हमारे केमेस्ट्री के प्रोफ़ेसर बड़े विलक्षण थे. वे केमेस्ट्री जैसे कठिन विषय को पढ़ाते हुए बहुधा ज़िन्दगी की रोज़मर्रा की घटनाओं-सच्चाइय...
हमारे केमेस्ट्री के प्रोफ़ेसर बड़े विलक्षण थे. वे केमेस्ट्री जैसे कठिन विषय को पढ़ाते हुए बहुधा ज़िन्दगी की रोज़मर्रा की घटनाओं-सच्चाइयों से उदाहरण उठाकर उसे आसान कर देते थे. उनकी पढ़ाने की शैली, उनके ब्लैक-बोर्ड पर सुन्दर अक्षरों में लिखे कठिन समीकरण, उनका प्रभावशाली व्यक्तित्व मुझ पर ऐसा असर करता रहा कि उन-सा जीवन-साथी मिल जाये, ऐसी कल्पना मैं क्या कालेज की कई युवतियां करती रहती थीं.
उन्होंने ही एक बार कहा था कि भौतिक वस्तुओं के प्रलोभन में न पड़ते हुए जीवन का एक ऊंचा लक्ष्य तय करो. पैसा कमाने का लालच छोड़कर रिसर्च करो, समाज के लिए नये शोध करो ताकि इन अन्वेषणों से मानव-जाति को फ़ायदा पहुंचे. उन्होंने एक संभावना भी व्यक्त की थी कि इस दिशा में हो सकता है किसी ध्येय को हासिल कर सको...
एक दिन उन्होंने बताया- ‘पेड़-पौधे सभी अपना अन्न फ़ोटोसिंथेसिस द्वारा ग्रहण करते हैं. उन्हें केवल सूर्य-प्रकाश की इसके लिए ज़रूरत होती है. उनमें होता है क्लोरोफ़िल. हम अपना पेट भरने हेतु बाज़ार से अनाज़, सब्ज़ी वग़ैरह ख़्ारीद कर लाते हैं, जिसके लिए हमको धन अर्जित करना पड़ता है. हमारे शरीर का मूल तत्व है रक्त जिसमें होता है हीमोग्लोबिन.’ उन्होंने समूचे क्लास पर एक नज़र घुमायी. फिर बोले, ‘आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि हीमोग्लोबिन और क्लोरोफ़िल का स्ट्रक्चर मिलता-जुलता है. फ़र्क़ सिर्फ़ इतना ही है कि हीमोग्लोबिन के केन्द्र में है एफ़ई यानी आयरन यानी लोहा और क्लोरोफ़िल के केन्द्र में है एमजी यानी मैग्नेशियम. बाक़ी सब सरीखा है. यदि हम किसी प्रकार इस आयरन को मैग्नेशियम से ‘रिप्लेस’ कर दें तो पता है क्या होगा...’ क्षण भर की चुप्पी के पश्चात उन्होंने इस रहस्य पर से परदा उठाया- ‘हम भी मात्र सौर ऊर्जा से अपना भोजन निर्मित कर सकेंगे. ना कोई नौकरी, ना व्यापार, ना भागमभाग- महज़ सूरज की रोशनी में घूमो-फिरो और खाने की समस्या से निजात पा जाओ...’ वे मुस्कराये. ‘ऐसे भावी काल्पनिक इनसान को साई-फ़ाई (विज्ञान-कथा) में हरित मानव कहा गया है.‘ मुझे अचानक पता चला कि हमारे प्रोफ़ेसर साहब, जिनका नाम था प्रवेग सुगंधी, वे मेरे पिता के दोस्त के दोस्त हैं. मैं झूठ नहीं बोलूंगी, मैं उनके पीछे दीवानी हो गयी थी. हर वक़्त उनकी ही छवि मेरी आंखों के आगे तैरती रहती थी. शायद इसे ही प्यार कहते हैं. हां, मुझे उनसे प्यार हो गया था... मैंने उपाय सोचा कि मेरी बैच बदलकर दूसरी में चली भी जाऊं तो पीरियड तो इनका ही रहेगा. क्यों न उनको मिलकर इसके लिए निवेदन कर दूं.
यह नहीं कि ग़म नहीं ’ हां,आंख मेरी नम नहीं.’ फ़िराक गोरखपुरी का शेर.
मैं गयी. स्टाफ़-रूम में. शाम के समय. वे अकेले ही थे. लैब में उनका थर्ड इयर का प्रैक्टिकल चल रहा था. मैंने पहले ही पता कर लिया था. मुझे देखते ही वे मेरे पास तक चले आये और पूछा, ‘कहो, क्या बात है ?’
मैंने हिचकिचाते हुए, कुछ अटकते हुए अपनी बैच बदलने की मन्शा बतायी. कारण दिया कि मेरी सभी सहेलियां उधर हैं. मैंने अपने पिताजी का नाम बताकर अपना परिचय भी दे दिया. वे मेरे इतने सन्निकट थे कि मेरा मन डांवांडोल हुआ जा रहा था. वे भी शायद पक्के खिलाड़ी थे, मुझे आल्हादित हल्का-सा स्पर्श करते हुए उन्होंने मुझसे ‘सेकंड इयर की कौनसी बैच में अभी हो और किसमें जाना है’ की जानकारी ली. मैं उनकी हटात् छुअन से रोमांचित हो उनके और क़रीब सरक गयी. वे काग़ज़ पर लिखते जा रहे थे- मेरे विषय में सवाल करते हुए और मैं उनकी हिलती कोहनियों के दबाव से अंदर ही अंदर पिघलती जा रही थी.
बस. इतना ही हुआ. पर क्या यह नाकाफ़ी था ?
तब्दीली हुई उनकी निगाह में. अब पहले बेंच पर बैठी मेरी ओर वह अनायास उठ जाती थी. मैं इससे और-और उत्तेजित होती रही. इस नई बैच का प्रात्यक्षिक उनके ही ज़िम्मे था यही वजह थी मेरी बैच बदलने की. वहां मैं उनके फ़ेवरिट की सूची में शामिल होती गयी. वे अमूमन मेरे निकट आकर चल रहे प्रयोग के सम्बन्ध में समझाते और दैहिक स्पर्श से गुरेज़ नहीं करते थे. अर्थात् यह एकतरफ़ा नहीं होता था, मैं भी उनका कुछ झिझक से साथ देती ही थी. उनके-मेरे जाने-अनजाने या जानबूझकर होती जा रही यह समीपता का हम चुपके-चुपके आनंद लेते रहते.
