चार कच्ची कोठरियों वाले एक बड़े आँगन, एक कच्ची रसोई और टूटे-फूटे नहानघर वाले मैले कुचैले घर को अच्छी तरह बुहार कर गोबर से लीपा गया था। मिट्ट...
चार कच्ची कोठरियों वाले एक बड़े आँगन, एक कच्ची रसोई और टूटे-फूटे नहानघर वाले मैले कुचैले घर को अच्छी तरह बुहार कर गोबर से लीपा गया था। मिट्टी की दीवारियां जो पूरे जाड़े भर जली घर की आग –अलाव से झुलस गयीं थी और उनपर कालिख के धब्बेनुमा निशान आ गये थे उनको चिकनी मिट्टी से सने गाढ़े पानी के घोल से पोतकर नया कर दिया गया था। सब निशान धुंधला गये थे। घर के दो तरफ खुलते थे दरवाज़े एक पुरबिया एक दखिने। दीमक लगे चर्र चर्र करते दरवाज़ों को चूने से रंग दिया गया था। घर में साल भर से पसरी टी बी की बीमारी के कण भर भी जीवाणु अब घर में नहीं रह गये थे।
टी बी का ठीक हो चुका मरीज़ रघुवा नया पैंट-बुशर्ट पहने, करीने से बाल काढ़कर, सरसों तेल चिपोड़े चेहरे पर फैली गर्व भरी मुस्कान लिए आज पूरे गाँव में छाती चौड़ी किये गश्त लगा रहा था।
ये वही रघुवा है जिसको साल भर पहले टी बी की बीमारी हुई थी। सही इलाज़ के अभाव में बीमारी यूँ बढ़ी कि रघुवा ने 4 महीने में ही खटिया पकड़ लिया था। बीमारी रघुवा को थी और बीमार पूरा घर हो गया था। छुआ छूत की बीमारी है ये मानकर गाँव का कोई भी उसके घर नहीं आता था। गांववालों और रिश्तेदार सबने दूरी बनाकर किनारा कर लिया था। 23 साल का नौ जवान बांका, गबरू 6 फुट 70 किलो का रघुवा सिकुड़कर 42 किलो का बचा था। खांसी ऐसी की रुकने का नाम ही नहीं लेती थी। बुखार इतना कि घर की चार कथरी गोदरी और एक नई रजाइया ओढने के बाद भी कांपना नहीं छूटता उसका। खांसी में जब बलगम के साथ खून तक आने लगा तो बूढी माँ रामकली और बाप शम्भुनाथ घबरा गये कि अब बेटुवा न बचेगा।
गाँव –जवार में रघुवा की बीमारी की बात फैलने से साल भर पहले आये उसके देखुवा जो अपनी छुटकी बिटिया कम्मो का ब्याह रघुवा से लगभग तय कर चुके थे, अपने वादे से मुकर गये और रघुवा के घर से नाता तोड़ लिया।
रघुवा की तबीयत दिन प्रतिदिन बिगडती रही बूढ़े माँ बाप तो जवान बेटे के मरने के इंतजार में उसकी जिंदगी के बचे दिन गिनने की हिम्मत जोहने लगे। जब रामकली और शम्भुनाथ से रघुवा का तड़पना देखा नहीं गया तो दोनों ने गाँव के गोपाल से बड़े बेटे को भेजने के लिए चिठ्ठी लिखवाई और पता लिखा पर्चा उसको देकर चिट्टी पोस्ट करने को कह आये।
चिट्ठी मिलते ही बड़ा बेटा लाखन तीसरे ही दिन सारे कामों से छुट्टी लेकर ट्रेन पकड़कर शहर से गाँव आ गया और रघुवा को अपने साथ शहर लेकर चला गया। शहर के बड़े अस्पताल में रघुवा का दो महीने जमकर इलाज चला तब जाकर उसकी खासी रुकी और बुखार उतरा। धीरे धीरे उसकी हड्डियों पर भी मांस चढने लगा। डॉक्टर की दी दवा से तो अब रघुवा पहले से ज्यादा खाना खाने लगा था।
