कहानी जाल जवाहर सिंह ब ड़े बाबू ने प्रखंड विकास कार्यालय में जैसे ही कदम रखा, सहकर्मियों की आठ जोड़ी प्रश्नाकुल आंखें उनके चेहरे पर घु...
कहानी
जाल
जवाहर सिंह
बड़े बाबू ने प्रखंड विकास कार्यालय में जैसे ही कदम रखा, सहकर्मियों की आठ जोड़ी प्रश्नाकुल आंखें उनके चेहरे पर घुघचियों की तरह टंग गई. रामविलास चपरासी ने तुरंत उनके हाथ से छाता लेकर अलमारी के पीछे कोने में रख लिया. शिवलाल चपरासी उनकी मेज के ड्राइवर से स्टील वाला उनका स्पेशल गिलास निकालकर ताजा और ठंडा पानी लाने के लिए कुएं की ओर दौड़ा.
हालनुमा कमरे में रखी आठ मेज और आठ कुर्सियों से चिपके आठ बाबुओं की सोलह आंखें अलग-अलग कोणों और भिन्न-भिन्न दूरियों से लगातार उनके चेहरे पर एक्स-रे किरणें फेंककर उसमें छिपी वास्तविकता का पता लगाने में व्यस्त थीं. जिस वास्तविकता की तलाश में ये जिज्ञासु आंखें बड़े बाबू के चेहरे पर उगी खिचड़ी दाढ़ी की खूंटियों की आधी-आधी इंच लंबी नोक वाले जंगल में भटकते-भटकते लहू-लुहान हो रहीं थीं, वह आज आने वाले नये बी.डी.ओ. साहब से संबंधित थीं. इस ब्लाक के पुराने बी.डी.ओ. की बदली हो गई थी और आज कोई नए बी.डी.ओ. साहब आने वाले थे. बड़े बाबू उन्हीं को रिसीव करने के लिए रेलवे स्टेशन गए और अभी-अभी लौटे थे. नये साहब को सीधे उनके क्वार्टर में पहुंचाकर आज आराम करने की सलाह देकर बड़े बाबू कार्यालय में आ गए थे और अपनी स्वाभाविक प्रक्रिया में पान चभुलाते हुए निश्चिंत भाव से कुर्सी के पीछे सिर टेके आंखें बंद कर आराम फरमा रहे थे.
कार्यालय के हर आदमी की आंखों में एक ही प्रश्न था-नये साहब कैसे हैं...? और इस प्रश्न का कोई उत्तर फिलहाल बड़े बाबू के चेहरे से टपक नहीं रहा था. वह कुर्सी पर उठंगे हुए आंखें बंद कर परम निश्ंिचत भाव से पान की जुगाली कर रहे थे और अपने चेहरे पर चींटियों की तरह रेंगती उन आठ जोड़ी आंखों से उत्पन्न गुदगुदी की सुखात्मक अनुभूति को पान के तंबाकू के साथ घुलाकर पीक बना रहे थे.
बड़े बाबू की यह पुरानी आदत है. जब भी कोई ऐसी बात होती है, जिससे उनकी अहमियत पूरे आंफिस के सिर पर तनी-सी दिखाई देने लगती है, वह उसका बोध अपनी दीर्घ खामोशी और ओढ़ी हुई गम्भीरता से कराने लगते हैं. ऐसे अवसरों पर वह अपने चेहरे पर भीतर की खुशी के पके फोड़े के फूटकर मवाद की तरह अपने आप बहकर निकल आई मुस्कान को पान में पड़े सुपाड़ी के टुकड़ों की तरह दांतों से कुचल-कुचलकर धीरे-धीरे लुगदी बनाते हैं और जब उनका जबड़ा भर जाता है तो एक ही बार घोड़े की तरह फुर्रर्र...करके थूक देते हैं. इसके बाद ही उनके मुंह से कोई बात निकलती है.
