कहानी देवेन्द्र कुमार मिश्रा जन्मः 21 मार्च 1973 शिक्षाः एम.ए. पीएचडी, एमफिल (समाजशास्त्र) कृतियांः 15 कथा संग्रह एवं 30 का...
कहानी
देवेन्द्र कुमार मिश्रा
जन्मः 21 मार्च 1973
शिक्षाः एम.ए. पीएचडी, एमफिल (समाजशास्त्र)
कृतियांः 15 कथा संग्रह एवं 30 काव्य संग्रह प्रकाशित. 1991 से सतत् पत्र-पत्रिकाओं में कथा-कविता लेखन. 5000 से अधिक कवितायें एवं 300 कहानियां प्रकाशित.
सम्मानः साहित्यिक संस्थाओं से 270 सम्मान-पत्र
सम्पर्कः पाटनी कॉलोनी, भरत नगर, चन्दनगांव, छिन्दवाड़ा-480001 (म.प्र.)
मोः 9425405022
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ईमानदार लाश
देवेन्द्र कुमार मिश्रा
लाश पड़ी हुई है. लोगों को धीरे-धीरे खबर लगी. पड़ोसियों को तब पता चला जब लाश की बदबू उनके सिर में दर्द पैदा करने लगी. इससे पहले कोई बीमार फैले और बदबू से जीना मुश्किल हो जाये, पड़ोसियों ने पड़ोसी धर्म निभाना उचित समझा. खिड़कियों से ताक-झांक की. द्वार खटखटाया, आवाजें दीं और चीखे-चिल्लाये. अन्दर से कोई आवाज न आने पर समझ गये कि व्यक्ति लाश में बदल चुका है. पुलिस को खबर दी गयी. दरवाजे तोड़े गये और सबके सामने उसका शव पड़ा था.
पुलिस अपना काम करके चली गयी. इसी शहर में लाश के कुछ दूर-दराज के रिश्तेदार भी थे. उनका लाश से कभी सम्पर्क नहीं था. जब सम्पर्क हीं नहीं था तो आत्मीयता का प्रश्न ही नहीं उठता. लेकिन पड़ोसी तो शव जलाने का अधिकार रखते नहीं थे और रखना भी नहीं चाहते थे. मुर्दा को श्मशान तक पहुंचाना और जलाना बहुत मेहनत और खर्चे का काम था. फिर इस मुर्दे ने अपने जीवन-काल में किसी से कोई सम्बन्ध भी तो नहीं रखे थे.
कौन है? क्या करता है? किस जाति-धर्म का है, किसी को मालूम नहीं था. टेलीविजन और संचार क्रांति के इस युग में व्यक्ति की संवेदनहीनता का यह एक बहुत बड़ा उदाहरण था. इससे अच्छे पुराने समय के मोहल्ले थे. लोग एक-दूसरे के सुख-दुःख में शामिल होते थे. कॉलोनियों में रहते हुए व्यक्ति अपने आप में इतना सिमट गया है कि उसे मुर्दे की तकलीफदेह बदबू से परेशान होकर पड़ोसी की खबर लेनी पड़ती है.
कभी इस लाश के घर कोई आया नहीं. कोई गया नहीं. किसी को इसके बारे में कोई जानकारी नहीं थी. जीते-जी यह व्यक्ति मृत समान था. अन्यथा सगे-
संबंधी कोई तो होते. वह कोई साधु नहीं था. बाकायदा उसका अपना खरीदा मकान था. कुछ काम-धंधा, नौकरी, यार-दोस्त, घर-परिवार कुछ तो होगा. आदमी एकदम अनाथ कैसे हो सकता है? खबर फैलती गई...छोटा-सा शहर. लोगों को पता चलना ही था. कुछ लोग आ गये.
‘‘ये मेरे चाचा लगते हैं.’’ एक ने कहा.
‘‘तुम कभी दिखे नहीं.’’ पड़ोसी ने पूछा.
