कहानीः घट्टी वाली माई की पुलिया / सत्यनारायण पटेल

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बहुत पुरानी बात है… और ज्याद बहुत पुरानी भी नहीं। यही बस… राजा-महाराजाओं के वक़्त की बात है। एक राज्य था। उसका राजा जमाने के हिसाब से बड़ा ...

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बहुत पुरानी बात है… और ज्याद बहुत पुरानी भी नहीं। यही बस… राजा-महाराजाओं के वक़्त की बात है। एक राज्य था। उसका राजा जमाने के हिसाब से बड़ा धूर्त था। राज्य में बहुत ग़ैर बराबरी थी। आदमी और आदमी में भेदभाव की बड़ी चौड़ी खाई थी। आज की तुलना में कम, लेकिन थी तो चमचों और चुगलखोरों की चाँदी तब भी ख़ूब। लोग बहुत ज्यादा हैरान-परेशान थे।

उस राजा के राज्य में यूँ तो कई गाँव थे। हर गाँव में कई-कई लोग रहते थे। लेकिन एक गाँव में एक माई रहती थी, जिसे लोग ‘ घट्टी वाली माई ’ के नाम से जानते थे।

हालाँकि उनका नाम ‘ घट्टी वाली माई ’ तो बहुत बाद में पड़ा। शुरू में उनका भी था औरों की तरह एक नाम। लेकिन जब ‘ घट्टी वाली माई ’ नाम पड़ गया। असल नाम किसी को याद ही न रहा। पर नाम ‘ घट्टी वाली माई ’ ही क्यों पड़ा..? कुछ और क्यों नहीं पड़ा..? पड़ने को पड़ सकता था- अमरूद के पेड़ वाली माई। क्योंकि उनके घर के सामने अमरूद का पेड़ था, या खाळ किनारे वाली माई …., क्योंकि उनका घर एक खाळ के क़रीब था, और जब बरसात के दिनों में खाळ में पानी चढ़ता था, तो कई बार पानी उनकी देहली तक और कभी भीतर तक भी चला आता था। घट्टी वाली माई के कई नाम पड़ने की कई वजहें थीं, फिर भी जब नाम पड़ा तो- ‘ घट्टी वाली माई ’ ही पड़ा।

घट्टी वाली माई, कोई जन्म से तो घट्टी वाली माई थी नहीं। न ही पैदा होते ही उसने घट्टी पिसनी शुरू कर दी थी। वह अपने पति कासीराम की ब्याहता और प्रिय पत्नी थी। कासीराम ने कभी उसे नाम से नहीं पुकारा था। क्योंकि मान्यता थी कि पति-पत्नी एक-दूसरे को नाम से पुकारे तो उम्र घटती है। और उन दोनों में लम्बा जीवन साथ में जीने की भरपूर तमन्ना थी। लो.. तमन्ना से याद आया- घट्टी वाली माई से पहले उनका नाम कामना….न..नहीं… मनकामना था।

खाळ के उस पार कुछ कोस दूर एक गाँव में मनकामना का माइका था। जब उन्हें कासीराम ब्याह कर लाये थे, तो घर पहुँचने से पहले मावठा बरस गया था। खाळ कंठारा छेक बहने लगा था। खाळ पार मनकामना के ससुराल में पानी भर गया था। खाळ पार करना किसी के बस की बात नहीं थी। बाढ़ उतरने तक कासीराम, मनकामना और बारात खाळ उस पार के एक गाँव के मन्दिर में रुके रहे थे।

यह कोई पहली बार उन्हीं के साथ नहीं हुआ था। वक़्त-बेवक़्त और भी कई-कई लोगों के साथ हो चुका था। खाळ पर एक पुलिया बन जाये ऎसी कामना दोनों तरफ़ के गाँव वालों के मन में थी। खाळ इधर और उधर के गाँव वालों ने राजा से कई बार प्रार्थना भी की। मगर राजा राज के नशे में धुत्त रहता था। कर- तौजी उगाना और जीवन का आनन्द लूटना ही उसका एकमात्र काम था। कोई राज्य की अव्यवस्था के बारे में कुछ बोलता, तो उस पर देश द्रोह का मुक़दमा ठोक देता। सिर कलम करने का आदेश जारी कर देता। मौत के डर से राजा की कोई मुखालिफ़त नहीं कर पाता।