उनका पूरा स्टाफ बड़ी बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहा था कि कब वह होंठों की मुस्कान को पान-सुपाड़ी की पीक के साथ थूककर अपना थोबड़ा खाली करेंगे. लेकिन आज का पान शायद ज्यादा जायकेदार था या उन्हें जो बात कहनी थी वह अधिक वजनदार थी. वह लगातार चभुलाए जा रहे थे....चभुलाए जा रहे थे. थूकने का नाम ही नहीं ले रहे थे. अंत में नाजिर बाबू के सब्र की डोरी तने-तने यक-ब-यक पटाक से टूट गई. उन्होंने दोनों हाथ के पंजे एक-दूसरे से बांधकर एक बार जोर से जमुहाई ली और रामरतन चपरासी से बोले-‘‘अरे रामरतन, पंखे की स्पीड थोड़ा और तेज कर दो और दौड़कर बाजार से थोड़ा बर्फ-वर्फ लाओ...लगता है, बड़े बाबू को लू लग गई है...जीप में चलने से लू कुछ ज्यादा ही लगती है.’’
वातावरण का तनाव कुछ ढीला पड़ गया. बड़े बाबू के अतिरिक्त अन्य सारे चेहरों में थोड़ी ताजगी-सी आ गई...कई होंठ फड़फड़ाए और मुस्कराने के लिए फैल गए.
बड़े बाबू तब तक पान-सुपाड़ी को कुचलकर लुगदी बना चुके थे. अब कुछ बोलना आवश्यक हो गया था, इसलिए उन्होंने अपनी बगलवाली खिड़की की ओर मुंह फेरकर पच्च से थूक दिया. अपने सहयोगियों की ओर देखकर थोड़ी देर तक वह मंद-मंद मुस्कराते रहे. फिर शायद गंभीरता कुछ कम नहीं, अब बोल ही देना चाहिए. मेज पर रखे गिलास में एक घूंट पानी पीकर अपनी मूंछों की झाड़ी के बीच से मुस्कान की टहकार चांदनी बिखेरते हुए बोले-‘‘अरे भाई, अपना बी.डी.ओ. तो एकदम लौंडा है...चिरौंटा लगता है. सीधे कॉलेज से निकलकर आ गया है. मैंने अपना परिचय दिया तो मुझसे पहले उन्होंने ही हाथ जोड़ दिए. और जानते हैं मिसिर जी, सामान के नाम पर एक पुरानी दरी में लपेटा हुए डेढ़ पाव का एक बिछावन और वही पिचकी हुई अटैची-बस. लगता है जैसे धर्मशाले में टिकने के लिए आए हैं.’’
‘‘साहब का स्वभाव कैसा है, बड़े बाबू...?’’ सप्लाई इंस्पेक्टर वर्मा जी ने बहुत देर से इस सवाल को मुंह में चबाते-चबाते आखिर थूक ही दिया, ‘‘असली चीज है आफिसर का स्वभाव...उमर से क्या होता है, छोटी मिर्चाई देखने में छोटी होती है, एक बार जीभ से सट जाए तो पानी पिलाकर छोड़ती है.’’
वर्मा जी ने कई कोटेदारों और दुकानदारों से चीनी और सीमेंट दिलवाने के लिए एडवांस ले रखा था. पहले वाला बी.डी.ओ. बहुत घाघ था. इनकी नकेल अपने ही हाथों में रखता था. और स्वयं ही दुकानदारों से लेन-देन का मामला तय कर लेता था. इसीलिए वर्मा जी को नये बी.डी.ओ. के स्वभाव की चिंता बहुत सता रही थी. बड़े बाबू की बातों से उनका मन तो हल्का हो गया था फिर भी नये साहब के स्वभाव की जानकारी के बिना चिंता मुक्त नहीं हुआ जा सकता था.
बड़े बाबू इस बार मुस्कराए नहीं, खुलकर हंसे, एकदम रामलीला वाले की-सी हंसी-‘‘अरे वर्मा जी, आप मिर्चाई खाने का मेथेड ही नहीं जानते, इसीलिए पानी पीना पड़ता है. उसे तेल में भून लीजिए या फिर नमक के साथ खाइए, देखिए उसका सारा तीखापन कपूर की तरह उड़ जाता है. एक से एक धाकड़ और तेज-तर्रार आफिसरों को मैंने इसी उंगली पर चक्र सुदर्शन की तरह नचाया है. साहब तो साहब उनकी मेमें भी मेरे इशारे पर उठती-बैठती थीं. मुखर्जी साहब एस.डी.ओ. का नाम तो आप ने सुना ही होगा, उनके डर से एस.डी.ओ. कोर्ट के आगे वाले पीपल के पत्ते तक भी हिलना भूल चुके थे. और उन्हीं को ऐसे चक्रव्यूह में फंसा दिया कि एक दिन सीधे मेरे पांव पर आ गिरे. गिड़गिड़ाकर बोले-‘‘पाठक बाबू, मेरी गलती माफ कर दीजिए, हमने आपको पहचाना नहीं...अब आपकी शरण में हूं.’’ इसलिए कहता हूं आदमी को काम करने कराने का मेथेड जानना चाहिए. बिना मेथेड के मिर्चाई क्या, प्याज भी खाइएगा तो पानी पीने की जरूरत पड़ जाएगी.
