपने को –मैं- को देखती हैं तो भी वे उसे अपनी मूल या मौलिक प्रकृति के अंदर ही देखती हैं. वे वाह्य जगत को बहुत कम देख पाती हैं. या तो उसे वे तब देखती हैं जब वह उनके अंदर के निहितार्थ को पहचानने में उनकी सहायता करता है अथवा उनके ‘मैं’ को प्रतिभाषित करता है.
बेशक वाह्य जगत उनके लिए अनजाना नहीं है और न ही उसके प्रति संवेदनशीलता का उनमें अभाव है. वस्तुतः उनकी मुख्य अभिरुचि उस प्रयोजन को पकड़ पाने में है जिसकी ओर सारा जगत, जिसमें वे स्वयं भी सम्मिलित हैं, अग्रसर है/होना चाहिए. यह प्रयोजन क्या है, उसका निश्चित स्वरूप क्या है- यह तो वे नहीं जानतीं, लेकिन वे इतना ज़रूर महसूस करती हैं कि उनके अंदर ही वह उपस्थित है. अपने आंतरिक जगत में उसकी विद्यमत्ता के कारण वह निश्चित ही आत्मिक है और इसी लिए उनके समस्त काव्य का अभिमुखीकरण अध्यात्म की ओर है. यही ‘वह’ है जिसकी तलाश उन्हें अभीष्ट है. ‘तुम’ में भी वे इसी को देखना चाहिती हैं. आत्मा का सम्प्रत्यय उनके काव्य में मम और ममेतर के अद्वैत में इतना उदार हो गया है कि उसमें अन्य या other को स्थान ही नहीं है. कोई पराया नहीं है. सभी अपने हैं. अपने ही आत्म विस्तार में समाहित हैं. मुझमें, तुममे, हममें
सूत-दर-सूत खिसकती हुई / चलती रहती है
विकास की यह यात्रा / बहुत देर तक
(या, अत तक)...पर उद्देश्य,
वह तो कभी परिभाषित नहीं होता यात्रा के दौरान
या पूर्ण परिभाष्य नहीं होता
सिर्फ एक दिशा बोध देता है / चलते हुए
और हम अनयत्र नहीं हो पाते.!
(सन्नाटे से दूर तक. पृ.21, इस आलेख में सभी उद्धरण इसी पुस्तक से लिए गए हैं, अतः केवल पृ. संख्या का ही उल्लेख किया गया है)
पर भाव के अंधेरों से अलग अमृताभारती अपनी कविताओं में स्व की तलाश प्रायः दो विरोधी पदार्थों को आमने-सामने रखकर करती हैं जिनमें एक वह प्रयोजन होता है जिसकी उपलब्धि अभीष्ट है और दूसरा वह अवरोध है जो लक्ष्य की प्राप्ति में बाधा बनता है. पर-भाव और स्व-भाव भी ऐसे ही दो विरोधी सम्प्रत्यय हैं. स्व-भाव की तलाश में पर-भाव बाधक है- शरीर मृत्यु से बंधा है, मन अज्ञान से और प्राण दुःख से बंधा है. (पृ.87) इसी प्रकार अन्य विरोधी द्वंद्व भी हैं,- प्रकाश-अंधकार, श्वेत-श्याम, अंदर-बाहर, दिगम्बरता-वस्त्रता, अनन्यता-अन्यता, शाश्वत-क्षणिक, आदि. ऐसा ही एक द्वंद्व/द्वैत भूत-भविष्य भी है.
विगत को बेशक पुनर्जीवित नहीं किया जा सकता. लेकिन मनुष्य का यह विगत, यह भूत, उसके आत्म विकास/विस्तार में कितना बाधक हो सकता है, इसका अंदाज़ मुश्किल है. हम अपने अतीत को कितना ही भुलाने की कोशिश क्यों न करें –मुर्दा ज़मींदोज़ ही क्यों न कर दें- वह उखड़ आता है या प्रायः उखाड़ दिया जाता है. हम जानते हैं कि मुर्दा अब उग नहीं सकता, लेकिन लोग अपने कटाक्षों से –अपनी लहलहाती हंसी से, उसे हवा और पानी देते रहते हैं. –
वे मुर्दा उखाड़ लाए थे / और कफन हटाकर
बात कर रहे थे / उसकी गुलाबी नसों की
मुर्दा अब उग नहीं सकता था
पर वे उसे दे रहे थे हवा और पानी...
अपनी लहलहाती हंसी- (पृ. 55)
अमृता भारती के लिए विगत को बार-बार स्मरण करना ‘धरती में समा जाने की शर्म’ तो है ही किंतु ‘मिट्टी के साथ एक हो जाने की गरिमा भी’ इसमें निहित है. भूत को इस प्रकार हम सृजन के परिप्रेक्ष्य में स्वीकार कर सकें तो भूत और भविष्य का विरोधी स्वर स्वतः समाप्त हो जाता है. यही है ‘विरुद्धों का सामंजस्य.
