हमारी विरासत फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ जन्मः मार्च 4, 1921, औराही हिंगना, जिला अररिया, बिहार मृत्युः अप्रैल 11, 1977 कृतियांः मैला आंचल ,...
हमारी विरासत
फणीश्वरनाथ ‘रेणु’
जन्मः मार्च 4, 1921, औराही हिंगना, जिला अररिया, बिहार
मृत्युः अप्रैल 11, 1977
कृतियांः मैला आंचल, परती परिकथा, दीर्घतया,
तीसरी कसम अर्थात मारे गए गुलफाम सुप्रसिद्ध कथाकार/उपन्यासकार फणीश्वरनाथ रेणु की बहुचर्चित कहानी है, जिस पर राज कपूर और वहीदा रहमान को लेकर ‘तीसरी कसम’ नाम से शैलेन्द्र ने एक फिल्म भी बनाई थी. एक क्लासिक और सुंदर फिल्म होने के बावजूद यह सफल नहीं हो सकी थी, परन्तु इसके मार्मिक गीतों ने जन-जीवन में अच्छी पैठ बना ली थी. इसके गीतों को स्व. मुकेश ने स्वर दिये थे. आज भी इस फिल्म के गीत लोग बड़े चाव से सुनते और गुनगुनाते हैं. कहानी बहुत ही रोचक है. इसे बिना किसी काट-छांट के प्रस्तुत किया जा रहा है. संपादक प्राची
तीसरी कसम, अर्थात मारे गए गुलफाम
फणीश्वरनाथ ‘रेणु’
हिरामन गाड़ीवान की पीठ में गुदगुदी लगती है...
पिछले बीस साल से गाड़ी हांकता है हिरामन गाड़ीवान. सीमा के उस पार मोरंग, राज नेपाल से धान और लकड़ी ढो चुका है. कण्ट्रोल के जमाने से चोरबाजारी का माल इस पार से उस पार पहुंचाया है. लेकिन कभी तो ऐसी गुदगुदी नहीं लगी पीठ में...
कण्ट्रोल का जमाना! हिरामन कभी भूल सकता है उस जमाने को. एक बार चार खेप सीमेंट और कपड़े की गांठों से भरी गाड़ी, जोगबनी से विराटनगर पहुंचाने के बाद हिरामन का कलेजा पोख्ता हो गया था. फारबिसगंज का हर चोर-व्यापारी उनको पक्का गाड़ीवान मानता. उनके बैलों की बड़ाई बड़ी गद्दी के बड़े सेठ जी खुद करते, अपनी भाषा में...
गाड़ी पकड़ी गई पांचवी बार, सीमा के इस पार तराई में.
महाजन का मुनीम उसी की गाड़ी पर गांठों के बीच चुक्की-मुक्की लगाकर छिपा हुआ था. दारोगा साहब की डेढ़ हाथ लम्बी चोरबत्ती की रोशनी कितनी तेज होती है, हिरामन जानता है. एक घण्टे के लिए आदमी अन्धा हो जाता है, एक छड़ भी पड़ जाय आंखों पर! रोशनी के साथ कड़कती हुई आवाज, ‘ऐ-ए! गाड़ी रोको! साले, गोली मार देंगे...’
बीसों गाड़ियां एक साथ कचकचाकर रुक गईं. हिरामन ने पहले ही कहा था-इस बीस विषावेगा. दारोगा साहब उसकी गाड़ी में दुबके हुए मुनीम जी पर रोशनी डालकर पिशाची हंसी हंसे-हा-हा-हा! मुंड़ीम जी ई-ई-ई! ही-ही-ही!...ऐ-य, साला गाड़ीवान, मुंह क्या देखता है रे-ए-ए! कम्बल हटा बे इस बोरे के मुंह पर से! हाथ की छोटी लाठी से मुनीम जी के पेट में खोंचा मारते हुए कहा था-इस बोरे को. स-स्साला!...
बहुत पुरानी अदावत होगी दारोगा साहब और मुनीम जी में. नहीं तो उतना रुपया कबूलने पर भी पुलिस-दारोगा का मन न डोले भला! चार हजार तो गाड़ी पर बैठा-बैठा ही दे रहा था. लाठी से दूसरी बार खोंचा मारा दारोगा ने. पांच हजार! फिर खोंचा-उतरो पहले...
मुनीम को गाड़ी से नीचे उतार कर दारोगा ने उसकी आंखों पर रोशनी डाल दी. फिर दो सिपाहियों के साथ सड़क से बीस-पच्चीस रस्सी दूर झाड़ी के पास ले गये. गाड़ीवान और गाड़ियों पर पांच-पांच बन्दूक वाले सिपाहियों का पहरा...हिरामन समझ गया, इस बार निस्तार नहीं...जेल? हिरामन को जेल का डर नहीं. लेकिन उसके बैल? न जाने कितने दिनों तक बिना चारा-पानी के सरकारी फाटक में पड़े रहेंगे-भूखे-प्यासे. फिर नीलाम हो जायेंगे; भैया और भौजी को वह मुंह नहीं दिखा सकेगा कभी...नीलाम की बोली उसके कानों के पास गूंज गई-एक-दो-तीन! दारोगा और मुनीम में बात पट नहीं रही थी शायद.
हिरामन की गाड़ी के पास तैनात सिपाही ने अपनी भाषा में दूसरे सिपाही से धीमी आवाज में पूछा-का हो? मामला गोल होखै का?-फिर खैनी तम्बाकू देने के बहाने उस सिपाही के पास चला गया...
एक-दो-तीन. तीन-चार गाड़ियों की आड़. हिरामन ने फैसला कर लिया. उसने धीरे से अपने बैलों की रस्सियां खोल लीं. गाड़ी पर बैठे-बैठे दोनों की जुड़वा बांध दिया. बैल समझ गये उन्हें क्या करना है? हिरामन उतरा. जुती हुई गाड़ी में बांस की टिकटी लगाकर बैलों के कन्धों को बेलाग किया. दोनों के कानों के पास गुदगुदी लगा दी और मन-ही-मन बोला, चलो भैयन, जान बचेगी तो ऐसी-ऐसी सग्गड़ गाड़ी बहुत मिलेगी...एक-दो-तीन. नौ-दो ग्यारह...
गाड़ियों की आड़ में सड़क के किनारे दूर तक घनी झाड़ी फैली हुई थी. दम साधकर तीनों प्राणियों ने झाड़ी को पार किया-बेखटक, बेआहट. फिर एक ले, दो ले, दुलकी चाल. दोनों बैल सीना तानकर तराई के घने जंगलों में घुस गये. राह सूंघते, नदी-नाला पार करते हुए भागे पूंछ उठाकर. पीछे-पीछे हिरामन. रात भर भागते रहे थे तीनों जन...
घर पहुंचकर दो दिन तक बेसुध पड़ा रहा हिरामन. होश में आते ही उसने कान पकड़कर कसम खाई थी-अब कभी ऐसी चीजों की लदनी नहीं लादेंगे. चोरबाजारी का माल? तौबा-तौबा...पता नहीं, मुनीम जी का क्या हुआ? भगवान जाने उसकी सग्गड़ गाड़ी का क्या हुआ? असली इस्पात लोहे की धुरी थी. दोनों पहिये तो नहीं, एक पहिया एकदम नया था. गाड़ी में रंगीन कोरियों के फुंदने बड़े जतन से गूंथे गये थे...
दो कसमें खाई हैं उसने. एक...चोरबाजारी का माल नहीं लादेंगे, दूसरी...बांस. अपने हर भाड़ेदार से वह पहले ही पूछ लेता है-चोरी-चमारी वाली चीज तो नहीं? और, बांस? बांस लादने के लिए पचास रुपये भी दे कोई, हिरामन की गाड़ी नहीं मिलेगी. दूसरे की गाड़ी देखे...
बांस लदी हुई गाड़ी! गाड़ी से चार हाथ आगे बांस का अगुआ निकला रहता है और पीछे की ओर चार हाथ पिछुआ. काबू के बाहर रहती है गाड़ी हमेशा. तो बेकाबू वाली लदनी और खरैहिया. शहर वाली बात! तिस पर बांस का अगुआ पकड़कर चलने वाला भाड़ेदार का महाभकुआ नौकर, लड़की स्कूल की ओर देखने लगा. बस, मोड़ पर घोड़ागाड़ी से टक्कर हो गई. जब तक हिरामन बैलों की रस्सी खींचे, तब तक घोड़ागाड़ी की छतरी बांस के अगुआ में फंस गई. घोड़ागाड़ी वाले ने तड़ातड़ी चाबुक मारते हुए गाली दी थी...
बांस की लदनी ही नहीं, हिरामन ने खरैहिया शहर की लदनी भी छोड़ दी. और जब फारबिसगंज से मोरंग का भाड़ा ढोना शुरू किया तो गाड़ी ही पार!...कई वर्षों तक हिरामन ने बैलों को आधेदारी पर जोता. आधा भाड़ा गाड़ी वाले का और आधा बैल वाले का हिस्सा. गाड़ीवानी करो मुफ्त. आधेदारी की कमाई से बैलों के ही पेट नहीं भरते. पिछले साल ही उसने अपनी गाड़ी बनवाई है.
