'प्रेमदंश' कहानी-संग्रह के संबंध में कहानीकार का आत्मकथ्य ('नमन प्रकाशन' द्वारा मेरे नव-प्रकाशित कहानी-संग्रह के संबंध में...
'प्रेमदंश' कहानी-संग्रह के संबंध में कहानीकार का आत्मकथ्य
('नमन प्रकाशन' द्वारा मेरे नव-प्रकाशित कहानी-संग्रह के संबंध में मेरा आत्मकथ्य पढ़कर पाठकों को इसमें संकलित कहानियों के संबंध में सार्थक जानकारी मिलेगी।)
आत्मकथ्य
विगत ढाई दशकों से विभिन्न विधाओं में सतत रचनाशील होने के बावज़ूद, मैंने कथात्मकता की आत्मा को निरंतर जीवित रखा है। एक कथाकार के लिए ऐसा कर पाना बड़ा दुष्कर होता है। ख़ासतौर से कहानी के मौज़ूदा दौर में जबकि कहानी में प्रयोगधर्मी दौर चल रहा है और कहानीकार आलोचकों-समीक्षकों की नज़र में चढ़े रहने के लिए तथा उन्हीं के सुझाव पर, कथात्मकता की अनदेखी करने पर तुला हुआ है; ऐसे दौर में, अधिकाधिक कथाकार कहानी के स्थापित मानदंडों को दरकिनार कर 'कहानी' के नाम पर एक ऐसी विधा को खिला-पिलाकर बालिग़ बना रहे हैं जिसे दबी ज़ुबान से ही कहानी कहा जा सकता है।
ऐसी स्थिति में, क्या यह कहना मुनासिब होगा कि कहानी आत्म-प्रवंचनात्मक और आत्म-विश्लेषणात्मक होती जा रही है? तभी तो पाठक कहानी को भी ख़ारिज़ करता जा रहा है। कविता का ऐसा हश्र तो हम पहले ही देख चुके हैं। कथाकार की निजी ज़िंदगी और जाती बातों में किसे दिलचस्पी है? कहानी में जब हम अपने ही मन की भड़ांस निकालने लगेंगे तो पाठक के पास कथाकार नामक जीव के अंतः स्तल पर जमा बेस्वाद अवसाद को चखने के लिए इतना फालतू समय कहाँ है? सो, पाठक वर्तमान कहानी से भी उकता रहा है। मजे की बात यह है कि कहानी में मानवीय स्पर्श क्षीण होता जा रहा है। सिर्फ़ अपनी पीड़ा को जग-जाहिर करने के लिए कहानीकार चिग्घाड़ रहे हैं। दूसरों के बारे में कहने-सुनने-जानने की परंपरा से वे तौबा करते जा रहे हैं। दलित कथाकार को दलितों का ही शोषण और उत्पीड़न नज़र आ रहा है और स्त्री कथाकार के लिए स्त्री का दर्द ही सर्वोपरि होता है। चाहे वह दलित समाज हो, अल्पसंख्यक समुदाय हो या स्त्री वर्ग, उनके प्रति किए जा रहे अत्याचार को ही वे पाशविक और अमानवीय मानते हैं। बाकियों का दर्द उनके लिए दर्द नहीं होता। बाकियों के शोषण के प्रति उनका वही नज़रिया है जो पहले कभी सवर्ण शोषकों का अवर्ण शोषितों के लिए हुआ करता था। उनके लिए दलित, स्त्री और अल्पसंख्यक समाज के लोग ही मनुष्य हैं। बाकी मनुष्य होते ही नहीं। बड़ा ही हास्यास्पद है!