खाळ में बाढ़ को ज़िन्दगी भर तो बहना नहीं था। उतरनी ही थी, सो उतरी भी। दूसरे गाँव के मन्दिर में ठहरे सभी अपने-अपने घर को आ गये थे।

मनकामना और कासीराम का जीवन साथ-साथ चलने लगा। अपने भविष्य की घाटियों पर उम्मीदों और सपनों के पुल बाँधने लगे। पर ग़रीब के सपने को कौन कब डंसले… कौन जाने..? लेकिन कासीराम था बड़ा मेहनती। उसके पास खेती-बाड़ी के नाम पर कुछ नहीं था। जो कुछ था वह घर से थोड़ी दूरी पर दो-चार बिसवा का एक बाड़ा था। बाड़े की लगभग आधी जगह तो ऎसे ही पड़ी रहती। या कभी किसी सीजन में उसमें राजगरा बो देता। बाड़े की आधी जगह में बाँस, बल्ली, बेसरम, साँटी आदि से एक कोठा बना रखा था। कोठे में दो-तीन भैंस, एक-दो गाय आदि ढोर-डंगर बाँधता। झड़ी के दिनों में काम आ सके ऎसा चारा-भूषा, निराव भी ढोर-डंगरों के लिए कोठे में ही रखता था।

उनके जीवन में सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था। बस… उन दिनों क़रीब चार-पाँच दिन से रह-रह कर पानी बरस रहा था। खाळ में कभी पानी चढ़ता। कभी उतरता। खाळ की तरह ही दो-तीन दिन से कासीराम के बदन में कभी ताप चढ़ता। कभी उतरता। ऎसे में कासीराम ढोर-डंगरों को जंगल में चराने-फिराने नहीं लेजा पा रहा था। ख़ुद भी जंगल से घास के गट्ठर लाने लायक नहीं था। मनकामना अकेली जंगल जाकर घास का गट्ठर लाने को तैयार थी, पर कासीराम उसे अकेले जाने नहीं देता। कहता- ऎसे दिनों के लिए ही तो कोठे में सूखा चारा, भूषा आदि रखता हूँ। कासीराम रिमझिम बरसात में भी कुछ ओड़-आड़ कर कोठे में चला जाता। ढोर-डंगरों के सामने सूखा चारा, भूषा या कुछ और निराव डाल आता।

उस साँझ…मन्दिर में आरती के वक़्त… वह निराव डालने ही तो गया था। कोठे में एक चिमनी जल रही थी, पर चिमनी पूरे कोठे में उजाला नहीं कर सकती थी। चिमनी के उजाले में ढोर-डंगर तो देखे-पहचाने जा सकते थे, लेकिन छोटी-मोटी चीज़ों या जन-जनावर को नहीं देखा-पहचाना जा सकता था। फिर चारा, भूषा और निराव तो वह ढोरों से थोड़ी दूर… पीछे रखता था, ताकि ढोरों के गोबर-मूत में ख़राब न हो।

उस साँझ जब वह कोठे में दाखिल हुआ। सामने सबसे पहले बंधी भैंस जमनी को देखा। जमनी गोबर कर रही थी। उसका गोबर लक्ष्मी गाय के निराव के पास गिर रहा था। कासीराम ने टच्च..टच्च कर टचकारते हुए जमनी की पूँछ मरोड़ी। जमनी बागोलते हुए चळक..चळक की आवाज़ के साथ…मूतने लगी।

कासीराम ने एक दम से हाथ पीछे खींचा और बोला- अरे खोड़ली….। फिर जमनी को पीठ पर पोले हाथ से धोल मरते हुए टचकारी। जमनी ने माथा हिलाया। उसके गले में लटकते टोंकरे की आवाज़ हुई और जमनी दूसरी तरफ़ टेंटा फेर कर खड़ी हो गयी।