टिकट कटा कर गाँव से बेटुवा को देखने आये रामकली और शम्भूनाथ के जान में जान आई की रघुवा काल के मुंह से लौट आया है उस को अब कुछ न होगा। बड़ी बहु ने सास ससुर और देवर की खूब सेवा की। रामकली की अब एक ही मुसीबत थी की कैसे भी करके उसके छुटके का घर बस जाये। बड़ी बहू और बड़े बेटे ने रघुवा के लिए गाँव के बाहर भी कई रिश्तेदारियों में बात चलाई थी। लेकिन कोई भी अपनी बेटी छुआ छूत वाली बीमारी के मरीज को ब्याहने पर तैयार नहीं था। जब रघुवा बिलकुल ठीक हो गया और शम्भूनाथ और रामकली को गाँव की याद आने लगी लाखन से कहकर घर की तैयारी करने लगे दोनों। बड़े बेटे ने भी देर न करते हुए टिकट कटाया और तीनों को गाँव जाने वाली ट्रेन में बैठा आया। रातभर के सफ़र के बाद तीनों गाँव लौट आये।
गाँव वाले अभी भी रघुवा और उसके घरवालों से दूरी बनाये हुए थे। रघुवा के यार दोस्त जिनके साथ वो खेत की मेड़ों पर बचपन में दौड़ लगाकर खेत की ककड़ी बूटे तोडा करता था और एक ही ककड़ी पर सब दोस्त झपट्टा मारकर उसमें मुंह लगाकर खाया करते थे वो सब दूर से कन्नी काट रहे थे। रघुवा को देखकर भी अनदेखा कर रहे थे। अभी पिछली होली में रघुवा के खेत में जो कलुवा, रघुवा के साथ पूरा दिन भांग के नशे में रघुवा के ऊपर रंगा-चुन्गा पड़ा था वो आज रघुवा की राम जोहार का जवाब भी नहीं दे रहा था। गाँव का बबलुवा जो रघुवा को देखते ही दद्दा दद्दा कहता हुआ हाथ पैर में लगी गाँव- घर की सारी धूल मिट्टी और बहती नाक थूक सब कुछ रघुवा के पोत उसके कंधे पर चढ़कर जंगल जलेबी की फरमाइश करता था। रघुवा फट से गाँव भर के जंगल जलेबी के पेड़ों को हिलाने चल पड़ता था और सब मीठी- मीठी जंगल जलेबियां बबलुवा को थमा देता, बबलुवा यूँ खुश हो जाता जैसे रघुवा ने उसको आसमान से चाँद तोड़ कर ला दिया हो और रघुवा के गाल पर खूब चुम्मियां देता। आज बबुलवा अपनी अम्मा के कहने पर रघुवा को देखकर जंगल जलेबी के पेड़ के पीछे छिप गया। पड़ोसी बराती भईया ने जब रघुवा, रामकली और शम्भूनाथ को देखा तो दूर से मुस्कुरा दिए। रघुवा को लगा दुनिया जहान की बात करने वाले बराती भईया ज़रूर आज उसके पास आयेंगे और उससे कहेंगे “ए रघुवा तनी इस्पेसल वाली खैनी बना, तेरे हाथ की खैनी खाकर तो नसा दुगुना हो जाता है” रघुवा ने झट से शम्भू के कुरते की उपरवाली जेब से खैनी निकाली और आँख में आंसू भरे बोला “बाराती भैया बड़े दिन भये न हमारे हाथ की खैनी खाए ?आओ आज हम तुमको इस्पेसल खैनी बना के खिलाते हैं” बाराती के चेहरे की झिझक को रघुवा समझ गया था और उसने रुवांसे मन और कांपते हाथों से खैनी की डिबिया बाप की जेब में वापस रख दी थी। बाराती ने बहाना बनाकर अपना आगे का रास्ता लेते हुए रघुवा की आँखों में तैर आये सवालों से पल्ला झाड लिया था रघुवा भी बूढा बूढी के साथ आगे बढ़ गया था। गाँव की औरतें झुण्ड में खड़ी घूँघट काढ़े सब रघुवा की ही बात पर फुसफुसा रही थी जिनको देखकर रामकली के जाने कबसे पकते गुस्से का बीज फूट पड़ा और वो एक सांस में जाने कितनी ही बातें किसी बेनाम को कह गयी लेकिन वहां खड़ी सबने समझ लिया की ये उनके ही हिस्से के फल थे। आंसुओं के घूंट को पीकर रघुवा को हिम्मत मिली और वो कुछ तनकर बस अपने घर की दूर से दिखती छापरीली मुंडेर को देख उसी सीध में आगे बढने लगा उसने न कुछ देखा और न कुछ सुना।