मुझे अपनी जानकारी के स्रोतों यह मालूम हो गया था कि वे शादी-शुदा हैं. उनका एक छोटा बेटा भी है. लेकिन मैं अपने होश गंवा बैठती थी, उनके सामने पड़ने पर. इस नई बैच की नई सहेलियां भी काफ़ी-कुछ हमारे बारे में आभास पा चुकी थीं. मुझे कहीं चैन नहीं था, ना कोई राहत थी. मैं बस उन्हें पाना- सिर्फ़ पाना चाहती थी. मैं बखूबी जान रही थी कि मेरे इस खेल का भविष्य अनिश्चित है- लगभग शून्य. पर क्या यह भी सच नहीं था कि उनका भी मेरे प्रति व्यवहार उनके वास्ते मेरे प्रेम को उद्वेलित कर रहा था- दुगना, तिगना- दिनोंदिन. मेरा तो खुद पर वश नहीं था, मैं युवा थी, अपरिपक्व थी, फिसल रही थी, ग़लत राह पर जाने को अग्रसर थी पर वे भी तो मुझे विवश कर रहे थे.
हमारे दूरस्थ मन निकटतम होते जा रहे थे. तभी हम सारी सहेलियां नगर में आयोजित नाट्य सम्मेलन में गयीं. मैंने दूर से ही उन्हें देख लिया. वे अपने दोस्तों के साथ इस स्टाल से उस स्टाल पर बातें करते हुए जा रहे थे. मैंने थोड़ा साहस किया. सीधे चली गयी उनके पास. उन्होंने अपने मित्रों से कुछ अंतर बनाते हुए मुझसे पूछा, ‘अरे! तुम यहां कहां ?’ उनकी दृष्टि दूसरे स्टाल पर खड़ी मेरी सहेलियों पर पड़ी- ‘अच्छा, पूरा क्लास यहीं पर है... क्या बात है... मैं यहां पर तो पीरियड नहीं लूंगा...’ कहकर वे मुस्कराये. मैंने कुछ सकुचाते हुए कहा, ‘सर, वो क्या है कि मुझे आर्ग्यानिक का वो एसिड वाला चैप्टर समझ नहीं आ रहा... यदि आप...’
वे निर्मुक्त हंसी के साथ बोले, ‘तो उसमें क्या परेशानी है! तुम ऐसा करो...’ ज़रा सोचते हुए उन्होंने सुझाव रखा- ‘क्या अभी आ सकती हो.. मेरे घर चली आओ. मैं फटाफट सब समझा दूंगा.’
मैंने अति उल्लास में गर्दन हिला दी- ‘सर, मैं रिक्शा से आ जाऊंगी. क्या आप पहुंच जायेंगे ?’
उनके आश्वासन के बाद मैं निकल पड़ी. मैं उनका घर कहां है जानती थी क्योंकि उसी मोहल्ले में मेरे चाचा रहते थे. उनके घर के सामने रिक्शा रुका. वे दरवाज़े पर ही खड़े थे. मुझे भीतर बुलाया. मुझे यह संयोग बड़ा सुखद लगा कि वे घर पर अकेले थे. उन्होंने ही बताया कि उनकी पत्नी मैके गयी हुई है. संभवतः इसीलिए उन्होंने यह प्रस्ताव भी रखा होगा.
पढ़ना-पढ़ाना क्या था. हम दोनों अवगत थे कि हम क्यों मिले हैं. उन्होंने ड्राइंग रूम में थोड़ी देर बैठने के बाद ही मुझसे पूछा, ‘क्या हमारा घर नहीं देखोगी ?’
बेडरूम, किचन वग़ैरह दिखाने ले जाते हुए तो फ़ासला-सा बरता उन्होंने लेकिन लौटते हुए ‘कैसा लगा हमारा ग़रीबखाना...’ कहते हुए मेरी बग़ल से हाथ डाल मुझे अपने से सटा लिया. उनके हाथों से शरीर पर आये दबाव का मैंने कोई विरोध नहीं किया तो उन्होंने मुझे पलटाकर अपनी बांहों में जकड़ लिया और उनके होंठ मेरे होंठों से आ चिपके. चुंबन की लम्बाई खिंचती गयी और वे धीरे-धीरे मुझे लिये-लिये वापिस बैठक में प्रवेश कर गये.
मैं शरमाती हुई वहां सोफ़े पर सिमटकर बैठ गयी. वे बोले, ‘मैं तुम्हारे लिए कुछ खाने के लिए ले आता हूं.’ वे अन्दर चले गये. मैं उनके सान्निध्य से अभी-अभी हटी, उसे पुनः पाने की लालसा में बेचैन हो रही थी...
पता नहीं इतने-से अंतराल में क्या-कुछ उनके दिमाग़ में चलता रहा. शायद बहक से बहककर कहीं उनका मन यथार्थ के धरातल पर चहलक़दमी करता रहा होगा. मध्यमवर्गीय मानसिकता हमेशा व्यक्ति को वस्तुस्थिति पर विचार करने को बाध्य कर ही देती है. वे मिठाई की प्लेट हाथ में लिये आये. उसे टेबिल पर रखते हुए मेरे लिए अनपेक्षित संवाद उनके मुंह से निकला- ‘मुझसे बहुत बड़ी भूल हो गयी है, सांत्वना. मैंने यह भावावेश में न जाने क्या कर दिया. तुम मेरे घनिष्ट मित्र घनश्याम के बचपन के दोस्त की लड़की हो... मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था...’
मैं अवाकभाव उन्हें ताकती रह गयी. वे ही आगे बोले, ‘सांत्वना, तुम घर जाओ. मैं विवाहित एक बच्चे का बाप हूं और तुम्हारी अख्खी ज़िन्दगी सामने पड़ी है. हो सके तो मुझे माफ़ कर देना. और... और... तुम भी अपने जज़्बात पर तनिक क़ाबू कर लेना... सॉरी!’