कासीराम इसी तरह किसी की पूँछ मरोड़ता। किसी की पीठ पर धौल मारता, कोठे में सबके पीछे पहुँचा। उसने जैसे ही सूखे चारे के पूले को उठाया लगा-अंगुलियों में बोर के काँटे गच गये…। उसने झटके के साथ हाथ पीछे खींचा, तो ढोर-डंगरों के बालों से बनी हाथ-सवा हाथ काली रस्सी-सी कुछ खींची चली आयी। और न सिर्फ़ खिंची चली आयी, बल्कि वह भी अचानक जोर से खिंचाने की वजह से शायद भीतर ही भीतर डर गयी थी, सो कासीराम के हाथ से लिपट गयी थी।

कासीराम लक्ष्मी, जमनी से टकराता। गोबर में पाँव रखता। घबराया हुआ-सा कोठे से बाहर हुआ। उस जमाने में बाहर भी कौन-सी स्ट्रीट लाइट जल रही थी। गाँव में तो आज भी कोठे के बाहर तो ठीक, घर में भी बड़ी मुश्किल से गुलुप भिड़ता है। तो फिर यह तो बहुत पुरानी बात है। पर हाँ…चाँदनी अब की तरह ही बरस सकती थी तब भी। पर वह भी नहीं थी, क्योंकि रिमझिम-रिमझिम जारी थी। बादल गरज रहे थे। बिजली रह-रहकर चमक रही थी।

कासीराम ने जब कोठे के बाहर पूरी ताक़त से अपनी बाँह झटकारी…. तो वह जो काली रस्सी-सी थी, नीचे जा गिरी, और बल खाती हुई अंधेरे में समा गयी थी। कासीराम के भीतर से पसीने की बूँदे फूटने लगीं। फिर अचानक सिर के बहुत-बहुत ऊपर जोर की चमक हुई। कासीराम ने ऊपर देखा…ऊपर काली-काली विराट नागीनों को बलखाती देख…बदन से और तेज़ी से बूँदे फूटने लगी। बदन से फूटती बूँदों पर नागीनों ने बूँदे बरसाना और तेज़ कर दिया।

कासीराम अपने ऊपर मंडराती नागीनों को सहमा देने वाली आवाज़ में गगाता हुआ भागा। भागते हुए पाँव की पनही कीचड़ में कहाँ गड़ी रह गयी। धोती कैसे कीचड़ में लथपथ हो गयी, उसे कुछ नहीं पता। फूली साँस की आँधी में बीच से मनकामना को इतना ही कहा- डंस लिया है कल मुँही ने… खाळ पार वैद्य के पास जाना होगा..।

उधर जैसे खाळ के पानी ने भी सुन ली थी कासीराम की बात। पानी ख़ुद ही रेंगता-रेंगता चला आ रहा था कासीराम के घर की तरफ़। जब चढ़ा हो इतना पानी कि पानी के नीचे खाळ के किनारे ही खो जाये… तब कैसे होता खाळ पार कासीराम से…? फिर भी कासीराम ने खाळ की तरफ़ दौड़ लगा दी।

कासीराम के पीछे-पीछे मनकामना भी दौड़ी कुछ दूर। लेकिन पानी को अपनी तरफ़ आता देख- वह थोड़ी ठिठकी, तब तक कासीराम आँखों से ओझल हो गया। पानी में मनकामना थोड़े-बहुत तो हाथ-पाँव हिला लेती। पर खाळ का पाठ पार करना उसके बस का नहीं था। वह चिंता से भरी वापस लौट चली थी।

कासीराम ने अपनी बाहों के चप्पुओं से आधा खाळ पार भी कर लिया। पर फिर मुँह से जैसे जमनी के दूध के फेस निकल आये। बाहों के चप्पू जैसे ठंडे पानी के होकर पानी में मिल गये। सुबह जब खाळ उतरा। तब भी कासीराम तो नहीं मिला। हाँ.. वह शरीर जिसमें कासीराम रहता था, वह गाँव से दो-चार फर्लांग दूर एक बरगद की जड़ों के बीच फँसा हुआ मिला था।