घर की देहरी पर पहुंच कर सबने लम्बी सांस खींची और छोड़ दी। घर की अंगनाई में रामकली ने खटिया झाड़कर बिछाई उसपर कथरी बिछाकर अपने रघुवा को उसपर बैठने को कह कर हाथ में झाड़ू उड़ाई और घर बुहारने लगी साथ ही सब गाँव वालों पर अपने मन की भड़ास निकालनी शुरू कर दी। शम्भू ने अंगीठी सुलगाकर चिलम तैयार की और हुक्के की गुड गुड के साथ गाँव वालों का गुस्सा धुएं के साथ ही पी गया। रामकली का गुस्सा जब बोल बोलकर बुझ गया तो चूल्हे में आग जली। रोटी पानी के बाद उसने ढलते दिन को देख ढिबरी जला दी। ढिबरी की मध्यम रौशनी में तीनों ने रोटी खायी और माथे से नाक तक बह आये पसीने को पोंछ कर आँगन में खाट लगाई और तीनों अपनी अपनी खटिया पर लेट गये। सफ़र की थकान से आँखों पर नींद सवार थी लेकिन चिंता के शोर ने किसी को बहुत देर तक सोने न दिया। चिंता इस बात की थी कि गांववालों का ऐसा रवैया कब तक चलेगा और अब रघुवा का ब्याह कैसे होगा क्या वो पहले की तरह अपनी जिंदगी इस गाँव में जी पायेगा जबकि गाँव वाले रघुवा के पूरी तरह ठीक होने के बावजूद भी उसको पहले जैसा मानने को तैयार नहीं दिखाई दे रहे थे।
कुछ ही दिनों में रघुवा बाप के संग खेत के काम पर जाने लगा था माँ रामकली ये देख खुश थी कि उसका बेटुवा पहले की तरह काम काज करने लगा है लेकिन उदास थी ये सोचकर कि उसके चेहरे पर पहले जैसी ख़ुशी नहीं थी। गाँव के कुछ लोग रघुवा को देखकर बदलने लगे थे कम से कम बात करने लगे थे और वो गाहे बगाहे गाँव के कुछ घरों में आना जाना भी करने लगा था लेकिन दाना-पानी और थरिया –पतरी से सबको अब भी परहेज था इस बात को रघुवा समझता था और कभी किसी के कुछ खाने को पूछने पर सामने वाले की हिचक समझ कर खुद ही मना कर देता था। रघुवा इतने से ही खुश था कि कम से कम सब मुंह से बोल तो रहे हैं फिर भी कभी-कभी मन कचोट जाता था की पहले जैसा अब कुछ भी नहीं रह गया था।
रामकली इसी जुगत में रहती की किसी तरह उसके बेटुवा का ब्याह हो जाए। गाँव की एक दो बड़ी बूढी जो अब रघुवा को ठीक हुआ जान घर के आंगन तक आने लगी थीं बावजूद इसके घर का पानी अब भी नहीं पीती थीं। रामकली सबसे अपने मन रोना रोती और कुछ राह निकलने को कहती।
उधर शम्भूनाथ भी गाँव की चौपाल वाले मैदान में पुराने बरगद के पेड़ के पास बने चबूतरे पर जब कब ठूंठ बनकर बैठ जाता और हुक्के की सूखी चिलम में आंच ढूंढते हुए खुद से ही भुनभुनाने लगता और दूर खेत में रघुवा काम करता दिखाई देता तो उसके खामोश सवालों के जवाब तलाशता शम्भुवा अपनी बगलें झांकने लगता। शम्भुवा भी अपनी ओर से कोई कसर नहीं छोड़े था लड़के का ब्याह कराने की कोशिश में लेकिन कुछ हो नहीं पा रहा था कोई बीमारी को लेकर मना कर देता था कोई अनपढ़ और बेरोज़गारी का कहकर टाल देता था। बूढ़ा- बूढी की बस यही तमन्ना थी कि कैसे भी करके उनके बेटे का ब्याह हो जाये और उनको स्वर्ग का रास्ता मिले।