‘‘दूर के रिश्ते के हैं. काम-काज की व्यस्तता के चलते आना न हो सका कभी. लेकिन अब रहे नहीं, तो आना ही था. आखिर भतीजा हूं इनका.’’
‘‘मेरे मामा लगते हैं.’’ दूसरे ने कहा.
‘‘तुम भी कभी दिखाई नहीं दिये.’’ पड़ोसी ने पूछा.
‘‘मामाजी किसी से मिलना-जुलना पसन्द नहीं करते थे. फिर रोजी-रोटी, घर-परिवार की चक्की में पिसता हुआ आदमी रोटी बनकर पेट के चक्कर में ही पड़ा रहता है. लेकिन अब नहीं रहे तो आना ही पड़ा.’’
‘‘ये मेरे पिता समान थे.’’ तीसरा स्वर सुनाई दिया.
‘‘वो कैसे...?’’ पड़ोसियों में से एक आवाज आई.
‘‘मेरे पिता के साथ आयकर विभाग में थे. जब नौकरी में थे, हमारे घर आते-जाते थे. बहुत सच्चे और ईमानदार आदमी थे. विभाग उन्हें बर्दाश्त नहीं कर पाया. एक दिन मेरे पिता ने इनसे कहा, ‘स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले लो, अन्यथा कोई आरोप लगाकर सस्पेंड कर दिये जाओगे. तुम्हारी ईमानदारी बर्दाश्त के बाहर हो रही है.’ अपनी इज्जत बचाने के लिए सेवानिवृत्त हो गये और इस कॉलोनी में अपनी जमापूंजी से यह जूनियर एल.आई.जी. मकान खरीद लिया. ईमानदारी में इतना ही आ सकता था उस समय. अब तो इतना भी नहीं आता.’’ तीसरे स्वर ने कहा.
तब पड़ोसियों को ज्ञात हुआ कि मृत व्यक्ति अपने जीवन-काल में सरकारी कर्मचारी था. यह उसका खरीदा मकान था और उसका नाम रमाशंकर पांडे था. तभी एक और सज्जन ने आकर बताया कि वह उसका भाई था.
‘‘आप अब तक कहां थे?’’ पड़ोसियों का स्वर था.
‘‘सगा नहीं, भाई समान था. बचपन का दोस्त. हम साथ-साथ पढ़े-लिखे, साथ-साथ बड़े हुए. इसने अपनी नैतिकता, सच्चाई और अच्छे चाल-चलन की वजह से अकेलापन पाया. न शराब का शौक, न कबाब का न शबाब का. जवानी के दोस्त इसकी शराफत से दूर होते गये. जो निकटस्थ थे, वह भी इसके खरे स्वभाव और दो टूक बात करने, सच को सच कहने के कारण दूरस्थ हो गये. इसके गुण आज के जमाने में अवगुण बन गये और यह मेरा दोस्त समाज से, दोस्तों, परिवार से दूर होता चला गया. सबने इससे किनारा कर लिया.’’
‘‘तो इसका परिवार भी है. कहां है?’’
‘‘अब नहीं है, पहले था. पिता की मृत्यु के पश्चात इसे अनुकम्पा नौकरी मिली थी. मां के भीषण एक्सीडेंट के इलाज में सरकारी डॉक्टर ने रिश्वत मांगी. इसने देने से इंकार कर दिया. डॉक्टर ने और इसके दोस्तों ने खूब समझाया...मां के जीवन का सवाल है, भ्रष्टाचार आजकल सामान्य आचार है. मां से बढ़कर कोई नहीं है दुनिया में, लेकिन इस कठोर हृदय को दया न आई. अपने उसूलों पर अड़ा रहा. डॉक्टर ने ढंग से इलाज नहीं किया और मां मर गई.’’
‘‘बड़ा कठोर और पापी आदमी था.’’ किसी पड़ोसी ने कहा.
‘‘इसके भाई-बहन...?’’ दूसरे पड़ोसी ने पूछा.