चूँकि राज्य में भूख, ग़रीबी और ग़ैर बराबरी ख़ूब थी, तो चोरी, लूट, डकैती और धाड़े पड़ने जैसी घटनाएँ भी ख़ूब होती थी। राजा के पास कोई उपाय नहीं था। इसलिए राजा ज्यादातर मौन ही रहता था। उसकी छवि भी ईमानदार राजा की थी। लेकिन उसके मंत्री बड़े-बड़े घाघ थे। वे उस राज्य को चारों तरफ़ से नोच-नोच कर लूट-खसोट कर धन कमाने में जुटे थे। राज्य का व्यक्ति अगर मंत्री के ख़िलाफ़ कुछ बोलता, तो राजा को भरोसा नहीं होता। बोलने वाले को राज्यद्रोह का दोषी करार दे फाँसी पर लटका दिया जाता। फाँसी के डर से मंत्री या राजा के ख़िलाफ़ कम ही आवाज़ उठती।

कासीराम के जाने के बाद, मनकामना को ज़िन्दगी बोझ लगने लगी। उसने सोचा- अबकी खाळ में पानी चढ़ेगा.. तो वह भी उसमें बह जायेगी। लेकिन फिर खयाल आया- वह बह गयी… तो कासीराम के ढोर-डंगरों का क्या होगा..? कासीराम के जाने का दुख मुझ अकेली को ही नहीं, उसके ढोर-डंगरों को भी है। जमनी और लक्ष्मी तो सूख कर झाँकरा हुई जा रही है। मनकामना को याद आया- एक रात कासीराम ने कहा था- देखना… अपन दूध..घी बेच-बेच कर एक दिन इतना पैसा जोड़ लेंगे कि खाळ पर एक पुलिया बनवा सकें..। राजा और मंत्रियों के कान पर तो जूँ रेंगती नहीं। अब लोगों ने कहना ही छोड़ दिया है। अपन बनवायेंगे पुलिया..।

मनकामना को जैसे जीने का मक़सद मिल गया। वह ढोर-डंगरों की पूरे मन से सेवा करने लगी। उसकी सेवा और प्रेम को देख लक्ष्मी, जमनी और सभी उससे हिल-मिल गये थे। लेकिन अभी कुछ महीने बीते थे, कि एक रात ढोर-डंगरों को कोई चुरा ले गया। मनकामना का जी पछाड़े मार कर रोने लगा। गाँव के लोगों ने ढाँढस बँधायी। किसी ने कहा- राजा से शिकायत करो..।

कोई बोला- राजा तो गूँगा है… कोई भी बात हो…. वह… मंद..मंद मुस्कराता है। उसके मंत्री जो कहते-करते हैं.. उसी का गर्दन हिला कर समर्थन करता है।

एक ने कहा- राज्य में होने वाली सभी तरह की चोरी, डकैतियों और लूटों में मंत्रियों की साझेदारी है।

दूसरा बोला- भला मंत्री.. राजा की मर्ज़ी के बग़ैर कुछ भी करते होंगे क्या..?

तीसरे ने कहा- राजा ईमानदार है… शिकायत करो… राजा के आदेश से चोर को पकड़ा जायेगा… और ढोर-डंगर वापस मिल जायेंगे।

मनकामना क्या करती…? उसने गाँव वालों की बात मानी। राजा से शिकायत की। राजा ने मौन रह कर उसकी बात सुनी। राजा ने अपने क़रीबी मंत्री को आदेश दिया- इस मामले की जाँच करके बताओ।

कुछ दिन बाद मंत्री ने एक जाँच समिति बनायी। समिति में मंत्री ने उन्हीं लोगों को रखा, जिन्होंने उसका गाँव और कोठा देखा था। वे चोरी की घटना की हक़ीक़त से भी वाक़िफ़ थे। इसलिए उन्हें जाँच करने में ज्यादा समय नहीं लगा। उन्होंने मंत्री को जाँच से अवगत कराया। मंत्री ने राजा को बताया कि मनकामना के यहाँ कभी ढोर-डंगर थे ही नहीं। वह गाँव और खाळ के बीच अकेली रहती है। उसने ढोर-डंगर चोरी होने की झूठी शिकायत की थी। राज्य और राजा की छवि पर दाग लगाने की कोशिश की थी।