गाहे बगाहे गाँव की जिन लड़कियों और औरतों ने रघुवा को कभी किसी तरह का चांस दिया था उन सबने भी रघुवा के लिए अपने दिल और घर के दरवाजे उसके लिए बंद कर लिए थे। उनमें से कोई भी रघुवा की ओर देखता तक नहीं था। रघुवा की अनुपस्थिति में औरों ने रघुवा का स्थान पा लिया था और सब रघुवा को अलग-अलग ढंग से चिढाते थे।
रघुवा ब्याह न हो पाने से बहुत परेशान था उस किसी काम में मन नहीं लगता था।उसने कुछ ही दिनों में खेत पर जाना भी छोड़ दिया था। सारा दिन घर में पड़ा खाट तोड़ता रहता था उसने रामकली और शम्भुवा से बात करना भी बंद कर दिया था। शम्भू और रामकली बड़े परेशान थे की क्या करें ?इसी बीच पट्टीदारों के घर सत्यनरायण कथा का आयोजन हुआ जो घर में नये मेहमान आने की ख़ुशी में एक धार्मिक अनुष्ठान की अनिवार्यता के मद्देनज़र किया गया था उसमें रामकली और शम्भुवा भी बुलावे पर गये रघुवा को लाने की हिदायत थी तो वो घर पर ही रहा। रिश्तेदारी का फ़र्ज़ निभाना था तो रामकली ने नये मेहमान और माँ के लिए नए कपडे भी खरीदे थे और बड़ी खुशी-ख़ुशी अपनी देवरानी के दादी बनने पर उसकी बहू को नई धोती और उसके नवजात लड़के को बित्ते भर का बुशर्ट और पैजमिया दी। उसके बाद औरतों के झुण्ड में रामकली ने ढोल बजाकर सोहर गाये और यूँ नाची जैसे दादी वो खुद बनी हो।
दोपहर की दावत में शम्भुवा की नज़र गाँव के मनेसर पर पड़ी जो कुछ बरस पहले अपनी पसंद की शादी करके दूसरे गाँव में घर जमाई बनकर रह रहा था। मनेसर से शम्भुवा की दूर की रिश्तेदारी भी थी। मनेसर से बात करके शम्भुवा को पता चला कि उसकी माली हालत अभी ठीक नहीं चल रही है इसलिए वो गाँव में अपने भाई से बटवारा कर ज़मीन लेने आया है जो देने को भाई तैयार नहीं हैं और ससुराल वाले भी अब उसको और उसके परिवार को रखने को तैयार नहीं थे। मनेसर ने अपनी 9 साल की बिटिया को भी शम्भुवा से मिलाया। मनेसर का सबसे बड़ा रोना यही था कि, वो अपनी दो बेटियों का ब्याह कैसे कर पायेगा क्यूंकि अब न ससुराल की कोई मदद थी न अपने घर की।
शम्भुवा आधी रात मनेसर के बारे में सोच रहा था और बार- बार करवटें बादल रहा था। नींद तो रामकली को भी नहीं आ रही थीं वो दोनों उठ बैठे। रामकली तो दावत में औरतों की सारी बातें शम्भुवा से बता रही थी लेकिन शम्भुवा उसकी कोई बात नहीं सुन रहा था। रामकली के पूछने पर उसने मनेसर की सब बातें जब रामकली को बताई तो रामकली की आँखें एक उम्मीद से चमक गयी उसने झट से कहा की क्यूँ न रघुवा का ब्याह मनेसर की बिटिया से तय कर दिया जाए। शम्भुवा के मन में भी यही बात थी दोनों इस बात के ख्याल में रात भर नहीं सोये।