‘‘एक बहन थी. ऐन शादी के समय लड़के वालों ने स्कूटर की मांग कर दी. यह सक्षम था देने में, पर दहेज के विरुद्ध था. इसने अपने भाई को भी मना कर दिया. भाई ने देने की कोशिश की तो पुलिस में काम्प्लेंट कर दी. लिहाजा बारात वापस हो गयी. बहन ने कुएं में कूदकर जान दे दी और भाई को दो दिन हवालात में गुजारनी पड़ी इसके कारण. तब से भाई ने हमेशा के लिए इससे सम्पर्क तोड़ लिया.
‘‘उफ्, कितना जल्लाद आदमी था. मां का कातिल, बहन का हत्यारा...’’ सभी उस शव को हिकारत की नजरों से देखने लगे.
तभी किसी पड़ोसी ने कहा, ‘‘लेकिन अब इसका भाई कहां है? इसके अंतिम संस्कार के लिए उसे बुलाना चाहिए.’’
भाई समान सज्जन ने उदास स्वर में कहा- ‘‘इसका भाई तो इसी के रहमोकरम के कारण जेल में है. अपने ही भाई के घर छापा मारा, उस पर केस बनाया और उसे अन्दर कर दिया. भाई लाख गिड़गिड़ाया, पैसों का ऑफर दिया, लेकिन यह नहीं माना.’’
सभी की घृणा और बढ़ गई. इतना गिरा हुआ आदमी. अपनी दो कौड़ी की ईमानदारी और उसूलों की वजह से पूरे परिवार को ले डूबा. आदमी की शक्ल में शैतान...तभी तो इसकी लाश यहां पड़ी-पड़ी सड़ रही है. कोई पूछने वाला नहीं.
‘‘क्या इसके बीवी-बच्चे नहीं हैं?’’ फिर एक और पड़ोसी ने पूछा.
‘‘जब शादी ही नहीं की तो बच्चे कहां से आयेंगे.’’
‘‘शादी क्यों नहीं की?’’
‘‘रिश्ते तो कई आये थे, लेकिन लड़की का पिता दहेज में कुछ न कुछ तो देता ही है. जनाब इंकार करते गये. कौन देता ऐसे आदमी को लड़की, जो समाज के नियमों के विरुद्ध चलता है. कहता था कि शादी में फूटी कौड़ी नहीं चाहिए. शादी होगी तो सादगी से, मंदिर में, आर्य समाज रीति से या कोर्ट में. आजकल बिना बैंड-बाजा-बारात के तो गरीब से गरीब पिता भी अपनी कन्या नहीं देता. आखिर लड़की के पिता को समाज में अपना मुंह दिखाना है, सो बात नहीं बनी. फिर एक दिन एक दलित समाज की कैंसर पीड़ित लड़की को अस्पताल में ही किसी नाजुक और भावुक क्षणों में वचन दे दिया कि उस दिन से वह उसकी पत्नी और खुशी के मारे वह लड़की अस्पताल में ही मर गई. तब से ये उसी वचन को याद किये जीते रहे.’’
फिर उन सज्जन ने एक दीर्घ श्वास छोड़ते हुए कहा, ‘‘अब कहां तक बतायें...एक अवगुण हों तो कहें. यह व्यक्ति जीवन भर नैतिकता और ईमानदारी की अर्थी ढोता रहा. यह समाज विरोधी, जाति विरोधी, दहेज विरोधी, परिवार विरोधी, भ्रष्टाचार विरोधी...और क्या-क्या कहें. इसे जीने का कोई हक नहीं था. मृत व्यक्ति की बुराई करना शोभा नहीं देता. फिर भी कहना पड़ता है. दोस्तों से बात-बात पर लड़ता, सबको गालियां देता. दोस्तों ने इसे लाख समझाया कि जमाने के हिसाब से चलना पड़ता है, लेकिन यह नहीं समझा.
