(1) इस निष्ठुर समय में लिख रहा अनुभूति के आलेख इस निष्ठुर समय में मैं उपस्थित हूँ जहाँ संवेदनाएं जग रही हैं त्रास की अन्तर्व्यथायें एक ...
(1)
इस निष्ठुर समय में
लिख रहा
अनुभूति के आलेख
इस निष्ठुर समय में
मैं उपस्थित हूँ
जहाँ संवेदनाएं
जग रही हैं
त्रास की अन्तर्व्यथायें
एक जैसी
लग रही हैं
क्रूर सच का
कर रहा उल्लेख
इस निष्ठुर समय में
भूमिका किस की,
कहाँ पर कौन है,
शंकित नहीं हूँ
जानता हूँ मैं किसी
मुखपृष्ठ पर
अंकित नहीं हूँ
चकित अपनों को
पराया देख
इस निष्ठुर समय में
शब्द के संजाल में
कसकर मुझे
मोहित किया है
आस्था का प्रश्न
तर्कातीत कह,
चुप कर दिया है
दुःख विधाता का
नहीं है लेख
इस निष्ठुर समय में
**
--जगदीश पंकज
(2)
कितने हरे,कितने भरे
कितने हरे
कितने भरे , हैं घाव,
मन के ,देह के
अब तो नहीं है याद
गणना भी करूँ
कैसे करूँ
किन-किन प्रहारों ने
किया घायल मुझे
कैसे मरूं
जिसको कहा
अभियुक्त ,छूटा
लाभ पा संदेह के
केवल नहीं तन पर
लगी हैं चोट
मन की भीत पर
अनगिन विरोधाभास हैं
क़ानून की
हर जीत पर
पर पोथियों में भी
नहीं आखर मिले,
कुछ नेह के
मुझको मिले कुछ शब्द
तीखे तीर से
आ कर गड़े
मेरे समर्थन के लिए
प्रतिबन्ध ही
मिलते कड़े
इंगित किया तो
बंद सारे द्वार
मुझको गेह के
**
--जगदीश पंकज
(3)
शंकित मन ,कम्पित श्रद्धाएँ
शंकित मन ,कम्पित श्रद्धाएँ
और समय अवसादग्रस्त है
खड़े चिकित्सक रुग्णालय में
नैसर्गिक उपचार कर रहे
नीम-हकीमों ने पीढ़ी को
कैसा आसव पिला दिया है
हमने अपने विश्वासों के
खम्भों को ही हिला दिया है
अपनी नैया रामभरोसे
डगमग-डगमग बही जा रही
माँझी कूद किनारे जाकर
झूठा हाहाकार कर रहे
अपराधों के श्वेतपत्र में
किस-किस का लेखा-जोखा है
अधिवक्ताओं के तर्कों में
कितना सच,कितना धोखा है
दुष्कर्मों पर बहस चल रही
लज्जा का उपहास हो रहा
पीड़ित को निर्लज्ज बताकर
इकतरफा व्यवहार कर रहे
अपने झूठों को संचित कर
काल-पात्र में गाड़ रहे हैं
और उत्खनित सन्दर्भों से
सच्चाई को झाड़ रहे हैं
प्रायोजित धारावाहिक सा
मक्कारी का नाटक जारी
सच के सब हत्यारे मिलकर
खुद ही चीख-पुकार कर रहे
**
--जगदीश पंकज
(4)
थपथपाये हैं हवा ने द्वार मेरे
थपथपाये हैं हवा ने द्वार मेरे
क्या किसी बदलाव के
संकेत हैं ये
फुसफुसाहट,
खिड़कियों के कान में भी
क्या कोई षड़यंत्र
पलता जा रहा है
या हमारी
शुद्ध निजता के हनन को
फिर नियोजित तंत्र
ढलता जा रहा है
मैं चकित गुमसुम गगन की बेबसी से
क्या किसी ठहराव के
संकेत हैं ये
चुभ रहा है सत्य
जिनकी हर नज़र को
वे उड़ाना चाहते हैं
आँधियों से
या कोई निर्जीव सुविधा
फेंक मुझको
बाँध देना चाहते हैं
संधियों से
जब असह उनको हमारा हर कदम तो
क्या सभी बहलाव के
संकेत हैं ये
धूल ,धूँआँ ,धुंध
फैले आँगनों में
जो दिवस की रोशनी को