देवी मैया भला करें उस सरकस कम्पनी के बाघ का. पिछले साल इसी मेले में बाघगाड़ी को ढोने वाले दोनों घोड़े मर गये. चम्पानगर से फारबिसगंज मेला आने के समय सरकस कम्पनी के मैनेजर ने गाड़ीवान पट्टी में ऐलान करके कहा-सौ रुपया भाड़ा मिलेगा.- एक-दो गाड़ीवान राजी हुए. लेकिन, उनके बैल बाघगाड़ी से दस हाथ दूर ही डर से थिरकने लगे-बां-आं. रस्सी तुड़ाकर भागे. हिरामन ने अपने बैलों की पीठ सहलाते हुए कहा-देखो भैयन, ऐसा मौका फिर हाथ नहीं आयेगा. यही मौका है अपनी गाड़ी बनवाने का. नहीं तो फिर आधेदारी...अरे, पिंजड़े में बन्द बाघ का क्या डर? मोरंग की तराई में दहाड़ते हुए बाघों को देख चुके हो, फिर पीठ पर मैं तो हूं...
गाड़ीवानों के दल में तालियां पटपटा उठीं थीं एक साथ. सभी की लाज रख ली हिरामन के बैलों ने. हुमककर आगे बढ़ गये और बाघगाड़ी में जुट गये...एक...एक करके सिर्फ दाहिने बैल ने जुतने के बाद ढेर-सा पेशाब किया. हिरामन ने दो दिन तक नाक से पकड़े की पद्दी नहीं खोली थी. बड़ी गद्दी के बड़े सेठ जी की तरह नकबन्धन लगाये बिना बघाइन गन्ध बर्दाश्त नहीं कर सकता कोई.
...बाघगाड़ी की गाड़ीवानी की है हिरामन ने. कभी ऐसी गुदगुदी नहीं लगी पीठ में. आज रह-रहकर उसकी गाड़ी में चम्पा का फूल महक उठता है. पीठ में गुदगुदी लगने पर वह अंगौछे से पीठ झाड़ लेता है.
हिरामन को लगता है, दो वर्ष से चम्पानगर मेले की भगवती मैया उस पर प्रसन्न हैं. पिछले साल बाघगाड़ी जुट गई. नकद एक सौ रुपये भाड़े के अलावा बुताद, चाह-बिस्कुट और रास्ते भर बन्दर-भालू और जोकर का तमाशा देखा-सो फोकट में.
और, इस बार वह जनानी सवारी. औरत है या चम्पा का फूल. जब से गाड़ी में बैठी है, गाड़ी मह-मह महक रही है.
कच्ची सड़क के एक छोटे-से खड्ड में गाड़ी का दाहिना पहिया बेमौके हिचकोला खा गया. हिरामन की गाड़ी से एक हल्की ‘सिस’ की आवाज आई. हिरामन ने दाहिने बैल की दुआली से पीटते हुए कहा-साला! क्या समझता है, चोर की लदनी है क्या?
...अहा! मारो मत!
अनदेखी औरत की आवाज ने हिरामन को अचरज में डाल दिया. बच्चों की बोली जैसी महीन, फेनुगिला-सी बोली.
मथुरामोहन नौटंकी कम्पनी में लैला बनने वाली हीराबाई का नाम किसने नहीं सुना होगा भला? लेकिन हिरामन की बात निराली है. उसने सात साल तक लगातार मेलों की लदनी लादी है, कभी नौटंकी-थियेटर या बायस्कोप-सिनेमा नहीं देखा. लैला या हीराबाई का नाम भी उसने नहीं सुना कभी. देखने की क्या बात? सो मेला टूटने के पन्द्रह दिन पहले आधी रात की बेला में काली ओढ़नी में लिपटी औरत को देखकर उसके मन में खटका अवश्य लगा था. बक्स ढोने वाले नौकर ने गाड़ी भाड़ा में मोल-मोलाई करने की कोशिश की तो ओढ़नी वाली ने सिर हिलाकर मना कर दिया. हिरामन ने गाड़ी जोतते हुए नौकर से पूछा-क्यों भैया, कोई चोरी-चमारी का माल-वाल तो नहीं? हिरामन को फिर अचरज हुआ. बक्स ढोने वाले आदमी ने हाथ के इशारे गाड़ी हांकने को कहा और अंधेरे में गायब हो गया. हिरामन को मेले में तम्बाकू बेचने वाली बूढ़ी की काली साड़ी की याद आई थी...
ऐसे में कोई क्या गाड़ी हांके.
एक तो पीठ में गुदगुदी लग रही है. दूसरे रह-रहकर चम्पा का फूल खिल जाता है उसकी गाड़ी में. बैलों को डांटो तो इस-विस करने लगती है उसकी सवारी...औरत अकेली, तम्बाकू बेचने वाली बूढ़ी नहीं. आवाज सुनने के बाद वह बार-बार मुड़कर टप्पर में एक नजर डाल देता है; अंगौछे से पीठ झाड़ता है...भगवान जाने क्या लिखा है इस बार उसकी किस्मत में. गाड़ी जब पूरब की ओर मुड़ी, एक टुकड़ा चांदनी उसकी गाड़ी में समा गया. सवारी की नाक पर एक जुगनू जगमगा उठा. हिरामन को सब कुछ रहस्यमय अजगुत-अजगुत लग रहा है. सामने चम्पानगर से सिंधिया गांव तक फैला हुआ मैदान?...कहीं डाकिन-पिशाचिन तो नहीं?
हिरामन की सवारी ने करवट ली. चांदनी पूरे मुखड़े पर पड़ी तो हिरामन चीखते-चीखते रुक गया-अरे बाप...ई तो परी है?
परी की आंखें खुल गयीं. हिरामन ने सामने सड़क की ओर मुंह कर लिया और बैलों को टिटकारी दी. वह जीभ को तालू से सटाकर टि-टि-टि-टि आवाज निकालता है. हिरामन की जीभ न जाने कब से सूखकर लकड़ी जैसी हो गई थी.
‘भैया, तुम्हारा नाम क्या है?’
हू-ब-हू फेनूगिलास?...हिरामन के रोम-रोम बज उठे. मुंह से बोली नहीं निकली. उसके दोनों बैल भी कान खड़े करके इस बोली को परखते हैं.
-मेरा नाम?...नाम मेरा ही...हिरामन!
उसकी सवारी मुस्कराती है...मुस्कराहट में खुशबू है.
-तब तो मीता कहूंगी, भैया नहीं...मेरा नाम भी हीरा है.
-इस्स! हिरामन को परतीत नहीं, मर्द और औरत के नाम में क्या फर्क होता है.
-हां जी, मेरा नाम भी हीराबाई है.
कहां हिरामन और कहां हीराबाई, बहुत फर्क है.
हिरामन ने अपने बेलों को झिड़की दी-कान चुनियाकर गप सुनने से ही तीस कोस मंजिल कटेगी क्या? इस बायें गाटे के पेट में शैतानी भरी है. हिरामन ने बायें बैल को दुआली की हलकी झड़प दी.
-मारो मत, धीरे-धीरे चलने दो. जल्दी क्या है?
हिरामन के सामने सवाल उपस्थित हुआ, वह क्या कहकर ‘गप’ करे हीराबाई से? ‘तोहे’ कहे या ‘अहा’? उसकी भाषा में बड़ों को ‘अहा’ अर्थात ‘आप’ कहकर सम्बोधित किया जाता है. कचराही बोली में दो-चार सवाल-जवाब चल सकता है, दिल खोल गप तो गांव की बोली में ही की जा सकती है किसी से.
आसिन-कातिक की भोर में छा जाने वाले कुहासे से हिरामन को पुरानी चिढ़ है. बहुत बार वह सड़क भूलकर भटक चुका है. किन्तु आज की भोर के इस घने कुहासे में भी वह मगन है. नदी के किनारे धानखेतों से फूले हुए धान के पौधों की पवनिया
गन्ध आती है. पर्व-पावन के दिन गांव में ऐसी ही सुगन्ध फैली रहती है. उसकी गाड़ी में फिर चम्पा का फूल खिला. उस फूल में एक परी बैठी है...जै भगवती.
हिरामन ने आंख की कनखियों से देखा, उसकी सवारी...मीता...हीराबाई की आंखें गुजुर-गुजुर उसको हेर रही हैं. हिरामन के मन में कोई अजानी रागिनी बज उठी. सारी देह सिरसिरा रही है. वह बाला-बैल को मारते हैं तो आपको बहुत बुरा लगता है?
हीराबाई ने परख लिया, हिरामन सचमुच हीरा है.