‘‘एक बार एक व्यापारी मित्र की मिलावटखोरी को देखकर इसने चीखना-चिल्लाना शुरू कर दिया. लोग इकट्ठे हो गए. पुलिस आ गई. उस दोस्त का अच्छा-खासा धंधा बन्द हो गया. उसकी बेइज्जती हुई, सो अलग. उसने गुस्से में इससे पीड़ित चार-छः दोस्तों के साथ मिलकर इसकी जमकर धुनाई की और इसे मित्र समूह से बहिष्कृत कर दिया. यह मित्र द्रोही था.’’
‘‘इसका इलाज नहीं करवाया. आपकी बातों से तो लगता है कि ये पागल था. मानसिक संतुलन बिगड़ गया था इसका.’’ पड़ोसियों ने कहा. लाश की बदबू बढ़ती जा रही थी. सबने अपनी नाक में रूमाल रखे हुए थे. कहा, ‘‘इस मुसीबत से जल्दी पीछा छूटे तो अच्छा है. आप लोग इसे श्मशान ले जाने की तैयारी करिये.’’
‘‘देखिए श्मशान घाट दूर है. फिर गर्मी भी कितनी है. अच्छा है कि हम शव वाहन बुला लें.’’ भतीजे ने कहा.
‘‘उसके लिए पैसा लगता है.’’ भानजे ने कहा.
‘‘मुर्दा मुफ्त में नहीं जलता. लकड़ी के भाव मालूम हैं. श्मशान घाट के रेट पता हैं?’’ पुत्र समान ने कहा.
‘‘वह सब मैं कर दूंगा. आखिर इसका मेरे सिवाय है ही कौन. फिर इसके घर, जमा-पूंजी पर भी तो मेरा ही अधिकार है. उसी में से काट लूंगा.’’ भाई समान सज्जन ने कहा. इतना सुनना था कि भतीजा, भानजा, पुत्र समान लगने वालों का माथा ठनक गया. वे अपने-अपने ढंग से चीखे-
‘‘हमें बेवकूफ समझा है क्या? हमारे चाचा हैं. हमारा हक बनता है.’’
‘‘हम क्या यहां झक मारने आये हैं. हमारे मामा हैं. जो है, हमारा है.’’
‘‘मेरे पिता समान हैं, तो पुत्र का प्रथम अधिकार है.’’
‘‘यह मेरा भाई है. सगा नहीं तो क्या हुआ? भाई-भाई होता है. मैं इसके बचपन का साथी हूं. इसके बाद इसका जो कुछ है, मेरा है.’’
‘‘मित्र का कोई अधिकार नहीं? चाचा, पिता समान होता है.’’
‘‘साबित करो कि तुम इसके भतीजे हो?’’
‘‘तुम साबित करो कि तुम इसके भानजे हो. अरे जब बहन की शादी ही नहीं हुई तो भानजा कहां से आ गया.’’
‘‘तो जब भाई का अता-पता नहीं. भाई की कोई औलाद ही नहीं तो भतीजा कहां से आ गया?’’
‘‘और ये पुत्र समान क्या होता है? नौटंकी साले क्या तेरी मां के साथ...’’
‘‘खबरदार,’’
और वे सब शव के समक्ष ही आपस में लड़ने-झगड़ने लगे. झगड़ा बढ़ा तो गाली-गलौज शुरू हो गई. जिसका पलड़ा कमजोर होता तो वह हाथ-पैर से बात करने लगा. फिर
इधर-उधर से लाठियां तलाश कर लाठियां बजने लगीं. एक पड़ोसी ने अपने बच्चों को एक कोने में ले जाकर डांटते हुए कहा, ‘‘बस क्रिकेट, टी.वी और लड़कीबाजी में लगे रहे. पड़ोस में कोई अकेला बुजुर्ग रहता है, यह देखने का समय नहीं मिला. थोड़ी सेवा कर लेता तो बुजुर्ग का सबकुछ आज तेरा होता. लेकिन तुझे अपनी मौज-मस्ती से फुर्सत ही कहां?’’
