काव्य जगत अमृत ढूंढ़ना बाकी है शिवकुमार दुबे मन का गहन अंधकार एक दरिया सा जहां भटकन के साथ विचारों का मंथन ब्रह्माण्ड की ...
काव्य जगत
अमृत ढूंढ़ना बाकी है
शिवकुमार दुबे
मन का गहन अंधकार
एक दरिया सा
जहां भटकन के साथ
विचारों का मंथन
ब्रह्माण्ड की अनंत
गहराइयों में डुबकी लगाकर
समुद्र मंथन के मिथक सा
अमृत और विष में
कर लिया है अंतर
विष खोज लिया गया है,
उसके प्रयोग जारी हैं
सभी अवसाद और दुखों में,
दवाइयों में विष के उपयोग का
परिणाम देख चुके हैं.
अभी अमृत की खोज बाकी है
जारी है मंथन
इंसानों से लेकर देवताओं तक
अमृत का प्रमाण कहां है
कभी खुशी के पथ पर
अनंत की राह में
ध्यान में अभिमंत्रित
विचारों के उच्चारण में
सघन प्रतीत होता है,
अमृत अभी भी
इस इंतजार में कि
उसे ढूंढ़ा जाना
बाकी रहेगा.
संपर्कः ए-1/205, शुभ-लाभ वैली, आशीष नगर, बंगाली चौराहा, इन्दौर-452016 (म.प्र.)
मोः 9893282474
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दो गजलेंः किशन स्वरूप
एक
दश्त सी वीरानियां हैं और मैं हूं.
बोलती खामोशियां हैं और मैं हूं.
कोई महफिल है न मजलिस का नजारा,
सिर्फ कुछ तनहाइयां हैं और मैं हूं.
मैं न कहता था मुझे जीने न देंगी,
ढेर सी बीमारियां हैं और मैं हूं.
खून से तर हादिसे अखबार में हैं,
फिर पुरानी सुर्खियां हैं और मैं हूं.
क्या पढ़ा उसने ये हाकिम ही बताए,
शक्ल पर कुछ अर्जियां हैं और मैं हूं.
मैं उठाकर लाश अपनी चल रहा था,
बस मेरी खुद्दारियां हैं और मैं हूं.
जिन्दगी आसान होती, जी न पाते,
ये मेरी दुश्वारियां हैं और मैं हूं.
दो
बहुत ज्यादा मिले, दिल में ये ख्वाहिश सोचकर रखना.
जरूरत और को भी है, इसे मद्देनजर रखना.
बहुत आसानियां भी जिन्दगी दुश्वार करती हैं,
मगर दुश्वारियां आसान करने का हुनर रखना.
लुटे हैं काफिले कितने जियादा राहे-मंजिल में,
इरादा है सफर अपना हमेशा मुख्तसर रखना.
बुढ़ापे में भला असहाय मां को गांव में छोड़ा,
जिएगी कब तलक तनहा जरा इसकी खबर रखना.
मुसीबत में कहां कोई किसी का साथ देता है,
अना की बात सुनना, हौसले में ही असर रखना.
हमारी मुश्किलें भी इम्तहां लेती हैं कब जाने,
कड़ी दुश्वारियों में, पांव में अपने सफर रखना.
जरूरत में तुम्हारे काम आते हैं अमूमन जो,
बना कर एक रिश्ता यार उनसे उम्र भर रखना.
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नवगीत
कन्हैयालाल अग्रवाल ‘आदाब’
एक दूसरे पर करते
आरोपों की बौछार
बिना बात की बातों का भी
करते हैं प्रतिकार!
इन्हीं से रंगे हुए अखबार!
तोल-मोल कर बातें करना
इन्हें नहीं मंजूर
बातों से इनकी जाहिर है
हैं कितने मगरूर!
शब्द-बाण के रहते इनके
तरकस में हथियार!
हम जो कहते हैं वह सच है
बाकी सब है झूठ
मुर्दे गड़े उखाड़, खोजकर
लाते नए सबूत!
भांति-भांति से एक दूसरे
पर करते हैं वार!
गिरगिट भी शरमा जाता है
जब से बदले रंग
सांप-नेवलों के हो जाते
आपस में संबंध!
इतने आपस के व्यवहार
इन्हीं से रंगे हुए अखबार
सम्पर्कः 39, ग्वालियर रोड, नौलक्खा, आगरा-282001 (उ.प्र.)
मोः 9411652530
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दो गजलें
कुमार नयन
एक
इश्क होता तो मर गया होता.