चालीस साल का हट्टा-कट्टा, काला-कलूटा, देहाती नौजवान अपनी गाड़ी और अपने बैलों के सिवाय दुनिया की किसी और बात में विशेष दिलचस्ची नहीं लेता. घर में बड़ा भाई है, खेती करता है. बाल-बच्चे वाला आदमी है. हिरामन भाई से बढ़कर भाभी की इज्जत करता है. भाभी से डरता भी है. हिरामन की भी शादी हुई थी. बचपन में ही गौने के पहले ही दुलहिन मर गई. हिरामन को अपनी दुलहिन का चेहरा याद नहीं?...दूसरी शादी? दूसरी शादी न करने अनेक कारण हैं. भाभी की जिद्द : कुमारी लड़की से ही हिरामन की शादी करवायेगी. कुमारी का मतलब हुआ पांच-सात साल की लड़की. कौन मानता सरधा-कानून? कोई लड़की वाला दोब्याहू को अपनी लड़की गरज में पड़ने पर ही दे सकता है. भाभी उसकी तीन सत्त करके बैठी है तो बैठी है. भाभी के आगे भैया की भी नहीं चलती?...अब हिरामन ने तय कर लिया है, शादी नहीं करेगा. कौन बलाय मोल लेने जाये? ब्याह करके फिर गाड़ीवानी क्या करेगा कोई? और सब कुछ छूट जाये, गाड़ीवानी नहीं छोड़ सकता हिरामन.
हीराबाई ने हिरामन के जैसा निश्छल आदमी बहुत कम देखा है. पूछा-आपका घर कौन जिला में पड़ता है?...कानपुर सुनते ही जो उसकी हंसी छूटी, तो बैल भड़क उठे. हिरामन हंसते समय सिर नीच कर लेता है. हंसी बन्द होने पर उसने कहा-चाह रहे कानपुर! तब तो नाकपुर भी होगा? और जब हीराबाई ने कहा कि नागपुर भी है तो वह हंसते-हंसते दुहरा हो गया.
वाह रे दुनिया! क्या-क्या नाम होता है? कानपुर, नाकपुर!...हिरामन ने हीराबाई के कान के फूल को गौर से देखा. नाक की नक्छवि के नग देखकर सिहर उठा...लहू की बूंद.
हिरामन ने हीराबाई का नाम नहीं सुना कभी. नौटंकी कम्पनी की औरत को वह बाईजी नहीं समझता है...कम्पनी में काम करने वाली औरतों को वह देख चुका है. सरकस कम्पनी की मालकिन अपनी दोनों जवान बेटियों के साथ बाघगाड़ी के पास आती थी, बाघ को चारा-पानी देती थी, प्यार भी करती थी खूब. हिरामन के बैलों को भी डबलरोटी-बिस्कुट खिलाया था बड़ी
बेटी ने.
हिरामन होशियार है. कुहासा छंटते ही अपनी चादर से टप्पर में परदा कर दिया...बस, दो घंटा. उसके बाद रास्ता चला मुश्किल है. कातिक की सुबह की धूप आप बर्दाश्त न कर सकियेगा. कजरी नदी के किनारे तेगछिया के पास गाड़ी लगा देंगे.दोपहरिया काटकर...
सामने से आती हुई गाड़ी को दूर से ही देखकर वह सतर्क हो गया. लीक और बैलों पर ध्यान लगाकर बैठ गया. राह काटते हुए गाड़ीवान ने पूछा, ‘मेला टूट रहा है क्या भाई?’
हिरामन ने जवाब दिया, ‘वह मेले की बात नहीं जानता. उसकी गाड़ी पर ‘विदागी’ (नैहर या ससुराल जाती हुई लड़की) है. न जाने किस गांव का नाम बता दिया हिरामन ने.
-छत्तापुर पचीरा कहां है?
-कहीं हो, यह लेकर आप क्या करियेगा?...हिरामन अपनी चतुराई पर हंसा. परदा डाल देने पर भी पीठ में गुदगुदी लगती है.
हिरामन परदे के छेद से देखता है. हीराबाई एक दियासलाई की डिब्बी के बराबर आईने में अपने दांत देख रही है...मदनपुर मेले में एक बार बैलों को नन्हीं-चित्ती कौड़ियों की माला खरीद दी थी हिरामन ने. छोटी-छोटी नन्हीं-नन्हीं कौड़ियों की पांत.
तेगछिया के तीनों पेड़ दूर से ही दिखलाई पड़ते हैं. हिरामन ने परदे को जरा सरकाते हुए कहा-देखिए, यही है तेगछिया. दो पेड़ जटामासी बड़ हैं और एक...उस फूल का क्या नाम है? आपके कुरते पर जैसा फूल छपा हुआ है, वैसा ही खूब महकता है. दो कोस दूर तक गन्ध जाती है. उस फूल को खमीरा तम्बाकू में डालकर पीते भी हैं लोग.
-और उस अमराई की आड़ से कई मकान दिखाई पड़ते हैं, वहां कोई गांव है या मन्दिर.
हिरामन ने बीड़ी सुलगाने के पहले पूछा-बीड़ी पीयें? आपको गन्ध तो नहीं लगेगी...यही है नामलगर ड्योढ़ी. जिस राजा के मेले से हम लोग आ रहे हैं, उसी का दिमाग गोतिया है...जा रे जमाना.
-कौन जमाना?...ठुड्डी पर हाथ रखकर साग्रह बोली.
-नामलगर ड्योढ़ी का जमाना. क्या था, और क्या से क्या हो गया? हिरामन गप रसाने का भेद जानता है. हीराबाई बोली-तुमने देखा था वह जमाना?
-देखा नहीं, सुना है...राज कैसे गया, बड़ी हैफवाली कहानी है. सुनते हैं, घर में देवता ने जन्म ले लिया. कहिए भला, देवता आखिर देवता है. है या नहीं? इन्द्रासन छोड़कर मिरतूभुवन में जन्म ले ले तो उसका तेज कैसे सम्हाल सकता है कोई. सूरजमुखी फूल की तरह माथे के पास तेज खिला रहता. लेकिन नजर का फेर, किसी ने नहीं पहचाना. एक बार उपलैन में लाट साहब मय लाटनी के, हवागाड़ी से आये थे. लाट ने भी नहीं, पहचाना आखिर लाटनी ने. सूरजमुखी तेज देखते ही बोल उठी-ऐ मैन राजा साहब, सुनो, यह आदमी का बच्चा नहीं है, देवता है.
हिरामन ने अपनी ओढ़नी ठीक कर ली. तब हिरामन को लगा कि...
-तब? उसके क्या क्या हुआ मीता?
-इस्स! कत्था सुनने का बड़ा शौक है आपको?...लेकिन काला आदमी राजा क्या महाराजा भी हो जाये, रहेगा काला ही. साहब के जैसा अक्किल कहां से पायेगा? हंसकर बात उड़ा दी सभी ने. तब रानी को बार-बार सपना देने लगा देवता! सेवा नहीं कर सकते तो जाने दो, नहीं रहेंगे तुम्हारे यहां. इसके बाद देवता का खेल शुरू हुआ. सबसे पहले दोनों दन्तार हाथी मरे, फिर घोड़ा, फिर पटपटांग...
-पटपटांग क्या?
हिरामन का मन पल-पल में बदल रहा है. मन में सतरंगा छाता धीरे-धीरे खुल रहा है, उसको लगता है...उसकी गाड़ी पर देवकुल की औरत सवार है. देवता आखिर देवता है.
-पटपटांग! धन-दौलत, माल-मवेशी सब साफ. देवता इन्द्रासन चला गया.
हीराबाई ने ओझल होते हुए मन्दिर के कंगूरे की ओर देखकर लम्बी सांस ली.
-लेकिन देवता ने जाते-जाते कहा-इस राज में कभी एक छोड़कर दो बेटा नहीं होगा. धन हम अपने साथ ले रहे हैं, गुन छोड़ जाते हैं.-देवता के साथ सभी देव-देवी चले गये, सिर्फ सरोसती मैया रह गईं. उसी का मन्दिर है.
देसी घोड़े पर पाट के बोझ लाते हुए बनियों को आते देखकर हिरामन ने टप्पर के परदे को गिरा दिया. बैलों को ललकार कर बिदेशियों नाच का बन्दना गीत गाने लगा-जै मैया सरोसती, अरजी करत बानी; हमरा पर होखू सहाई है मैया; हमरा पर होखू सहाई.
घोड़लद्दे बनियों से हिरामन ने हुलसकर पूछा-क्या भाव पटुआ खरीदते हैं महाजन?
लंगड़े घोड़े वाले बनिये ने बटगमनी जवाब दिया-नीचे सत्ताइस-अठाइस, ऊपर तीस. जैसा माल, वैसा भाव.
जवान बनियों ने पूछा-मेले का क्या हाल-चाल है, भाई? कौन नौटंकी का खेल हो रहा है, रीता कम्पनी या मथुरामोहन?
-मेले का हाल मेले वाला जाने!...हिरामन ने फिर छत्तापुर पचीरा का नाम लिया.