एक पड़ोसन ने अपने बेटे से उदास स्वर में कहा- ‘‘बेटा, पढ़ाई के साथ दुनियादारी की खबर भी रखना. जो संसार में चल रहा है, उसी पर चलना; अन्यथा इस वृद्ध की तरह हाल होगा. किसी को पता भी नहीं चलेगा. सबक सीखो इस आदमी की मौत से. ईमानदारी आटे में नमक बराबर रखना, नहीं तो कुछ नहीं बचेगा. बेटा दुनिया जैसी चाल चले, वैसे ही
चलना.’’
तभी मित्र समान भाई ने कहा- ‘‘इस तरह आपस में लड़ना ठीक नहीं. बाद में देख-समझ लेंगे. हो-हल्ला करने से दावेदार बढ़ सकते हैं.’’
‘‘बात आपने शुरू की थी.’’
‘‘चलो बात पर राख डालो. इसका फैसला बाद में कर लेंगे. फिलहाल अंतिम क्रिया की तैयारी करो. कुल जमा बीस हजार खर्चा होंगे. शव वाहन से लेकर कफन, रस्सी, बांस, फूल-माला, मटकी, अंतिम संस्कार के लिए लकड़ी, अस्थि विसर्जन और तेरहवीं का भोज. निकालो पांच-पांच हजार रुपये. ये रहे मेरे पांच हजार...’’
बाकी तीनों ने कहा, ‘‘हम तो बेरोजगार ठहरे. हमारे पास कहां इतने रुपये?’’
‘‘अच्छा, हिस्सा लेने के लिए मरे जा रहे थे. बेटा आदमी के मरने पर भी बहुत खर्चा होता है.’’ मित्र समान भाई ने कहा.
वे तीनों बोले, ‘‘आप ही कोई रास्ता निकालिए.’’
‘‘अब आये न रास्ते पर. मकान बेचकर जो मिलेगा, उसमें से मैं ब्याज सहित 40,000 रुपये पहले काटूंगा. आखिर मुर्दे को ब्याज दे रहा हूं.’’
‘‘लेकिन अंकल आप तो इसके बचपन के दोस्त हैं.’’
‘‘हां, हूं तो. जब जिन्दा था, तब दोस्त था. पर इसने कभी दोस्ती नहीं निभाई. एक बार मैं नकल कर रहा था बी.ए. की परीक्षा में, इसने मुझे पकड़वा दिया था. मैं तो खुश हूं कि इसकी मौत पर अपनी कमाई करके बदला ले सकूं. बोलो, मंजूर है, नहीं तो मैं चला. तुम्हीं कर लो सब और लूट लो, अगर लूट सको तो...’’
भाई समान मित्र ने तीनों दावेदारों को धमकाया. तीनों की स्थिति मरता, क्या न करता की थी. उन्हें लगा भागते भूत की लंगोटी भली. यदि इसकी बात मान ली तो भी बहुत हाथ आयेगा. अकेला मकान कम से कम 25 लाख का होगा. उन्होंने कहा- ‘‘हमें मंजूर है.’’
शव का जनाजा बनाने के लिए मित्र समान भाई ने रुपये दिये. तीनों वारिस दौड़कर सब सामान ले आये. शव वाहन नहीं मिला. कहीं और गया हुआ था. एक दिन में न जाने कितने लोग मरते हैं और शहर में मात्र दो ही सरकारी वाहन थे. गैरसरकारी वाहनवालों ने जरूरत देखकर अपने दाम बढ़ा दिये. फिर ये तय हुआ कि शव को कंधों पर ढोकर ले जाना ही ठीक होगा. वे चार तो हैं ही. एक-दो अड़ोसी-पड़ोसी भी मनुष्यता के नाते पीछे-पीछे ‘राम-नाम सत्य है’ कहकर चलने लगे. वह लोग कुछ देर तक पीछे चले, फिर कुछ गर्मी से आहत होकर और पीछे रह गये. किसी का मोबाइल बज उठा, किसी को कोई काम याद आ गया. किसी को लगा, निभा तो लिया. बहुत हो गया. इस तरह एक-एक करके सभी लौट गये.
