रचना और रचनाकार (4) - - महादेवी वर्मा / डा. सुरेन्द्र वर्मा तिमिर में स्वर्ण वेला की तलाश – महादेवी वर्मा महाप्राण नि...
रचना और रचनाकार (4) - - महादेवी वर्मा / डा. सुरेन्द्र वर्मा
तिमिर में स्वर्ण वेला की तलाश – महादेवी वर्मा
महाप्राण निराला ने महादेवी वर्मा के कवि-व्यक्तित्व को कुछ उस प्रकार रेखांकित किया था –
हिंदी के विशाल मंदिर की वीणा-पाणि
स्फूर्ति चेतना, रचना की प्रतिमा कल्याणि
महादेवी वर्मा को रचना की प्रतिमा कल्याणी कहने का तात्पर्य यही था कि वे एक ऐसी
कवियित्री हैं जिनमें कुछ नए और रोचक सृजन के लिए एक उत्कट स्फूर्ति और चेतना देखी जा सकती है.
सृजनात्मकता क्या है –यह एक कठिन प्रश्न है, किंतु सामान्यतः इसके दो गुणों पर विशेष बल दिया जाता है. एक, नवीनता और दूसरा रुचिता. नवीनता को दृष्टि में रखकर सृजन की अनेक परिभाषाएँ दी गईं हैं. उदाहरण के लिए कहा गया है कि सृजनात्मकता पार्श्व-चिंतन (लैटरल थिंकिग) है. हम अपने साधारण चिंतन में वस्तुओं को उनके साधारण व सुनिश्चित संदर्भों में देखते हैं. इन संदर्भों से हटकर उन्हें किन्हीं अन्य संदर्भों में देखना, अभ्यस्त मार्ग से हटकर, मुख्य सड़क को छोड़कर, खुद अपनी बनाई पगडंडी पर चलना, पार्श्व-चितन का यही अर्थ है, किसी पुरानी लीक की आसक्ति में न फंसना और एक नई राह को खोज निकालना, अथवा उसका निर्माण कर लेना. पार्श्व-चिंतन एक उन्मुक्त उड़ान है. यह बंद पिंजड़े से बाहर निकलने के लिए एक छटपटाहट, एक सकारात्मक प्रयास है.
इस तरह का प्रयास हम महादेवी वर्मा के साहित्यिक कर्म में आसानी से देख सकते हैं. ग़ालिब ने इस सर्जनात्मकता को “हसरते-तामीर” कहा था – वो जो हम रखते थे इक हसरते-तामीर, सो है. यह गढ लेने की, रच लेने की एक उत्कट कामना है. यह नई रचना और नई ज़मीन तलाशने का अरमान है. भले ही इसके लिए कितनी ही दुश्वारियां क्यों न झेलनी पड़ें और कितनी ही कठिनाइयों का सामना क्यों न करना पड़े. ऐसी कठिनाइयों का विश्लेषण और फिर उनपर विजय प्राप्त करने के लिए उनका सामना करना, निर्माण और सृजन की राह बनाना है. महादेवी वर्मा कहती हैं –
पंथ होने दो अपरिचित प्राण रहने दो अकेला
चिरव्रती निर्माण उन्मद
ये अमरता नापते पद
बांध लेंगे अंक संसृति से तिमिर में स्वर्ण वेला.
महादेवी के भीतर यह, निर्माण-उन्मद, कुछ नया कर गुज़रने के लिए एक ललक भर नहीं है. यह एक, हसरते-तामीर, (निर्माणाकांक्षा) है जो अंधकार के वजूद को पूरी तरह स्वीकार कर, बड़ी शिद्दत के साथ उजाले के लिए जूझती है. यह तिमिर में स्वर्ण- वेला की तलाश है.