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मैं बी.एस-सी. करने तक एक वर्ष और उसी कालेज में रही. उस प्रसंग के पश्चात उन्होंने अपना मृदुल बर्ताव वैसे ही रखा किन्तु कहीं कोई निकटता अथवा अंतरंगता हमारे बीच नहीं आने दी. मैं सच कहती हूं, उस दिन तो मैं भी उनके-मेरे सम्बन्ध की गहराई से विचलित हो गयी थी पर मेरा दिल बारहा उनसे अनक़रीब होने के वास्ते मचलता रहता था. उन्होंने एक बार पढ़ाते हुए कहा, ‘आज मैं आप सबको एक विचित्र साम्य से परिचित करा रहा हूं. आप लोग जानते ही हैं कि हमारी पृथ्वी और अन्य सौर परिवार के ग्रह सूर्य की प्रदक्षिणा करते रहते हैं- नियमित और निर्बाध. ऐसा ही हमारी कोशिकाओं में भी होता है- इलेक्ट्रॉन लगातार कोशिका के केन्द्र में स्थित न्यूक्लियस की परिक्रमा करते रहते हैं. यह ब्रह्मांड और हमारे शरीर के छोटे-छोटे सेलों में जो समानता है, वह क्यों है, यह शोध का विषय है...’
मुझे लगा, मैं भी निगेटिव यानी मादा इलेक्ट्रॉन हूं, और पॉज़िटिव माने नर न्यूक्लियस के इर्द-गिर्द चक्कर लगा रही हूं. यह मादा तो मैं हूं ही, पुरुष है प्रवेग, जो मुझसे प्रकृति के बरिखलाफ़ मुंह मोड़ चुके हैं- मालूम नहीं क्यों वे मध्यमवर्गी मानसिकता की सरहद पार कर अपने प्रेम को ज़ाहिर और स्वीकार करने की हिम्मत नहीं दिखा पाते... भयभीत मैं भी हूं. ख़्ाासकर इस रिश्ते की आगत् अनिश्चितता और विनाश की ज़मीन पर अंकुरित अपनी सांप्रतिक खुशहाली को लेकर. कभी-कभी सोचती हूं हरित मानव बन गयी हूं और कालांतर में वनस्पति के समान. जीवित तो हूं पर अचल, किसी चहबच्चे जैसी या स्थिर हुई बीर-बहूटी-सी निष्क्रिय. यह मेरे जीवन का पहला प्यार था, जो मुझे उदासीन कर गया. मैं अवसाद की इसी झील में ऊभ-चूभ कर रही थी कि मुझे अकेले पाकर प्रवेग ने एक दिन मुझे इससे काफ़ी-कुछ उबारा. उन्होंने मुझसे इतना ही कहा, ‘मेरे कारण, मैं जानता हूं, तुम बहुत उद्विग्न रही हो. मैं क्षमा के योग्य नहीं हूं लेकिन तुम...तुम्हारे उज्ज्वल भविष्य की कामना करते हुए यही चाहता हूं कि यह सब भूल जाओ, ज़िन्दगी बस इतनी ही नहीं है, आगे बढ़ो. अपने-आपको सम्भालो, मज़बूत करो. हां, मेरी कभी ज़रूरत पड़ी तो मैं हरदम तुम्हारे पार्श्व में उपस्थित रहूंगा. मुझे आवाज़ दे देना बेहिचक... लेकिन संवारो अपने आने वाले कल को...’
उनके इस प्रोत्साहन ने मुझे झील से नदी में बदलने का काम किया.
मैंने अपने परिजनों के विरोध के बावजूद ज़िद करके नज़दीक के शहर में स्थित अपने विश्वविद्यालय के रसायनशास्त्र विभाग में दाखिला ले लिया. वहां यूनिवर्सिटी के गर्ल्स होस्टल में मेरे रहने की व्यवस्था भी हो गयी. यह इसलिए करना पड़ा कि हमारे क़स्बे में विज्ञान का पोस्ट ग्रैजुएशन तब शुरू नहीं हुआ था. उनके द्वारा नकारे प्यार से मुझे एक दिशा मिली थी, एक जीवन-दृष्टि, मैं उस ओर बढ़ती गयी. उनकी केमेस्ट्री की ब्रांच अॉर्ग्यानिक में मैंने एम.एस-सी. भी कर लिया. इस दौरान क्लास के एकाध युवा के प्रति अपने आकर्षण को मैंने कभी महत्व नहीं दिया. अब उनके बताये रास्ते पर आगे जाने हेतु मैंने पिताजी से फिर हठ किया कि मैं रिसर्च करूंगी. मां का अवरोध था कि अब तुम्हारी शादी की उम्र हो चली है. देर करने पर अच्छे रिश्ते नहीं आयेंगे. इसके बरक्स एम.एस-सी. का फ़र्स्ट डिविज़न मुझे मदद कर रहा था. छोटा भाई अभी दसवीं में था. मैं घर में सबसे बड़ी थी. यह भी मेरे पक्ष में गया. पिताजी सुलझे हुए विचारों के थे. उन्होंने थोड़ी आनाकानी के बाद अनुमति दे दी.
हमारे विभागाध्यक्ष ने मुझे रिसर्च के लिए अपना विद्यार्थी बनाने में पूरी सहायता की. वे अपने देश में ही नहीं विदेशों में अपने ‘हेटेरोसाइक्लिक कम्पाउंड्स’ के रिसर्च पेपर्स के कारण जाने जाते थे. इसी विषय का टॉपिक उन्होंने मेरे लिए चुना था. मैंने फिर से विद्यापीठ के कन्या छात्रावास में रहने-खाने का इन्तज़ाम कर लिया और इस मिशन पर पूर्ण सामर्थ्य से लेबोरेटरी वर्क प्रारंभ कर दिया. गाइड के सौजन्य से मुझे एक कालेज में पार्ट टाइम जॉब मिल गया था. इस तरह मैंने पिताजी पर के आर्थिक बोझ को यथेष्ट हल्का कर दिया.
हम दो थे उनके शोध छात्र. वह भी एक कालेज में अंशकालीन व्याख्याता था. हमारा विषय मिलता-जुलता था. एक-दूसरे के संग सामंजस्य बैठाते हुए हम समूची एकाग्रता से विभिन्न प्रयोग करते रहते थे. नतीज़तन हम दोनों काफ़ी क़रीब आते गये. एक बार कैन्टीन में चाय पीते हुए उसने पूछा, ‘सांत्वना, हम आठ-दस घण्टे साथ बिताते हैं, क्या हम उनको चौबीस घण्टों का विस्तार नहीं दे सकते ?’