अगले दिन शम्भुवा और रामकली, मनेसर और उसकी पत्नी से मिले और रघुवा के रिश्ते की बात की। मनेसर ने पहले तो बेटी की उम्र और रघुवा की बीमारी का सोच मना कर दिया लेकिन शम्भुवा के उसके परिवार की आर्थिक मदद की शर्त पर बात बन गयी। रघुवा भी पहले तो अपने से उम्र में इतनी छोटी लड़की से ब्याह करने से मना कर रहा था लेकिन रामकली के समझाने से वह मान गया था उसे तो बस इस बात का संतोष था की उसका ब्याह तो हो रहा है। ब्याह में बारात की बजाय “पैपुज्जी” रस्म होगी इस पर दोनों परिवार सहमत हुए थे। पैपुज्जी एक ऐसी रस्म थी जिसमें लड़की बैलगाड़ी में दुल्हन बनकर अपने परिवार के साथ बारात लेकर लड़के वालों के घर आती है और लड़के वालों के घर पर ब्याह की सब रस्में होती हैं। मनेसर की गरीबी और रघुवा की बीमारी के अंधविश्वास के चलते किसी समस्या से बचने के लिए बहुत साधारण तरीके से ब्याह करने की तैयारी शुरू हो गयी थी। रामकली इतनी खुश थी की उसने न चाहते हुए भी गाँव के कुछ लोगों को रघुवा के ब्याह की हल्दी थमा दी थी गाँव में आमंत्रण के लिए शादी के कार्ड का कोई रिवाज तो पहले भी नहीं था हल्दी का किसी घर से आना ही ब्याह का आमंत्रण समझा जाता था। रामकली की बाटी आमंत्रण की हल्दी कुछ घरों से लौट आई थी जिस पर रामकली ने मारे ख़ुशी के गाँव भर को धिक्कार कर मन की भड़ास निकली थी।
ब्याह का दिन आ गया था। रामकली की दोनों बेटियाँ अपने बच्चों और पतियों के साथ 3 दिन पहले आ चुकी थी और शहर में रहने वाला बेटा लाखन भी अपने दोनों बच्चों और पत्नी के साथ आ चुका था। बेटे और बहू को पूरा माजरा नहीं मालूम था, पता था तो बस इतना की भाई का ब्याह है।
लाखन की 10 साल की बेटी गौरी अपनी होने वाली चाची से मिलने को बेताब थी और इकलौते चाचा की शादी से बहुत उत्साहित थी, उसे याद हो आया कि कैसे मामा के ब्याह में वो बारात में मामा के साथ गयी थी। दूल्हा बने मामा के साथ घोड़ी पर बैठी थी, इत्ता ऊँचा खूब ऊपर सफ़ेद फ्राक में बिलकुल राजकुमारी लग रही थी ..... नई मामी के घूंघट वाले चेहरे को उसने जब देखा था तो उसको कभी कभी वाले गाने की दुल्हन बनी हेरोइन की याद हो आई थी। दुल्हन का ऐसा ही स्वरुप गौरी के ज़ेहन में आज भी ताज़ा हो आया था।
गाँव भर में गस्त लगाकर लौटे रघुवा को जब शाम ढले दूल्हे के रूप सजाया जाने तो उसकी मुस्कराहट रूकने का नाम ही नहीं ले रही थी और बहन बहनोइयों की छेड़खानी के बाद तो रघुवा खुद को सातवें आसमान पर महसूस कर रहा था।
गौरी भी सज संवरकर चाचा की बारात में जाने को बिलकुल तैयार थी। लाखन और उसकी पत्नी को ब्याह की पूरी कहानी शम्भूनाथ से पता चल चुकी थी दोनों का उत्साह कुछ कम सा हो गया था। गौरी के बार बार ये पूछने पर की बारात कब जाएगी ?बारात कहाँ है? माँ उसको बिना कुछ बताये ही चुप करा दे रही थी। कुछ न जान पाने से परेशान और विवाह देखने को उत्सुक गौरी जब बुआ के बच्चों से बारात के बारे में पूछने लगी तो उसको पता चला की बारात तो उसकी चाची लेकर आएगी। चाची की बारात लाने की बात पर पहले तो गौरी को यकीन ही नहीं हुआ लेकिन जब माँ ने भी यही बात कही तो गौरी सोचने लगी की दुल्हन की लायी बारात भला कैसी होती होगी ?