रचना और रचनाकार (२) भगवतीचरण वर्मा का कवि-व्यक्तित्व – विरुद्धों का स...
रचना और रचनाकार
(२)
भगवतीचरण वर्मा का कवि-व्यक्तित्व – विरुद्धों का सामंजस्य
डा. सुरेन्द्र वर्मा
हम दीवानों की क्या हस्ती हैं आज यहां कल वहां चले,
मस्ती का आलम साथ चला, हम धूल उड़ाते जहां चले .
भगवतीचरण वर्मा की एक प्रसिद्ध कविता की यह प्रथम पंक्तियाँ हैं और इस पूरी कविता में कवि का फक्कड़पन, मस्ती और आत्म-विश्वास जैसे छलका पड़ता है. पर कवि का अपना जीवन भयानक संघर्षों का जीवन रहा है. हर क़दम पर उन्हें लड़ना पड़ा और इस लड़ने के बाद, जैसा वे कहते हैं, उन्हें पराजय ही मिली. विजयी होना जैसे उन्होंने जाना ही नहीं. लेकिन एक आश्चर्यजनक बात यह रही कि पराजय के बाद उन्हें हमेशा एक नया बल मिला –फिर से लड़ने के लिए. और यह जुझारूपन उनके कवि-व्यक्तित्व का अंग बन गया –
दोस्त एक भी नहीं यहां पर, सौ-सौ दुश्मन जान के
इस दुनिया में बड़ा कठिन है, चलना सीना तान के .
लेकिन बावजूद कठिनाइयों के वे हमेशा सीना तान कर चले. भले ही उनके व्यक्तित्व का यह बहिरंग ही क्यों न हो, लेकिन उनकी अधिकांश कविताओं में जीवंतता का स्वर है .-
फिर झमका रंग गुलाल सुमुखि, फिर गमका फागुन राग
फिर चमका मनसिज के नयनों पे, रवि का नव अनुराग.
वस्तुतः भगवतीचरण वर्मा के कवि-व्यक्तित्व में हम एक प्रकार का द्वन्द्व स्पष्ट देख सकते हैं. यह द्वन्द्व उनके बहिरंग और अंतरंग का है, बुद्धि और भावना का है, प्रकृति और दृष्टि का है, शिल्प और विषय का है.
प्रारम्भिक कविताएं –छायावाद
भगवती बाबू ने अपने साहित्यिक जीवन का प्रारम्भ एक कवि के रूप में ही किया था. कविता करना उनकी एक स्वाभाविक या नैसर्गिक प्रवृत्ति थी जिसका मोह वे जीवन में अंत तक नहीं छोड़ पाए. उनकी प्रथम कविता सन् 1917 में उनके स्कूल की एक हस्तलिखित पत्रिका में प्रकाशित हुई थी. उस समय वह आठवीं कक्षा में पड़ते थे और उनकी अवस्था 14 वर्ष की थी. वह काफी समय तक सिर्फ कविताएं लिखते रहे लेकिन आर्थिक संघर्ष और विषम परिस्थितियों के कारण उनका रुझान उपन्यास और कहानियां लिखने की तरफ हुआ और धीरे-धीरे वह उपन्यासकार के रूप में स्थापित हो गए. वह कवि हैं या उपन्यासकार, यह प्रश्न अक्सर भगवती बाबू के अंदर उठता था और प्रायः वह स्वयं को उपन्यासकार का फतवा भी देते थे. लेकिन गम्भीरता पूर्वक विचार करने के उपरांत उन्हें लगता था कि वस्तुतः वह कवि भी हैं और उपन्यासकार भी. उन्होंने अपेक्षाकृत कविताएँ कम लिखीं लेकिन इतनी तो लिखी हीं कि वे उन्हें एक सफल कवि के रूप में प्रतिष्ठित कर सकें. इसमें संदेह नहीं कि रस लेने वाले पाठकों का एक बड़ा वर्ग आज भी उनको एक महत्वपूर्ण कवि के रूप में देखता है. स्वयं भगवतीबाबू भी कविताओं की दुनिया में, जितने भी प्रसिद्ध और श्रेष्ठ कवि हुए हैं, उनकी कविताओं की तुलना में अपने को कम नहीं समझते थे. लेकिन वे सहज भाव से तुलसीदास को उद्धरित करते हुए यह भी कहते हैं कि – निज कवित्त केहि लाग न नीका.
