कुत्तों से दत्ता साहब को चिढ़ थी । नफ़रत थी । एलर्जी थी । पर गली का कुत्ता कालू था कि दत्ता साहब की चिढ़ की परवाह ही नहीं करता था । जैसे...
कुत्तों से दत्ता साहब को चिढ़ थी । नफ़रत थी । एलर्जी थी । पर गली का कुत्ता कालू था कि दत्ता साहब की चिढ़ की परवाह ही नहीं करता था । जैसे ही दत्ता साहब बाहर जाने के लिए दरवाज़ा खोलते , कालू को सामने पाते । कालू को देखते ही दत्ता साहब का ग़ुस्सा आसमान छूने लगता । उन्होंने कालू को डराने-धमकाने , गली से बाहर खदेड़ने की बहुत कोशिश की । पर कालू था कि पिछली घटना भूल कर दत्ता साहब के मकान के दरवाज़े पर फिर मौजूद हो जाता । दत्ता साहब उसे छड़ी दिखाते । वह छड़ी की मार के दायरे से बाहर रहते हुए पूँछ हिलाता । कालू के पूँछ हिलाते रहने से दत्ता साहब और ज़्यादा चिढ़ जाते । दो-एक बार उन्होंने पास पड़े पत्थर और पैरों में पहनी चप्पलें उतार कर कालू को दे मारीं । पर दत्ता साहब का निशाना हर बार चूक जाता । उधर कालू चप्पलों और पत्थरों को छकाने की कला में और पारंगत होता जाता । जब तक दत्ता साहब गली से बाहर नहीं चले जाते , कालू उनसे एक मर्यादित दूरी बनाए रखते हुए सतर्कतापूर्वक उन्हें ' गॉर्ड ऑफ़ ऑनर ' देता चलता ! दत्ता साहब का मन करता कि वे अपने सिर के बाल नोच लें ।
कुछ महीने पहले तक दत्ता साहब के सामने यह समस्या नहीं थी । वे रोज़ाना सुबह-शाम टहलने जाते थे । रात का खाना खाने के बाद भी उन्हें गली के दो-तीन चक्कर लगाने की आदत थी । पर बुरा हो गली के नए गोरखा चौकीदार
का । उसने न जाने कहाँ से भटकते हुए आ गए कालू को अपने पास पाल लिया ।
गली के बाक़ी लोगों को कालू से कोई परेशानी नहीं थी । गली की महिलाएँ अपने-अपने घरों का जूठा सुबह-शाम कालू को खिलाने लगीं । ऐसी आव-भगत छोड़ कर कालू भला कहीं और क्यों जाता ? पर दत्ता साहब को दुख इस बात का था कि उनकी पत्नी भी गली की महिलाओं की तरह सुबह-शाम कालू को खिला-पिला कर हट्टा-कट्टा बनाने वालों की सूची में शामिल थी । दत्ता साहब के लिए यह बात असहनीय थी । यह ऐसा था जैसे कोई सगा-सम्बन्धी दुश्मन की फ़ौज में शामिल हो जाए । उन्होंने पहले पत्नी को समझाया , फिर कई बार उसे डाँटा भी । पर पत्नी थी कि उनकी आँख बचा कर कालू को बचा-खुचा जूठा खिला ही आती ।
दत्ता साहब ने एक-दो बार चौकीदार को भी डाँटा कि वह न जाने कहाँ से इस आवारा कुत्ते को पकड़ लाया है । पर चौकीदार का कहना था कि कालू के होते कोई चोर-उचक्का गली में नहीं घुस सकता । यह सुनकर दत्ता साहब को और ग़ुस्सा आया । उन्होंने कहना चाहा -- अबे , चौकीदारी के लिए तुझे रखा है या कुत्ते को ? अगर कालू ने ही चौकीदारी करनी है तो तेरी तनख़्वाह भी कालू को ही दे देते हैं ! पर चौकीदार के मुँह लगना उन्होंने ठीक नहीं समझा ।
दो-चार बार दत्ता साहब ने इस मुद्दे पर पड़ोसियों और अन्य गली वालों से भी बात की । पर बात करने पर पता चला कि गली में अन्य किसी को भी कालू से कोई शिकायत नहीं थी । कुछ लोगों ने तो कालू की तारीफ़ में क़सीदे भी पढ़े -- बड़ा सीधा कुत्ता है जी । मांस-मछली को तो सूँघता तक नहीं । छोटे बच्चे इसकी पूँछ खींच लेते हैं पर यह गुर्राता तक नहीं । पर गली में आने-जाने वाले अजनबी लोगों पर यह पूरी निगाह रखता है । वग़ैरह ।
दत्ता साहब समझ नहीं पा रहे थे कि कैसे कालू से छुटकारा पाएँ । ग़ुस्से में उन के मन में बड़े भयंकर ख़याल आते । क्या वे कालू को ज़हर मिला खाना दे दें ?
जीव-हत्या ? ना बाबा ना ! उनका मन इस ख़याल को उसी समय ख़ारिज कर देता । क्या नगर निगम वालों को फ़ोन करके कह दें कि उनकी गली में काले रंग का एक पागल कटहा कुत्ता दहशत मचाए हुए है ? पर उनकी बात का समर्थन कौन करेगा ?