क्या लड़की घोड़ी पर बैठकर आएगी ? क्या उस बारात में सब औरतें नाचेंगी ?क्या घोड़ी पर बैठी चाची के आगे आगे बैंड बजे वाले भोंपू –भोंपू कर बाजा बजायेंगे। क्या वो अपनी चाची के साथ घोड़ी पर बैठने वाली थी ? एक से बढ़कर एक सवाल गौरी के मन में उथल पुथल मचा रहे थे और जवाबों के लिए वो बेसब्री से दुल्हन की लायी बारात का इंतज़ार कर रही थी।
रामकली बहू – बेटियों के साथ ढोल बजाते हुए बदल बदल कर सोहर गा रही थी। शम्भू नए कुरते धोती में पूरे गाँव के चक्कर लगा रहा था। लाखन बावर्ची घर में खाने पीने का हिसाब देख रहा था। न चाहते हुए भी घर में काफी भीड़ हो गयी थी। आधे गांववाले तो खुसर फुसर में ही रघुवा के घर के चक्कर काट रहे थे।
दूर बादलों में सूरज लालिमा लिए आसमान में पिघल चुका था। खेत की मेंड़ पर भागते बच्चों की टोली ने दुल्हन की बारात देख चिल्लाना शुरू कर दिया था। नहाये धोये बैलों के गले में नयीं घंटियाँ टन–टन बज रही थीं। बैलगाड़ी पर छाई गयी छप्परों की दीवारों में नए फूस की खुशबू ताज़ा थी। नए पुवाल पर नई दुल्हन सिकुड़ी हुई गठरी बन बैठी थी उसके पास दो तीन आदमी और दो चार औरतें थीं। बैलगाड़ी पर सजी ये बारात रघुवा के घर के मुहाने पर जब पहुंची तो गाँव- मुहल्ले के बच्चों की भीड़ से घिर गयी। गौरी को जब पता चला कि उसकी चाची बारात लेकर आ गयी है तो वो पैरों में बिना चप्पल पहने ही वो भागते हुए बारात देखने पहुंच गयी उसने गली में जब बारात को अपनी कल्पना शक्ति से परिभाषित करते हुए खोजा तो उसको उसकी कल्पना की बारात कही दिखाई नहीं दी और जो दिखा उसको बारात मानने को उसका मन हरगिज तैयार नहीं था। न घोड़ी, न गाड़ी, न बैंड, न बाजा, कुछ भी नहीं था। गौरी दूर बच्चों की भीड़ में काठ की पुलती बन बेडोर सी खड़ी रही। लाखन के शहर से लाये गये टॉफी सिक्कों की लुटावन को शम्भू और लाखन दोनों ने तेल मखाना में मिलाकर लुटाना शुरू किया तो बच्चों में लूट की होड़ मच गयी। मामा की शादी में गौरी ने बहुत सारे सिक्के और बहुत सी टॉफी लूटी थीं लेकिन आज जाने क्यूँ वो एक ही जगह पर सुन्न खड़ी हो गयी थी उससे एक तिनका भी लूटा न गया और जो कुछ स्वतः ही उसके ऊपर आ गिरा उसको भी उसने यूँ अनमने भाव से देखा की ज़मीन पर पड़ी वो मैंगो बाईट वाली गौरी की पसंद की टॉफी ने खुद को तिरस्कृत समझा।
