मेरा एक मित्र है -- सुधाकर । बहुत ही संवेदनशील है । वक्र रेखाओं के इस युग में वह एक सीधी रेखा-सा है । हालाँकि उसे जानने वाले बहुत से लोग उस...
मेरा एक मित्र है -- सुधाकर । बहुत ही संवेदनशील है । वक्र रेखाओं के इस युग में वह एक सीधी रेखा-सा है । हालाँकि उसे जानने वाले बहुत से लोग उसे 'हिला हुआ' मानते हैं ।
एक दिन मैं उससे मिलने उसके घर गया तो देखा कि वह कुछ लिख रहा था । मुझे जिज्ञासा हुई । पूछने पर पता चला कि उसे डायरी लिखने का शौक़ है । बातचीत के दौरान उसने स्वयं ही अपनी डायरी मुझे पढ़ने के लिए दे दी । मैंने कहा भी कि क्या उसकी व्यक्तिगत चीज़ का मेरे द्वारा पढ़ा जाना उचित होगा ? पर वह नहीं माना । कहने लगा -- " तुझे नहीं , तेरे भीतर जो मेरा लेखक मित्र है , उसे दे रहा हूँ ।" हालाँकि अपनी डायरी मुझे देते समय उसने यह भी कहा -- " मेरी डायरी पढ़ने के बाद तू भी मुझे 'हिला हुआ' समझेगा । " इस पर मैंने हँसकर कहा -- " वह तू मुझ पर छोड़ दे । "
घर जा कर मैंने उसकी डायरी पढ़ी । उसमें अजीब-सी बातें लिखी थीं । एक बात और थी । कहीं भी तिथियों का कोई ज़िक्र नहीं था । केवल अलग-अलग रंगों के बॉल-पेन के इस्तेमाल से ही पता चलता था कि उसने ये बातें अलग-अलग दिन लिखी होंगी ।
मैं उसकी सहमति से उसकी डायरी के कुछ अंश यहाँ आप पाठकों के सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ ।
( 1 )
कल रात मेरे यहाँ चोर आए । उन्हें लगा , मैं बहुत धनी हूँ । उन्होंने मेरे मन की तलाशी ली और उसे ख़ाली पाया । " यह तो बहुत ग़रीब है । इस बेचारे के पास तो सपने भी नहीं हैं । " उन्होंने एक-दूसरे से कहा और मुझ से सहानुभूति व्यक्त करते हुए वे ख़ाली हाथ लौट गए । ग़रीब आदमी के यहाँ आए चोर भी कितने अभागे होते हैं ।
( 2 )
अब सूरज तो निकलता है पर चारो ओर घुप्प अँधेरा छाया रहता है । दिन की आँत में एक काला फोड़ा उग आया है । दिशाओं में काली आँधियाँ भरी हैं । इस इंसानी जंगल की सड़कों पर नरभक्षी घूम रहे हैं । वे मुस्करा कर आपसे हाथ मिलाते हैं । आप उनकी मुस्कान में छिपे ख़ंजरों और छुरों को नहीं देख पाते हैं । वे आपकी पीठ थपथपा कर आपको रीढ़-हीन बनाते हैं । आपको अपना ' छोटा भाई ' , अपना 'ख़ास यार' बताते हैं । फिर आप उन पर भरोसा करके उनके क़रीब आ जाते हैं । और तब किसी वासंती शाम कुछ ' पेग ' लगा लेने के बाद अपने इंसानी खोलों में से निकल कर वे भेड़िए अपनी औक़ात पर आ जाते हैं । उस दिन आप बहुत पछताते
हैं ।
( 3 )
आज सुबह से मेरी आँखों में से ख़ून गिर रहा है और मुझे दुनिया केवल लाल रंग में रंगी दिखाई दे रही है । ऊपर लाल , सूजी आँखों वाला आकाश है । नीचे ख़ून के रंग में रँगी धरती है । पेड़-पौधे , पशु-पक्षी , बच्चे-बूढ़े -- सब लहुलुहान नज़र आ रहे हैं । इंसानियत की चिता धू-धू कर जल रही है । मन के भीतर तक कड़वा
धुआँ भर गया है । सड़क पर इंसान के भेस में नरभक्षी भेड़िए घूम रहे हैं जिनकी दहकती लाल आँखें देखकर मैं सिहर उठता हूँ । दिशाओं में चीख़ें हैं और सायरन की आवाज़ें हैं । सभी हँसते-खिलखिलाते रंग ग़ुस्सैल लाल रंग में बदल गए हैं । लगता