‘‘अब हर कोई धर्मदेव पाठक तो नहीं बन सकता, बड़े बाबू. हम लोग तो अभी आपके शागिर्द बनने की भी लियाकत नहीं रखते.’’ वर्मा जी ने मक्खन के बदले मोबिल लगाना ही उचित समझा.
बड़े बाबू फिसले और फिसलते-फिसलते ही बोल गए-‘‘ले आइए सप्लाई वाली अपनी फाइल, एक छोटा-सा चक्रव्यूह रच देता हूं. अपनी मां के पेट से भी चक्रव्यूह भेदन की कला सीखकर आए होंगे तो भी अंत तक जाते जाते साहब कहीं फंस नहीं गए तो मेरे नाम पर कुत्ता पाल लीजिएगा. लेकिन पहले परसेंटेज तय कर लीजिए.’’
‘‘आपकी जो मर्जी, बड़े बाबू! लड़की की शादी है, इसीलिए थोड़ी परेशानी है...अन्यथा.’’ वर्मा जी पालक के साग की तरह गलते चले गए.
‘‘बड़े बाबू, कुछ मेरा भी ख्याल कीजिए, डेढ़ साल हो गया इस टेबुल पर रिसीव-डिसपैच करते हुए. पान-बीड़ी पर भी आफत है. नये साहब से कहकर अगर रेवेन्यू सेक्शन में डलवा देते तो बड़ी मेहरबानी होती.’’ रिसीव-डिस्पैच क्लर्क गिरधारी लाल काफी देर से मौके की तलाश में थे. मौका मिलते ही उन्होंने भीतर जमा सारा बलगम खखारकर फेंक दिया.
बड़े बाबू ने उनकी ओर बिना देखे ही लोहे पर हथौड़ा मारने जैसी आवाज में कहा-‘‘कंबल ओढ़कर जब घी पी रहे थे तब तो बड़े बाबू की याद नहीं आई और जब अपच के मारे उल्टी-डकार आने लगी तब पाचन के लिए बड़े बाबू की गुहार लगा रहे हैं. अभी छः महीने तक इसी टेबुल पर बैठकर लेफ्ट-राइट कीजिए. पुराने बी.डी.ओ. साहब आपका सी.आर.पंक्चर कर गए हैं, इसका भी कुछ पता है या नहीं...’’
गिरधारी लाल जी के अंतःकरण से तीन बार ‘‘प्रभु हो...प्रभु हो...प्रभु हो...’ की आर्त पुकार उठी और पूरे कमरे में क्षण भर के लिए पवित्र आध्यात्मिक वातावरण छा गया.
बी.डी.ओ. साहब अपने क्वार्टर के बरामदे में उदास बैठे थे. बड़े बाबू ने दूर से ही झुककर सलाम ठोंका और बगल वाली कुर्सी पर बैठते हुए बोले-‘‘हुजूर, अब तो रास्ते की थकावट दूर हो गई होगी...कुछ चाय-वाय पी कि नहीं?’’
‘‘नहीं, अभी तो सोकर उठा ही हूं...यहां तो चाय की कोई दुकान भी नजदीक में दिखाई नहीं देती...’’
‘‘क्यों, शिवरतन चपरासी क्या आपके लिए चाय-नाश्ता लेकर नहीं आया? मैंने उसे एक घंटा पहले ही कह दिया था कि साहब जग जाएं तो उनके लिए चाय-नाश्ता ला देना.’’ बड़े बाबू ने चिंतित स्वर में कहा-‘‘यह शिवरतन भी एक हरामी है. पहले वाले साहब ने इसे सिर चढ़ा रखा था, इसीलिए थोड़ा घमंडी बन गया है. मैं अभी किसी को चाय के लिए दौड़ाता हूं...’’