मैंने अपनी कहानियों में यह बार-बार रेखांकित किया है कि दलन कृत्य एक अमानवीय बर्ताव है और दलन किसी का भी हो सकता है। इसलिए दलित को जाति के आधार पर अब तो रेखांकित करना जायज़ नहीं लगता जबकि सियासी गलियारों में दलित बाहुबलियों का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है; सामाजिक जीवन में उनकी दबंगई सिर चढ़कर बोल रही है। अस्तु, एक ही वर्ण में इतनी जातियाँ और उप-जातियाँ हैं कि उनमें भी ऊँच-नीच, छोटे-बड़े हैं और आपसी भेदभाव और वर्जनाएं विद्यमान हैं जिनका निर्वाह वे आँख मूँद कर करते हैं। इस प्रक्रिया में सभी का दलन हो रहा है। अतः कथाकार के लिए यह जरूरी है कि वह निष्पक्ष होकर अपने समक्ष समाज के बारे में लिखे। जो पीड़ित और दलन-कृत्य का शिकार है, उसके प्रति द्रवित हो। मेरा तो लक्ष्य ही अपने समक्ष समाज की समस्याओं, उत्पीड़न-शोषण, कुंठा और संत्रास को मुखर करके एक सर्वजनीन मानवीय सोच विकसित करना है। मैंने अपनी कहानियों में अपने बारे में सोचा ही कहाँ है? पत्नी, संतान, सहोदर, माँ-बाप, बाप-दादा, नाते-रिश्तेदार, भाई-बंधु--जो मेरे हित-साधक हैं और जिनकी वज़ह से मैं हूँ, नदारद हैं। मुझे आश्चर्य होता है कि मेरी कहानियों में मेरा "मैं" कहाँ है। मेरे अपनों का अक्स तो मेरी कहानियों में उभरना चाहिए। यह भी एक रचनाकार का स्वयं के प्रति क्रूर व्यवहार है। कोई कथाकार स्वयं के प्रति इतना निष्ठुर कैसे हो सकता है? क्या साहित्य दूसरों का ही लेखा-जोखा रखता है, उसके सृजक का नहीं? मेरे साथ तो कुछ ऐसा ही होता है। मालूम नहीं, लिखते समय मेरा "मैं" कहाँ विलुप्त हो जाता है?
लीजिए, मैं कविता की तरह कहानी के भविष्य की चिंता में भी घड़ों आँसू बहाने लगा। चलिए, इस संकलन में कहानियों के बारे में कुछ बातें रेखांकित की जाए। सर्वप्रथम, इस तीसरे कहानी-संग्रह के प्रकाशन में विलंब का कारण बताना उचित होगा। दरअसल, कुछ अरसा पहले मेरे किसी मित्र ने मुझसे कहा था कि संग्रह के रूप में प्रकाशित होने से बेहतर है, पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहना। पता नहीं, यह उस मित्र की बात का असर था या प्रकाशकों के प्रति मेरा स्वयं का रवैया कि मैंने अपने अगले कहानी-संग्रह के प्रकाशन के लिए किसी प्रकाशक से संपर्क किया ही नहीं। इसकी एक अहम वजह यह भी थी कि इस दौरान मेरी कहानियाँ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहीं और मुझे आत्म-संतोष मिलता रहा। पाठकों की ढेरों प्रतिक्रियाएं भी मिलती रहीं जिससे मन की मुराद पूरी होती रही--जैसेकि किसी चिर-कुआँरी युवती को बैठे-बिठाए मन-मुताबिक सुघड़-सलोना वर मिल गया हो।
