लघुकथा फैसला किशन लाल शर्मा ‘‘मी लार्ड! किसानों को बाजार भाव से चौगुना पैसा दिया जा रहा है,’’ बिल्डरों का वकील कोर्ट में जिरह करते हुए ब...
लघुकथा
फैसला
किशन लाल शर्मा
‘‘मी लार्ड! किसानों को बाजार भाव से चौगुना पैसा दिया जा रहा है,’’ बिल्डरों का वकील कोर्ट में जिरह करते हुए बोला, ‘‘इतना पैसा इन्होंने कभी जिंदगी में नहीं देखा होगा. किसान इस पैसे से ऐश करेंगे.’’
शहर का विकास होते-होते सब जगह घिर गई. जब शहर में जमीन नहीं बची, तब बिल्डरों की नजर शहर से बाहर किसानों की उपजाऊ भूमि पर पड़ी थी. कृषि योग्य भूमि विकास के लिए ही ली जा सकती थी. बिल्डरों ने विकास
प्राधिकरण के अधिकारियों को साथ किया. फिर क्या था? सरकार ने जमीन अधिग्रहण करने का नोटिस निकाल दिया. ज्यादा पैसे के लालच में ज्यादातर किसान तैयार हो गये, पर कुछ किसान सरकार के फैसले से असंतुष्ट थे. वे कोर्ट जा पहुंचे. विपक्ष के वकीलों ने जिरह शुरू की. उनकी जिरह पर जज साहब ने कहा-
‘‘वकील साहब आप सही कह रहे हैं, जो जमीन सदियों से किसानों की अन्नदाता है, उसे बेचकर इन्हें खूब पैसा मिलेगा. उस पैसे से ये कार, फ्रिज, टी.वी. मोबाइल और ऐशो-आराम की ऐसी चीजें खरीदेंगे, जो नाशवान हैं. नाशवान चीजों पर ये सारा पैसा बर्बाद कर देंगे.’’
जज साहब आगे बोले, ‘‘जमीन से बेदखल होकर ये बेरोजगार हो जायेंगे. जब सारा पैसा खत्म हो जाएगा, तब या तो ये भीख मांगेंगे या आत्महत्या करेंगे. मैं इनकी रोजी रोटी से इन्हें बेदखल नहीं होने दूंगा.’’
विपक्ष के वकीलों के चेहरे मुरझा गए.
सम्पर्कः 103, राम स्वरूप कॉलोनी
शाहगंज, आगरा-282010, (उ.प्र.)
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लघुकथा
अपनी विधा
राकेश माहेश्वरी ‘काल्पनिक’
पत्नी के मायके जाते ही घर सुनसान हो जाता है. ऐसे में निर्मित एकांत में साहित्यिक मन कुलाचें भरने लगता है. नियमित साहित्यिक गतिविधियों के साथ-साथ नए-नए विचार मन में पनपने लगते हैं, नया लेखन गति लेने लगता है.
इस बार जब पत्नी मायके गयी तो लेखन ने त्वरित गति पकड़ ली. अपने एक अधूरे उपन्यास को पूरा कर डाला. ऐसे में जब कामवाली बाई आती तो उससे कुछ देर बतिया लेना अच्छा लगता. बातों ही बातों में उसके जीवन का कोई घरेलू रहस्य पकड़ में आ गया तो मेरे मस्तिष्क में एक नई कहानी रूप धारण करने लगती. इसी तरह आत्मीय क्षणों में कामवाली के साथ चाय पीते हुए उसके रूप-लावण्य को देखकर एक लघुकथा भी लिख डाली.
पत्नी के मायके वापस आने के बाद जब मैंने उसको अपनी नई कहानी और लघुकथा सुनाई तो उसके चेहरे के भाव अतुकांत कविता की भांति कभी बढ़ते और कभी सिमटते हुए-से लगे. कुछ देर तक वह चुपचाप मेरी तरफ देखती रही और फिर अटकती सी बोली, ‘‘आप तो बड़े छुपे रुस्तम निकले. मैं तो समझती थी कि मेरे जाने के बाद आप अपने उपन्यास और अतुकान्त कविताओं के ही सिर-पैर तोड़े-मरोड़ेंगे. लेकिन बीच में यह कहानी और लघुकथा कहां से और कैसे आ गई? मैं आप पर शक तो नहीं कर रही हूं, लेकिन मन ही मन में न जाने क्यों सशंकित हो रही हूं? आखिर आपको अपनी विधा तक ही सीमित रहना था.’’
मेरी निगाहें जमीन पर गड़ी हुई थी. मैं
अपराधबोध से ग्रस्त होकर अपने एक पैर के अंगूठे से दूसरे पैर का अंगूठा मसल रहा था.