है , गुजरात से लेकर फ़िलिस्तीन तक , अफ़ग़ानिस्तान से लेकर इराक़ और सीरिया तक जो निर्दोष लोग प्रतिदिन मारे जा रहे हैं , उन सब का ख़ून मेरी आँखों में उतर आया है । मेरे जीवन से बाक़ी सभी रंग चले गए हैं ।
( 4 )
आज मैंने दो पेड़ों को आपस में बातें करते हुए सुना । वे इंसानों को भला-बुरा कह रहे थे । एक पेड़ दूसरे पेड़ से कह रहा था -- " लोग कितने एहसानफ़रामोश
होते हैं । वे हमारी छाया में आराम करते हैं । हमारे ही फल खाते हैं । फिर भी काटकर हमें ही जलाते हैं । "
( 5 )
आजकल मेरे साथ अजीब बातें हो रही हैं । रात में मुझे काटने से पहले
खटमल और मच्छर मुझसे मेरा धर्म पूछने लगे हैं । वे जानना चाहते हैं कि मैं हिंदू हूँ या मुसलमान । हवा मेरे आँगन में बहने से पहले मुझसे मेरी जाति पूछने लगी है । धूप मेरे घर के दालान में उतरने से पहले मुझसे मेरी नस्ल पूछने लगी है । आकाश में घिर आई काली घटा मेरे आँगन में बरसने से पहले मुझसे यह जानना चाहती है कि मैं किस राज्य का हूँ और कौन-सी भाषा/बोली बोलता हूँ । आजकल मैं बहुत परेशान
हूँ । मैं आइने में देखता हूँ तो मेरी छवि मुझे देखकर अपना मुँह मोड़ लेना चाहती है ।
अँधेरा अपने क्रूर हाथों से मेरी आँखें ढँक लेता है । मरी हुई हवा में तनहा मैं बंजर आसमान तले उस उड़न-तश्तरी की प्रतीक्षा करता हूँ जो कभी नहीं आती ।
( 6 )
हैरानी की बात है । लोगों के पास निगाहें हैं पर वे असलियत नहीं देख पा रहे हैं । उनके पास कान हैं पर वे बहरे बने हुए हैं । उनके पास दिमाग़ है पर वे सोचने-समझने में असमर्थ हैं । अपने हाथ-पैरों का इस्तेमाल वे केवल मार-पीट और लूट-खसोट के लिए कर रहे हैं । अपने से आगे वालों को लोग धक्का दे कर , लंघी मार कर गिरा रहे हैं । अपने से ऊपर वालों को लोग घसीट-घसीट कर नीचे उतार रहे हैं । जीवन के इस गला-काट खेल में कोई नियम नहीं हैं । जीतने के लिए सभी ' फ़ाउल '
कर रहे हैं , सभी ' चीटिंग ' कर रहे हैं , पर कहीं कोई अम्पायर नहीं है , कोई रेफ़्री
नहीं है जो बेईमानी और धोखेबाज़ी को रोकने के लिए सीटी बजाए । जो फ़ुटनोट हैं वे शीर्षक बनना चाह रहे हैं , चाहे उनमें इसकी क़ाबलियत है या नहीं । जो बीच के पन्नों के शीर्षक हैं , वे मुख-पृष्ठ पर आना चाह रहे हैं । यहाँ कोई अपनी स्थिति से संतुष्ट नहीं है । चीख़ें फुसफुसाहटों में बदल जाना चाह रही हैं । फुसफुसाहटें चीखें बनना चाह रही हैं । लोग दूसरों के चेहरों में अपनी शक्ल के लिए आइना ढूँढ़ते फिर रहे हैं ।
( 7 )
यदि यही हालत रही तो एक दिन भाषा लोगों को चेतावनी दे देगी कि मेरा दुरुपयोग बंद कर दो नहीं तो मैं तुम सब को छोड़कर चली जाऊँगी । लोग भाषा का इस्तेमाल करके एक-दूसरे को ठग रहे हैं । भाषा के जाल में फँसा कर एक-दूसरे को धोखा दे रहे हैं । शब्दों , भाषा का इस्तेमाल करके एक-दूसरे से धड़ल्ले से झूठ बोल रहे हैं , एक-दूसरे को छल रहे हैं । वे भाषा की आड़ में सच को झूठ , झूठ को सच बना रहे हैं । हमारी इन ओछी हरकतों से तंग आ कर यदि एक दिन भाषा हमसे रूठ गई तो हम क्या करेंगे ?