‘तुम कहना क्या चाहते हो ?...’ हांलाकि मैं उसका अभिप्राय बूझ रही थी.
‘मेरा मतलब यही है कि हम साथ-साथ रहें, बिना किसी बन्धन के... ना मैं तुम्हारे व्यक्तिगत मामलात में टांग अड़ाऊं, न तुम मेरे. एक छत के नीचे रहकर भी पूरी तरह आज़ाद. तुम्हारी अपनी विचारधारा होगी, मेरी भी है- वह वैसी ही अलाहिदा रह सकती है. तुम्हारा अपना परिवार, अपने संस्कार, अपनी आदतें, अपने खयालात हर कोण से सुरक्षित रहेंगे- मेरे भी. दैहिक मिलन देह तक ही सीमित रहेगा. तुम या मैं, जब चाहें अलग हो जाने को स्वतंत्र रहेंगे...’
उसके इस दीर्घ कथोपकथन को मैं ध्यान से सुनती रही, मन-ही-मन गुनती रही. यह निर्विवाद था कि उसके लिए मेरे अंतर में भी कुछ-कुछ होने लगा था. प्रेम तो नहीं कह सकते मगर एक ऐसा सखा-भाव था कि मैं उसे पसन्द करने लगी थी. कदाचित वह भी. उसकी तज्वीज़ मुझे समीचीन तो लगी पर बिना विवाह किये क्या यूं साथ रहना उपयुक्त होगा... मैंने उससे कहा, ‘संज्ञान, मैं इस पर सोचूंगी. मुझे वक़्त दो.’
यह वह समय था जब चारों तरफ़ स्त्री-स्वतंत्रता के चर्चे थे. वह पुरानी औरत- मेरी मां के ज़माने की -चार दीवारी से बाहर निकल चुकी थी. वह नौकरी कर रही थी, स्वअर्जन ने उसका आत्म-विश्वास बढ़ा दिया था. वह पुरुष की अधीनस्थता को अस्वीकारते हुए उसकी ग़ुलामी से मुक्ति के लिए संघर्षरत थी. देश-विदेश में नाम कमा रही थी. पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर वह उससे बेहतर नहीं तो बराबरी का कार्य कर रही थी.
वैसे भी मैं विवाह को लेकर प्रायः नकारार्थी थी. सोचती थी कि इस बेकार के झंझट में पड़कर मैं अपना करियर क्यों दांव पर लगाऊं. जानती थी कि एक मर्तबा किसी मर्द के अधीन हो गयी तो कहीं की नहीं रहूंगी. यह इसलिए कि पति नामक जीव पत्नी को बांधकर रखने में, दस महीनों के भीतर मां बनाकर घरेलू कामवाली, बच्चों को सम्भालने वाली एक औरत में परिवर्तित करने की कला में निष्णात होता है. जल्दी बच्चा पैदा करने के पीछे उसकी इस साज़िश में दो पहलू पोशिदा होते हैं. एक, मां बन गयी तो इधर-उधर भटकेगी नहीं, अर्थात् पूरी वफ़ादारी से मेरे एक के अधिकार में रहकर किसी पर-पुरुष को घास नहीं डालेगी. दूसरे- बच्चे के लालन-पालन में डूबी अपना ज्ञान, अपनी डिग्रियों या पूर्व में की गयी नौकरी से उसका आहिस्ता-आहिस्ता मोहभंग होता जायेगा. इस प्रकार इस षड्यंत्र की शिकार होकर वह जाने-अनजाने पारिवारिक व्यस्त दिनचर्या में उलझी जीवन-भर के लिए उसी मर्यादित घेरे में क़ैद होकर रह जायेगी.
ऐसा भी नहीं कि यही सार्वभौम सत्य हो. पत्नियां आजीवन नौकरी करती हैं- घर सम्भालने, बच्चों की परवरिश करने के बावजूद. ऐसे में कभी-कभार पति का आलस-भरा, ग़ैर-ज़िम्मेदाराना रुख भी यदा-कदा दृष्टिगत होता है. कतिपय पति- पत्नी नौकरी कर रही है, घर चला रही है तो काहिल होते जाते हैं. ज़्यादातर वे, जो नौकरी में नहीं होते. इसकी अति भी देखने में आती है कि ऐसा पति शराब का सहारा लेकर पत्नी के वेतन पर निर्भर होकर निकम्मा होते हुए भी अपनी तानाशाही जारी रखता है. ये भिन्न-भिन्न परिस्थितियां हैं, वास्तविक होकर भी समझदारी और समझौते के परिणय से सुदूर जाती हुईं. इसके अपवाद-स्वरूप पति-पत्नी ज़िन्दगानी के दो पहिए बनकर सुख-समृद्धि का लक्ष्य पाने में क़ामयाब भी होते हैं.
यह सब है लेकिन नौकरीशुदा, अपने प्रारब्ध के प्रति आशान्वित युवती चाहती है कि वह अक्लमंद है, कमा रही है, उन्नति की अनगिन सम्भावनाएं हैं तो क्यों करे विवाह ?... क्या वह अकेली रहकर इस भव-सागर को पार नहीं कर सकती. तब उसे ध्यान आता है अपनी नैसर्गिक- शारीरिक ज़रूरतों का. उसके बिना क्यों इस अनमोल जीवन को व्यर्थ किया जाये... परन्तु उसका तो सहज स्वाभाविक परिणाम है- संतान... विवाह नामक संस्था है ही इसलिए. मान लो, वैवाहिक गठबंधन में ना फंसकर दैहिक आवश्यकताओं को परिपूर्ण किया जाये.... यूं ही ‘लिव-इन रिलेशन’ को स्वीकारते हुए, सावधानी बरतते हुए...