संपर्कः धनारे गली, नरयिंहपुर (म.प्र.)
मोः 8602114379
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लघुकथा
उत्तराधिकारी
राजेश माहेश्वरी
मुंबई के एक प्रसिद्ध उद्योगपति अपने उत्तराधिकारी का चयन करना चाहते थे. उनकी तीन संतानें थी. एक दिन उन्होंने अपने तीनों पुत्रों को बुलाकर उनको एक-एक मुट्ठी मिट्टी देकर कहा- ‘‘मैं देखना चाहता हूं कि तुम लोग इसका एक माह के अन्दर क्या उपयोग करते हो?’’
एक माह के बाद पिता ने तीनों पुत्रों को बुलाया और एक-एक कर उनसे उनके कार्य का विवरण पूछा. सबसे बड़े पुत्र ने बताया, ‘‘वह मिट्टी किसी काम की नहीं थी, इसलिए मैंने उसे फिंकवा दिया.’’ दूसरे पुत्र ने बताया, ‘‘मैंने सोचा कि इस मिट्टी में बीजारोपण करके पौधे उगाना श्रेष्ठ रहेगा.’’
तीसरे और सबसे छोटे पुत्र ने बताया, ‘‘मैंने गंभीरतापूर्वक मनन किया कि आपके द्वारा दी गई मिट्टी का कोई अर्थ अवश्य होगा. इसलिए मैंने उस मिट्टी को प्रयोगशाला में भिजवा दिया. जब परिणाम प्राप्त हुआ तो पता चला कि वह साधारण मिट्टी न होकर चीनी मिट्टी है, जिसका ओद्योगिक उपयोग किया जा सकता है. याह जानकर मैंने इस पर आधारित कारखाना खोलने की पूरी कार्ययोजना तैयार कर ली है.’’
उद्योगपति ने अपने तीसरे पुत्र को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर लिया.
सम्पर्कः 106, रामपुर, जबलपुर (म.प्र.)
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लघुकथा
आपकी मिसेज
सत्य शुचि
वह विगत बाईस मई थी. केदारनाथ धाम से वापसी का समय, गौरीकुंड से चौदह किलोमीटर केदारनाथ मंदिर! पैदल- यात्रा का यह सफर बड़ा ही आनंददायक एवं रोमांचक रहा था.
हां तो, लौटते वक्त हम थोड़े अधिक ही प्रसन्नचित्त थे. असल में, एक परिचित फेमिली शुरू से ही हमारे संग हो ली थी, और अब सब अपनी-अपनी मस्ती में डूब हुए थे कि संगी परिवार का वह लड़का अनायास कुछ फुसफुसाया था कि मेरे कान खड़े हो गए.
‘‘...पापा!’’ धीमे स्वर में वह बोला, ‘‘आप अपनी मिसेज को जरा समझाओ तो...!’’
‘‘क्या...!’’ रफ्ता-रफ्ता चलते उनके कदम डगमगाए.
‘‘हां, पापा...! प्लीज, समझा दो ना,’’ इस मर्तबा वह तेजी में था.
‘‘मेरी मिसेज को क्या समझाऊं-समझाना, बेटा...’’ एक विस्मय ने उन्हें लील दिया था.
‘‘यही कि वह कम से कम बोलें...सारे रास्ते मेरा माथा खाए जा रही है...आखिर, मम्मी को ये बड़बड़ रुकने-थमने का नाम क्यों नहीं लेती...’’
‘‘ठीक है, बेटा...अभी की अभी समझाए देता हूं उसे...’’ और तुरंत उन्होंने पत्नी को घूरती निगाहों से डपटा, जिस पर वह उसी क्षण चुप हो गईं, किंतु एक सहमापन वातावरण में पसर गया.
और तभी एकबारगी पलटकर उनकी इच्छा हुई कि वह अपने पुत्र से संवाद को आगे बढ़ाएं कि मेरी पत्नी उसकी क्या लगती है...लेकिन, जाने क्यूं, उनकी चाहत बुझ-सी चली.
मगर उनका आपसी वार्तालाप मुझे हजम नहीं हुआ. चूंकि सारा घटनाक्रम मेरी नजरों के सामने गुजरा था, सो झट से एक निष्कर्ष मेरे जेहन में उतरा कि आज की टी.वी. संस्कृति से उभरे अहसास आनेवाली पीढ़ी को कहां से कहां ले जायेगी...और मैं कहीं एक गहरे शोक में डूबा था.
संपर्कः साकेत नगर,
ब्यावर-305901 (राजस्थान)
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