अब ये चार दावेदार मन ही मन हिसाब लगाते चल रहे थे. कितना किसके हिस्से में आयेगा. ईमानदार अकेले व्यक्ति की मौत पर कोई सच्चा रोने वाला, करुण विलाप करनेवाला नहीं मिलता. जो भी आते हैं, वे व्यवहारिकता निभाने, दिखावा करने या कुछ पाने की लालसा में आते हैं. ईमानदार आदमी के पास जेब में भले फूटी कौड़ी न हो, भले ही जीवन भर वह अपमान, प्रताड़ना सहता रहे, अकेलेपन का दंश सहता रहे; लेकिन उसके अन्छर एक विशेष हठीलापन और अकड़ होती है. वह किसी बात पर डरता नहीं, वह किसी के सामने गिड़गिड़ाता नहीं है, भले ही उससे कतराते रहें, बचते रहें और दूर भागें.
‘‘आपके शववाहन के पैसे तो बच गये अंकल.’’ भानजे ने कहा.
‘‘तुम कहना क्या चाहते हो?’’ मित्र समान भाई ने कहा.
‘‘ये कि आपके बीस में से 3 कम हो गये तो उसका ब्याज भी खत्म हो गया.’’ भतीजे ने कहा.
‘‘हां, बात तो सही है.’’ पुत्र समान पुत्र ने हां में हां मिलाई.
‘‘एक बात कहूं. ये अस्थि विसर्जन के लिए गंगाजी जाना पुत्र का काम है और गंगाजी इधर से बहुत दूर हैं. शादियों का सीजन चल रहा है. बस और ट्रेन में जगह नहीं मिलती. फिर गंगाघाट के पंडे सस्ते में नहीं छोड़ते. तुम यह काम कर दो, तो तुम्हारी बात माने.’’ भाई समान मित्र ने कहा. तीनों सन्नाटे में आ गये. भतीजे ने कहा, ‘‘अंकल, कहां आप भी पंडितों की बात में लगे हैं. कोई आस-पास की नदी में अस्थियां बहा
देंगे.’’
भानजे ने हां में हां मिलाते हुए कहा, ‘‘मैं भी इन ढकोसलों को नहीं मानता. पंडों की कमाई के चोंचले हैं सब. फिर अब गंगा मैया खुद प्रदूषण से जुझ रही हैं. ऐसे में अस्थि विसर्जन से कहां व्यक्ति को मुक्ति मिलेगी?’’
‘‘अरे बेटा, इस पापी आदमी ने अपनी ईमानदारी की बीमारी के चलते इतने लोगों का दिल दुखाया है, इतने लोगों को नुकसान पहुंचाया है कि गंगा में बहाओ या गंगोत्री में. इसे मुक्ति नहीं मिलनी. आखिर लोगों की आहें और बद्दुआयें भी कुछ होती हैं.’’ भाई समान ने कहा.
‘‘लेकिन यहां आस-पास की नदियों में पानी कहां? सब सूखी पड़ी हैं. हां, एक नाला है. क्या इसमें...?’’ बेटे समान ने कहा.
‘‘हिस्सा चाहिए. बेटे बनते हो. नाले में अस्थियां बहाओगे. शर्म नहीं आती? अपने बाप की अस्थियां बहाना नाले में...’’ मित्र समान भाई ने कहा, ‘‘पैसा बचाने की पड़ी है. अरे अपने शहर में नहीं तो आस-पास शहर की नदी में बहा देना.’’
पुत्र समान को गुस्सा आ गया. वह बोला- ‘‘देखिये अंकल, मेरे बाप तक जाने की जरूरत नहीं है. अगर आप स्पेशल गाड़ी के पैसे दें तो गंगाजी में बहा आऊं. घूमना भी हो जायेगा.
‘‘तुम्हें घूमना है, वह भी मेरे पैसों से...?’’