सृजनशीलता के लिए यह आवश्यक है कि वह सकारात्मक हो और एक व्यापक हित में कार्यरत हो. तभी वह सृजनात्मकता के दूसरे गुण, रुचिता, की पूर्ति कर सकता है
महादेवी वर्मा को बेशक पीड़ा और दुःख की एक अमर गायिका के रूप में प्रायः प्रस्तुत किया गया है. यह ठीक है कि उनकी कविता में वेदना है, आंसू हैं, निराशा और अंतर-मुखता भी है –किंतु ये भाव उनकी कविता के संदेश नहीं हैं. ये केवल समाज में नारी की वास्तविक स्थिति के द्योतक हैं. इस प्रकार की अभिव्यक्तियों में एक असंतोष और शायद आक्रोश भी है. इनमें संघर्ष के लिए सजगता का स्वर भी देखा जा सकता है.
भगवान बुद्ध के चिंतन का आरम्भ भी दुःख से होता है. बौद्ध-दर्शन के अनुसार समस्त संसार दुःखमय है. सर्वम् दुःखम्. विश्व के आरम्भ से अबतक अश्रुबाढ में जो -आंसू बहे हैं, उनकी बराबरी की तुलना समुद्र के तमाम पानी से नहीं की जा सकती. दुःख संसार का सबसे बड़ा सत्य है. इससे निजात पाना ही मनुष्य का परम लक्ष्य है. यह दुःख जीवन की वास्तविकता से बौद्ध दर्शन का सम्बंध तो बताता है, पर यह हतोत्साहित करने वाला दुःख नहीं है. यह निराशा या हताशा को जन्म नहीं देता. बौद्ध-दर्शन, इसमें संदेह नहीं, पृथ्वी पर प्रसन्नता का वचन नहीं देता और न हीं परलोक में सुख का आश्वासन देता है –जैसा कि अक्सर अन्य धर्मों में देखा गया है. लेकिन यह इतना अवश्य बताता है कि हम भले ही दुःख के शिकार हों किंतु उसपर विजय प्राप्त कर सकते हैं. बुद्ध जीवन के अंधेरे पक्ष पर बल देते हैं कि हम धोखे में न रहें और संसार में व्याप्त पीड़ा को समझ सकें. पर उन्होंने यदि दुःख को रेखांकित किया है तो उससे बचने का मार्ग भी सुझाया है. दुःख-निरोध-मार्ग और दुःख-निरोध में भी बुद्ध-धर्म के आर्य-सत्य हैं.
महादेवी वर्मा के काव्य में जो पीड़ा है वह निःसंदेह बुद्ध के दुःख से भिन्न है. बुद्ध का दुःख रोग से, बुढापे से, मृत्यु से उत्पन्न दुःख है, किंतु महादेवी की पीड़ा मानसिक और आध्यात्मिक अधिक है. उनकी कविता में चेतन से अधिक अवचेतन का तथा यथार्थ से अधिक आदर्श (की प्राप्ति का) दबाव है. अवचेतन अज्ञात है और आदर्शोपलब्धि भविष्य के गर्त में छिपी है. दोनों ही स्थितियां अंधकार में हैं. लेकिन इस अंधकार के घटाटोप में महादेवी वर्मा को प्रकाश की किरण कहीं न कहीं दिख ही जाती है. यह उन्हें पीड़ा और विरह संतप्त वास्तविकताओं का अतिक्रमण करने के लिए प्रेरित करती है. उनकी आस्था का दीपक मधुर-मधुर जलता है और दामिनी कौंध-कौंध जाती है. तभी तो वह कह पाती हैं – खोल दो यह क्षितिज मै भी देख लूं उस ओर क्या है !
दीपक महादेवी के काव्य में एक महत्वपूर्ण प्रतीक है. इसके अतिरिक्त बीन और रागनी, दर्पण और छाया, घन और दामिनी, रश्मि और प्रकाश का भी उनके काव्य में बार-बार उल्लेख हुआ हैं. बेशक दुःख, पीड़ा, आंसू और वेदना भी है, लेकिन इन समस्त अभावों में अंधकार का एकांतिक वास नहीं है. वहां, साथ ही, रागनी और दर्पण भी है, दामिनी और किरण भी है. छाया के साथ कहीं न कहीं प्रकाश भी है.