सूरज दो बांस ऊपर आ गया था. हिरामन अपने बैलों से बात करने लगा-एक कोस जमीन? जरा दम बांधकर चलो. प्यास की बेला हो गई न! याद है, उस बार तेगछिया के पास सरकस कम्पनी के जोकड़ और बन्दर नचाने वाले साहब में झगड़ा हो गया था. जोकड़वा ठीक बन्दर की तरह दांत किटकिटाकर किकियाने लगा था...न जाने किस-किस देश-मुलुक के आदमी आते हैं.
हिरामन ने फिर परदे के छेद से देखा, हीराबाई एक कागज के टुकड़े पर आंख गड़ाकर बैठी है. हिरामन का मन आज हलके सुर में बंधा है. उसको तरह-तरह के गीतों की याद आती है. बीस-पच्चीस साल पहले, विदेशिया, बलबाही, छोकरा नाच वाले एक-से-एक गजल-खेमटा गाते थे. अब तो भोंपा में भोंपू-भोंपू करके कौन गीत गाते हैं लोग? जा रे जमाना! छोकरा नाच के गीत की याद आई हिरामन को-
‘‘सजनवा बैरी हो गए हमारो? सजनवा...
अरे, चिठिया हो तो सब कोई बांचे, चिठिया हो तो...
आय, करमवा, हाय करमवा...
कोई न बांचे हमारो, सजनवा...हो करमवा.’’
गाड़ी की बल्ली पर उंगलियों से ताल देकर गीत को काट दिया हिरामन ने. छोकरा नाच के मननुआं-नटवा का मुंह हीराबाई जैसा ही था...कहां चला गया वह जमाना? हर महीने गांव में नाच वाले आते थे. हिरामन ने छोकरा नाच के चलते अपनी भाभी की न जाने कितनी बोली-ठोली सुनी थी. भाई ने घर से निकल जाने को कहा था.
अल हिरामन पर मां सरस्वती सहाय हैं, लगता है. हीराबाई बोली-वाह, कितना बढ़िया गाते हो तुम?
हिरामन का मुंह लाल हो गया. वह सिर नीचा करके हंसने लगा.
आज तेगछिया पर रहने वाले महावीर स्वामी भी सहाय हैं, हिरामन पर. तेगछिया के नीचे एक भी गाड़ी नहीं. हमेशा गाड़ी और गाड़ीवानों की भीड़ लगी रहती है यहां. सिर्फ एक साइकिल वाला बैठकर सुस्ता रहा है. महावीर स्वामी को सुमरकर हिरामन ने गाड़ी रोकी. हीराबाई परदा हटाने लगी. हिरामन ने पहली बार आंखों से बात की हीराबाई से...साइकिल वाला इधर ही टकटकी लगाकर देख रहा है.
बैलों को खोलने के पहले बांस की टिकटी लगाकर गाड़ी को टिका दिया. फिर साइकिल वाले की ओर बार-बार घूरते हुए पूछा-कहां जाना है, मेला? कहां से आना हो रहा है, बिसुनपुर से? बस, इतनी ही दूर में थसथसाकर थक गये...जा रहे जवानी.
साइकिल वाला दुबला-पतना नौजवान मिनमिनाकर कुछ बोला और बीड़ी सुलगाकर उठ खड़ा हुआ.
हिरामन दुनिया भर की निगाह से बचाकर रखना चाहता है हीराबाई को. उसने चारों तरफ नजर दौड़ाकर देख लिया-कहीं कोई गाड़ी या घोड़ा नहीं.
कजरी नदी की दुबली-पतली धारा तेगछिया के पास आकर पूरब की ओर मुड़ गई है. हीराबाई पानी में बैठी हुई भैंसों और उनके पीठ पर बैठे हुए बगुलों को देखती रही.
हिरामन बोला-जाइये, घाट पर मुंह-हाथ धो आइये.
हीराबाई गाड़ी से उतरी. हिरामन का कलेजा धड़क उठा...नहीं-नहीं. पांव सीधे हैं, टेढ़े नहीं. लेकिन, तलुआ इतना लाल क्यों है? हीराबाई घाट की ओर चली गई; गांव की बहू-बेटी की तरह सिर नीचा करके, धीरे-धीरे. कौन कहेगा कि कम्पनी की औरत है?...औरत नहीं, लड़की. शायद कुमारी ही है.
हिरामन टिकटी पर टिकी गाड़ी पर बैठ गया. उसने टप्पर से झांककर देखा. एक बार इधर-उधर देखकर हीराबाई के तकिये पर हाथ रख दिया. फिर तकिये पर केहुनी डालकर झुक गया. खुशबू उसकी देह में समा गई. तकिये के गिलाफ पर कढ़े फूलों को उंगलियों से छूकर उसने सूंघा, हाय रे हाय! इतनी सुगन्ध! हिरामन को लगा एक साथ पांच चिलम गांजा फूंककर वह उठा है. हीराबाई के आईने में उसने अपना मुंह देखा. आंखें उसकी इतनी लाल क्यों हैं?
हीराबाई लौटकर आई तो उसने हंसकर कहा-अब आप गाड़ी का पहरा दीजिए, मैं आता हूं तुरन्त.
हिरामन ने अपनी सफरी झोली से सहेजी हुई गंजी निकाली. गमछा झाड़कर कन्धे पर लिया और हाथ में बाल्टी लटकाकर चला. उसके बैलों ने बारी से ‘हुंक-हुंक’ करके कुछ कहा. हिरामन ने जाते-जाते उलटकर कहा-हां, हां, प्यास सभी को लगी है. लौटकर आता हूं तो घास दूंगा, बदमाशी मत करो!
बैलों ने कान हिलाया.
नहा-धोकर कब लौटा हिरामन, हीराबाई को नहीं मालूम. कजरी की धारा को देखते-देखते उसकी आंखों में रात की उचटी हुई नींद आई थी. हिरामन पास के गांव से जलपान के लिए दही चूड़ा-चीनी ले आया है.
-उठिए, नींद तोड़िये. दो मुट्ठी जलपान कर लीजिए.
हीराबाई आंख खोलकर अचरज में पड़ गई. एक हाथ में मिट्टी के नये बरतन में दही, केले के पत्ते. दूसरे हाथ में बाल्टी-भर पानी. आंखों में आत्मीयतापूर्ण अनुरोध.
-इतनी चीजें कहां से ले आये?
-इस गांव का दही नामी है...चाह तो फारबिसगंज जाकर ही पाइयेगा.
हिरामन की देह की गुदगुदी बिला गई. हीराबाई ने कहा-तुम भी पत्तल बिछाओ...क्यों? तुम नहीं खाओगे तो समेटकर रख लो अपनी झोली में. मैं भी नहीं खाऊंगी.
-इस्स!-हिरामन लजाकर बोला-अच्छी बात! आप पा लीजिये पहले.
-पहले पीछे क्या? तुम भी बैठो.
हिरामन का जी जुड़ा गया. हीराबाई ने अपने हाथ से उसका पत्तल बिछा दिया, पानी छींट दिया, चूड़ा निकालकर दिया. इस्स! धन्य है, धन्य है! हिरामन ने देखा, भगवती मैया भोग लगा रही है. लाल ओठों पर गोरस का परस!...पहाड़ी तोते को दूध-भात खाते देखा है?
दिन ढल गया.
टप्पर पर सोई हीराबाई और जमीन पर दरी बिछाकर सोये हिरामन की नींद एक साथ खुली...मेले की ओर जाने वाली गाड़ियां तेगछिया के पास रुकी हैं. बच्चे कचर-पचर कर रहे हैं.
हिरामन हड़बड़ाकर उठा. टप्पर के नीचे झांककर इशारे से कहा-दिन ढल गया...गाड़ी में बैलों को जोतते समय उसने गाड़ीवानों के सवालों का कोई जवाब नहीं दिया. गाड़ी हांकते हुए बोला-सिरपुर बाजार के इसपिताल की डागडरनी हैं. रोगी देखने जा रही हैं. पास ही कुड़मागाम.
हीराबाई छत्तापुर पचीरा का नाम भूल गई. गाड़ी जब कुछ दूर आगे बढ़ आई तो उसने हंसकर पूछा-पत्तापुर छपीरा.
हंसते-हंसते पेट में बल पड़ गये हिरामन के...पत्तापुर छपीर! हां-हां! वे लोग छत्तापुर पचीरा के ही गाड़ीवान थे, उनसे कैसे कहता? ही-ही
हीराबाई मुस्कराती हुई गांव की ओर देखने लगी.
सड़क तेगछिया गांव के बीच से निकलती है. गांव के बच्चों ने परदे वाली गाड़ी देखी और तालियां बजा-बजाकर रटी हुई पंक्तियां दुहराने लगी-
‘‘लाली-लाली डोलिया में
लाली रे दुलहिनिया
पान खाये...’’