‘‘ये मेरे-तेरे क्या लगा रखा है? सब इस लावारिस का है. आप अपना हिसाब कर लेना.’’ भतीजे ने कहा, ‘‘बस इतना है कि आप पहले पैसा खर्च कर रहे हैं.’’
अर्थी को लादे तीनों बहस करते, हिसाब-किताब करते चले जा रहे थे.
‘‘पता नहीं इसने कुछ छोड़ा भी है या नहीं. ईमानदार आदमी भरोसे के लायक नहीं होता.’’ भाई समान ने कहा- ‘‘कहीं ऐसा न हो कि मेरा पैसा डूब जाये.’’ यह कहकर वह रुक गया. बाकी तीनों को भी रुकना पड़ा.
‘‘अरे कुछ नहीं होगा तो मकान तो है न!’’ भानजे ने कहा.
‘‘मकान बिकना इतना आसान है क्या?’’ भतीजे ने कहा.
‘‘सरकारी लिखा-पढ़ी में वारिस बनाना आसान थोड़े ही है. फिर मकान किसी एक के नाम होगा.’’ बेटे समान ने कहा.
‘‘भाई पहले ही तय कर लो. मकान मेरे नाम होगा. पैसा मैं पहले लगा रहा हूं.’’
‘‘ऐसे कैसे आपके नाम होगा.’’ उन तीनों ने कहा.
अब चारों रुक गये. उन्होंने जनाजा कंधे से उतारा. पहले तय करने पर अड़ गये कि किसको, कितना मिलेगा. मकान किसके नाम होगा. शव एक तरफ यूं रखा था जैसे कोई व्यर्थ का बोझ हो.
‘‘मकान मेरे नाम होगा.’’ पुत्र ने कहा.
‘‘वकील, रजिस्ट्रार, दलाल को पैसे देने की औकात है तुम तीनों की.’’ भाई समान ने गुस्से में कहा.
अब तीनों भड़क गये. ‘‘अंकल पैर तो आपके कब्र में लटके हैं और पैसों के लिए मरे जा रहे हैं. आप ऐसा करिये, मकान को आप लिखवा लीजिये. हमें हमारा हिस्सा अपने पास से दे दीजिए.’’
‘‘रुपये क्या मेरी जेब में पड़े हैं. बेवकूफ समझा है कि पराये मकान के लालच में लाखों बांट दूं.’’ भाई समान गुस्से में बोला.
‘‘आपकी नीयत में खोट है.’’ भतीजे ने कहा.
‘‘आप दे दीजिए. नौकरी से रिटायर हुए हैं. जमा पैसा तो मिला ही होगा.’’ भानजे ने कहा.
‘‘मेरी जीवन भर की जमापूंजी पर नजर है.’’ भाई समान मित्र ने चीखकर कहा. अब आपस में तकरार होने लगी. पुत्र समान ने कहा- ‘‘पुत्र होने के नाते मेरा अधिकार है कि मैं अस्थि विसर्जन करूं, गंगाजी जाऊं और फिर तेरहवीं के कार्यक्रम को सम्पन्न कराऊं. इतनी बार नहाना, जाना. सिर मुंड़वाना पड़ेगा, फिर भानजे-भतीजे का क्या लेना-देना?’’ यह सुनकर भानजे-भतीजे गुस्से में आ गये.
‘‘हराम का माल अकेले नहीं खाया जाता. हमें नहीं मिला तो हम किसी और को भी नहीं लेने देंगे.’’
बहस बढ़ती गयी. वे आपस में लड़ने-झगड़ने लगे. जनाजे में रखा शव एक तरफ पड़ा था. वे चारों हिस्सेदार जूतमपैजार पर उतर आये.
तभी एक शववाहन उनके पास आकर रुका. दो वार्ड ब्वाय जैसे लोग और एक वकील उतरा. वकील ने जोर से कहा- ‘‘किसकी इजाजत से शव ले जा रहे हो और यहां शव क्यों रखा है? जनाजे के सामने हाथापाई करते शर्म नहीं आती.’’