वह उठने लगे तो बी.डी.ओ. साहब ने रोक दिया-‘‘बैठिए-बैठिए पाठक जी, चाय तो बाद में भी पी लेंगे...आप से कुछ जरूरी बातें करनी हैं. आपको मैंने रास्ते में ही बतला दिया था कि अभी मेरी शादी नहीं हुई है, इसीलिए परिवार रखने का कोई सवाल ही नहीं है. मेरे लिए आप एक नौकर की व्यवस्था जल्दी कर दीजिए जो खाना बना दे और घर के अन्य काम कर दे.’’
‘‘आप भी हुजूर, खूब आदमी हैं. कार्यालय में सात-सात चपरासी हैं और आप पैसे देकर प्राइवेट नौकरी रखेंगे? आखिर वे सब किस काम आएंगे...?’’
‘‘अरे भई, वे सरकारी नौकर हैं, दफ्तर के काम के लिए...उनसे मैं अपना व्यक्तिगत काम क्यों कराऊं...?’’
‘‘आप भी हुजूर, हद करते हैं. वे सरकारी नौकर हैं और आप सरकार हैं, इसलिए आपका काम सरकारी हुआ कि नहीं. इसमें प्राइवेट और सरकारी क्या. एक-एक महीना की ड्यूटी लगा देंगे. पहले वाले साहब के यहां तो पांच-पांच की ड्यूटी रोज लगती थी. कोई सब्जी लाता, कोई कपड़े धोता, कोई उनके बच्चों को खाना खिलाता, कोई रसोईं बनाता तो कोई झाडू-बुहारी करता.’’
‘‘यह सब मुझसे नहीं होगा.’’ बी.डी.ओ. साहब सख्ती से बोले-‘‘जब तक नौकर नहीं मिलता, तब तक किसी होटल में खा लिया करूंगा या स्वयं ही कोई इंतजाम कर लूंगा. आप केवल इतना कीजिए कि ये पैसे लीजिए और कुछ जरूरी बर्तन तथा खाने-पीने का सामान बाजार से किसी से मंगवा दीजिए.’’
‘‘ऐसा कीजिए हुजूर कि यह जो आपके पैरों के पास नीचे चप्पल पड़ी हुई है, उसे उठाकर मेरे सिर पर सरासर जमा दीजिए और मेरी गर्दन में हाथ लगाकर बरामदे के बाहर धकेल दीजिए.’’ और बड़े बाबू ने सचमुच अपना सिर नीचे झुका दिया.
बी.डी.ओ. साहब हक्के-बक्के से उनकी ओर देखते रह गए. थोड़ा संभल-कर बोले-‘‘यह क्या कर रहे हैं बड़े बाबू...आप बुजुर्ग आदमी...आप के लड़के की उम्र का हूं मैं तो...’’
‘‘मैं बिल्कुल ठीक कह रहा हूं, हुजूर...!’’ बड़े बाबू एक लंबी सांस लेकर बोले, ‘‘मेरे रहते हुजूर अपने हाथ से खाना बनाकर खाएं या होटल में भोजन करने जाएं, इससे बढ़कर मेरा अपमान क्या हेागा...! आज आपको मुझ गरीब के घर भोजन करना होगा और कल से मेरी बड़ी बेटी सुनीता यहां आकर आपका भोजन बना देगी. सत्रह-अठारह साल की है, खूब अच्छा खाना बनाती है. मैं जाकर बाजार से सारा सामान ले आता हूं. आप लिस्ट बना दें, बस.’’
‘‘यह तो आपकी कृपा है, बड़े बाबू...’’ बी.डी. ओ. साहब अभिभूत स्वर में बोले, ‘‘लड़की को क्यों कष्ट देंगे, एक नौकर ही तलाश दें. और सामान की लिस्ट भी आप ही तैयार कर लें, मुझे अभी इन सब चीजों का कोई अनुभव नहीं है कि क्या-क्या लगेगा. हां, लिस्ट अभी छोटी ही रखेंगे, केवल बहुत जरूरी चीजें. अभी मेरे पास यही कुल सौ-डेढ़ सौ रुपये हैं...वेतन मिलने के बाद देखा जाएगा. ये पैसे ले लीजिए.’’