तब भी औरत के वजूद की सबसे महान उपलब्धि ममता से वंचित रह जाना क्या यथोचित होगा... हां, इस सह-जीवन से मानसिक-दैहिक तृप्ति के साथ-साथ अगर्चे ममत्व का वरदान मिल जाये... लेकिन वह ‘पार्टनर’ कल को छोड़ गया... तो क्या... क्या आधुनिक नारी इतनी सक्षम नहीं है कि बच्चे को पाल-पोसकर क़ाबिल बना सके ?.... फिर यह हिचकिचाहट क्यों...? संभवतया बच्चे को बाप का अदद नाम देने की खाातिर अथवा पुराने मूल्यों के संरक्षक अपने माता-पिता एवं दीगर नातेदारों के संस्कारी हिये को तोड़ पाने में निर्भीकता की कमी के कारण. किन्तु उन्हें क्या पता कि युग कितने रंग बदल चुका है और बदलता जा रहा है, जैसे हर क्षण- उनको क़ायल करना तो मुश्किल है पर ऐसा कोई निर्णय ले लेने पर उनकी सहृदयता के रिसने की प्रतीक्षा मुझे निराश भी नहीं करेगी. आखि़र खून का रिश्ता मानीखेज़ होता है.
और मैंने निर्णय ले लिया. रहूंगी संज्ञान के संग. मेरी वैयक्तिक इच्छाएं हैं ही- क्यों कर दूं उन्हें दफ़न ?... हो जायेगा, उसका सामना करूंगी पूरी मुस्तैदी से.
कहीं कोई दिक़्क़त भी नहीं हुई. मैं उसके एलआइजी फ़्लैट में अपना जो थोड़ा-बहुत सामान था, लेकर उठी और चली गयी. संज्ञान बेहद प्रफुल्लित था. उसने मेरी अगवानी वैसे ही की ज्यों कोई अपने दोस्त की करे. अपने सामान को जमाने के बाद मैंने पाया कि वह एक-टक मुझे निहार रहा है. मेरे बाल उलझे-बिखरे थे, लटें चेहरे से सरगोशी कर रही थीं, पसीना था कि मेरे द्वारा उसके अव्यवस्थित आवास को संवारने की गवाही दे रहा था. मुझे संकोच-सा हो रहा था और वह बेबाक मेरी बेतरतीबी को अपने नैनों से पिये जा रहा था. अंततः मैंने उसके इस मर्दाना लेकिन सुशांत आक्रमण को तरज़ीह न देते हुए- या कहें कि देते हुए कहा, ‘मैं ज़रा मुंह-हाथ धोकर आती हूं.’
उसने मुझे इशारे से रोका- ‘इसकी क्या ज़रूरत है... अभी जो तुम हो, किसी मौलिक कविता-सी, काग़ज़ पर उतारने की कोशिश से पहले-सी अनगढ़- निहायत लुभावनी, अपने मूल रूप में... मैं तुम्हें यूं ही... उसके अधरों की बेताब हलचल को मैं न समझ पाऊं, ऐसी भी नौसिखिया नहीं थी. हिचक के बावजूद मैं उसकी तरफ़ बढ़ी.
उस रात ने मुझे वह-वह दिया, जो मैं कभी हासिल नहीं कर पायी थी. हो सकता है प्रथम समागम का यह अनोखा अहसास दोबारा इतनी शिद्दत से जज़्ब न कर पाऊं. वह भी खुश था. मुझे लगा- जीवन में इससे अधिक और क्या तो चाहिए होता है... भले ही यह मात्र सहभागिता से प्राप्त हुआ हो, बिना किसी प्रेमपूर्ण अनुबंध के...
यह मान लेने से मुझे कोई परहेज़ नहीं है कि उसकी बांहों की गिरफ़्त में ज़ब्त भी मैं प्रवेग को बेतहाशा याद कर रही थी. मुझे बिलकुल यही महसूस होता रहा था कि यह संज्ञान से पा रही चरम अवस्था में मैं उसे नहीं प्रवेग को ही अपने आगोश में लिये भोग रही हूं... इस अजीब फ़ंतासी की उद्भ्रांत स्थिति को पता नहीं क्या नाम दूं लेकिन सच यही था.
जैसा कि हरेक के साथ होता है, अब हमारा यही रूटीन बन गया. दिन भर की व्यस्तता में फुर्सत के पल ढूंढ-ढूंढकर हम आलिंगन-बद्ध होते रहते और इसकी निष्पत्ति होती रात के एकांत में. सारा कुछ बढ़िया चल रहा था. हम गर्भ-निरोधक एहतियात सख़्ती से बरत रहे थे. अपने साझेदार को अनिवर्चनीय संतुष्टि देना, यही हमारा एक-मात्र उद्देश्य होता था. पति-पत्नी भी क्या तो सुख पाते होंगे, उससे कई गुना अधिक ही था यह.
अब शुरू हो चुकी थी हमारी तैयारी अपने-अपने शोध-प्रबंध को गाइड की सहायता से पूर्ण रूप देने की. इस दरमियान मैंने एक नयी बड़ी फ़ैक्टरी में प्रोडक्शन मैनेजर के पद हेतु अर्ज़ी दे दी थी. मुझे क़तई हताश नहीं होना पड़ा. मैनेजर के बजाय मेरे अनुभव की कमी की वजह से मुझे असिस्टंट का आफ़र मिला, जो मैंने संज्ञान की सलाह लेकर तुरंत मंज़ूर कर लिया. कालेज में कुछेक पीरियड लेकर हो रही आमदनी से यह निश्चित ही कई प्रतिशत ज़्यादा था.
इससे हुआ यह कि हम दोनों केवल शाम के बाद ही मिल पाते थे. लेकिन इससे कोई विशेष फ़र्क़ नहीं पड़ा. रातें तो हमारी ही थीं. छुट्टी के दिन हमारे अपने होते थे. आउटिंग का मज़ा ही अलग होता था. यह सब था बहरहाल मेरे स्वयं तक सीमित. घर से फ़ोन आते थे, बीच में मैं दो बार वहां हो भी आयी थी. उन्हें अपने नये पद की और थीसिस पूरा हो जाने की जानकारी दी तो वे बेचारे मेरी इन सफलताओं पर नितांत प्रमुदित होते रहे. उन्हें क्या मालूम कि मेरी इसके अलावा भी कोई निजी ज़िन्दगी है. शादी-शुदा औरत के हर आयाम से मैं न सिर्फ़ परिचित हो चुकी थी बल्कि उसे सम्पूर्णता के साथ जी भी रही थी. भय भी लगता था कि जिस राह पर मैं चल पड़ी हूं, वह कहां ले जायेगी. और जब कभी मम्मी-पापा को मेरी असलियत पता चलेगी, कितना भयानक विस्फोट होगा... मेरे लिए यह कल्पनातीत था पर वर्तमान- जो मन-भावन था, उसे ऐसे ही चलते देने के सिवा भला मैं कर भी क्या सकती थी... ओखली में सिर दिया तो मूसल से क्या डरना!...