महादेवी वर्मा को प्रायः एक छायावादी-रहस्यवादी कवियित्री के रूप में जाना गया है और बहुत हद तक यह ठीक भी है. आध्यात्मिक रहस्यानुभूति की पूर्णता के लिए <डार्क नाइट ऑफ द सोल> का अनुभव एक अनिवार्य सोपान है. महादेवी वर्मा ने इसे “नैश-तम” (निशा का अंधकार) कहा है. यह नैश-तम वस्तुतः भौतिक, नैतिक और मानसिक पीड़ा है. लगभग सभी रहस्यवादी इस आत्मा के अंधकार से गुज़रे हैं. जबतक मनुष्य इस अंधकार रूपी रात्रि का अनुभव नहीं करता वह अपने आप में स्थित नहीं हो सकता. प्रकाश के लिए अंधकार ज़रूरी है. यह अंधकार जहां संसार की क्षणभंगुरता का प्रतीक है और जीवन के तिरोभाव (मृत्यु) का प्रतीक है वहीं यह असीम का प्रतीक भी है (जो अज्ञात है) और यह आस्था का भी प्रतीक है क्योंकि आस्था और विश्वास की कोई तर्कसंगत वजह बताई नहीं जा सकती है. महादेवी वर्मा कहती हैं –
शून्य नभ में उमड़ जब दुःख भार सी
नैशतम में सघन छा जाती घटा
बिखर जाती जुगनुओं की पंक्ति भी
जब सुनहरे आंसुओं की हार-सी
तब चमक जो लोचनों को मूंदता
तड़ित की मुस्कान में वह कौन है!
महादेवी वर्मा के काव्य में, इस प्रकार, नैशतम का एकांतिक साम्राज्य नहीं है. उनके यहां घटाटोप अंधकार में जुगनुओं की बिखरी हुई पंक्ति भी है और आंसुओं का सुनहरा हार भी है. अर्थात् आशा भी है और आस्था भी.
महादेवी की कविता में रात और अंधकार के अनेकानेक चित्र हैं, किंतु अपार अंधकार से लड़ता हुआ वहां एक दीपक भी बार-बार अपनी उपस्थिति दर्ज करता है. उन्होंने, दीपशिखा के दो-शब्द में लिखा है, आलोक मुझे प्रिय है पर दिन से अधिक रात का. दिन में तो अंधकार से उसके संघर्ष का पता ही नहीं चलता, परंतु रात में झिलमिलाती लौ योद्धा की भूमिका में अवतरित होती है. इससे स्पष्ट है कि अंधकार से अधिक प्रकाश में और पलायन से अधिक संघर्ष में उनकी आस्था है. महादेवी का काव्य कई अर्थों में, “ट्रांसेंडैंटल” है, लोकातीत है. वे अपने काव्य में एक ऐसी इंद्रियातीत अनुभूति को प्राप्त करना चाहिती हैं जो उन्हें अज्ञात की उपलब्धि करा दे. किंतु जहां तक उनके गद्य-लेखन का प्रश्न है, वे पूरी तरह यथार्थ और वास्तविकता की ठोस भूमि पर अवतरित हैं. उदाहरण के लिए ‘श्रंखला की कड़ियां’ के माध्यम से वे एक ऐसी नारीवादी चिंतक के रूप में हमारे सामने आती हैं जो न केवल स्त्री को उसकी हीन और पतित अवस्था से अवगत कराता है, बल्कि उसे संघर्ष के लिए तैयार भी करता है. नारी के जीवन की जटिल समस्याओं, उसकी दासता की दारुण स्थितियों और मुक्ति की उसकी दिशाओं की जैसी विवेचना हमें महादेवी के गद्य-लेखन में मिलती है, विरल है. किंतु हमारा आशय इस मुद्दे को यहां उठाने का सिर्फ इतना ही है कि महादेवी के सम्पूर्ण साहित्य को देखते हुए, उनकी कविता केवल छायावादी-रहस्यवादी ढांचे में पिरोकर समझने की कोशिश एक बेमानी कोशिश है. बेशक उनकी कविता में जो लोकातीत तत्व है, उससे इंकार नहीं किया जा सकता. किंतु उनके काव्य में दुःख और अंधकार केवल आरम्भिक बिंदु हैं. उसमें सात्विक आक्रोश और संघर्ष के लिए आमंत्रण निहित है.
(आजकल, मार्च,2007)
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