इस संग्रह की कहानियाँ कुछ नई हैं और कुछ थोड़ी पुरानी। ऐसा मैंने जानबूझकर किया है ताकि पाठक, जो मेरे प्रिय समीक्षक हैं, मेरी कथात्मक प्रतिभा का तुलनात्मक अध्ययन कर सकें। बहरहाल, इस संग्रह में स्त्रियों पर केंद्रित कुछ कहानियाँ संकलित है। उपेक्षिता और प्रताड़िता औरत के दर्द को मैंने कोई वर्ष भर पहले लिखी कहानी 'कमली' में दर्शाने की कोशिश की है। यह कहानी 'विपाशा' और 'हिमप्रस्थ' दोनों पत्रिकाओं में एक-ही समय में प्रकाशित हुई। इसका दोषी मैं नहीं हूँ। दरअसल, पत्रिकाओं के संपादक साल-साल भर कहानियाँ अपने पास प्रकाशनार्थ/विचारार्थ रखते हैं और अंत में लेखक उस कहानी को कहीं और छपने के लिए भेज देता है। बहरहाल, 'कमली' में मैंने बड़ी शिद्दत से एक महिला कथाकार की भाँति किसी औरत की बेचारगी को चित्रित किया है। इसमें मैंने एक औरत के किरदार को जीने की भरसक कोशिश की है। 'कम कनिका, आई ऐम रेडी' में एक स्त्री-पात्र को तेजी से बदलते हुए हालात में अपनी आवश्यकता के अनुरूप बदलना, भले ही यह बदलाव अनैतिक और अपारंपरिक हो, न केवल उस स्त्री के लिए अपितु उसके पति के लिए भी खुशी का सबब बनता है। यहाँ मातृत्व और पितृत्व की आवश्यकता को पूरा करने का उपक्रम सनातनी व्यवस्था पर भारी पड़ जाता है।
कभी-कभी मुझे लगता है कि मैं अपनी कहानियों में स्त्री-मनोविज्ञान को बेहतर ढंग से विश्लेषित कर सकता हूँ। ऐसा ही मैंने सहज और सायास अपनी कहानी 'प्रेमदंश' ('लमही' में प्रकाशित) में किया है। वास्तव में, यह एक प्रेम कहानी है जिसमें प्रेम के सर्वविदित त्रासद हश्र और नाटकीय परिणति की हृदय-विदारक चर्चा की गई है। मैं स्त्री-प्रेम के ऐसे फल के स्वाद का वर्णन कैसे कर गया--यह खुद मेरे लिए आश्चर्य की बात है; क्योंकि इस बारे में मेरा कोई यथार्थवादी अनुभव या दृष्टिकोण नहीं है। पर, इस कहानी पर विशेषतया लड़कियों की इतनी प्रतिक्रियाएं मिलीं कि मन में कहीं न कहीं रोमानी भावनाएं अंगड़ाइयां लेने लगीं। फिर, मन में आया कि क्यों न कुछ और प्रेम-कथाएं लिखी जाएं। उसके बाद प्रेम-कहानियों का संग्रह निकालने का विचार दृढ़ होने लगा। इसके परिणामस्वरूप, 'प्रेम-प्रपंच' लिखी। 'वर्तमान साहित्य' में प्रकाशित इस कहानी पर पाठकीय टिप्पणियों का ताँता लग गया। कुछ पाठकों ने मेरे जीवन में 'प्रेम' की उपस्थिति पर सवाल दागे तो मैं न केवल उनसे कन्नी काट गया बल्कि प्रेम कहानियां लिखने से बाज आने लगा। प्रेम-कहानियां लिखकर फ़िज़ूल में ख़ुद को क्यों विवाद के घेरे में लाया जाए? दरअसल, मेरे सामाजिक और पारिवारिक पृष्ठभूमि में विवाह-पूर्व प्रेम को नैतिक मान्यता नहीं दी गई है। अस्तु, पाठकों को स्त्री-पुरुष प्रेम के प्रति मेरे ट्रैजिक दृष्टिकोण पर बेहद एतराज़ रहा है। पहले भी एक प्रेम-कहानी लिखी थी--'परबतिया' जो 'लमही' में प्रकाशित हुई थी और जिस पर काफी पाठकों ने प्रतिक्रियाएं की थीं। यह कहानी भी ट्रैजिक है जो पिछले कहानी संग्रह 'पगली का इंकलाब' में पांडुलिपि प्रकाशन से प्रकाशित है।
एक ही थीम पर लिखते रहना मुझे एकदम रास नहीं आया। फिर, मैंने थीम बदल दिया। 'धत्त! दकियानूस नहीं हूँ' एक बड़े फलक पर लिखी हुई कहानी है। इसमें ग़ुलामी के पहले और ग़ुलामी के बाद एक देशभक्त ख़ानदान की संततियों की बदलती हुई मनोवृत्तियों को, देश के प्रति उसके पुरखों के मोह और भावी पीढ़ियों के मोह-भंग को प्रस्तुत करके मुझे बेहद सुकून मिला। 'आजकल' में प्रकाशित इस कहानी के परिपक्व रचना-शैली पर पाठकीय प्रशंसा में मैं आकंठ निमग्न हो गया। लिहाजा, प्रेम-कहानियों के लेखन-क्रम में एक कहानी 'गंगा-जमुना प्रेमाख्यान' भी लिखी थी जिसमें मैंने प्रेम के प्रति मौज़ूदा स्त्रियों के बेहद सतही नज़रिए पर व्यंग्यात्मक छींटाकशी की है और प्रेम की क्षणभंगुरता, अस्थिरता, मांसलता और इसके अनैतिक व्यापार पर खूब टिप्पणियाँ की हैं। 'व्यंग्य यात्रा' में छपी इस व्यंग्य-कथा के निहितार्थों को समझने के लिए पाठकों ने इसे बार-बार पढ़ा और बार-बार फोन किया।