इस सुखद दिनचर्या में कहीं कुछ अनहोना-सा मैं खरामां-खरामां अनुभूत कर रही थी. संज्ञान मुझे थोड़ा बदला-बदला लगने लगा था. कई मर्तबा वह हमारे रात के मिलन को टालकर करवट दूसरी ओर लेकर खर्राटों में खो जाता था. मैं जागती रहती थी कि वह अब पलटेगा मेरी तरफ़, अब.... इस बदलाव का कारण मेरे गले नहीं उतर रहा था. या तो वह मुझसे ऊब चुका था... वही बदन, वही प्रक्रिया, वही अंजाम- कौन न भर आये इस दोहराव की उकताहट से. दूसरे, मैं उससे बहुत ज़्यादा कमाने लगी थी- कहीं यह उसके पुरुषोचित दम्भ को आहत तो नहीं कर रहा था ?
कहते हैं ना कि एक रास्ता बन्द होने की क़गार पर आ जाये तो अतिरिक्त एक खुद खुलने लगता है. यही हो रहा था मेरे साथ शायद. मेरे सम्बन्ध हौले-हौले अपने प्रोडक्शन मैनेजर से निर्बन्ध होते जा रहे थे, बिना मेरे प्रयास के. वे विवाहित थे. उनका बेटा और बेटी दोनों कालेज में पढ़ रहे थे. यह स्थिति मेरे माफ़िक़ नहीं थी लेकिन मन का क्या करें... वह तो खिंचता चला जाता है, अनजाने और अनचाहे- उस ओर, जहां उसे प्रेम की किरण की एक किरच भी अनायास कभी-कभार दिखाई दे जाये.
संज्ञान का भी हो सकता है किसी और के साथ यूं ही कुछ चल रहा हो... तभी तो वह इन दिनों खोया-खोया रहता है. न भी हो तो यह मान लेने में मुझे कोई संकोच नहीं था कि हमारा एक-दूजे के प्रति आकर्षण कम होता जा रहा था- दिन प्रति दिन. इस तरह के निरावलंब सम्बन्धों में एक ठहराव का आ जाना उतना ही स्वाभाविक है क्योंकि समाज की तथाकथित संहिताएं उन्हें जुड़े रहने के लिए किसी भी प्रकार से प्रभावित नहीं करतीं. जब स्वतंत्रता का बीड़ा उठाया है तो यह सब सहना ही पड़ेगा...
और सहना कैसा... जब चाहो फिर अलग होकर अपनी-अपनी व्यक्तिगत दुनिया में वापिस हो लो. दोनों सिरों पर धधकती अग्नि शांत होकर छोटे-छोटे अंगारों के बुझ जाने की प्रतीक्षा कर रही थी. लेकिन राख होने तक रुकने का समय और सब्र किसके पास था...
एक रात हमने तय कर लिया कि बस हुआ, अब इस साझेदारी को यहीं खत्म कर जुदा हो लेने में ही भलाई है. मुझे उसका नहीं पता- मैंने जानने का प्रयास भी नहीं किया- लेकिन मेरे लिए अगले पते का इन्तज़ाम मैं कर चुकी थी. फ़ैक्टरी ने मेरे नाम क्वार्टर आवंटित कर दिया था. मैंने पिछली बार से थोड़ा अधिक अपना सामान समेटा और सवेर-सवेरे अपने नये ठिकाने पर जा पहुंची.
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इस नये ठीये पर भी मैं अकेली नहीं थी. मेरी मेरे बॉस आल्हाद के साथ नज़दीकियां बढ़ती जा रही थीं. मेरे क्वार्टर पर वे अक्सर शाम को आ जाते थे. दूर-दूर से ही बातें होती थीं. वे भी और मैं भी सकुचाहट की सीमा को लांघ नहीं पाते थे. मैं बेचैन होकर उस रात नींद को हरा नहीं पाती थी. संभवतः हमारा शरीर किसी प्रविधि का आदी हो जाता है. उसकी क़सर को दीर्घ अवकाश देने में कसरत-सी करनी पड़ती है- तन-मन दोनों को. संयम बारहा अपना मुंह उठा-उठाकर चीत्कार-सा करता रहता है कि मुझे अब तो बख़्शो. ऐसे में आग है कि अपनी ही लपटों पर नियंत्रण नहीं रख पाती.
मैं नादान नहीं थी. इस नवीन संसर्ग की विसंगति का अंदाज़ा मुझे था. अपने होते पूरे प्रयत्न में थी कि इसे टाल दिया जाये.
एक शाम जब मेरी तबीयत खराब थी, आल्हाद डाक्टर के पास ले गया. दवाइयों की व्यवस्था की. मेरे बेड के समीप कुर्सी डालकर पूरी रात मेरी चिन्ता में गुज़ार दी. भोर की शुभता में मेरा बुखार उतर चुका था. उसके पूछने पर मैंने बताया कि जोड़-जोड़ दुख रहा है. जब बेड पर बैठकर वह मेरे अंग-अंग को सहलाने लगा, मैं पराजित हो गयी. उसकी हरकतों की उंगलियां बार-बार मेरे उन हिस्सों को सहेजती-स्पर्श करती फिसलती जा रही थीं, जो अत्यधिक संवेदनशील होते हैं. आखिरकार मैंने समर्पण कर दिया.
जब कोई प्रसंग प्रारंभ हो जाता है तो वायुयान से तेज़ रफ़्तार से ऊपर-ऊपर सीढ़ियां चढ़ता जाता है. हालत यह हो गयी थी कि हर रोज़ आल्हाद सांझ ढ़ले आ जाता, हम समागमरत होते, तत्पश्चात वह लौट जाता अपने परिजनों के बीच. क्या मेरा यह दुस्साहस औचित्यपूर्ण था...?