‘‘वो हम हिस्से की बात...’’
‘‘कैसा हिस्सा? मैं स्वर्गीय पांडे जी का वकील हूं. इनकी वसीयत मेरे पास है. शव को उठाकर गाड़ी में रखो.’’ वकील ने दोनों साथ आये लोगों को आदेश दिया. चारों के चेहरे उतर गये. भाई समान मित्र ने हकलाते हुए पूछा, ‘‘कैसी वसीयत?’’
‘‘सुनना चाहोगे?’’ वकील ने कहा.
‘‘जी,’’ चारों ने एक साथ कहा.
‘‘तो सुनो,’’ कहकर वकील ने वसीयत का कागज निकाल कर पढ़ा- ‘‘मैं रमाशंकर पांडे अपनी ईमानदारी से जीवन भर अनाथ की तरह अकेला जिन्दा रहा. मुझे अपनी ईमानदारी पर गर्व है. हो सकता है, मेरे मरने के बाद मेरे छोटे से मकान और जमापूंजी को हड़प करने के लिए कुछ लालची कुत्ते मुझे अपना बाप, भाई, मामा, चाचा बनाकर आ जायें. मैं स्पष्ट करता हूं कि मेरे मरने के बाद यदि कोई ऐसा दावा करता है तो वह पूर्णतः काल्पनिक और झूठा होगा. ऐसा दावा गैरकानूनी होगा और चार सौ बीसी होगी. ये लोग न माने तो इन पर केस चलाया जाय, इन्हें जेल भेजा जाय. मेरे शरीर की अंतिम क्रिया में न किसी को अपना धन खर्च करके धर्मात्मा बनने की जरूरत है, न मेरे शव पर अहसान करने की. मेरे जीवित कर्म ही मेरी सद्गति तय करेंगे. मेरे मरने के बाद मेरा शव किसी का पेट भर सके, यह मेरे लिए आनन्द की बात होगी. मेरे शव को पारसी धर्म के अनुसार चील-गिद्धों के लिए रख दिया जाये. मेरी जमापूंजी और मकान बेचकर प्राप्त राशि कैंसर पीड़ितों के इलाज के लिए दान कर दी जाये. कोई जबरदस्ती दावेदारी करे तो उस पर 420 का मुकदमा चलाया जाये.’’
वसीयत पढ़कर वकील ने आगे कहा, ‘‘जेल जाना चाहोगे.’’
‘‘नहीं,’’ वे अंदर तक कांप गये थे.
शव के चेहरे पर अजीब सी चमक थी. जो शायद जमीनखोर, आत्महीन नहीं देख सकते थे. वकील शवगाड़ी के साथ शव लेकर चला गया. वे चारों उस शव को कोस रहे थे, उसकी ईमानदारी को, उसकी चालाकी को. वे वही धूप में उदास बैठे थे, मानो उनकी जन्म भर की पूंजी लुट गयी हो.
‘‘सारी मेहनत बेकार गई.’’ भानजे ने कहा.
‘‘सारे सपने टूट गये.’’ भतीजे ने कहा.
‘‘कितना गिरा हुआ आदमी था. जीते जी लोगों को तकलीफें देता रहा और मरने के बाद हमें कंगाल कर गया.’’ पुत्र समान पुत्र ने कहा.
‘‘अरे भाई, ये ईमानदार किसी के सगे नहीं होते. न ये किसी के मित्र, न भाई, न पिता, न दोस्त...इनसे जीते जी और मरने के बाद भी सावधान रहना चाहिए. ये समाज, परिवार,
धर्म, जाति सम्बन्धों पर कलंक होते हैं.’’
वे चारों अफसोस करते हुए अंत में यह सोचकर अपने-आपको तसल्ली देते हुए वहां से उठे कि अग्नि संस्कार नहीं कर पाये, अन्यथा 420 के केस में जेल चले जाते.
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