ढक रहे हैं
पर सदा प्रतिबद्ध
रहते देख मुझको
चाल अपनी व्यर्थ पाकर
थक रहे हैं
लग रहा है अब मुझे हर पल निरन्तर
बस बदलते दांव के
संकेत हैं ये
**
--जगदीश पंकज
(5)
वृक्ष पर जाकर टँगा बेताल
वृक्ष पर जाकर टँगा
बेताल फिर से
क्लांत विक्रम ने
सही उत्तर दिया है
बस पुनर्वाचन
कथा का हो रहा है
पुनर्मंचन हो रहा है
नाटकों का
पात्र भी संवाद
बासी बोलते हैं
बस नया परिधान
बदला है नटों का
क्रुद्ध कापालिक लगे
शव साधना में
आँजुरी में पुनः
मंत्रित जल लिया है
अर्ध चेतन
मान्यताओं के सहारे
कौन कितनी दूर
जा पाया कभी है
पर सनातन-आधुनिक
रणबाँकुरा है
जो पराजित हो
बजाता दुन्दुभी है
फिर प्रदूषणयुक्त
संस्कृति हो प्रतिष्ठित
दिग्भ्रमित संन्यास ने
निर्णय किया है
क्यों अपूजित
प्राण-प्रतिमाएं रही हैं
और कालातीत
निष्ठाएँ भ्रमित हैं
क्यों पुरातन हर
घृणा के वायरस से
आज के विश्वास
होते संक्रमित हैं
मुखर प्रश्नाकुल
समय ने भी व्यथित हो
अब निरुत्तर ,मौन
होठों को सिया है
**
-जगदीश पंकज
(6)
जो तुम कहो बस वह सही
जो तुम कहो
बस वह सही
यह किस महाजन की बही
जो कर्ज ही ढोते रहें
हम उम्र भर
किस कर्ज में
गिरवी रखी
किसने हमारी चेतना
हमने चुकाया मूल
फिर भी सूद
चढ़ता सौ गुना
किस जन्म से
इस जन्म तक
किसने किया, है आकलन
प्रारब्ध को रोते रहें
हम उम्र भर
प्रतिबन्ध दे
नारीत्व का अपमान
अब तक कर रहे
जब तोड़ती
वह वर्जना
उत्कर्ष से तुम डर रहे
सत्कर्म के
सद्धर्म के
क्यों घाव ले मन-मर्म के
आखेट ही होते रहें
हम उम्र भर
प्रतिबन्ध
पीड़ित पक्ष पर
प्रतिवाद का अवसर नहीं
कैसी संहितायें
जहाँ है न्याय को भी
स्वर नहीं
अभियुक्त का
भय-मुक्त का
सब साधनों से युक्त का
प्रतिकार अब बोते रहें
हम उम्र भर
**
-जगदीश पंकज
(7)
चीखकर ऊँचे स्वरों में
चीखकर ऊँचे स्वरों में
कह रहा हूँ
क्या मेरी आवाज
तुम तक आ रही है ?
जीतकर भी
हार जाते हम सदा ही
यह तुम्हारे खेल का
कैसा नियम है
चिर -बहिष्कृत हम
रहें प्रतियोगिता से ,
रोकता हमको
तुम्हारा हर कदम है
क्यों व्यवस्था
अनसुना करते हुए यों
एकलव्यों को
नहीं अपना रही है
मानते हैं हम ,
नहीं सम्भ्रांत ,ना सम्पन्न,
साधनहीन हैं,
अस्तित्व तो है
पर हमारे पास
अपना चमचमाता
निष्कलुष,निष्पाप सा
व्यक्तित्व तो है
थपथपाकर पीठ अपनी
मुग्ध हो तुम
आत्मा स्वीकार से
सकुचा रही है
जब तिरस्कृत कर रहे
हमको निरन्तर
तब विकल्पों को तलाशें
या नहीं हम
बस तुम्हारी जीत पर
ताली बजाएं
हाथ खाली रख
सजाकर मौन संयम
अब नहीं स्वीकार
यह अपमान हमको
चेतना प्रतिकार के
स्वर पा रही है
**
- जगदीश पंकज
(8)
भीड़ में भी तुम मुझे पहचान
भीड़ में भी
तुम मुझे पहचान लोगे
मैं निषिद्धों की
गली का नागरिक हूँ
हर हवा छूकर मुझे
तुम तक गई है
गन्ध से पहुँची
नहीं क्या यन्त्रणाएँ
या किसी निर्वात में
रहने लगे तुम