( 8 )
आज दिन फटे हुए दूध-सा बेकार लग रहा है । चारो ओर से एक भयावह बदबू आ रही है । प्रार्थनाएँ अशक्त हो गई हैं । हवा में सड़ाँध भरी हुई है । दुर्गन्ध की एक मोटी परत जैसे पूरे शहर पर बिछी हुई है । आकाश से भी जैसे दुर्गन्ध की मूसलाधार बारिश हो रही है । हवा में चीज़ों के सड़ने-गलने की तेज़ गंध है । क्या यह दोगलेपन की गंध है ? क्या यह शैतानियत की गंध है ? यह दमघोंटू दुर्गन्ध इतनी सघन है कि दुनिया की बची-खुची पवित्र आत्माएँ छटपटा रही हैं और इसमें डूबकर मरती जा रही हैं । यह दुर्गन्ध मिलावट करने वाले दुकानदारों , लालची डॉक्टरों-इंजीनियरों और मुखौटे लगाए घूम रहे मध्य-वर्ग -- सब में से आ रही है । सारी दुनिया की अगरबत्तियाँ , धूप-बत्तियाँ , इत्र और रूम-फ़्रेश्नर इस दुर्गन्ध को नहीं मिटा पाएँगे , क्योंकि यह हमारे भीतर की दुर्गन्ध है । यह बदनीयती की गंध है । यह मक्कारी और जालसाज़ी की गंध है । यह गंध नहीं , एक पूरी जीवन-शैली है । यह एक ऐसी गंध है जिसे परे धकेलना चाहो तो यह उँगलियों में चिपकती है । जैसे यह गंध नहीं , किसी ज़हरीली मकड़ी का जाला हो । यह एक ऐसी मनहूस, काली गंध है जिसे सूँघना एक नारकीय यातना से गुज़रना है , जिसे सूँघना कई-कई मौतें मरना
है । मैं ताज़ा हवा में साँस लेने के लिए छटपटा रहा हूँ । मेरे फेफड़ों में सड़ रही इंसानियत की यह दुर्गन्ध घुसती चली जा रही है । दुनिया वालो , मुझे थोड़ी-सी ताज़ा हवा दो । या फिर मुझे ज़िंदा दफ़्न कर दो । मैं इस बदबूदार हवा में अब और साँस नहीं लेना चाहता ...
प्रिय पाठको , क्या सुधाकर वाकई 'हिला हुआ' है ? इस का फ़ैसला मैं आप पर छोड़ता हूँ ।
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प्रेषकः सुशांत सुप्रिय
A-5001 ,
गौड़ ग्रीन सिटी ,
वैभव खंड ,
इंदिरापुरम ,
ग़ाज़ियाबाद - 201014
( उ. प्र. )
मो: 8512070086
ई-मेल : sushant1968@gmail.com
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