चुनांचे सियासी हलचल वाले गलियारों में जीविकोपार्जन के लिए मजबूरन रहते हुए, मैं कब भारतीय सियासत की गिरगिटिया चाल से नफ़रत करते हुए राजनीति के प्रति जुगुप्सा पैदा करने वाली कहानियाँ लिखने लगा, इसका मुझे खुद अहसास नहीं रहा? पहले भी कई कहानियाँ जैसे 'अरे, ओ बुड़भक बंभना', 'धर्मचक्र राजचक्र', 'सियासत की बाढ़' आदि राजनीतिक परिधि में स्वार्थी हथकंडों वाली मार्मिक कहानियाँ लिखी थीं। इस संकलन में 'गुल्ली-डंडा और सियासतदारी' दलित राजनीति में आ रही सनातनी प्रवृत्तियों और सियासतदारी में राजनीतिक कुचक्रों की विद्रूपताओं के रेशे-रेशे को उभारने की कोशिश की है। कनाडा की पत्रिका 'हिंदी चेतना' में प्रकाशित इस कहानी ने वैश्विक रूप से मुझे भारतीय सियासत के कड़ुवे सच के प्रति जवाबदेह बनाया है जहाँ सियासतदारी एक मुनाफ़ेदार उद्योग-धंधा बन गई है। जो पेशेवर जातियाँ चोरी, छिनैती, डकैती, हत्या और बलात्कार को पैतृक धंधों के रूप में सदियों से अंजाम देती रही हैं, उन्हें न केवल राजनीतिक छत्र-छाया मिल रही है अपितु वे राजनीतिक नेतृत्व करने की हिमाकत भी कर रही हैं। इसका दुष्परिणाम आज हमारे राष्ट्रीय जीवन में साफ नजर आ रहा है। देखिए, चोर को थानेदार बनाने का घातक परिणाम हमारे सामने है; भला, ऐसे लोग कानून और व्यवस्था के रक्षक होने का दम कैसे भर सकते हैं? बुद्धिजीवी वर्ग राजनीति से छुआछूत का भेदभाव करते हुए ज़्यादा से ज़्यादा बाबू बनकर खुद को धन्य मानता है। हमारे समाज में चुनिंदा ऐसे धर्मावलंबी हैं जिनकी राष्ट्रीय निष्ठा पर हमेशा संदिग्धता की मुहर लगती रही है। वे इस देश में बहुसंख्यक हैं; लेकिन, कपटी नेता उन्हें अल्पसंख्यक का बुलेटप्रूफ वर्दी पहनाकर, पता नहीं किसका हित करना चाह रहे हैं--अपना हित या उस वर्ग का हित? ऐसे में, यदि वास्तव में बुद्धिजीवी वर्ग अगुवाई नहीं करेगा तो भारतीय समाज का आगत तीस सालों में हर प्रकार से पतन होना अवश्यंभावी है। जैसे साहित्य अलग-अलग खेमों में बंटता जा रहा है और अलग-अलग खेमों के साहित्यकारों पर आरोपों-प्रत्यारोपों का दौर चल रहा है, वैसे ही राजनीति में वर्ग-वर्ण आधारित खेमों के अस्तित्व से कौन अवगत नहीं है? स्वार्थांध नेता कश्मीर और अरुणाचल प्रदेश क्या बचा पाएंगे, वे तो कुछ ही दशकों में अपने-अपने सूबे और कौम बनाने वाले हैं। अगले कहानी संग्रह में भारतीय राजनेताओं के ऐसे ही मंसूबे दर्शाने वाली कहानियां पाठकों के समक्ष प्रस्तुत की जाएंगी।