लेकिन बड़े बाबू तब तक उठकर चल चुके थे. चलते-चलते ही बोले, ‘‘पैसे की फिकर मत कीजिए हुजूर, सब हो जाएगा...सब.’’
डेढ़-दो घंटे में एक घोड़ा गाड़ी पर ढेर सारा सामान लदवाए वह लौटे. बाहर से ही बोले-‘‘लीजिए हुजूर, जम गई आप की गृहस्थी. भगवान ने चाहा तो गृहस्थी में रही-सही कमी भी जल्दी ही पूरी हो जाएगी. कहा गया है कि बिन घरनी घर भूत का डेरा...’’ और वह मुक्त कंठ से हंसे.
सामान उतारकर अंदर रखने जाने लगे. एक बोरा चावल, एक बोरा गेहूं, डालडा, चीनी, तेल, बिजली का चूल्हा, स्टेनलैस स्टील के ढेरों बर्तन और बहुत सारी चीजों का पैकेट, गद्दा, चादरें और तकिए भी.
बी.डी.ओ. साहब आश्चर्य से अांखें फाड़े देखते रहे. उनके मुंह में से कोई आवाज ही नहीं निकल पा रही थी. उन्होंने मन ही मन अनुमान लगाया, हजार रुपये से ऊपर के सामान होंगे, अर्थात लगभग दो महीने के उनके वेतन का वारा-न्यारा हो चुका.
बड़े बाबू लिस्ट पढ़कर उन्हें एक-एक सामान दिखाते जा रहे थे-‘‘हुजूर ये रहे सुबह के लिए आपके नास्ते का सामान काजू, पिस्ता और अंडे के साथ सुबह की चाय. आफिस जाने से पहले कचौड़ी, पराठे या हलुआ के साथ दूध और बौर्नबीटा, फिर लंच में जैसा आप चाहें. अपने आफिस के चौकीदार के पास दो गायें हैं. वह एक किलो दूध सुबह दे जाया करेगा. जमीर मियां से दो अंडे रोज सुबह देने के लिए बोल आया हूं, बर्तन वगैरह साफ करने का काम उसी चौकीदार की बीबी कर देगी और मेरी सुनीता आपके लिए खाना बना देगी.’’
लेकिन बी.डी.ओ. साहब न तो बड़े बाबू की बातें सुन रहे थे और न सामने फैले सामानों को देख रहे थे. उनकी आंखों के सामने घर से चलते समय बस स्टैंड पर विदा अपने पिता का चेहरा विभिन्न प्रोफाइलों में नाच रहा था,...खुशी...स्नेह...उत्साह...करुणा...उदासी...डेढ़ सौ रुपये उसके हाथ में देते हुए पिता ने जिस बेबस दृष्टि से उसकी ओर देखा था, वह दृष्टि
सीधे उसके भीतर उतर गई थी. स्नेह बिगलित कंठ से बोले थे-‘‘नरेन, अब तो तुम साहब हो गए, लेकिन हम लोगों को कभी भूलना मत. हमारी क्या औकात थी तुम्हें इतना पढ़ाने-लिखाने और ऊंचा ओहदा दिलवाने की...सब भगवान की दया और तुम्हारे भाग्य से हुआ. मेरे पास बाप-दादा की दी हुई जो थोड़ी सी जमीन थी, वह सब दो-चार थान सोने-चांदी के गहने थे, वे भी समय-कुसमय के लिए मैंने नहीं बचाए. इस समय कोई उपाय न था तो पांच रुपये सैकड़े माहवारी ब्याज पर ये डेढ़ सौ रुपये मैंने संपत साहू से लिए हैं. दरमाहा मिलते ही अगले महीने ये रुपये भेज देना...और अधिक मैं क्या कहूं, तुम स्वयं समझदार हो. बस इतना ही जान लो कि तुम्हारे तीनों भाई-बहन हम बूढ़े-बूढ़ी का जीवन अब तुम्हारी ही दया पर निर्भर है. अपने शरीर का ख्याल रखना और भूलकर भी पाप की कमाई मत करना. पाप की कमाई में बरकत नहीं...’’ और उनकी आवाज बस के इंजन की घड़घड़ाहटों में कहीं खो गई थी. सामने रह गया था एक झुर्रियों वाला चेहरा, फटी बनियान के बीच में झांकती जर्जर काया...और कोटरों धंसी डबडबाई दो आंखें...