कर रहे हो जो
तिमिर से मन्त्रणाएँ
मैं लगा हूँ राह
निष्कंटक बनाने
इसलिए ठहरा हुआ
पथ में तनिक हूँ
हर कदम पर
भद्रलोकी आवरण हैं
हर तरह विश्वास को
जो छल रहे हैं
था जिन्हें रहना
बहिष्कृत ही चलन से
चाम के सिक्के
धड़ाधड़ चल रहे हैं
सिर्फ नारों की तरह
फेंके गए जो
मैं उन्हीं विख्यात
शब्दों का धनिक हूँ
मैं प्रवक्ता वंचितों का,
पीड़ितों का
यातना की
रुद्ध-वाणी को कहुंगा
शोषितों को शब्द
देने के लिए ही
हर तरह प्रतिरोध में
लड़ता रहुंगा
पक्षधर हूँ न्याय
समता बंधुता का
मानवी विश्वास का
अविचल पथिक हूँ
**
-- जगदीश पंकज
(9)
वृक्ष पर जाकर टँगा बेताल
वृक्ष पर जाकर टँगा
बेताल फिर से
क्लांत विक्रम ने
सही उत्तर दिया है
बस पुनर्वाचन
कथा का हो रहा है
पुनर्मंचन हो रहा है
नाटकों का
पात्र भी संवाद
बासी बोलते हैं
बस नया परिधान
बदला है नटों का
क्रुद्ध कापालिक लगे
शव साधना में
आँजुरी में पुनः
मंत्रित जल लिया है
अर्ध चेतन
मान्यताओं के सहारे
कौन कितनी दूर
जा पाया कभी है
पर सनातन-आधुनिक
रणबाँकुरा है
जो पराजित हो
बजाता दुन्दुभी है
फिर प्रदूषणयुक्त
संस्कृति हो प्रतिष्ठित
दिग्भ्रमित संन्यास ने
निर्णय किया है
क्यों अपूजित
प्राण-प्रतिमाएं रही हैं
और कालातीत
निष्ठाएँ भ्रमित हैं
क्यों पुरातन हर
घृणा के वायरस से
आज के विश्वास
होते संक्रमित हैं
मुखर प्रश्नाकुल
समय ने भी व्यथित हो
अब निरुत्तर ,मौन
होठों को सिया है
**
-जगदीश पंकज
(10)
अनसुना है पक्ष मेरा
अनसुना है पक्ष मेरा
वाद में ,
प्रतिवाद का
साक्ष्य अनदेखा रहा आया
अभी तक
जो मुझे निर्दोष घोषित
कर सकेगा
दृष्टिबंधित जो हुआ
पूर्वाग्रहों से
वह तुम्हें अभियुक्त
क्यों साबित करेगा
वह व्यवस्था क्या
जहाँ, अवसर
नहीं संवाद का.
जब तुम्हारे ही
बनाये मानकों के
तुम नहीं अनुरूप
फिर अधिकार कैसा
गढ़ रहे फिर भी
नए प्रतिमान जिनमें
साँस भी हमको
मिले उपकार जैसा
क्यों करूँ स्वीकार
बिन उत्तर
मिले परिवाद का.
क्यों नहीं संज्ञान में
मेरी दलीलें
दृष्टि में क़ानून की
समकक्ष हूँ मैं
हो भले विपरीत ही
निर्णय तुम्हारा
पर सदा अन्याय का
प्रतिपक्ष हूँ मैं
साँस क्यों लूँ मैं
तुम्हारी, दया पर
आह्लाद का.
-- जगदीश पंकज
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---जगदीश पंकज
सोमसदन 5/41 सेक्टर -2 ,राजेन्द्र नगर ,
साहिबाबाद ग़ाज़ियाबाद-201005 मोब.08860446774 ,
e- mail: jpjend@yahoo.co.in
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जय मां हाटेशवरी...
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इस लिये दिनांक 20/03/2016 को आप की इस रचना का लिंक होगा...
चर्चा मंच[कुलदीप ठाकुर द्वारा प्रस्तुत चर्चा] पर...
आप भी आयेगा....
धन्यवाद...
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