अमृता भारती द्वैतों के इस समन्वय की आकांक्षी हैं. द्वैत के दो विरोधी क्षण अपने तीसरे क्षण में सामंजस्य स्थापित कर एक नया सृजन करते हैं. अमृता जी बार-बार इस तीसरे क्षण की हमें याद दिलाती हैं –कभी यह तीसरा क्षण तीसरा-समय हो जाता है तो कभी तीसरा-घर. कभी वे तीसरे-आदमी में इसकी पहचान करती हैं. एक औरत है जो सिर्फ शरीर है (भले ही उसमें गर्भाशय भी क्यों न हो), एक औरत है जो सिर्फ मन है, हृदय है - लेकिन दोनों ही ये औरतें वास्तविक सृजन नहीं कर पातीं. इसके लिए उन्हें एक तीसरे (आध्यात्मिक / सृजनशील) क्षण की ज़रूरत होती है. एक तीसरे आदमी की औरत होने की ज़रूरत है. अपनी कविता, ‘एक असंदर्भ’, में अमृता भारती तीसरे आदमी के मिस उस द्वंव्दात्मक प्रक्रिया की ही बात करती हैं जो दैहिक-आध्यात्मिक क्षणों में सम्पन्न होती है.
तीसरा घर, कविता भी इसी द्वंद्वात्मक-प्रक्रिया से गुज़र कर अपना अभीष्ट प्राप्त करती है. पहला वह घर है जहां पूरी तरह परतंत्रता है, जहां व्यक्ति अपनी सहज इच्छाएं तक व्यक्त नहीं कर पाता. यहां ऊंची दीवाल है- कहीं कोई ऐसा आला भी नहीं कि एक फूल भी रख सकें. दूसरे घर में इच्छाओं को बस व्यक्त कर सकने का अवकाश भर है, इससे अधिक और कुछ नहीं. लेकिन तीसरा-घर वह पूर्ण स्वतंत्रता का क्षण है जहां दीवारें हैं न द्वार. सब जगह, अंदर और बाहर, स्वायत्तता है –यह मेरा तीसरा घर है!(पृ. 96)
तीसरा समय, कविता भी (पृ.53) इसी प्रकार तीन ऐसे क्षणों की बात करती है जिसमें पहले दो विरोधी क्षण तीसरे क्षण में एक रचनात्मक अवकाश ग्रहण करते हैं. एक समय है जो व्यक्ति को बांधता है उसकी आयु से –उम्र जो परछाईं की तरह बढ रही है मृत्यु की ओर. समय का दूसरा क्षण व्यक्तिनिष्ठ न होकर सर्वकालिक और वस्तुनिष्ठ है जो मुझे लांघ जाता है. लेकिन तीसरा समय –वह मेरा होगा. न अंदर न बाहर, न व्यक्तिनिष्ठ न वस्तुनिष्ठ. वह आत्मिक समय सृजन का क्षण होगा जिसे मैं
अपना संदर्भ दूंगी / अपना वास्तविक अर्थ
अपने सपने से जुड़ा हुआ...
अपने अंदर / चाहे जब गतिमय कर दूंगी
वह मेरा अपना शिशु होगा
मेरा अपना सृजन
(पृ. 53-54)
अमृता भारती के आत्म-विस्तार की यह यात्रा बहुस्तरीय यात्रा है जिसमें जहां एक ओर हीगल की द्वंद्वात्मक प्रक्रिया अपना रूप ग्रहण करती है वहीं अरविंद का विकास क्रम भी कि जिसमें प्रतिविकास की भी अपनी भूमिका है, अरविंद के दर्शन में विकास ध्रुव दिशा से ऊर्ध्व की ओर केवल इसलिए सम्भव हो पाता है क्योंकि नीचे के धरातल को ऊपर से प्रकाश की किरण मिलती है जो उसे ऊर्ध्वगामी विकास के लिए एक नई परिवर्तित ज़मीन पर उठने के लिए प्रेरित करती है.-
मैं सोच रही थी / वह नित्योदित नवीनता
एक क्षण के लिए मिला वह अनुभव
मुक्ति या आत्म-साक्षात्कार का
क्या एक कौंध ही नहीं थी
नई और परिवर्तित ज़मीन पर उतरने के लिए मिली
रोशनी की एक दरार (पृ.17-18)
अमृता भारती मूलतः एक कवियित्री हैं- अर्थात, एक कवि भी और एक स्त्री भी. ये दोनों ही स्थितियां सृजनकामी स्थितियां हैं और ऐसे में वे उस अवकाश की दरकार करती हैं जो पूर्णतः स्वायत्त हो –सभी बंधनों से मुक्त, आत्म-निर्धारित हो. यही कारण है कि उनकी रचनाओं में उनकी अपनी की एक स्वायत्त दुनिया है. इसमें प्रवेश करने के बाद यह अहसास होता है कि तमाम परतंत्रताओं के बीच भी मनुष्य अपनी स्वाधीनता बनाए रख सकता है. मनुष्य निःसंदेह अपने इतिहास और अपने घर (पढें, अपनी काया और कामनाओं) से बंधा है. लेकिन यदि वह चाहे तो इन बंधनों से पलायन किए बिना इन बाधाओं को पार कर सकता है. वह एक ऐसी दुनिया में पदार्पण कर