हिरामन हंसा...दुलहिनिया...लाली-लाली डोलिया. दुलहिनिया पान खाती है, दुलहा की पगड़ी में मुंह पोंछती है. ‘ओ दुलहिनिया, तेगछिया गांव के बच्चों को याद रखना. लौटती बेर गुड़ का लड्डू लेती आइयो. लाख बरिस तेरा दूल्हा जीये.’ कितने दिनों का हौसला पूरा हुआ है हिरामन का. हर गांव के बच्चे तालियां बजाकर गा रहे हैं. हर आंगन से झांककर देख रही हैं औरतें. मर्द लोग पूछते हैं, कहां की गाड़ी है, कहां जायेगी? उसकी दुलहिन डोली का परदा थोड़ा सरकाकर देखती है. और भी कितने सपने...
गांव से बाहर निकलकर उसने कनखियों से टप्पर के अन्दर देखा, हीराबाई कुछ सोच रही हैं. हिरामन भी किसी सोच में पड़ गया. थोड़ी देर के बाद वह गुनगुनाने लगा-
‘‘सजन रे झूठ मति बोलो, खुदा के पास जाना है.
नहीं हाथी, नहीं घोड़ा, नहीं गाड़ी-
वहां पैदल ही जाना है. सजन रे...’’
हीराबाई ने पूछा-क्यों मीता? तुम्हारी अपनी बोली में कोई गीत नहीं क्या?
हिरामन अब बेखटक हीराबाई की आंखों में आंखें डालकर बात करता है. कम्पनी की औरत भी ऐसी होती है? सरकस की मालकिन मेम थी. लेकिन हीराबाई? गांव की बोली में गीत सुनना चाहती है. वह खुलकर मुस्कराया-गांव की बोली आप समझियेगा?
...हूं-ऊं-ऊं!-हीराबाई ने गर्दन हिलाई. कान के झुमके हिल गये.
हिरामन कुछ देर तक बैलों को हांकता रहा चुपचाप. फिर बोला-गीत जरूर सुनियेगा? नहीं मानियेगा?...इस्स! इतना सौख गांव का गीत सुनने का है आपको!...तब लीक छोड़नी होगी. चालू रास्ते में कैसे गीत गा सकता है कोई!...हिरामन ने बायें बैल की रस्सी खींचकर दाहिने की लीक से बाहर किया और बोला-हरिपुर होकर नहीं जाएंगे तब.
चालू लीक को काटते देखकर हिरामन की गाड़ी के पीछे वाले गाड़ीवान ने चिल्लाकर पूछा-काहे हो गाड़ीवान, लीक छोड़कर बेलीक कहां उधर?
हिरामन ने हवा में दुआली घुमाते हुए जवाब दिया-कहां है बेलीक? वह सड़क नननपुर तो नहीं जाएगी...फिर अपने-आप बड़बड़ाया-इस मुलुक के लोगों की यही आदत बुरी है. राह चलते एक सौ जिरह करेंगे. अरे भाई, तुमको जाना है, जाओ...देहाती भुच्च सब.
नननपुर की सड़क पर गाड़ी लाकर हिरामन ने बैलों की रस्सी ढीली कर दी. बेलों ने दुलकी चाल छोड़कर कदमचाल पकड़ी.
हीराबाई ने देखा, सचमुच नननपुर की सड़क बड़ी सूनी है. हिरामन उसकी आंखों की बोली समझता है-घबड़ाने की बात नहीं. यह सड़क भी फारबिसगंज जायेगी, राह-घाट के लोग बहुत अच्छे हैं. एक घड़ी रात तक हम लोग पहुंच जायेंगे.
हीराबाई को फारबिसगंज पहुंचने की जल्दी नहीं. हिरामन पर उसको इतना भरोसा हो गया है कि डर भय की कोई बात ही नहीं उठती है मन में. हिरामन ने पहले जी भर मुस्करा लिया. कौन गीत गाये वह? हीराबाई को गीत और कथा दोनों का सौख है...इस्स्! महुआ घटवारिन? वह बोला-अच्छा जब आपको इतना सौख है तो सुनिये महुआ घटवारिन का गीत. इसमें गीत भी है, कत्था भी है.
...कितने दिनों के बाद भगवती ने यह हौसला भी पूरा कर दिया. जै भगवती! आज हिरामन अपने मन को खलासकर लेगा. वह हीराबाई की थमी हुई मुस्कराहट को देखता रहा.
-सुनिए! आज भी परमान नदी में महुआ घटवारिन के कई पुराने घाट हैं. इसी मुलुक की थी महुआ! थी तो घटवारिन, लेकिन सौ सतवन्ती में एक थी. उसका बाप दारू-ताड़ी पीकर दिन-रात बेहोश पड़ा रहता. उसकी सौतेली मां साक्षात् राक्सनी! बहुत बड़ी नजर-चालाक. रात में गांचा-दारू-अफीम चुराकर बेचने वाले से लेकर तरह-तरह के लोगों से उसकी जान-पहचान थी. सबसे छुट्टी भर हेल-मेल. महुआ कुमारी थी. लेकिन काम कराते-कराते उसकी हड्डी निकला दी थी राक्सनी ने. जवान हो गई, कहीं शादी-ब्याह की बात भी नहीं चलाई. एक रात की बात सुनिये.
हिरामन ने धीरे-धीरे गुनगुनाकर गला साफ किया...
‘‘हे अ-अ-अ सावना-भावना के-र उमड़ल नदियां गे-मैयो-ओ-ओ, मैयो
गे रैनि भयावनि है ए-ए-ए; तड़का-तड़के धड़के करेज-आ-आ-मोरा
कि हमुहुं जे बारी नान्हीं रे-ए-ए...
‘‘ओ मां! सावन भादों की उमड़ी हुई नदी, भयावनी रात, बिजली कड़कती है, मैं बारी-क्वारी नन्हीं बच्ची, मेरा कलेजा
धड़कता है. अकेली कैसी जाऊं घाट पर? सो भी एक परदेशी राही-बटोही के पैर में तेल लगाने के लिए. सत-मां ने अपनी बज्जर-किवाड़ी बन्द कर ली. आसमान में मेघ हड़बड़ा उठे और हरहराकर बरसा होने लगी. महुआ रोने लगी अपनी मरी मां को याद करके. आज उसकी मां रहती तो ऐसे दुरदिन में कलेजे से सटाकर रखती अपनी महुआ बेटी को. गे मइया, इसी दिन के लिए, यही दिखाने के लिए तुमने कोख में रखा था? महुआ अपनी मां पर गुस्साई-क्यों वह अकेली मर गई? जी भर कोसती हुई बोली.’’
हिरामन ने लक्ष्य किया, हीराबाई तकिये पर केहुनी गड़ाकर गीत में मगन एकटक उसकी ओर देख रही है. खाई हुई सूरत कैसी भोली लगती है?
हिरामन ने गले में कंपकंपी पैदा की.
-हूं-ऊं-ऊ रे डाइनियां मैयो-मोरी-ई-ई, नोनवा चआई काहे नाहिं
मारलि सांरी घर-अ-अ. एहि दिनवां खातिर छिनरो घिया
तेहुं पोसलि कि नेनू-दूध-उटगन...’’
हिरामन ने दम लेते हुए पूछा-भाखा भी समझती हैं कुछ या खाली गीत ही सुनती हैं?
हीरा बोली-समझती हूं. उटगन माने उबटन...जो देह में लगाते हैं.
हिरामन ने विस्मित होकर कहा-इस्स!...सो रोने-धोने से क्या होय! सौदागर ने पूरा दाम चुका दिया था. महुआ का बाल पकड़कर घसीटता हुआ नाव पर चढ़ा और मांझी को हुकुम दिया, नाव खोलो, पाल बांधो! पाल वाली नाव पर वाली चिड़िया की तरह उड़ चली. रात भी महुआ रोती छटपटाती रही. सौदागर के नौकरों ने बहुत डराया-धमकाया-चुप रहो, नहीं तो उठाकर पानी में फेंक देंगे. बस, महुआ को बात सूझ गई. भोर का तारा मेघ की आड़ से जरा बाहर आया, फिर छिप गया. इधर महुआ भी छपाक कूद पड़ी पानी में...सौदागर का एक नौकर महुआ को देखते ही मोहित हो गया था. महुआ की पीठ पर वह भी कूदा. उलटी धारा में तैरना खेल नहीं, सो भी भरी भादों की नदी में. महुआ असल घटवारिन की बेटी थी. मछली भी भला थकती है पानी में! सपुरी मछली जैसी फरफराती, पानी चीरती भागी चली जा रही है. और उसके पीछे सौदागर का नौकर पुकार-पुकारकर कहता है-महुआ जरा थमो, तुमको पकड़ने नहीं आ रहा, तुम्हारा साथी हूं. जिन्दगी भर साथ रहेंगे हम लोग. लेकिन...’’