जाँच रिपोर्ट सुन राजा का मन दुखी हुआ। दुखी मन में आया कि मनकामना को इस अपराध का दण्ड मिलना चाहिए। पर फिर सोचा कि छोड़ो… पागल स्त्री है। पागल स्त्री को क्या दण्ड देना ..? राजा ने मंत्री से इतना ही कहा- उसे हिदायत दो..कि आगे से ऎसा न करे…।

मंत्री ने मनकामना को हिदायत देने एक दल भेजा। दल गाँव गया और मनकामना के कोठे को तुड़वाने लगा। मनकामना ने मौक़े पर विरोध किया। दल ने मनकामना को ख़ूब खरी-खोटी सुनायी और कहा- भविष्य में शिकायत करने आयी.. राज्यद्रोह के मामले में फाँसी पर लटकवा देंगे। अभी हिदायत देकर छोड़ रहे हैं… आगे से ऎसी ग़लती मत करना।

उस दिन से सिर्फ़ मनकामना ही नहीं, गाँव से कभी कोई फरियाद, कोई शिकायत लेकर राजा के दरबार में नहीं जाता था।

गाँव की जो भी समस्या होती, गाँव में हल खोजा जाता था। चोरी, डकैती और धाड़ों से बचने के लिए गाँव के युवकों का एक समूह बनाया था। वह रात में हाथ में मशाल लेकर गाँव में गश्त करने लगे थे। वे गाँव से होने वाली हर तरह की लूट, डकैती और चोरी पर पाबंदी लगाने की कोशिश करने लगे। अब गाँव से बाहर के चोरों, डकैतों को गाँव की सम्पति चुराने और लुटने में मुश्किलें आने लगी। बल्कि खाली हाथ लौटना पड़ता था। कभी-कभी हाथ लग जाते तो गाँव सुरक्षा टोली के हाथों पिटायी भी हो जाती थीं। उस गाँव से सीख लेकर आस-पास के गाँव वालों ने भी गाँव सुरक्षा टोलियाँ बनानी शुरू कर दी थी। उन्हें राज्य और राजा की जरूरत ही न रह गयी।

राज्य के मंत्री और राजाओं को यह भी नहीं सुहाया। उन्होंने गाँव की सुरक्षा टोलियों को अवैध ठहराया। उनके ख़िलाफ़ क़ानूनी कार्यवाही की जाने लगी। राज्य के सैनिक गाँवों में भेजे जाने लगे और गाँव सुरक्षा टोलियों को नष्ट किया जाने लगा। राज्य के मंत्री और ख़ुद राजा भी जानता था कि गाँव के लोगों को इस तरह अपना काम ख़ुद करने को उकसाने वाली मनकामना ही है।

हालाँकि मनकामना ख़ुद कहीं आती-जाती नहीं थी। वह किसी गाँव सुरक्षा टोली में नहीं थी। वह अपने घर पर रह कर ही अनाज पिसने का काम करने लगी थी। उसकी आँखों में वह सपना बार-बार उभर आता था, जो कभी कासीराम के साथ देखा था। दूध-घी बेच कर खाळ पर पुलिया बनाने का सपना। अब ढोर-डंगर तो नहीं थे, पर वह घट्टी पर अनाज पिसने का काम करती थी। कुछ लोग रोज़ ही अनाज की पोटलियाँ पटक जाते। वह आना-दो आना, तीन आना-चार आना, जैसी पोटली होती, वैसा पैसा लेती और अनाज पिस देती।

मनकामना के जीवन यापन में भी कोई ज्यादा ख़र्चा नहीं था। वह जो अनाज पिसती उसी में से लोग मुट्ठी दो मुट्ठी आटा भी दे जाते। उसी से वह दो टिक्कड़ ठोंक लेती थी। कासीराम रहा नहीं, तो जो मिल जाता, पहन लेती। कोई बनाव श्रृँगार नहीं। बस.. मन में खाळ पर पुलिया बनाने का सपना ताड़ की तरह बढ़ता रहा।

अगर खाळ पर पुलिया बन गयी, तो फिर किसी भी बीमार को वैद्य के पास ले जाना आसान हो जायेगा। किसी की ग़मी और ख़ुशी में शरीक़ होना असान हो जायेगा। आठ-दस गाँव खाळ इधर के और आठ-दस गाँव खाळ उधर के लोगों में आपसी सम्बन्ध बढ़ेंगे। सम्बन्धों को निभाना सरल होगा। पुलिया बनवाना बहुत ज़रूरी है।