सकता है जहां सृजन के लिए पूर्ण अवकाश हो. अमृता भारती अपनी कलात्मक सृजनशीलता और आध्यात्मिकता में अंतर नहीं करतीं. बल्कि कहना चाहिए, अपनी आध्यात्मिक स्वतंत्रता को कलात्मक सृजनशीलता प्रदान करती हैं. इस सृजनशीलता में जो भी बाधक तत्व हैं उन्हें वे अपनी रचनात्मकता में ढालकर, पिरोकर सृजन का हिस्सा बना देती हैं. यही कारण है कि उनकी अनेक कविताओं में हमें एक अयथार्थवादी तेवर देखने को मिलता है. यह तेवर उनकी कविताओं में एक अनोखा और बेतुका सा स्वप्न-संसार आविष्कृत कर देता है. फिर भी यह एक सर्जनात्मक भाव-बोध को जन्म दिए बिना नहीं रहता. समय का अगला चरण, शीर्षक कविता में अनेक सांस्कृतिक प्रतीकों से बुना हुआ एक मिथक है जिसमें बियावान है, भटके हुए पथ का खोयापन है, दैत्य का घर है, विस्मरण का कोहरा है, समय का भूत है और विशाल शव-वस्त्र है –
मुझे मिला था / बियावन / पेड़ों का अंधा सिलसिला
एक दूसरे पर लदा हुआ / पथ का खोखलापन
और एक बड़े कोटर की तरह / लटका यह घोंसला
जो पक्षी का नहीं / परी कथा के दैत्य का सा
घर लगता है... (पृ.47)
ऐसी अतियथार्थवादी कल्पनाओं में कुछभी तार्किक, देश-काल बद्ध या सामान्य नहीं रहता-
सरसों के खेत में भाग रहा वह पहाड़
पहले ऊंट / फिर सियार
फिर एक थोथा विचार-मात्र रह गया (पृ. 30)
आखिर क्या है यह थोथा विचार ! यही न कि झूठ कितना ही पहाड़ सा, दैत्य सा क्यों न लगे, वह झूठ ही है. यदि हम झूठ को बाधाओं के रूप में देखना छोड़ दें और इस प्रकार अज्ञान से मुक्ति पा लें तो बेशक हमारी ज्ञान की तलवार उन सबको जो आवश्यक नहीं है और जो मेरा नहीं है, काटती चली जाएगी. निर्मल वर्मा का कहना बिल्कुल सही लगता है कि आध्यात्मिक-सर्रियलिज़्म (!) जैसी यदि कोई चीज़ है तो ये दो शब्द अमृता भारती के काव्य-संसार को सर्वाधिक सशक्त रूप से अभिव्यक्त करते हैं. इन कविताओं में जहां एक ओर ऐंद्रिक मांसलता है, वहीं दूसरी ओर अस्तित्वगत विकलता का भी अद्भुत मिश्रण मिलता है.
अमृता जी का अध्यात्म कोई कूटस्थ दर्शन नहीं है. यदि हम कैलाश वाजपेयी का मुहावरा इस्तेमाल करें तो कहा जा सकता है कि वह तत्वाश्रयी-मनोविज्ञान अधिक है. यह सारी मनोवैज्ञानिक ग्रंथियों को अतीत के अंधकार (अचेतन) से निकाल कर उन्हें उद्घाटित करने का एक उपक्रम है. अपने एकांत में, अपने घर के किसी कोने में ये त्रासद मानसिक ग्रंथियां पवित्रीकरण की प्रक्रिया से गुज़र कर धीरे-धीरे खुलने लगती हैं –
घर के एक कोने में....(जब)
मैं गठरियां खोलने बैठ जाती / बीता हुआ कल
एक गांठ की तरह लग जाता था
और कपासियां / खुलने नहीं देती थीं
अंधेरे का यह ढेर / पर यातना की यह शलाक
पीनते हुए / कातते हुए / मैंने देखा था
गुजल्क शिराएं तंतु की तरह फैलती चली गईं थीं
और हर मैला कण छिटक कर अलग हो गया था
गली खुल रही थी...
बर्फीली ऊंचाइयों पर / धूप की तरह ऊपर जाता समय
पवित्रीकरण की प्रक्रिया को जानता था (प. ५०-५२)
अमृता भारती के काव्य में हमें जहां उनकी मौलिक प्रतिभा की झलक मिलती है, वहीं उनकी अध्ययनशीलता का आभास भी होता है. कहीं संवृतशास्त्र का स्पर्श तो कहीं हीगल का सोच, कहीं अद्वैत का ज्ञान-योग तो कहीं अरविंद का विकास सिद्धांत, कहीं सुर्रियलिज़्म का अटपटापन तो कहीं फ्रायड की अचेतन की धारणा आदि, सभी महत्व- पूर्ण विचार उनके काव्य में अपनी उपस्थिति दर्शाते हैं. शायद यही कारण है कि उनकी कविताएं सामान्य पाठक की समझ से कभी-कभी दूर हो जाती हैं. किंतु इससे उनका काव्यात्मक गुण बेशक प्रभावित नहीं होता.
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