हिरामन का बहुत प्रिय गीत है यह. महुआ घटवारिन गाते समय उसके सामने सावन-भादों की नदी उमड़ने लगती है. अमावस्या की रात, और घन बादलों में रह-रहकर बिजली चमक उठती है. उसी चमक में लहरों से लड़ती हुई बारी-कुमारी महुआ की झलक उसे मिल जाती है. सफरी मछली की चाल और तेज हो जाती है. उसको लगता है, वह खुद सौदागर का नौकर है. महुआ कोई बात नहीं सुनती. परतीत करती नहीं. उलटकर देखती भी नहीं. और वह थक गया है तैरते-तैरते...
इस बार लगता है महुआ ने अपने को पकड़ा दिया. खुद ही पकड़ में आ गई है. उसने महुआ को छू लिया है, उसकी थकान दूर हो गई है. पन्द्रह-बीस साल तक उमड़ी हुई नदी की उल्टी धारा में तैरते हुए उसके मन को किनारा मिल गया है. आनन्द के आंसू कोई रोक नहीं मानते...
उसने हीराबाई से अपनी गीली आंखें चुराने की कोशिश की. किन्तु हीरा तो उसके मन में बैठी न जाने कब से सब कुछ देख रही थी. हिरामन ने अपनी कांपती हुई बोली को काबू में लाकर बैलों को झिड़की दी...इस गीत में न जाने क्या है कि सुनते ही दोनों थसथसा जाते हैं. लगता है सौ मन का बोझ लाद दिया किसी ने.
हीराबाई लम्बी सांस लेती है. हिरामन के अंग-अंग में उमंग समा जाती है.
-तुम तो उस्ताद हो मीता!
-इस्स!
आसिन-काति का सूरज दो बांस दिन सहते ही कुम्हला जाता है. सूरज डूबने से पहले ही नननपुर पहुंचना है. हिरामन अपने बैलों को समझा रहा है...कदम खोलकर और कलेजा
बांधकर चलो...ए...छिः छिः. बढ़ के भैयन! ले-ले-ले ए-हे-य.
नननपुर तक वह अपने बैलों को ललकारता रहा. हर ललकार के पहले वह अपने बैलों को बीती हुई बातों की याद दिलाता...याद नहीं चौधरी की बेटी की बारात में कितनी गाड़ियां थीं, सबको कैसे मात दिया था? हां, वही कदम निकालो. ले-ले-ले. नननपुर से फारबिसगंज तीन कोस. दो घण्टे और.
नननपुर के हाट पर आजकल चाय भी बिकने लगी है. हिरामन अपने लोटे में चाय भरक ले आया...कम्पनी की औरत को जानता है; वह सारा दिन, घड़ी-घड़ी भर में, चाय पीती रहती है. चाय है या जान!
हीरा हंसते-हंसते लोट-पोट हो रही है-अरे, तुमसे किसने कह दिया कि क्वारे आदमी को चाय नहीं पीनी चाहिये?
हिरामन लजा गया. क्या बोले वह...लाज की बात? लेकिन वह भोग चुका है एक बार. सरकस कम्पनी की मेम के हाथ का चाय पीकर उसने देख लिया है. बड़ी गरम तासीर.
-पीजिए गुरुजी...हीरा हंसी.
-इस्स!
नननपुर हाट पर ही दीया-बत्ती जल चुकी थी. हिरामन ने अपना सफरी लालटेन जलाकर पिछवा में लटका दिया...आजकल शहर से पांच कोस दूर गांव वाले भी अपने को शहरू समझने लगे हैं. बिना रोशनी की गाड़ी को पकड़कर चालान कर देते हैं. बारह बखेड़ा!
-आप मुझे गुरुजी मत कहिए.
-तुम मेरे उस्ताद हो. हमारे शास्तर में लिखा हुआ है : एक अच्छर सिखाने वाला भी गुरु और एक राग सिखाने वाला भी उस्ताद!
-इस्स! शास्तर-पुरान भी जानती हैं?...मैंने क्या सिखाया? मैं क्या...?
हीरा हंसकर गुनगुनाने लगी-हे-अ-अ-अ-सावना-भावना के-रे...
हिरामन अचरज के मारे गूंगा हो गया...इस्स! इतना तेज जेहन! हू-ब-हू महुआ घटवारिन!
गाड़ी सीताधार की एक सूखी धारा की उतराई पर गड़बड़ाकर नीचे की ओर उतरी. हीराबाई ने हिरामन का कन्धा धर लिया एक हाथ से. बहुत देर तक हिरामन के कन्धे पर उसकी उंगलियां पड़ी रहीं. हिरामन ने नजर फिराकर कन्धे पर केन्द्रित करने की कोशिश की कई बार. गाड़ी चढ़ाई पर पहुंची तो हीरा की ढीली उंगलियां फिर तन गईं.
सामने फारबिसगंज शहर की रोशनी झिलमिला रही है. शहर से कुछ दूर हटकर मेले की रोशनी...टप्पर में लटके लालटेन की रोशनी में छाया नाचती है आस-पास...डबडबाई आंखों से हर रोशनी सूरजमुखी फूल की तरह दिखाई पड़ती है!
फारबिसगंज हिरामन का घर-दुआर है.
न जाने कितनी बार फारबिसगंज आया है. मेले की लदनी लादी है. किसी औरत के साथ? हां, एक बार. उसकी भाभी जिस साल आई थी गौने में इसी तरह तिरपाल से गाड़ी को चारों ओर से घेरकर बासा बनाया गया था...
हिरामन अपनी गाड़ी को तिरपाल से घेर रहा है, गाड़ीवान पट्टी में. सुबह होते ही रौता नौटंकी कम्पनी के मैनेजर से बात करके भरती हो जायेगी हीराबाई. परसों मेला खुल रहा है. इस बार मेले में पालचट्टी खूब जमी है...बस, एक रात. आज रातभर हिरामन की गाड़ी में रहेगी वह...हिरामन की गाड़ी में नहीं, घर में.
-कहां की गाड़ी है?...कौन हिरामन? किस मेले से? किस चीज की लदी है?
गांव-समाज के गाड़ीवान, एक-दूसरे को खोजकर, आस-पास गाड़ी लगाकर बासा डालते हैं. अपने गांव के लालमोहर, धुलीराम और पलटदास वगैरा गाड़ीवानों के दल देखकर हिरामन अचकचा गया. उधर पलटदास टप्पर में झांककर भड़का. मानो बाघ पर नजर पड़ गई. हिरामन ने इशारे से सभी को चुप किया. फिर गाड़ी की ओर कनखी मारकर फुसफुसाया...चुप! कम्पनी की औरत है, नौटंकी कम्पनी की.
-कम्पनी की-ई-ई-ई?
एक नहीं, अब चार हिरामन! चारों ने अचरज से एक-दूसरे को देखा...‘‘कम्पनी’’ नाम में कितना असर है! हिरामन ने लक्ष्य किया, तीनों एक-साथ सटककदम हो गये. लालमोहर ने जरा दूर हटकर बतियाने की इच्छा प्रकट की, इशारे से ही. हिरामन ने टप्पर की ओर मुंह करके कहा...होटिला तो नहीं खुला होगा कोई, हलवाई के यहां से पक्की ले आवें?
-हिरामन, जरा इधर सुनो...मैं कुछ नहीं खाऊंगी अभी. लो, तुम खा आओ.
-क्या है, पैसा? इस्स!...पैसा देकर हिरामन ने कभी फारबिसगंज में कच्ची पक्की नहीं खाई. उसके गांव के इतने गाड़ीवान हैं, किस दिन के लिए? वह छू नहीं सकता पैसा. उसने हीराबाई से कहा-बेकार, मेला-बाजार में हुज्जत मत कीजिये. पैसा रखिये!-मौका पाकर लालमोहर भी टप्पर के करीब आ गया. उसने सलाम करते हुए कहा-चार आदमी के भात में दो आदमी खुशी से खा सकते हैं. बांसा भर भात चढ़ा हुआ है. हें-हें-हें. हम लोग एकहि गांव के हैं. गौवां-गरामित के रहते होटिल और हलवाई के यहां खायेगा हिरामन?
हिरामन ने लालमोहर का हाथ टीप दिया-बेसी भचर-भचर मत बको?
गाड़ी से चार रस्सी दूर जाते-जाते धुन्नीराम ने अपने बुलबुलाते हुए दिल की बात खोल दी-इस्स! तुम भी खूब हो हिरामन! उस साल कम्पनी का बाघ, इस बार कम्पनी की जनाना.
हिरामन ने दबी आवाज में कहा-भाई रे, यह हम लोगों के मुलुक की जनाना कि नटपट बोली सुनकर भी चुप रह जाए. एक तो पश्चिम की औरत, तिस पर कम्पनी की.
-धत्!- सभी ने एक साथ उसको दुरदुरा दिया-कैसा आदमी है! पतुरिया रहेगी कम्पनी में भला. देखो इसकी बुद्धि!...सुना है, देखा तो नहीं है कभी?