भगवती बाबू की प्रारम्भिक रचनाएं देश-प्रेम की भावनाओं से ओतप्रोत थीं –
ऐ अमरो की जननी तुझको शत-शत बार प्रणाम
मातृ भू शत-शत बार प्रणाम.
काव्य जगत में पदार्पण उन्होंने द्विवेदी-युगीन कवियों के बीच किया. किंतु अपने बहुमुखी साहित्यिक व्यक्तित्व के कारण भगवतीबाबू द्विवेदी-युगीन काव्य परम्पराओं से अधिक दिनों तक जुड़े नहीं रह सके और उनकी कविता का स्वर अनायास छयावादी हो गया –
मैं कब से ढूंढ रहा हूं अपने प्रकाश की रेखा
तम के तट पर अंकित है निःसीम नियति का लेखा
देने वाले को अबतक मै देख नहीं पाया हूं...
वस्तुतः उन्होंने जब कविता लिखनी आरम्भ की थी तब छायावाद की लहर उठना आरम्भ हो गई थी. इस नई लहर में वह बह चले और छायावाद के उठते हुए प्रमुख कवियों में उनकी गणना होने लगी. छायावाद के प्रवर्तकों में पंत, प्रसाद और निराला की वृहद त्रयी स्थापित हो चली थी और जैसा कि भगवती बाबू स्वयं कहते हैं किसी ने यह भी परिकल्पना कर डाली थी कि महादेवी वर्मा और रामकुमार वर्मा के साथ छयावाद की इस लगु-त्रयी में एक और वर्मा भगवतीचरण का नाम जुड़ना आरम्भ हो गया था. ज़ाहिर है, यह परिकल्पना सही साबित नहीं हुई. महादेवी वर्मा को लघु-त्रयी में रखना जितना ग़लत था उतना ही ग़लत भगवती बाबू को महादेवी वर्मा और रामकुमार वर्मा के समकक्ष घोषित करना था. भगवतीचरण वर्मा छायावाद का साथ बहुत देर तक नहीं दे सके और छयावादी दृष्टिकोण से बहुत जल्द ही उनका मोह भंग हो गया. छायावादी कवि स्वभावतः रहस्यवाद की ओर उन्मुख हुए बिना नहीं रहता पर भगवतीचरण वर्मा रहस्यवाद की ओर जाने के स्थान पर उससे छिटककर दूर आ पड़े और प्रगतिवाद-वस्तुवाद-भौतिकवाद की ओर मुड़े. प्रकृतिसे वे वस्तुवादी थे, उनकी अध्यात्म की ओर कोई रुचि नहीं थी. उसे वे अपनी पकड़ के बाहर की चीज़ मानते थे. लोग जिसे रहस्यवाद कहते हैं उससे वे बहुत दूर थे. और इसी लौकिक दृष्टि ने उन्हें अनुशासित और अनुप्राणित किया,. भगवती बाबू की कुछ कविताओं में प्रकृतिवादी दृष्टिकोण के अनुरूप भौतिक जगत का बहुत ही सजीव समाजिक चित्रण मिलता है, इस संदर्भ में उनकी कविता “भैंसा गाड़ी” उल्लेखनीय है –
उस ओर क्षितिज के कुछ आगे कुछ पांच कोस की दूरी पर
भू की छाती पर फोड़ों से हैं उठे हुए कुछ कच्चे घर
पशु बनकर पिस रहे जहाँ, नारियां जन रहीं हैं ग़ुलाम
पैदा होना फिर मर जाना, बस यह लोगों का एक काम
धन की दानवता से पीड़ित कुछ फटा हुआ कुछ कर्कश स्वर
चरमर चरमर चूं चरर मरर जा रही चली भैंसा गाड़ी.
<भावना और बुद्धि, शिल्प और विषय>
भगवतीचरण वर्मा के कवि व्यक्तित्व में भावना और बुद्धि का द्वन्द्व सदैव चलता रहा पर भावना हमेशा बुद्धि पर हावी रही. वे मानते थे कि हमारी बुद्धि भावना से ही जन्मी है और उसे भावना का ही एक अंग माना जा सकता है. पर विकास के क्रम में बुद्धि भावना से पृथक होकर एक स्वतंत्र संज्ञा बन गई है. भगवती बाबू का अपना समस्त अस्तित्व भावनामय था. वे सदैव भावना से ही अनुशासित और अनुप्राणित रहे.