क्या कहूं क्या न कर गया होता.
साथ हर वक्त मेरा साया था,
वर्ना दुनिया से डर गया होता.
इक इशारा तुम्हारा काफी था,
मैं हदों से गुजर गया होता.
चीखते रहते हैं दरो-दीवार,
तू कभी मेरे घर गया होता.
अश्क टपके नहीं तिरे वरना,
जख्म तेरा ये भर गया होता.
तू न मिलता तो क्या ये सोचा है,
मैं कहां तू किधर गया होता.
मैं बुरा हूं ये तुम जो कह देते,
मां कसम मैं संवर गया होता.
दो
जो हमारे रकीब होते हैं.
हम उन्हीं के करीब होते हैं.
खूब हंसते हैं, खूब रोते हैं,
वो जो बिल्कुल गरीब होते हैं.
ढूंढ़ते हैं पनाह अश्कों में,
अह्ले दिल भी अजीब होते हैं.
बेबसी पर जमाने वालों की,
रोने वाले अदीब होते हैं.
दौलते-दिल न सबको मिलती है,
लोग कुछ बदनसीब होते हैं.
करते रहते हैं सिर्फ तनकीदें,
जो हमारे हबीब होते हैं.
जानते हैं अदाएं जीने की,
जो भी अह्ले सलीब होते हैं.
सम्पर्कः खलासी मोहल्ला, पो. व जिला- बक्सर-802101 (बिहार)
मोः 0430271604
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कविता
फिरकी
तेज राम शर्मा
चिलचिलाती रेत-से शब्द
तलवों को जलाते हैं
सरस्वती कहीं रेत में
खो गई है
गंगा थक गई है
डुबकी त्रिवेणी में हो
या बनारस के घाट पर
समय का नदी-सा
मुरझाया चेहरा.
रेगिस्तान में उड़ती है
गर्म धूल
धरती का आधा चेहरा
झुलसा हुआ
फूल की पंखुड़ियां
आधी खिली आधी मुरझाई
अनन्त ब्रह्माण्ड में फैली खबर
पृथ्वी-सी गोल हांडी है
चूल्हे पर
आधी उजली आधी काली.
भोर में संगीत की लहर पर
पेड़ों के बीच उड़ी थी
जो चिड़िया
शाम होते अट्टालिकाओं के बीच
ढूंढ़ती है अपना घोंसला
चोंच में दबा रह जाता है
एक तिनका.
आंगन में बच्चे
खेल रहे हैं फिरकी का खेल
कील पर
समय घूम रहा है फिरकी-सा
बच्चे एकटक देख रहे हैं
पृथ्वी-सी गोल घूमती फिरकी
अभी लुढ़की, अभी लुढ़की.
संपर्कः श्री राम कृष्ण भवन,
अनाडेल, शिमला-171003
मोः 094185-736711
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गजल
राकेश भ्रमर
इन परिन्दों की उड़ानों का सफर बाकी है.
दश्त में क्या कहीं अब कोई शजर बाकी है. .
आज भी दुःख भरे लमहों में याद आती है,
मां के हिस्से की दुआओं का असर बाकी है. .
कहीं पे जलजला, सैलाब कहीं सूखा है,
जहां भी जाओ तबाही का कहर बाकी है.
शाम सूरज को निगलती है, सहर चंदा को,
लबों पे देख लो रातों का जिक़र बाकी है.
.
घरों के साथ सभी दिल भी बांट लेते हैं,
कहें तो क्या कहें, बातों में जहर बाकी है.
.
उम्र को जोड़ कर हर दिन हिसाब रखता था,
कब्र में लेट के कहता है सिफर बाकी है.
सम्पर्कः ई-15, प्रगति विहार हॉस्टल,
लोधी रोड, नई दिल्ली-110003
मोः 9968020930
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तीन कविताएं
रोजलीन
खुशबू के महीन कण
जब तुम आते हो
तो...
मेरे घर की मौन दीवारें...
चमक उठती हैं,
और फिर
तुम्हरे जाने के उपरांत भी
रह जाता है
तुम्हारी उपस्थिति का लम्बा अहसास
छोड़ जाते हो हवा में
तुम!
खुशबू के महीन कण,
छोड़ जाते हो ढकी वीणा के तार
कि-
मेरे जीवन तृष्णा के प्रशांत पर
जमी हुई बर्फ की सिल्लियां
तत्क्षण तिड़कती हुई
पिघलने लगती हैं.