धुन्नीराम ने अपनी गलती मान ली. पलटदास को बात सूझी-हिरामन भाई, जनाना जात अकेली रहेगी गाड़ी पर? कुछ भी हो, जनाना आखिर अनाना ही है. कोई जरूरत ही पड़ जाये.
यह बात सभी को अच्छी लगी. हिरामन ने कहा-बात ठीक है. पलट, तुम लौट जाओ, गाड़ी के पास ही रहना. और देखो, गपशप जरा होशियारी से करना हां.
हिरामन की देह से अतर-गुलाब की खुशबू निकलती है. हिरामन करमसांड है. उस बार महीनों तक उसकी देह से बघइन गन्ध नहीं गई. लालमोहर ने हिरामन की गमछी सूंघ ली-ऐ-ह!
हिरामन चलते-चलते रुक गया-क्या करें लालमोहर भाई, जरा कहो तो! बड़ी जिद्द करती है, कहती है नौटंकी देखना ही होगा.
-फोकट में ही?...और गांवा नहीं पहुंचेगी यह बात?
हिरामन बोला-नहीं जी! एक रात नौटंकी देखकर जिन्दगी भर बोली-ठोली कौन सुने?...देशी मुर्गी, बिलायती चाल.
धुन्नीराम ने पूछा-फोकट में देखने पर भी तुम्हारी भौजाई बात सुनाएगी.
लालमोहर के बासा के बगल में लकड़ी की दुकान लादकर आये हुए गाड़ीवान का बासा है. बासा के मीर-गाड़ीवान मियां जान बूढ़े ने सफरी गुड़गुड़ी पीते हुए पूछा-क्यों भाई, मीना बाजार की लदनी लादकर कौन आया है?
मीनाबाजार! मीनाबाजार तो पुतिरया पट्टी को कहते हैं...क्यों बोलता है यह बूढ़ा मियां? लालमोहर ने हिरामन के कान में फुसफुसाकर कहा-तुम्हारी देह मह-मह महकती है. सच!
लहसनवां लालमोहर का नौकर गाड़ीवान है. उम्र में सबसे छोटा है. पहली बार आया है तो क्या? बाबू-बबुआनों के यहां बचपन से नौकरी कर चुका है. वह रह-रहकर वातावरण में कुछ सूंघता है, नाक सिकोड़कर! हिरामन ने देखा लहसनवां का चेहरा तमतमा गया है...कौन आ रहा है धड़धड़ाता हुआ?...कौन, पलटदास? क्या है?
पलटदास आकर खड़ा हो गया चुपचाप. उसका मुंह भी तमतमाया हुआ था.
हिरामन ने पूछा-क्या हुआ, बोलते क्यों नहीं?
क्या जवाब दे पलटदास. हिरामन ने उसको चेतावनी दे दी थी कि गपशप होशियारी से करना. वह चुपचाप गाड़ी की आसनी पर आकर बैठ गया, हिरामन की जगह पर. हीराबाई ने पूछा-तुम भी हिरामन के साथी हो? पलटदास ने गरदन हिलाकर हामी भरी. हीराबाई फिर लेट गई. चेहरा-मोहरा और बोली-बानी देख-सुनकर पलटदास का कलेजा कांपने लगा, न जाने क्यों? हां! रामलीला में सिया सुकुमारी इसी तरह थकी लेटी हुई थी. जै! सियावर रामचन्द्र की जै!...पलटदास के मन में जै-जैकार होने लगा. वह दा-बैस्नव है, कीर्तनिया है. थकी हुई सीता महारानी के चरण टीपने की इच्छा प्रकट की उसने हाथ की उंगलियों के इशारे से, मानो हारमोनियम की पटरियों पर नाच रहा हो. हीराबाई तमककर बैठ गई-अरे, पागल है क्या? जाओ, भागो!...
पलटदास को लगा गुस्साई हुई कम्पनी की औरत की आंखों से चिनगारी निकल रही है-छट्क छट्क! वह भागा...
पलटदास क्या जवाब दे! वह मेले से भी भागने का उपाय सोच रहा है. बोला-कुछ नहीं. हमको व्यापारी मिल गया. अभी ही टीशन जाकर माल लादना है. भात में तो अभी देर है. मैं लौट आता हूं तब तक.
खाते समय धुन्नीराम और लहसनवां ने पलटदास की टोकरी-भर निन्दा की-छोटा लालमोहर के दल ने अपना बासा छोड़ दिया. धुन्नी और हिरामन ने लहसनवां गाड़ी जोतकर हिरामन के बासा पर चले, गाड़ी की लीक भरकर. चलते-चलते रुककर, लालमोहर से कहा-जरा मेरे इस कन्धे को सूंघो तो. सूंघकर देखो न?
लालमोहर ने कन्धा सूंघकर आंख मूंद ली. मुंह से अस्फुट शब्द निकला-ए-ह
हिरामन ने कहा-जरा-सा हाथ रखने पर इतनी खुशबू!...समझे!
लालमोहर ने हिरामन का हाथ पकड़ लिया-कन्धे पर हाथ रखा था? सच?...सुनो हिरामन, नौटंकी देखने का ऐसा मौका फिर कभी हाथ नहीं लगेगा. हां!
-तुम भी देखोगे?
लालमोहर की बत्तीसी चौराहे की रोशनी में झिलमिला उठी.
बासा पर पहुंचकर हिरामन ने देखा, टप्पर के पास खड़ा बतिया रहा है कोई हीराबाई से. धुन्नी और लहसनवां ने एक ही साथ कहा-कहां रह गये पीछे? बहुत देर से खोज रही है
कम्पनी...!
हिरामन ने टप्पर के पास जाकर देखा-अरे, यह तो वही बक्सा ढोने वाला नौकर है, जो चम्पानगर में हीराबाई को गाड़ी पर बिठाकर अंधेरे में गायब हो गया था.
-आ गये हिरामन! अच्छी बात, इधर आओ!...यह लो अपना भाड़ा और यह लो अपना दच्छिना. पच्चीस-पच्चीस, पचास.
हिरामन को लगा किसी ने आसमान से धकेलकर धरती पर गिरा दिया. किसी ने क्यों, इस बक्सा ढोने वाले आदमी ने! कहां से आ गया उसकी जीभ पर आई हुई बात जीभ पर ही रह गई...इस्स! दच्छिना!...वह चुपचाप खड़ा रहा.
हीराबाई बोली-लो पकड़ो. और सुनो, कल सुबह रौता कम्पनी में आकर मुझसे भेंट करना. पास बनवा दूंगी...बोलते क्यों नहीं?
लालमोहर ने कहा-इलाम-बकसीस दे रही है मालकिन, ले लो हिरामन.
हिरामन ने कटकर लालमोहर की ओर देखा...बोलने का जरा भी ढंग नहीं इस लालमोहर को.
धुन्नीराम की स्वगतोक्ति सभी ने सुनी, हीराबाई ने भी-गाड़ी-बैल छोड़कर नौटंकी कैसे देख सकता है कोई गाड़ीवान, मेले में.
हिरामन ने रुपया लेते हुए कहा-क्या बोलेंगे!-उसने हंसने की चेष्टा की.-कम्पनी की औरत कम्पनी में जा रही है. हिरामन का क्या! बक्सा ढोने वाला रास्ता दिखाता आगे बढ़ा इधर से!...हीराबाई जाते-जाते रुक गई. हिरामन के बैलों को सम्बोधित करके बोली-अच्छा, मैं चली भैयान!
बैलों ने, ‘भैया’, शब्द पर कान हिलाये.
-भा-इ-यों, आज रात! दि रौता संगीत नौटंकी कम्पनी के स्टेज पर! गुलबदन देखिये, गुलबदन! आपको यह जानकर खुशी होगी कि मथुरामोहन कम्पनी की मशहूर एक्ट्रेस मिस हीरादेबी, जिसकी एक-एक अदा पर हजार जान फिदा हैं, इस बार हमारी कम्पनी में आ गई हैं. याद रखिये. आज की रात! मिस हीरादेवी गुलबदन...!
नौटंकी वालों के इस एैलान से मेले की हर पट्टी में सरगर्मी फैल रही है. -‘हीराबाई! मिस हीरादेवी! लैला, गुलबदन!...फिलिम एक्ट्रेस को मात करती है...तेरी बांकी अदा पर मैं खुद हूं फिदा, तेरी चाहत की दिवली बयां क्या करूं! यही ख्वाहिश है कि इ-इ-इ-तू मुझको देखा करे, और दिलोजान में तुमको देखा करूं!...किर्र-र्र-र्र-र्र...कड़ड़ड़ड़ड़ड़र्र-र्र-घन-घन-घन-धड़ाम.’
हर आदमी का दिल नगाड़ा हो गया है.
लालमोहर दौड़ता-हांफता बासा पर आया-ऐ-ऐ हिरामन, यहां क्या बैठे हो, चलकर देखो कैसा जै जैकार हो रहा है. मय बाजा-गाजा, छापी-फाहरम के साथ हीराबाई की जै-जै कर रहा है.