मैं आईने के सम्मुख बैठी अपने बालों को झटककर, अपनी सूरत पर हाथ फेरते हुए स्वयं का निरीक्षण कर रही थी कि मैं कितना बदल गयी हूं, कहां से कहां आ निकली हूं कि वह आयी- सांत्वना. उसने घूर कर मेरी आंखों में देखते हुए प्रश्न किया- ‘क्या तुम यह सब ठीक कर रही हो ?’
मैं हड़बड़ा गयी. किसी प्रकार मस्तिष्क को संयत कर उत्तर दिया- ‘मुझे नहीं खबर... मैं तो काल के प्रवाह में बहती चली जा रही हूं. कहीं कोई तट नज़र नहीं आ रहा. तुम ही बताओ- मेरी क्या ग़लती है ?’
‘ग़लती !.. ग़लती यही है कि तुम इस धारा के विरुद्ध अपने-आपको संयोजित नहीं कर रही...’
‘हां, यह वास्तविकता है- शायद तन की अधिक, मन की कम. लेकिन क्या यह झूठ है कि मैंने जब-जब ख़्ाुद को निसार किया-प्रेम से वशीभूत होकर, मुझे केवल दैहिक तृप्ति मिल पायी...’
‘क्योंकि वह कदापि प्रेम नहीं था जो तुम्हें दो बार धोखा देकर तन की कीमिया में डुबोता रहा..पर इसका अंजाम क्या होगा, कभी सोचा है तुमने ?’
‘अंजाम...’
‘हां. यदि इन कारनामों की बनिस्बत कहीं गर्भ ठहर गया...’
‘मैं हमेशा सतर्कता से...’
‘सतर्कता से...’ वह उपहास से हंसी- ‘एक आदमी की कीप बनकर रह गयी हो!’
मैं गहन मंथन के भंवर में फंसी उससे निगाहें चुराने लगी. इस नग्न सत्य को मैं पचा नहीं पायी कि मैं एक रखैल मात्र बन कर रह गयी हूं. उठी और बिस्तर पर औंधी हो फफक-फफक कर रोने लगी. सांत्वना ने मुझे उस कठोर भूमि पर ला पटका था, जिसका जवाब मेरे तईं नहीं था. मैं पागलों की नाईं ज़ार-ज़ार आंसू बहा रही थी. जब मेरा आवेग कुछ थमा, मैंने पलटकर देखा. वह जा चुकी थी. आईने में सामने रखी कुर्सियों का अक्स मुझे मुंह चिढ़ा रहा था.
अबकी मैंने पक्का फ़ैसला ले लिया. नई नौकरी की तलाश में जुट गयी. आईसीआरसी (इंडियन केमिकल
रिसर्च सेन्टर) में साक्षात्कार के बाद मुझे यह मनचाही नौकरी मिल गयी. मैंने फ़ैक्टरी के जीएम को इस्तीफ़ा सौंप दिया. आल्हाद मुझे पुनः पुनः पूछता रहा. मैंने इतना ही कहा, ‘मेरे परिवार वाले चाहते हैं कि मैं अपने कस्बे लौट जाऊं.’ फ़ौरन वर्किंग वुमेन्स होस्टल में अपना असबाब लदवाकर चली गयी. मन में शंका जागी- कहीं मैं फिर पुरुष तो नहीं बदल रही नौकरी के बहाने ?
नहीं, अब इति हुई. पूर्ण विराम. बहकने की हद समाप्त. और देखो- उसी सप्ताहांत मम्मी-पापा भी मुझसे मिलने आ गये. वे मेरी नई नौकरी तथा मेरे आवास को देख संतुष्ट हुए. मम्मी को यहां के एक बड़े क्लिनिक में दिखाने लाये थे. मेरे होस्टल में तो उनका समाना मुश्किल था, मैंने नज़ीक के एक होटल में उनकी व्यवस्था कर दी. मम्मी को कोई गंभीर बीमारी नहीं निकली. उन्होंने जाने से पूर्व कहा, ‘सन्नो, अब बहुत हुआ. तेरी उम्र निकली जा रही है. हमने तेरे लिए एक लड़का देख लिया है. अपनी ही जाति का. ऊंचे खानदान से है. एडीएम है इसी शहर में. अपने ही क़स्बे में उसके मां-बाप रहते हैं. हमने उनसे बात कर ली है. तुम्हारा फ़ोटो उन्हें पसन्द आ गया है....’
पापा ने समापन किया- ‘बेटे, इससे अच्छा रिश्ता नहीं आ सकता. दहेज़ का कोई झंझट नहीं, तू नौकरी नहीं छोड़ेगी, इस शर्त को उन्होंने मान लिया है. लड़के का फ़ोटो तू देख ले और हामी भरकर हमको इस ज़िम्मेवारी से मुक्त कर. तेरी ‘हां’ की हम राह देखेंगे...’
मैं उनके कहे से बाहर नहीं जा सकती थी पर फिर उसी सांसारिक जाल में कैसे फंसूं... मुक्त प्रेम की तरफ़दार मैं पुनः उसी पुराने ढर्रे पर चल निकलूं ?... गृहस्थी के नागपाश में मुब्तिला हो जाऊं...? नहीं, नहीं...
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अगले दिन मैं सुबह से ही अस्वस्थ थी. जी मिचला रहा था. उलटी होने को आती थी, रुक जाती थी. मैं घबरा गयी. फ़ोन पर छुट्टी की दरख़्वास्त दे दी. यह कैसे हो गया, सारी सावधानियों के बावजूद... याद आया. एक रात आल्हाद बियर ले आया था. नशे में शायद निरोध को हम भुला बैठे थे. सचमुच उस रात हम निर्द्वन्द्व एक-दूसरे में बेतरह समा गये थे. लेकिन उसका यह दण्ड...
मैं तुरंत अपनी लेडी डाक्टर के क्लिनिक गयी. अपना शक प्रकट किया. वह परीक्षण कर रही थी मेरे शरीर का और मैं अपने भविष्य का. अब क्या होगा... क्यों, मैं तो तत्पर थी कुंआरी मां बनकर अपने बलबूते बच्चे को परिपूर्णता देने के लिए. अब क्या हुआ... बड़ी-बड़ी डींगें हांकना अलग और साक्षात् संकट के सम्मुख धैर्य बनाये रखना अलग. बच्चे का लालन-पालन कर भी लूं तो यह जो समाज है, उसका मुक़ाबला करने का धीरज कहां से लाऊंगी ? क्या कहूंगी मम्मी-पापा से, भाई-बहन से, दादा-दादी से, मामा-मामी से, चाचा-चाची से... और उस बच्चे को क्योंकर मुंह दिखा पाऊंगी, जब वह अपने पापा के बारे में जानने को उत्सुक होगा... क्या वह बालिग़ होकर मेरे इस अवैध सम्बन्ध को सम्मति देगा...?