उन्हें इस समस्या का कोई हल दिखाई नहीं देता ।
फिर एक ऐसा समय आया जब कालू दत्ता साहब को नींद में भी पीड़ित करने लगा । उनके सपनों में भी कालू आ कर उन्हें सताने लगा । वे कोई बड़ा अच्छा-सा सपना देख रहे होते । सपने में इंद्रधनुष होता , तितलियाँ होतीं , मेमने होते , हंस होते । अचानक किसी झाड़ी के पीछे से कालू उदित हो जाता । फिर उसका आकार बढ़ने लगता । वह एक बड़े भालू के आकार का हो जाता । उसकी आँखें भेड़ियों की तरह खूँखार लगने लगतीं । उसके पंजे और दाँत शेर की तरह नुकीले हो जाते । उसकी भौंक दहाड़ में तब्दील हो जाती और वह दत्ता साहब को खाने दौड़ता । और सर्दियों की रात में भी पसीने-पसीने हो गए दत्ता साहब इस दु:स्वप्न से डर कर उठ जाते ।
इसी तरह कुछ महीने और गुज़र गए । एक सुबह दत्ता साहब दफ़्तर जाने के लिए घर से निकले और कालू आदतन उनके साथ हो लिया । दत्ता साहब तो पहले से ही कालू से खार खाए बैठे थे । गली के मोड़ पर उन्हें एक पत्थर का टुकड़ा दिखा । उन्होंने फुर्ती से पत्थर उठा कर कालू को दे मारा । पत्थर की मार से बचने के चक्कर में कालू इधर-उधर लपका । बदक़िस्मती से वह सामने से आ रही एक बस की चपेट में आ गया । ड्राइवर ने ब्रेक लगाई पर तब तक बस का पहिया कुत्ते को कुचल चुका था । एक किंकियाहट हुई और कालू के प्राण-पखेरू उड़ गए ।
दत्ता साहब सन्न रह गए । सड़क पर कालू की क्षत-विक्षत लाश पड़ी
थी । चारों ओर ख़ून बिखरा हुआ था । दत्ता साहब सोच नहीं पा रहे थे कि वे खुश हों या शोक मनाएँ । अचानक घटी इस घटना ने उन्हें भीतर तक झकझोर दिया । उनकी आँखों में आँसू आ गए । वे दफ़्तर नहीं जा पाए । वापस घर लौट गए । उस दिन उनसे खाना भी नहीं खाया गया ।
दत्ता साहब कालू से छुटकारा तो चाहते थे पर कालू की ऐसी नियति देख कर वे भी सिहर उठे थे । कई दिन बीतने पर भी वे इस घटना से उबर नहीं पाए । कालू के नहीं रहने पर उन्होंने महसूस किया कि उन्हें कालू की आदत पड़ गई थी । कभी-कभी आप जिससे नफ़रत करते हैं , आपको उसकी भी आदत पड़ जाती है । यदि अचानक वह नहीं रहे तो आपके जीवन में एक ख़ालीपन , एक सूनापन आ जाता है । आपके भरे-पूरे जीवन से जैसे कुछ छिन जाता है । इस लिहाज़ से नफ़रत और प्यार एक ही सिक्के के दो पहलू हैं ।
कुछ दिनों बाद मोहल्लेवालों ने पाया कि दत्ता साहब कहीं से एक काला पिल्ला ले आए थे । उन्होंने उसका नाम रखा था -- कालू ।
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परिचय
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नाम : सुशांत सुप्रिय
जन्म : 28 मार्च , 1968
शिक्षा : अमृतसर ( पंजाब ) , व दिल्ली में ।
प्रकाशित कृतियाँ :# हत्यारे , हे राम , दलदल ( तीन कथा - संग्रह ) ।
# अयोध्या से गुजरात तक , इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं
( दो काव्य-संग्रह ) ।
सम्मान : भाषा विभाग ( पंजाब ) तथा प्रकाशन विभाग ( भारत सरकार ) द्वारा रचनाएँ
पुरस्कृत । कमलेश्वर-कथाबिंब कहानी प्रतियोगिता ( मुंबई ) में लगातार दो
वर्ष प्रथम पुरस्कार ।
अन्य प्राप्तियाँ :# कई कहानियाँ व कविताएँ अंग्रेज़ी , उर्दू , पंजाबी, उड़िया, मराठी,
असमिया , कन्नड़ , तेलुगु व मलयालम आदि भाषाओं में अनूदित । व प्रकाशित । कहानियाँ कुछ राज्यों के कक्षा सात व नौ के हिंदी
पाठ्यक्रम में शामिल । कविताएँ पुणे वि. वि. के बी. ए.( द्वितीय
वर्ष ) के पाठ्य-क्रम में शामिल । कहानियों पर आगरा वि. वि. ,
कुरुक्षेत्र वि. वि. , व गुरु नानक देव वि. वि. , अमृतसर के हिंदी
विभागों में शोधार्थियों द्वारा शोध-कार्य ।
# अंग्रेज़ी व पंजाबी में भी लेखन व प्रकाशन । अंग्रेज़ी में काव्य-संग्रह
' इन गाँधीज़ कंट्री ' प्रकाशित । अंग्रेज़ी कथा-संग्रह ' द फ़िफ़्थ
डायरेक्शन ' और अनुवाद की पुस्तक 'विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ'
प्रकाशनाधीन ।
ई-मेल : sushant1968@gmail.com
मोबाइल : 8512070086
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प्रेषकः सुशांत सुप्रिय
A-5001 ,
गौड़ ग्रीन सिटी ,
वैभव खंड ,
इंदिरापुरम ,
ग़ाज़ियाबाद -201014
( उ. प्र. )
मो: 8512070086
ई-मेल : sushant1968@gmail.com
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