इस संग्रह की कहानी 'नया ठाकुर' के संबंध में, हिंदी साहित्य की सबसे पुरानी पत्रिका के दलित लेकिन बाहुबली संपादकों को आपत्तियाँ थीं। कहानी में दलित वर्ग का एक सदस्य अपने काइएंपन के बलबूते पर एक ठाकुर परिवार और उसकी मिल्कियत का न केवल उत्तराधिकारी बन बैठता है, बल्कि उसके परिवार का एक अभिन्न हिस्सा बनने और उसी परिवार का उत्तराधिकारी बनने का दावा भी कर बैठता है। मैंने कहीं भी इस कहानी में सवर्ण वर्ग को महिमामंडित करने की कवायद नहीं की है। बजाय इसके, आर्थिक-सामाजिक रूप से दलन के शिकार लोगों के प्रति किए जा रहे शोषण-चक्रों को भलीभाँति निरूपित किया है। कोई दोष मुझ पर नहीं मढ़ा जा सकता कि मैंने शोषित समाज का चित्रण करने में यथार्थ से पलायन किया है। सच को प्रतिपादित करने के लिए झूठ और फ़रेब को नंगा करने में मुझ तनिक भी संकोच नहीं होता। 'हिमप्रस्थ' और 'वर्तमान साहित्य' में एकसाथ प्रकाशित इस कहानी पर असंख्य टिप्पणियाँ मिलीं। एक मूर्धन्य आलोचक ने मुझे फोन करके ऐसी उत्कृष्ट कहानी लिखने के लिए बधाई देते हुए कहा कि इसे बार-बार पढ़ने का मन करता है। इसके अतिरिक्त, 'व्यंग्य यात्रा' में प्रकाशित व्यंग्य-कथा 'फिरंगी आत्माओं का चक्कर' का निहिताशय पाठक या समीक्षक भलीभाँति नहीं समझ पाए हैं। मुझे उम्मीद है कि इस संग्रह में वे इसे फिर से गंभीरतापूर्वक पढ़ेंगे और मुझसे संवाद स्थापित करेंगे।
इसमें दो कहानियाँ 'अंकल प्लीज़! लिफ़्ट...' ('वागर्थ' में प्रकाशित) और 'रांग नंबर' ('वी-विटनेस' में प्रकाशित) बिल्कुल ताजा-तरीन हैं। 'अंकल प्लीज़! लिफ़्ट...' में वर्तमान देशकाल में प्रेम की क्षणभंगुरता और इसकी घिसीपिटी नाटकीय परिणति पर दृष्टिपात करते हुए यह जताया गया है कि प्रेम हृदय का नितांत अस्थायी भाव है जबकि 'रांग नंबर' में प्रवासी भारतीयों के मनोविज्ञान को रूपायित किया गया है।
कुल बारह कहानियों वाले इस कहानी-संग्रह में मैंने फिर मानव समाज के विभिन्न रूपों, मानवीय भावों-अनुभावों, संवेदनाओं आदि को कथात्मकता के केनवास पर बिंबित करने का सायास प्रयास किया है।
--
जीवन-चरित
लेखकीय नाम: डॉ. मनोज मोक्षेंद्र {वर्ष 2014 (अक्तूबर) से इस नाम से लिख रहा हूँ। इसके पूर्व 'डॉ. मनोज श्रीवास्तव' के नाम से लिखता रहा हूँ।}
वास्तविक नाम (जो अभिलेखों में है) : डॉ. मनोज श्रीवास्तव
पिता: श्री एल.पी. श्रीवास्तव,
माता: (स्वर्गीया) श्रीमती विद्या श्रीवास्तव
जन्म-स्थान: वाराणसी, (उ.प्र.)
शिक्षा: जौनपुर, बलिया और वाराणसी से (कतिपय अपरिहार्य कारणों से प्रारम्भिक शिक्षा से वंचित रहे) १) मिडिल हाई स्कूल--जौनपुर से २) हाई स्कूल, इंटर मीडिएट और स्नातक बलिया से ३) स्नातकोत्तर और पीएच.डी. (अंग्रेज़ी साहित्य में) काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी से; अनुवाद में डिप्लोमा केंद्रीय अनुवाद ब्यूरो से
पीएच.डी. का विषय: यूजीन ओ' नील्स प्लेज: अ स्टडी इन दि ओरिएंटल स्ट्रेन