उनके अनुसार जितनी कलाएं हैं वे सभी भावनात्मक होती हैं. जो बौद्धिक है वह कला क्षेत्र में न होकर विज्ञान के क्षेत्र में होता है. कला अपनी अभिव्यक्ति के लिए कोई न कोई माध्यम ढूंढ लेती है और यह एक रोचक तथ्य है कि साहित्य और कविता को छोड़ कर कला का कोई अन्य माध्यम शब्द द्वारा संचालित नहीं है. जितनी अन्य कलाएं हैं वे निःशब्द हैं. मूर्तिकला में शब्द नहीं है, संगीत में शब्द नहीं है- कम से कम वह उसका आवश्यक अंग नहीं है. लेकिन सभी कलाओं का एक मूलाधार है और वह सबमें समान रूप से उपलब्ध है- आखिर आधार जो ठहरा- और यह है, गति. लय गति का ही एक रूप है. लय और गति ही जीवन है, यदि ऐसा कहा जाए तो शायद अतिशयोक्ति नहीं होगी. जिसे हम जीवन की प्रेरणा कहते हैं. वह हमें भावना से प्राप्त होती है, बुद्धि से नहीं. प्रेरणा स्वयं में गति है. कोरे शब्द आवश्यक नहीं हमारी भावनाओं को अभिव्यक्त कर सकें. हम आपके दुःख में दुःखी हैं, - यह आसानी से कहा जा सकता है, लेकिन इन शब्दों में दुःख की अभिव्यक्ति हो ज़रूरी नहीं. दुःख का अनुमान, कहने वाले की शारीरिक गति और भंगिमा से होता है, शब्दों से नहीं. कविता में जब हम भावाभिव्यक्ति करते हैं तो बेशक शब्दों से ही करते हैं, लेकिन शब्दों में भावाभिव्यक्ति तभी हो सकती है जब शब्द जीवंत हों, उनमें गीत और लय हो.
भगवतीचरण वर्मा कविता में लय और गति को बहुत महत्वपूर्ण मानते हैं. कविता में छंद-प्रयोग उसे लय प्रदान करता है, ठीक ऐसे ही जैसे संगीत की लय ताल में निबद्ध होती है. भगवती बाबू की सभी कविताएँ इसलिए छंद-बद्ध हैं और तभी उनमें लय और गति है. यहां यह दृष्टव्य है कि समकालीन अतुकांत कविता भी भले ही छंद-बद्ध न हो पर लय विहीन नहीं होती. कविता में किसी न किसी रूप में लय की अनिवार्यता को सभी ने स्वीकार किया है. भगवतीचरण की कविताओं में लय के लिए सिर्फ छंद का ही प्रयोग नहीं किया गया है बल्कि शब्द-विन्यास भी कुछ इस प्रकार गढे गए हैं कि वे कविता को अतिरिक्त गति प्रदान करते हैं. इस संदर्भ में हम, भैसा-गाड़ी, शीर्षक कविता का सटीक हवाला दे सकते हैं.
वस्तुतः गति और लय के बिना हम कविता की कल्पना ही नहीं कर सकते कविता का शिल्पगत सौंदर्य उसकी गति और लय में ही निहित है. शिल्पहीन कला मृत शरीर की भांति है. उसमें प्राण प्रतिष्ठा नहीं की जा सकती. शिल्प कला का आवश्यक तत्व है. लेकिन शिल्प कला का केवल शरीर मात्र है. विषय-वस्तु द्वारा जो उदात्त भावना का शिल्प पर आरोहण है, कला का प्राण तो वही है. कविता के संदर्भ में भी यही बात सत्य है. कविता केवल शिल्प नहीं है. शिल्प निश्चित रूप से आवश्यक है, लेकिन कविता का भाव ही कविता को कविता की गरिमा प्रदान करता है. इस भाव में भावना और विचार (या, बुद्धि) का समन्वय होता है. जिसे हम भाव कहते हैं उसका आधार बेशक भावना ही है, लेकिन भाव की भावना से पृथक अपनी निजी सत्ता है. भावना और बुद्धि के योग से भाव का जन्म होता है और इसलिए यदि हम भाव को भावना का बौद्धिक रूप कहें तो अनुचित न होगा. जहाँ भावना विशुद्ध वैयक्तिक उपकरण है, वहीं भाव बौद्धिक होने के कारण सामाजिक उपकरण बन गया है. भावना हमारी व्यक्तिगत चीज़ है, बुद्धि के क्षेत्र के बाहर. शुद्ध बौद्धिक प्रक्रिया से हम भावना को व्यक्त नहीं कर सकते, बुद्धि के द्वारा हम भावना को जो रूप देते है, यह भाव कहलाता है.
