आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री हिंदी साहित्य के एक बहुआयामी साहित्यकार रहे हैं. ऋषि तुल्य इस साहित्यकार की काव्य रचनाएं हिंदी साहित्य के परिदृश...
आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री हिंदी साहित्य के एक बहुआयामी साहित्यकार रहे हैं. ऋषि तुल्य इस साहित्यकार की काव्य रचनाएं हिंदी साहित्य के परिदृश्य पर इतनी छाई हुई हैं कि उनके जीवन काल में ही “कवि दिवस” के रूप में उनका जन्मदिन मनाया जाने लगा था. आज बेशक वे सशरीर हमारे बीच नहीं हैं किंतु उनके गीत हमें प्रेरणा और संबल प्रदान करते हैं. इसीलिए उनके एक समालोचक ने ठीक ही कहा है कि शास्त्री जी के गीत गीत नहीं, गीता हैं, कि वे शब्द नहीं, मंत्र लिखते हैं.
जानकी वल्लभ का जन्म 5,फरवरी,1916 को गया (बिहार) में बसे एक गांव, मैगरा में हुआ था और उनका निधन 95 वर्ष की अवस्था में 7,अप्रेल,1911 में मुज़फ्फरपुर में हुआ था. उन्होंने अपने लम्बे जीवन काल में हिंदी साहित्य की कई पीढियां देखीं और कई आंदोलनों के वे दृष्टा रहे. किंतु वे कभी किसी आंदोलन से जुड़े नहीं. हर आंदोलन के प्रतिभावान कवि अवश्य रहे. वे छायावादोत्तर काल के विख्यात कवि थे. उत्तरप्रदेश सरकार से उन्हें भारत-भारती सम्मान से पुरस्कृत किया गया था. उन्होंने दो बार भारत सरकार के पद्मश्री सम्मान को अस्वीकार किया. एक बार 1994 में और दूसरी बार अपने देहांत के एक-सवा साल पहले 26 जनवरी 2010 में. उन्होंने इसे “मज़ाक” कहकर अस्वीकार कर दिया और कहा कि इसके योग्य अब उनके शिष्य अधिक हैं.
शास्त्री जी का काव्य संसार बहुत विविध और व्यापक है. आरम्भ में उन्होंने संस्कृत में कविताएं लिखीं. उनका संस्कृत काव्य संग्रह “काकली” नाम से प्रकाशित हुआ था. “काकली” को पढकर महाकवि निराला इसकी गीतात्मकता से इतने प्रभावित हुए कि वे युवक जानकी वल्लभ से स्वयं ही मिलने चले गए और हिंदी में गीत लिखने के लिए उन्हें प्रेरित किया. निराला की यही प्रेरणा जानकी वल्लभ को हिंदी साहित्य में ले आई और यहां उन्होंने निराला की ही ऊँचाई को स्पर्श किया. वे पूरी सदी में एकमात्र ऐसे कवि रहे जिन्हें निराला के समकक्ष रखा जा सकता है. शास्त्रीजी कहा करते थे कि निराला की प्रसिद्ध कविता “जुहूकी कली” और स्वयं उनका जन्म एक ही वर्ष हुआ – यानी, 1016 में.
गीत, ग़ज़लों, और कविताओं के लिए तो जानकी वल्लभ शास्त्री भली-भाँति जाने ही जाते हैं किंतु उन्होंने काव्य के क्षेत्र में कुछ प्रयोग भी किए. उन्होंने छंद-बद्ध काव्य कथाएँ लिखीं. उन्होंने महाकाव्य और गीत-नाट्य रचे. सात खंडों में उनका महाकाव्य “राधा”आया उनकी तीन संगीतकाएँ (गीत-नाट्य) प्रकाशित हुईं – “पाषाणी”, “तमसा”, और “इरावती”. ये सभी उनके काव्य व्यक्तित्व को नई ऊँचाई देते हैं. काव्य से इतर उन्होंने उपन्यास भी लिखे और कहानियाँ भी. ललित निबंधों पर अपनी कलम चलाई और संसमरण भी लिखे. जानकी वल्लभ शास्त्री की आलोचनात्मक कृतियाँ भी हैं. और तो और व्यंग्य कथाएँ भी उन्होंने अपने पाठकों को परोसीं.