लिखी गईं पुस्तकें: 1-पगडंडियां (काव्य संग्रह), वर्ष 2000, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, न.दि., (हिन्दी अकादमी, दिल्ली द्वारा चुनी गई श्रेष्ठ पाण्डुलिपि); 2-अक्ल का फलसफा (व्यंग्य संग्रह), वर्ष 2004, साहित्य प्रकाशन, दिल्ली; 3-अपूर्णा, श्री सुरेंद्र अरोड़ा के संपादन में कहानी का संकलन, 2005; 4- युगकथा, श्री कालीचरण प्रेमी द्वारा संपादित संग्रह में कहानी का संकलन, 2006; चाहता हूँ पागल भीड़ (काव्य संग्रह), विद्याश्री पब्लिकेशंस, वाराणसी, वर्ष 2010, न.दि., (हिन्दी अकादमी, दिल्ली द्वारा चुनी गई श्रेष्ठ पाण्डुलिपि); 4-धर्मचक्र राजचक्र, (कहानी संग्रह), वर्ष 2008, नमन प्रकाशन, न.दि. ; 5-पगली का इन्कलाब (कहानी संग्रह), वर्ष 2009, पाण्डुलिपि प्रकाशन, न.दि.; 6. 7-एकांत में भीड़ से मुठभेड़ (काव्य संग्रह--प्रतिलिपि कॉम), 2014; अदमहा (नाटकों का संग्रह--ऑनलाइन गाथा, 2014); 8--मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में राजभाषा (राजभाषा हिंदी पर केंद्रित), शीघ्र प्रकाश्य; 9.-दूसरे अंग्रेज़ (उपन्यास), शीघ्र प्रकाश्य
--अंग्रेज़ी नाटक The Ripples of Ganga, ऑनलाइन गाथा, लखनऊ द्वारा प्रकाशित
--Poetry Along the Footpath अंग्रेज़ी कविता संग्रह शीघ्र प्रकाश्य
--इन्टरनेट पर 'कविता कोश' में कविताओं और 'गद्य कोश' में कहानियों का प्रकाशन
--महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्याल, वर्धा, गुजरात की वेबसाइट 'हिंदी समय' में रचनाओं का संकलन
--सम्मान--'भगवतप्रसाद कथा सम्मान--2002' (प्रथम स्थान); 'रंग-अभियान रजत जयंती सम्मान--2012'; ब्लिट्ज़ द्वारा कई बार 'बेस्ट पोएट आफ़ दि वीक' घोषित; 'गगन स्वर' संस्था द्वारा 'ऋतुराज सम्मान-2014' राजभाषा संस्थान सम्मान; कर्नाटक हिंदी संस्था, बेलगाम-कर्णाटक द्वारा 'साहित्य-भूषण सम्मान'; भारतीय वांग्मय पीठ, कोलकाता द्वारा साहित्यशिरोमणि सारस्वत सम्मान (मानद उपाधि)
"नूतन प्रतिबिंब", राज्य सभा (भारतीय संसद) की पत्रिका के पूर्व संपादक
लोकप्रिय पत्रिका "वी-विटनेस" (वाराणसी) के विशेष परामर्शक, समूह संपादक और दिग्दर्शक
'मृगमरीचिका' नामक लघुकथा पर केंद्रित पत्रिका के सहायक संपादक
हिंदी चेतना, वागर्थ, वर्तमान साहित्य, समकालीन भारतीय साहित्य, भाषा, व्यंग्य यात्रा, उत्तर प्रदेश, आजकल, साहित्य अमृत, हिमप्रस्थ, लमही, विपाशा, गगनांचल, शोध दिशा, दि इंडियन लिटरेचर, अभिव्यंजना, मुहिम, कथा संसार, कुरुक्षेत्र, नंदन, बाल हंस, समाज कल्याण, दि इंडियन होराइजन्स, साप्ताहिक पॉयनियर, सहित्य समीक्षा, सरिता, मुक्ता, रचना संवाद, डेमिक्रेटिक वर्ल्ड, वी-विटनेस, जाह्नवी, जागृति, रंग अभियान, सहकार संचय, मृग मरीचिका, प्राइमरी शिक्षक, साहित्य जनमंच, अनुभूति-अभिव्यक्ति, अपनी माटी, सृजनगाथा, शब्द व्यंजना, अम्स्टेल-गंगा, शब्दव्यंजना, अनहदकृति, ब्लिट्ज़, राष्ट्रीय सहारा, आज, जनसत्ता, अमर उजाला, हिंदुस्तान, नवभारत टाइम्स, दैनिक भास्कर, कुबेर टाइम्स आदि राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं, वेब-पत्रिकाओं आदि में प्रचुरता से प्रकाशित
आवासीय पता:--सी-66, विद्या विहार, नई पंचवटी, जी.टी. रोड, (पवन सिनेमा के सामने), जिला: गाज़ियाबाद, उ०प्र०, भारत. सम्प्रति: भारतीय संसद में प्रथम श्रेणी के अधिकारी के पद पर कार्यरत
मोबाइल नं० 09910360249, 07827473040, 08802866625
इ-मेल पता: drmanojs5@gmail.com; wewitnesshindimag@gmail.com
COMMENTS