भावना का रूप बदलता रहता है. कभी हर्ष कभी विषाद, कभी आशा और कभी निराशा. केवल ऐसी भावनाओं की शाब्दिक अभिव्यक्ति सही अर्थ में कविता नहीं हो सकती. यह तो क्षणिक भावनाओं के साथ केवल भटकन भर होगी. भावना के साथ जब तक कोई विशेष दार्शनिक दृष्टि या वैचारिक नज़रिया न हो, भावना निरर्थक है. कविता में भावना के अतिरिक्त एक दार्शनिक दृष्टिकोण के भी भगवतीचरण वर्मा क़ायल हैं. उनका दृष्टिकोण, एक शब्द में कहें तो, नियतिवादी दृष्टिकोण है.
<प्रवृत्ति और दृष्टि>
भगवतीचरण वर्मा अपनी नियतिवादी दृष्टि को दूसरों पर निःसंदेह आरोपित नहीं करना चाहते. इसकी, जैसा कि वे कहते हैं, न उनमें क्षमता है और न ही आग्रह. किंतु यह दृष्टि-कोण उनके लिए सत्य है जिसे वे झुठलाना भी नहीं चाहते.
नियतिवाद वह दार्शनिक सिद्धांत है, जो स्वतंत्र संकल्प के विरुद्ध है. इसके अनुसार हम कोई भी कार्य अपनी इच्छानुसार नहीं करते. वस्तुतः हमारा संकल्प, या कोई इच्छा करना, भी पहले से नियत होता है. सभी घटनाएँ या संकल्प किन्हीं कारणों या अचेतन प्रेरकों द्वारा घटित होती हैं. नियतिवाद इस प्रकार भौतिकवाद का प्रतिफल है. सभी भौतिक घटनाओं के घटने के पीछे कोई न कोई कारण होता है. वे अपने आप से घटित नहीं हो जातीं. पुनः, संसार में ऐसा कुछ भी नहीं है जो भौतिक न हो. अतः, सभी कुछ नियत है. कोई भी व्यक्ति जिसने जन्म लिया है, अपना प्रारब्ध लेकर आया है. यह अपनी नियति को नकार नहीं सकता. व्यक्ति को भले ही यह लगता हो कि यह अपनी ज़िंदगी को खुद ही दिशा दे रहा है, या कि उसका कर्म उसकी इच्छानुसार है, लेकिन वस्तुतः उसका समस्त अस्तित्व उसकी नियति या प्रारब्ध द्वारा ही नियंत्रित होता है. विधि के विधान को कोई पलट नहीं सकता. जो प्रारब्ध में है उसका लिखा कोई मिटा नहीं सकता. प्रारब्ध या भाग्य या नियति की यह अधीनता ही नियतिवाद है. नियतिवादिता की यह दृष्टि स्वतंत्र संकल्प पर तो कुठाराघात है ही, यह सामान्यतः मनुष्य को निराश और ह्तोत्साहित करने वाली दृष्टि भी है. इस प्रकार अनास्था और अविश्वास नियतिवादिता का एक अनिवार्य पहलू-सा हो जाता है.
भगवतीचरण वर्मा का नियतिवाद में अटूट विश्वास रहा है. नियतिवादिता उनकी जीवन-दृष्टि है जिसे उन्होंने अपने जीवनानुभवों से अर्जित किया है. नियति का यह चक्र उन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान पर जल्दी-जल्दी जाने के लिए मजबूर करता है- कभी कानपुर तो कभी इलाहाबाद, कभी कलकत्ता तो कभी बम्बई, तो कभी लखनऊ, और इस नियति-चक्र ने उनकी साहित्यिक दिशा को भी बदला है –कवि से वे उपन्यासकार हो गए. अपनी नियति को वे स्वीकार करते हुए लिखते है -
हम तो रमते-राम सदा के, दोस्त हमारा गाँव न पूछो
एक यंत्र सा जो कि नियति के हाथों से संचालित होता
कुछ ऐसा अस्तित्व हमारा, दोस्त हमारा काम न पूछो
अथवा,
उल्लास और उच्छ्वास तुम्हारे ही अवयव
तुमने मरीचिका और तृषा का सृजन किया
अभिशाप बनाकर तुमने मेरी सत्ता को
मुझको पग-पग पर मिटने का वरदान दिया.