दिन, महीने और साल गुज़रते रहे। उसके पास अनाज पिसाने वालों की संख्या बढ़ती रही। मनकामना का नाम धीरे-धीरे घट्टी वाली माई ही पड़ गया। किसी भी उम्र का कोई भी हो। उसे घट्टी वाली माई के ही नाम से पुकारता। लोग माई का आदर भी करते। माई किसी को छोटी-मोटी टहल बता देती, तो कोई मना भी नहीं करता।

उन दिनों जंगल उजाड़ नहीं थे। ख़ूब भरे-भरे थे। जंगल से बाँस-लकड़ी काटने पर लोगों को जेल में डालने वाला क़ानून भी नहीं था। घट्टी वाली माई किसी भी मोटियार छोरे से कहती, दो भारी बाँस काट के ला दे..।

वह कहता- माई तू पोटली का अनाज पिस…. मैं अभी खाळ किनारे से बाँस काट के ला देता हूँ।

धीरे-धीरे घट्टी वाली माई के कोठे की खाली जगह बहुत सारी लकड़ी-बाँस आदि चीज़े का ढेर जमा हो गया। गाँव में लोग बात करते- आज कल घट्टी वाली माई सरक गयी लगती है…. पता नहीं इतनी लकड़ी-बाँस आदि का क्या करेगी..? कोठे की पूरी ज़मीन पर बाँस और लकड़ी के अंबार खड़े हो गये हैं।

एक दिन घट्टी वाली माई ने गाँव में डोंडी फिरवाई- घट्टी वाली माई गाँव के सभी लोगों से कुछ बात करना चाहती है…इसलिए मन्दिर में आरती की बखत सभी आये। आरती के बाद माई बात करेगी।

पहली बार मन्दिर में आरती की बखत पूरा गाँव जमा हुआ। पहली बार बामण को ढेर सारा चढ़ावा मिला। घट्टी वाली माई पहली बार गाँव के लोगों के बीच मन की गाँठ खोलते हुए बोली- खाळ पर एक पुलिया बनवाने का मन है। पुलिया में लगने वाला सभी सामान इकट्ठा कर रखा है। बस.. अब सभी लोग काम में हाथ बंटाओ…तो पुलिया बरसात से पहले तैयार हो जायेगी..।

घट्टी वाली माई बुजुर्गियत के जिस पड़ाव पर थी। गाँव में जिस तरह से उसका आदर था। किसी के असहयोग करने का सवाल ही पैदा नहीं हुआ। दूसरे दिन सुबह तो घट्टी वाली माई की देख-रेख में पुलिया का काम शुरू हो गया।

घट्टी वाली माई के कहे मुताबिक कुछ लोग गड्ढे खोदने लगे। कुछ लोग बाँस और लकड़ी छाँटने लगे। जैसे-जैसे घट्टी वाली माई काम समझाती जा रही थी, वैसे-वैसे ही लोग काम में भिड़ने लगे थे।

घट्टी वाली माई ने कुछ दिनों से आटा भी बहुत सारा जमा कर लिया था। गाँव की कुछ औरतों को दाल-बाँटी बनाने में लगा दिया। लोग सुबह से दोपहर तक काम करते। दोपहर को दाल-बाँटी खाते। थोड़ी देर सुस्ताते। फिर घट्टी वाली माई की देख-रेख में काम शुरू कर देते। साँझ होती, तो माई सभी को मेहनताना भी देती। लोग ख़ुशी-ख़ुशी घर जाते। सुबह बग़ैर बुलाये आ जाते। ऎसा ही चलता रहा कुछ दिन, महीने। फिर घट्टी वाली माई को ही नहीं, लोगों को भी पुलिया आकार लेती नज़र आने लगी। घट्टी वाली माई ने ज़िन्दगी भर की जोड़ी पाई-पाई ख़र्च कर दी। तब जाकर पुलिया ने एक मुकमल आकार लिया।