लम्बी सांस सीने में गहरे उतारकर गौरी ने लाल चुनर में लिपटी हुई दुल्हन की एक झलक देखी। दुल्हन देखने की उत्सुकता उसके मन में हरी हो गयी वो भीतर खींची सांस छोड़ भीड़ में थोडा आगे बढ़ गयी। रामकली बहू -बेटियों के साथ आरती की थाल हाथ में लिए लोकगीत गाती हुई बैलगाड़ी के पास आई उसने हल्दी सने चावलों और गेंदे, गुलाब, चमेली के पंखुड़ियों में बिखरे फूल दुल्हन पर न्योछावर किये। बैलगाड़ी से दुल्हन के साथ के सब लोग उतर गये लेकिन दुल्हन जस की तस बैठी रही। रामकली शम्भुवा लाखन और दुल्हन की ओर से आये लोगों की कुछ खुसर फुसर होने लगी जिसको गाँव के घरों- सड़क से झांकते लोग देख रहे थे। दो आदमी जो दुल्हन की ओर से थे जिनमें से एक मनेसर दुल्हन का पिता और एक उसी के गाँव का उसका दोस्त था। दोनों ने सिकुड़ी हुई बैठी दुल्हन को किसी रस्म के तहत मिलकर गोद उठाया और सीधे रघुवा के घर में घुस गये पीछे पीछे रामकली औरतों के साथ गीत गाती और कुछ सकुचाती हुई आ गयी। गौरी को न तो कोई रस्म समझ आ रही थी न ये अजीब सी बारात, उसको तो बस दुल्हन का चेहरा देखना था सो वो भी पीछे पीछे आ गयी। भीतरी कोठरी में दुल्हन गठरी बन औरतों की भीड़ से घिरी बैठी थी। कभी कभी की हेरोइन राखी और अपनी मामी जैसी दुल्हन की छवि मन में बसाये गौरी झट से दुल्हन का मुंह देखना चाहती थी। उसके पीछे बुआ के बच्चे भी इसी आस में बैठे थे जिनको रामकली ने दूर ही चुपचाप बैठने की हिदायत दी थी।
घर के आंगन में पंडित जी विवाह की रस्मों की तैयारी में जुट गये थे। शम्भुवा ख़ुशी ख़ुशी विवाह के मंडप के सब कम निबटा रहा था। रघुवा छाती फुलाए पूरे मंडप का मुवायना कर रहा था। गौरी इंतजार करते करते कोठरी के पास लगी गेंहू पीसने की छोटी चक्की पर सिर टिकाये सो गयी थी। रात जब उसकी आँख खुली तो उसने देखा की कोठरी में दो चार बच्चे सोये हैं और दुल्हन भी वहीँ ज़मीन पर ही अनाज की बोरी पर सर टिकाये बैठे बैठे ही सो गयी थी। दुल्हन देखने की उत्सुकता गौरी के मन में तैर गयी और वो आगे बढ़ ताक पर रखी ढिबरी हाथ में लिए दुल्हन के पास आई और उसके सिर से घूँघट हटा दिया उसके बाद जो उसने देखा उसे देखकर उसके हाथ से ढिबरी ज़मीन पर गिर गयी और उसके मुंह से चीख निकल गयी। चीख सुन गौरी की माँ उसके पास आई और उसने बेटी को सीने से चिपका लिया। दुल्हन की भी नींद उचट चुकी थी वो डरी सहमी उठ सिकुड़कर बैठ गयी थी। हड़बड़ी में दुल्हन को ये भी याद न रहा की उसके सिर पर पल्लू नहीं था तभी रामकली आई और अपनी बड़ी बहू से बोली “ए बड़की सुन एहिकी अम्मा से कह दे कि इका मुंडा खोपडा ढाक के धरे ना ही तौ गाँव जवार मा बात फैल जाई कि दुल्हन एक तौ छोट है ऊपर से गंजी” रामकली ऊंचे रसूखवाले ज़मींदार की तरह कमर पर हाथ रखे अपनी पूरी बात एक सांस में कहकर बाहर चली गयी। बात इतनी ऊंची आवाज़ में हुई थी की दुल्हन की अम्मा खुद ही आ गयी थी और अपनी बेटी को तौर तरीका समझाते हुए सिर ढक दिया और बातों बातों में बड़की बहू को बताया की खेल खेल में उसकी बिटिया ने गाँव के बच्चों के साथ अपना भी सर मुंडवा लिया था जिसके लिए उसको बहुत डांटा था उसने अपनी बिटिया को। बार बार “बिटिया” सुनकर बड़की ने पूछा की कोई नाम नहीं रखा है क्या उसका ? जवाब में उसने हलके से मुस्कुराकर कह दिया “नाम रखने की अबतक तो