इस बनने-मिटने, टूटने और क़ायम रहने में अपना कोई वश नहीं है. इस सबमें कोई दूसरा विधान काम कर रहा है. यह दूसरा विधान क्या है, इसे भगवती बाबू नहीं जानते, लेकिन इतना उन्हें अवश्य पता है कि इसी के इशारे पर समस्त सृष्टि संचरित होती है और मनुष्य भी इसी नियति के चक्र में फंसा हुआ है.
नियतिवादी दृष्टि से सामान्यतः अनास्था और अविश्वास फलित होता है, लेकिन यह एक विरोधाभास ही है कि भगवतीचरण वर्मा के जीवन से ये अभद्र भावनाएं दूर रहीं और आस्था और विश्वास सदैव उनके जीवन का अविलग भाग रहा. यहां स्पष्टतः उनकी प्रकृति और दृष्टि में विरोध झलकता है. उनकी प्रवृत्ति में फक्कड़पन, मस्ती, जीवंतता और प्राण-शक्ति है. वे आत्मविश्वास से लबरेज़ हैं. स्वाभिमान उनमें कूट-कूट कर भरा है. वे अपनी निजता के प्रति न केवल जागरूक हैं बल्कि उसे हर क़ीमत पर बनाए रखना चाहते हैं. लेकिन उनकी दृष्टि नियतिवादी है. इस विरोधाभास को ठीक से समझ पाना मुश्किल है और यही कारण है कि जहाँ एक ओर हमें उनकी कविताओं मे जीवंतता के दर्शन होते हैं वहीं दूसरी ओर वे उनकी नियतिवादी दृष्टि का कथन भी करती हैं. भगवतीच्ररण वर्मा अपने स्वाभिमान की रक्षा और अपनी निजता की पहचान आवश्यक मानते हैं. वे परामर्श देते हैं कि –
देखो, सोचो, समझो, सुनो, गुनो और जानो
इसको, उसको सम्भव हो तो निज को पहचानो
जीवन की धारा में अपने को बहने दो
तुम जो कुछ हो वही रहोगे, मेरी मानो.
भगवतीचरण वर्मा की नियतिवादी दृष्टि उनके आत्मविश्वास को, जो उनकी प्रवृत्ति का मूल स्वर है, ख़ामोश नहीं कर पाती. बल्कि यह उन्हें एक ओर समर्पण का भाव तो दूसरी ओर समरसता प्रदान करती है. उन्हें नियतिवादी दर्शन में निराशा नहीं दिखती. केवल एक प्रकार का समर्पण से युक्त संतोष मिलता है जिससे कुंठाएं और कटुताएं उनके जीवन पर हावी नहीं हो पातीं. –
तुममें निर्बलता और शक्ति इन हाथों की
मै चला कि चरणों का गुण केवल चलना है
थे दृश्य रचे, दी वही दृष्टि तुमने मुझको
मै क्या जानूं क्या सत्य और क्या छलना है
रच-रच कर करना नष्ट तुम्हारा ही गुण है
तुममें ही तो है कुठा इन सीमाओं की
है निज असफलता और सफजता से प्रेरित
अर्पित है मेरा कार्य,इसे स्वीकार करो.
समर्पण भाव के अतिरिक्त नियतिवादी दृष्टि कवि हृदय में दुःख और सुख में समरसता का भाव भी जगाती है. इससे कवि को अपनी तथाकथित असफलताओं और अज्ञान पर क्लेश नहीं होता. जिसे हम असफलता कहते हैं वह बड़ी सीमित वस्तु है और जिसे हम ज्ञान समझकर बघारते हैं वह बहुत संदिग्ध है. इसलिए जैसे-जैसे समय बीतता गया भगवतीचरण वर्मा सफलता और असफलता के ऊपर उठते गए. वे एक सीमा तक तटस्थ हो गए –
छककर सुख दुःख के घूंटों को, हम एक भाव से पिए चले
हम दीवानो की क्या हस्ती हैं आज यहाँ कल वहाँ चले!
(हिंदुस्तानी त्रेमासिक, अक्टूबर-दिस. 2003)
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