‘‘हुजूर यह एक बोरा गेहूं तो मैंने ग्राम पंचायत के प्रधान जी के घर से उठवाकर मंगवा लिया, ‘काम के बदले अनाज’ वाली योजना का माल है, पैसे थोड़े देने हैं.’’ बड़े बाबू ने शाबाशी लूटने के ख्याल से मुस्कुराते हुए बी.डी.ओ. साहब की ओर देखा. लेकिन साहब के चेहरे पर फैली उदासी देखकर वह सहसा अनुभवी चौंक गए. आंखों से साहब की उदासी का कारण छिपा नहीं रहा.
उन्होंने तुरंत पैंतरा बदल दिया-‘‘हुजूर, शायद यह सोचकर चिंतित हो रहे हैं कि मैंने बहुत खर्च दिए होंगे. आप खर्च की बात मन से निकाल दीजिए, सर! बाईस वर्ष हो गए इसी विभाग में काम करते हुए, पांच साल से तो इसी ब्लाक में हूं. मैं जानता हूं कि साहब लोग पैसा खर्च करके सामान लेना अपना अपमान समझते हैं. साहबों की सेवा में ही यह जिंदगी कटी है, हुजूर! आपको एक पैसा भी अपने पास से नहीं देना पड़ेगा हुजूर, सारा सामान सप्लाई इंस्पेक्टर वर्मा जी ने दुकानदारों से लिया है. वे उनसे समझ लेंगे. वर्मा जी भरते हैं. केवल बर्तन वाले को पैसे देने होंगे, वह कल नाजिर बाबू को देंगे...’’
‘‘कहां से देंगे...अपने बाप के घर से...?’’ बी.डी. ओ. साहब अब और अधिक अपने को जब्त नहीं कर सके और जोर से चीख पड़े.
‘‘नहीं हुजूर, अपने बाप के घर से यहां कौन देता है? कल प्राइमरी स्कूल के मास्टरों का वेतन दिवस है न! उसमें हर माह सात-आठ सौ रुपये आ जाते हैं. उसकी आधी रकम हुजूर की होती है, आधे में हम लोग सभी स्टाफ के लोग हैं.’’ बड़े बाबू घोड़े की तरह हिनहिनाये.
‘‘सात-आठ सौ कैसे आ जाते हैं?’’
‘‘हुजूर, मास्टर लोग खुशी-खुशी देते हैं. हम लोग उनकी सेवा करते हैं तो वे लोग भी हमारी सेवा करते हैं.’’
‘‘लेकिन अब यह सब नहीं चलेगा...’’ साहब तैश में बोले.
‘‘हुजूर, पूरे देश में चलता है...मिनिस्टर से लेकर कमिश्नर तक सब जगह चलता है. जनतंत्र में जनता से ही तो सब को जीना है, चाहे नेता हो या आफिसर या एक साधारण चपरासी. जो जनता की सेवा करेगा, वह क्या खाने के लिए अपने बाप के घर जायेगा. आप अभी नये हैं साब, धीरे-धीरे सब समझ जायेंगे....अच्छा मैं चलता हूं, सुनीता को भेज देता हूं, वह आपका सारा काम संभाल लेगी.’’ और बड़े बाबू मुस्कराते हुए कमरे के बाहर निकल गये.
बी.डी.ओ. साहब उनको बाहर जाते हुए देख रहे थे, चाहते हुए भी उनके कंठ से कोई स्वर नहीं फूटा.
अब कमरे में वह थे और सामने बेतरतीब फैला ढेर सारा सामान. कई क्षणों तक सहमी-सहमी नजर से वह उधर देखते रहे. उन्हें लगा, चोरी और लूट के मालों का उन्हें रक्षक और भक्षक बनाकर यहां बैठा दिया गया है...एक बड़ा-सा जाल फैला दिया गया है और उसमें दानें छींट दिये गये हैं...आकर्षक लुभावने दाने.
उन्हें दम घुटता-सा लगा. उन्होंने कपड़े बदले और क्वार्टर में ताला डालकर बाहर निकल गये...चलो, किसी फुटपाथी होटल में चाय पी लेंगे और किसी ढाबे में रात का भोजन कर लौटेंगे. अभी मुझे यहां पहचानता ही कौन है! रात में स्थिर मन से इन सारी समस्याओं पर सोचा जायेगा....
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