कोरे पन्नों पर
मेरी किताब की
आसमान जैसी जिल्द पर
तुम्हारी सांवली उंगलियां
कौन-सा चित्र उकेरती हैं
बिना शब्दों के कोरे पन्नों पर
तुम!
खोए हुए से क्या पढ़ने लगे?
पता नहीं
और-
बिना स्याही हर पन्ने पर
तुम जाने क्या कुछ
लिखे जा रहे हो?
यह भी तो पता नहीं
लेकिन!!
यह सब मुझे हैरान नहीं करता
अरे भई...
तुम्हारी आंखें
मणि की आंखें जो हैं.
आसमान कराह रहा है
आसमान के किरकिराते
जिस्म को
जैसे ही-
पलकों ने छुआ,
आंखें!
भारी होकर दुखने लगीं
फिर...
शायद कराह रहा है वो
किसी की बेवफाई से!
संपर्कः कोठी नं. 535, गली नं. 7, कार्ण विहार, मेरठ रोड, करनाल-132001 (हरियाणा)
मोः 09467011918
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क्षणिकाएं : रमेश मनोहरा
1. ऊंचे हौसले
जो हिमालय जैसे
ऊंचे हौसले रखते हैं
वे ही सफलता की
सीढ़ियां चढ़ते हैं.
2. अंतरंग रिश्ते
राजनीति में जब
नफरत के
तीर चलते हैं
तब उनमें यारों
अंतरंग रिश्ते खुलते हैं.
3. जुनून
कानून पर चढ़ा
देखिए कैसा जुनून
जो निरपराध
उसका ही हुआ है खून.
4. कमीशन का खेल
जिधर भी दौड़ाए दृष्टि
उस तरफ ही चल
रहा है लोगों में मेल
स्वार्थ हेतु निकाल
रहे हैं एक दूजे का तेल
इसके बावजूद भी
आपस में
बिठा रहे हैं तालमेल
जहां खाने को मिले भरपूर
चला रहे हैं
कमीशन का खेल.
5. विवादित बयान
पहले तो देते हैं
विवादित बयान
जब उस पर होता है
चारों ओर से आक्रमण
जता देते हैं
उस पर वे खेद श्रीमान.
6. खस्ता हाल
आजादी से आज तक
जितने आये हैं नेता
देश का खाकर
हुए मालामाल
मगर देश को
कर दिया खस्ता हाल.
7. लोकतंत्र का घोड़ा
लोकतंत्र के
घोड़े पर बैठकर
जब से नेता आने लगे हैं
तब से उसका चारा
नेता चरने लगे हैं.
सम्पर्कः शीतला गली, जावरा (म.प्र.),
457226, रतलाम
मोः 9479662215
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अशोक ‘अंजुम’ की दो गजलें
1
यूं तो बख्से हैं मुझे वक्त ने रहबर कितने.
फिर भी गिरते हैं मेरी रूह पे पत्थर कितने.
ये मेरे होंठ पे रहती है हर इक वक्त हंसी,
शुक्रिया मौला दिये मुझको सितमगर कितने.
तेरी आंखों के सिवा कुछ नजर न अब आये,
हमनशीं होते हैं यूं सामने मंजर कितने.
मैं तो संदल हूं मेरी खुशबुओ पे क्या पहरा,
मुझे से लिपटा दे मेरे यार तू विषधर कितने.
तू बुलन्दी से मेरी बुझ तो गया है ऐ दोस्त,
तूने सोचा ये कभी पाये से हैं ठोकर कितने.
2
यक-ब-यक छाने लगी क्यों धुन्ध सी, ये क्या हुआ.
मंद पड़ती जा रही है रोशनी, ये क्या हुआ.
पी गया मैं आब सारा इस जमीं से अर्श तक,
दूर क्यों होती नहीं है तश्नगी, ये क्या हुआ.
क्यों मियां कैसे अकेले जल रहे हो आजकल,
शाम ढलते पूछती है चांदनी, ये क्या हुआ.
आज फिर ये अश्क अपने रंगो-बू में आ गए,
खत तुम्हारा मिल गया है आखिरी, ये क्या हुआ.
एक ना बस एक ना हां एक न ही तो कहा,
रुक गयी रफ्तार कैसे वक्त की, ये क्या हुआ.
सम्पर्कः संपादक ‘अभिनव प्रयास’ (त्रैमासिक)
स्ट्रीट-2, चन्द्रविहार कॉलोनी (नगला डालचन्द), क्वारसी बाईपास, अलगढ़-202002
मोः 9258779744, 9358218907
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