शास्त्री जी ने निःसंदेह कई विधाओं में लिखा किंतु उनका सर्वोत्तम रूप हमें गीतों और ग़ज़लों में ही दिखाई देता है. “अवंतिका” उनका सर्वश्रेष्ठ गीत संग्रह है. वे जब-जब विह्वल होकर गीतों को गाते थे तो श्रोता भी उनके साथ उतने ही भावुक हो जाते थे. उनकी कविताओं में हमें कई स्वर मिलते हैं. उन्होंने अपना लेखन भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के समय से आरम्भ किया था. तब की उनकी कविताओं में हमें स्वतंत्रता की ललक के साथ-साथ आज़ादी के हेतु संघर्ष का आह्वान मिलता है. सारा देश जो दासता की रूढिवादी निद्रा में सोया हुआ था, उसे उन्होंने जगाने का काम किया. “जागो निद्रा-तंत्र के कर बिके हुए बेमोल”. उनका संदेश साफ है – “ मत डरो किसी से और न कभी डराओ / सिर झुकाकर उन्नत हृदय बनाओ.”
आचार्य शास्त्री की कविताएँ भारत के सनातन मूल्यों को पुनर्स्थापित करती हैं. वे अंधविश्वासों के अंधकार को चीरती हुई प्रकाशस्तम्भ का कार्यकरती हैं. “ज्योति प्रपात झरो हे तम संघात पर / आत्मा की शुचिता कलुषित चित गार पर !” ये आस्था और विश्वास की कविताएँ हैं. आस्तिकता को बल देती हुई, ये “सुर के सुमेरु पर लय की ज्योति” बिखेरती दिखाई देती हैं. शास्त्री जी की काव्यभाषा अपने विश्वास पर अटल है
“हाँ मेरा जीव यज्ञ / इसे दुनिया नादानी कहे, कहे / मैं गाऊँ तेरा मंत्र समझ / जग मेरी वाणी कहे, कहे !” अपने गीतों में जानकी वल्लभ शास्त्री अद्वितीय हैं. उनके गीतों में लयात्मकता देखते ही बनती है. यह लय चाहे ज़िंदगी की हो या वेदना की. अनवरत उनके गीतों में यह प्रवाहित हुई है. –
ज़िंदगी की कहानी रही अनकही
दिन गुज़रते गए, साँस चलती रही
वेदना अश्रु पानी बनी, बह गई
धूप तपती रही, छाँह चलती रही.
शास्त्री जी के कुछ गीत इस बात में अनोखे हैं कि वे गीत धर्म का निर्वाह करते हुए और गीत की कोमलता को साधते हुए अपने समय का व्यंग्य बड़े सहज ढंग से अभिव्यक्त कर जाते हैं. आज स्थिति यह है कि वे लोग जो जीवन-मूल्यों को धता बताते हैं, हमारे समाज के निर्देशक बने बैठे हैं, जिनके कार्य देखकर शर्म आती है, वे ही उपदेश दे रहे हैं, जिनका अहंकार सातवें आसमान पर है, वे शील और विनय को परिभाषित कर रहे हैं -
कुपथ पथ दौड़ता जो / पथ निर्देशक वह है
लाज लजाती जिसकी कृति से / धृति उपदेशक वह है
मूर्त दंभ गढने उठता है / शील विनय परिभाषा
मृत्यु रक्त मुख से देता / जन को जीवन की आशा ...
जनता धरती पर बैठी है / वह मंच पर खड़ा है
जो जितना दूर मही से / उतना वही बड़ा है
शास्त्रीजी ने समय की पीड़ा को समझा है. नारी की दुर्दशा पर वे चिंतित हैं, प्रकृति का शोषण और धरती का विखंडन उन्हें मंज़ूर नहीं है. हमारे तथाकथित रहनुमाओं की दुमुही बातों से वे दुःखी हैं. मेघ गीत के बहाने वे कहते हैं – “ऊपर ऊपर पी जाते हैं जो पीने वाले हैं / ऐसे भी जीते हैं जो जीने वाले हैं.” ऐसा नज़ारा देखकर “मिट्टी का माथा” ठनकता है – “छुट्टे हाथ कहाँ पर इससे / छुटकारा जी का / दिल पर पड़ती चोट / ठनकता माथा मिट्टी का !’
शास्त्रीजी के गीतों का प्राण उनकी लयात्मकता और मूल्य-चेतना है. व्यंग्य और कटाक्ष करते हुए भी जानकीवल्लभ ने न तो कभी गीतों की लय से समझौता किया और न ही कद्रों का अवमूल्यन किया. अपने समय पर पैनी निगाह रखने वाले इस कवि ने परम्पराओं के प्रति सम्मान रखते हुए समाज की प्रगति का स्वप्न देखा देखा था.
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डा. सुरेन्द्र वर्मा
१०, एच आई जी / १,सर्कुलर रोड ,
इलाहाबाद (उ.प्र}
मो. ९६२१२२२७७८
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