कोनो ज़रूरत ही नहीं पड़ी सब बिटिया-बिटिया कहकर बुलाते थे अभी भी वही कहते है अब बिटिया ससुराल की हो गयी जो नाम चाहो रख लेना” इतना कहकर 26 साल की सास बनने जा रही कमलिया का गला रुंध गया और वो आगे कुछ कहे बिना ही वहां से बाहर चली गयी। बड़की ने सूखे गले को लार से लार किया तो उसका मन भी गीला हो गया और ओस आँखों की पुतलियों से झांकने लगी। माँ के सीने से चिपकी गौरी की आँखों में नींद नहीं थी और सीना जोर-जोर से धड़क रहा था उसको ऐसा लग रहा था था जैसे उसने कोई डरावनी सी चीज़ देख ली हो या ऐसी चीज़ जिसकी उसको कतई उम्मीद न थी।
गौरी चक्की के पास बिछी कथरी पर लेटी थी उसकी नज़रें उस गंजी दुल्हन पर थीं जिसका उसने अभी तक बस आधा चेहरा ही ढिबरी के हलके उजाले में देखा था। फेरों की तैयारियां शुरू हो गयीं थीं। सब लोग बाहर मंडप में जुटे थे। दुल्हन को कपडे बदलने को कहकर रामकली कोठरी से बाहर चली गयी थी। दुल्हन की माँ नई पीली साड़ी लेकर उसके पास आई और कपडे उतारकर दूसरी साड़ी पहनने को कहा तो दुल्हन उठी और सट से बिना साड़ी उतारे, पेटीकोट का नारा खोले पेट अन्दर को पिचकाया और बंधी हुई साडी पल भर में पैरों तक सरका कर पैरों के चारों ओर कपड़ों के घेरे से पैर बाहर निकाल कर सिर्फ चड्डी और ढीले ढाले ब्लाउज में खड़ी हो गयी। गंजे सिर, सपाट सूखी देह वाली 9 साल की दुल्हन रात की हलकी ठण्ड में आधी सिकुड़ी सी खड़ी काँप रही थी, गौरी से 1 साल छोटी थी। अब जाकर गौरी ने ध्यान से देखा था दुल्हन को जिसे देख उसका मन जोर से रोने को कर रहा था और उबकाई सी आने को हुई ही थी की वो उठकर माँ-माँ करती हुई कोठरी से बाहर भाग गयी थी गौरी ने कभी इतनी छोटी दुल्हन नहीं देखी थी और वो भी इस रूप में, माँ ने गौरी को डांट कर समझाया की उसको अंदर ही सोना होगा क्यूंकि माँ को काम करना है माँ की डांट और समझाने से गौरी वापस कोठरी में आ गयी जहां उस 9 साल की गंजी लड़की ने पीली साड़ी पहन ली थी और अपनी माँ के कहे अनुसार घूँघट काढ़ कर बैठ गयी थी। गौरी आकर उसके सामने बैठ गयी उससे कुछ भी बोला भी जा रहा था। बस बैठी बैठी उसको देख रही थी।
मंगलसूत्र गले में पड़ चुका था गंजे सर को रामकली सबके सामने ढकने की कोशिश करती हुई रघुवा से मांग भराती है, रघुवा के कमर तक आती उसकी 9 साल की दुल्हन पति के साथ सात वचनों में सात फेरे लेती। इस सबके बीच कमालिया बिटिया की मुंदती आंखों पर बार-बार ठन्डे पानी के छीटे मार उसे समझाती है की बस थोड़ी देर और फिर सो जाना। इस सब को दूर अपनी माँ के साथ बैठी गौरी चुपचाप देखती रहती है। देखते ही देखते रामकली और शम्भूनाथ के बटुवा का ब्याह हो जाता है, दोनों सुकून की सांस को यूँ बाहर छोड़ते हैं जैसे उन्होंने स्वर्ग में अपना रजिस्ट्रेशन करा लिया हो।
…
लक्ष्मी यादव
संपर्क -
मो0 न0 -9711852463
Email- laxmiyadav.44@gmail.com
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