जब पुलिया बनकर तैयार हो गयी। उस पर से बैल-गाड़ी गुज़रने लगी। राजा के हाथी-घोड़े निकलने लगे। दोनों तरफ़ के गाँव के लोगों का मेल-जोल भी बढ़ा। एक-दूसरे के सुख-दुख में पहले की तुलना में ज्यादा शरीक होने लगे। कोई बीमार हो या फिर किसी को जनावर डंस ले, किसी भी वक़्त वैद्य के पास जाना आसान हो गया। उस पुलिया का किसी राजा या उसके मंत्री द्वारा उद्घाटन नहीं हुआ। पुलिया का कोई नाम करण नहीं हुआ। फिर भी पुलिया ‘ घट्टी वाली माई की पुलिया ’ के नाम से मशहूर हो गयी।

कुछ बरस बाद घट्टी वाली माई नहीं रही। घट्टी वाली माई की पुलिया रही। धीरे-धीरे राजा-महाराजाओं का भी रुतबा कम होने लगा। राज-पाट छीने जाने लगे। लेकिन घट्टी वाली माई की पुलिया का रुतबा बरकरार रहा। घट्टी वाली माई की पुलिया से प्रेरणा लेकर कुछ दूसरे गाँव ने भी अपने गाँव किनारे के खाळ पर वैसी पुलिया बनाने की कोशिशें की। कइयों की पुलिया दस-बीस बरस में ढह गयी और फिर दुबारा नहीं बनी। लेकिन घट्टी वाली माई की पुलिया टस से मस न हुई।

अंग्रेजों से लड़ाई की साक्षी बनी। आज़ादी के कई दीवानों को उसने इस-पार से उस पार पहुँचाया। फिर एक दिन देश भी आज़ाद हो गया। उसके भी बरसों बाद उस विशाल खाळ पर घट्टी वाली माई की पुलिया को तोड़, आधुनिक पुलिया बनवायी गयी। उस पुलिया का उद्घाटन एक मंत्री ने किया। लेकिन पुलिया का नाम ‘ घट्टी वाली माई की पुलिया ’ ही रहा।

फिर राजा-महाराजाओं का इतिहास लिखा गया। आज़ादी का इतिहास लिखा गया। लेकिन घट्टी वाली माई और उसकी पुलिया के बारे में किसी ग्रंथ में एक लाइन नहीं लिखवा सका कोई माँ का लाल। कोई जवाहर। लेकिन घट्टी वाली माई की कथा एक ज़हन से दूसरे ज़हन में उतरती रही लगातार।

समय की नदी भी बहती रही दिन-रात। देश की नदियों पर दानवी क़ब्जा बढ़ता रहा रात-दिन। अब तक जीवन दान देने वाली नदी। जीवन हरने बढ़ने लगी क़दम दर क़दम। घट्टी वाली माई के गाँवों की माँएँ, बेटियाँ, बहने और भाई जल-सत्याग्रह करने लगे। देश, प्रदेश के राजा, महाराजा और मंत्रियों की देश-विदेश में यात्राएँ जारी रहीं। जंगल, ज़मीन और नदी के पानी के सौदे जारी रहे। रियाया के काम का ही नहीं, जान तक का सौदा जारी रहा।

आज फिर घट्टी वाली माई की ज़रूरत है। बना सके जो ऎसी पुलिया…. जो ले जाये उस मनहूस ईमारत तक। जिसके भीतर से अनीतियों की कई सुरंगे निकलती है। सुरंगों का मुँह सुरसा की तरह फैलता जाता है, और वह गाँव, जंगल, ज़मीन, नदी, पहाड़ और खाळ निगलती जाती है। आज अनीतियों की सुरंगों के मुँह बन्द करने की ज़रूरत है। घट्टी वाली माई की तलाश है।

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15-9-12

सत्यनारायण पटेल, m-2 / 199, अयोध्यानगरी, (बाल पब्लिक स्कूल के पास) इन्दौर-452011,(म.प्र.) मो.-09826091605, E mail- bizooka2009@gmail.com

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जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: कहानीः घट्टी वाली माई की पुलिया / सत्यनारायण पटेल
कहानीः घट्टी वाली माई की पुलिया / सत्यनारायण पटेल
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