नहीं, मैं नहीं चाहती कि मेरी कोख इस तरह फले-फूले. यानी मैं परास्त हो गयी... डर लग रहा है- कैसे क्या होगा...
डाक्टर अर्चना ने तभी एक मुस्कान से भरा डाइग्नोसिस मुझ बेकल के सामने रखा-‘चिन्ता का कोई सबब नहीं है. तुम गर्भवती नहीं हो. मामूली पेट की गड़बड़ी है. मैं गोलियां लिख दे रही हूं..’
मेरी खुशी का अनुमान सिर्फ़ मेरा बेचैन मन ही लगा सकता था.
इस विध्वंस से बच जाने पर मैं गंभीरता से अपने विषय में विचार करती रही. क्यों मैं ऐसी बहकती रही ?... मेरी जो तलाश थी वह थी प्यार पाने की. मुझे किसी मर्द से खालिस मुहब्बत की आकांक्षा थी. बदले में मुझे मिला मेरे तन के संग खिलवाड़. मैं उसे कु़बूल करती रही कि जब पति-पत्नी में एक-दूजे से अनजान होकर भी वक़्त के साथ लगाव की अनुभूति जनम सकती है, वे प्रेम-पाश में बंध जाते हैं तो इस मार्ग से मैं भी प्रेम की मंज़िल पा लूंगी... चलो, जो हुआ मगर अब मैं वहीं झुकूंगी, जहां प्रीति हो और तमाम ज़िन्दगी साथ गुज़ारने का भरोसा.
और शायद नियति ने वह अवसर मुझे जल्द ही दे दिया. अपने क़स्बे से रेल के वातानुकूलित डिब्बे में आते हुए वह मुझसे टकराया. हमारी बर्थ आमने-सामने थीं. परिचय हुआ तो बातें खिंचती गयीं. दोस्ती हो गयी. वह खूबसूरत था, एमएनसी में बड़े पद पर था, कुंआरा था और खास चीज़ कि मुझ पर फ़िदा-फ़िदा था. शहर पहुंच कर सिलसिला तेज़ी से चल निकला. हम प्रति दिन शाम को मिलने लगे. कॉफी हाउस के कोने की केबिन में हमारा प्यार हौले-हौले परवान चढ़ रहा था.
वह अच्छे परिवार से था. उसका व्यक्तित्व कभी मुझे खिन्न भी कर जाता कि कहां वह और कहां मैं... लेकिन उसकी सरल-सलोनी बातें, उसका निश्चल स्वभाव तथा यदा-कदा मेरी सुंदर देह-यष्टि की उसके द्वारा की गयी तारीफ़ से मैं सरापा सम्मोहित हो चुकी थी. शेष था वह पल, जब वह मुझे प्रपोज़ करेगा और मैं उसकी जीवन-संगिनी बन अपने भाग्य पर इतराती रहूंगी.
और आ गयी वह शुभ घड़ी. मैंने इतना ही कहा, ‘अनुकूल, हमारी इन लम्बी और लगातार मुलाक़ातों को अब गठबंधन की आतुरता से प्रतीक्षा है. तुमने क्या सोचा है...?’
उसने निमिष भर के लिए अपनी पलकें झपकायी, ज्यों अपने पूर्व-निर्धारित निर्णय की जुगाली कर रहा हो,
फिर सौम्य किन्तु दृढ़ शब्दों में उसे प्रेषित किया- ‘तुम सही हो सांत्वना, हमारा प्यार उस दहलीज़ पर आ ठिठका है, जिसके बाद हमारा एकात्म हो जाना आवश्यक हो गया है. ऐसा करो, तुम अपना होस्टल छोड़कर कल ही मेरे फ़्लैट पर शिफ़्ट कर लो. हम उस मुक़ाम पर आ पहुंचे हैं कि दोनों का दूर-दूर रहना कोई मानी नहीं रखता...’
मैं चकित उसे देखती रह गयी. फिर हिम्मत कर विकल्प का उल्लेख कर ही दिया- ‘क्या हम विवाहबद्ध हो इसी पड़ाव तक नहीं जा सकते...’
उसने सरासर इन्कार में सिर हिला दिया- ‘सांत्वना, उसमें बहुत मुसीबतें हैं. हमारी आज़ादी...’
उसके अधूरे वाक्य की पर्वाह न करते हुए मैं एक झटके से उठी और बाहर निकल आयी. सबसे पहला काम किया अपना सिम बदलने का, जैसे आल्हाद से छुटकारा पाने के पश्चात किया था. क्या मतलब है पुनश्च उसी चकरघिन्नी में उलझने का. पुरुष को क्या है, वह अपने सुख के लिए यह अस्थायी प्रबंध कर ले सकता है. वही नर-मादा का आदिम रंजन. एक ऐसी सहभागिता जो इतर सभी को खारिज कर दे. हमारी संस्कृति के विपरीत. मर्द के लिए ऐशगाह, औरत के लिए कष्टसाध्य. रुसवाई का माध्यम. आदमी सही-सलामत, औरत क्षत-विक्षत. ओफ! यह दुष्चक्र... ना बाबा, ना...
लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि मेरी शिकस्त हो गयी है. सारी तकलीफ़ों को विस्मरण की खाई में धकेल कर फी़निक्स की मानिन्द मैं नया अध्याय लिखूंगी...
मैंने रात में मम्मी को फ़ोन लगाया और उनके द्वारा प्रस्तावित युवक के लिए स्वीकृति दे दी.
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प्रा.डा.अशोक गुजराती, बी-40, एफ़-1, दिलशाद कालोनी, दिल्ली-110 095.सचल ः 9971744164.
सुन्दर....बहुत बहुत बधाई.....
जवाब देंहटाएंअंतत: निष्कर्ष यही निकलता है कि स्त्री की वास्तविक आजादी इधर उदार भटकने में नही विवाह संस्था को ही अपनाने में है. सुरेन्द्र वर्मा |
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