हिरामन हड़बड़ाकर उठा. लहसनवां ने कहा-धुन्नी काका, तुम बासा पर रहो, मैं भी देख आऊं.
धुन्नी की बात कौन सुनता है. तीनो जन नौटंकी कम्पनी की ऐलानिया पार्टी के पीछे-पीछे चलने लगे. हर नुक्कड़ पर रुककर, बाजा बन्द करके ऐलान किया जाता है. ऐलान के हर शब्द पर हिरामन पुलक उठता है. हीराबाई का नाम, नाम के साथ अदा-फिदा वगैरह सुनकर उसने लालमोहर की पीठ थपथपा दी-
धन्न है, धन्न है! है या नहीं?
लालमोहर ने कहा-अब बोलो! अब भी नौटंकी नहीं देखोगे? सुबह से ही धुन्नीराम और लालमोहर समझा रहे थे, समझाकर हार चुके थे...कम्पनी में जाकर भेंट कर आओ. जाते-जाते पुरसिस कर गई है. लेकिन हिरामन की बस एक बात-धत्, कौन भेंट करने जाये. कम्पनी की औरत कम्पनी में गई. अब उससे क्या लेना-देना! चीन्हेगी भी नहीं.
वह मन ही मन रूठा हुआ था. ऐलान सुनने के बाद उसने लालमोहर से कहा-जरूर देखना चाहिए, क्यों लालमोहर?
दोनों आपस में सलाह करके रौता कम्पनी की ओर चले. खेमे के पास पहुंचकर हिरामन ने लालमोहर को इशारा किया, पूछताछ करने का भार लालमोहर के सिर. लालमोहर कचराही बोलना जानता है. लालमोहर ने एक काले कोट वाले से कहा-बाबू साहब, जरा सुनिये तो.
काले कोट वाले ने नाक-भौं चढ़ाकर कहा-क्या है? इधर क्यों?
लालमोहर की कचराही बोल गड़बड़ा गई. तेवर देखकर बोला-गुल-गुल...नहीं...नहीं...बुल-बुल...नहीं.
हिरामन ने झट बात सम्हाल दिया. हीरादेवी किधर रहती है, बता सकते हैं?
उस आदमी की आंखें हठात् लाल हो गईं. सामने खड़े नेपाली सिपाही को पुकार कर कहा-इन लोगों को क्यों आने दिया इधर?
-हिरामन!...वही फेनूगिलासी आवाज किधर से आई? खेमें के परदे को हटाकर हीराबाई ने बुलाया-यहां आ जाओ, अन्दर...देखो, बहादुर! इसको पहचान लो. यह मेरा हिरामन है. समझे.
नेपाली दरबान हिरामन की ओर देखकर जरा मुस्कराया और चला गया. काले कोट वाले से जाकर कहा-हीराबाई का आदमी है. नहीं रोकने वाला.
लालमोहर पान ले आया नेपाली दरबान के लिए-खाया जाये.
-इस्स! एक नहीं, पांच पास. चारों अठनिया. बोली कि जब तक मेले में हो, रोज रात में आकर देख जाना. सबका ख्याल रखती है. बोली कि तुम्हारे और साथी हैं, सभी के लिए पास ले जाओ. कम्पनी की औरतों की बात ही निराली होती है. है या नहीं?
लालमोहर ने लाल कागज के टुकड़ों को छूकर देखा-पा-स! वाह रे हिरामन भाई!...लेकिन पांच पास लेकर क्या होगा? पलटदास तो फिर पलटकर आया ही नहीं है अभी तक.
हिरामन ने कहा-जाने दो अभागे को. तकदीर में लिखा ही नहीं?...हां, पहले गुरु कसम खानी होगी सभी को, कि गांव-घर में यह बात एक पंछी भी न जान पाये.
लालमोहर ने उत्तेजित होकर कहा-कौन साला बोलेगा गांव में जाकर? पलटा ने अगर बदमाशी की तो दूसरी बार से फिर साथ नहीं लाऊंगा.
हिरामन ने अपनी थैली आज हीराबाई के जिम्मे दख दी है. मेले का क्या ठिकाना किस्म-किस्म के पाकेट कट लोग हर साल आते हैं. अपने साथी-संगियों का भी क्या भरोसा! हीराबाई मान गई. हिरामन की कपड़े की थैली को उसने अपने चमड़े के बक्स में बन्द कर दिया. बक्से के ऊपर भी कपड़े का खोल और अन्दर भी झलमल रेशमी अस्तर! मन का मान-अभिमान दूर हो गया.
लालमोहर और धुन्नीराम ने मिलकर हिरामन की बुद्धि की तारीफ की, उसके भाग्य को सराहा बार-बार. उसके भाई और भाभी की निन्दी की, दबी जबान से. हिरामन के जैसा हीरा भाई मिला है, इसीलिए. कोई दूसरा भाई होता तो...
लहसनवां का मुंह लटका हुआ है. ऐलान सुनते-सुनते न जाने कहां चला गया कि घड़ी भर सांझ होने के बाद लौटा है. लालमोहर ने एक मालिकाना झिड़की दी है, गाली के साथ-सोहदा कहीं का!
धुन्नीराम ने चूल्हे पर खिचड़ी चढ़ाते हुए कहा-पहले यह फैसला कर लो कि गाड़ी के पास कौन रहेगा.
-रहेगा कौन, यह लहसनवां कहां जायगा?
लहसनवां रो पड़ा-हे-ए-ए मालिक, हाथ जोड़ते हैं. एक्को झलक! बस एक झलक!
हिरामन ने उदारतापूर्वक कहा-अच्छा-अच्छा, एक झलक क्यों, एक घण्टा देखना. मैं आ जाऊंगा.
नौटंकी शुरू होने के दो घण्टे पहले से ही नगाड़ा बजना शुरू हो जाता है. और नगाड़ा शुरू होते ही लोग पतंगों की तरह टूटने लगते हैं. टिकट घर के पास और भीड़ देखकर हिरामन को बड़ी हंसी आई.-लालमोहर, उधर देख, कैसी धक्कमधुक्की कर रहे हैं लोग.
-हिरामन भय!
-कौन पलटदास? कहां की लदनी लाद आये?-लालमोहर ने पराये गांव के आदमी की तरह पूछा.
पलटदास ने हाथ मलते हुए माफी मांगी-कसूरवार हैं, जो सजा दो तुम लोग सब मंजूर है. लेकिन सच्ची बात कहें कि सिया सुकुमारी...
हिरामन के मन का पुरइन नगाड़े के ताल पर विकसित हो चुका है. बोला, देख पलटा. यह मत समझना कि गांव-घर की जनाना है. देखो, तुम्हारे लिए भी पास दिया है. पास ले लो अपना, तमाशा देखो.
लालमोहर ने कहा-लेकिन एक शर्त पर पास मिलेगा. बीच-बीच में लहसनवां को भी...
पलटदास को कुछ बताने की जरूरत नहीं. वह लहसनवां से बातचीत कर आया है अभी.
लालमोहर ने दूसरी शर्त सामने रखी-गांव में अगर यह बात मालूम हुई किसी तरह...
-राम-राम!-दांत से जीभ काटते हुए कहा पलटदास ने.
पलटदास ने बताया-अठनिया फाटक इधर है. फाटक पर खड़े दरबान ने हाथ में पास लेकर उनके चेहरे को बारी-बारी से देखा. बोला-यह तो पास है. कहां से मिला?
अब लालमोहर की कचराही बोली सुने कोई? उसके तेवर देखकर दरबान घबरा गया-मिलेगा कहां से? अपनी कम्पनी से पूछ लीजिए जाकर. चार ही नहीं, देखिए एक और है. जेब से पांचवां पास निकालकर दिखाया लालमोहर ने.
एक रुपया वाले फाटक पर नेपाली दरबान खड़ा था. हिरामन ने पुकारकर कहा-ए सिपाही दाजू, सुबह को ही पहचनवा दिया, और अभी भूल गये?
नेपाली दरबान बोला-हीराबाई का आदमी है सब. जाने दो. पास है तो फिर काहे को रोकता है?
अठनियां दर्जा!
तीनों ने कपड़घर को अन्दर से पहली बार देखा. सामने कुर्सी-बेंच वाले दर्जे हैं. परदे पर राम-वन-गमन की तस्वीर है. पलटदास पहचान गया. उसने हाथ जोड़कर नमस्कार किया. परदे पर अंकित राम, सिया सुकुमारी और लखन लला को. जै हो, जै हो! पलटदास की आंखें भर आईं.
हिरामन ने कहा-लालमोहर, छापी सभी खड़े हैं या चल रहे हैं?
लालमोहर अपने बगल में बैठे दर्शकों से जान-पहचान कर चुका है. उसने कहा-खेला अभी परदे के भीतर है. अभी जमिनका दे रहा है, लोग जमाने के लिए.
पलटदास ढोलक बजाना जानता है, इसलिए नगाड़े के ताल पर गरदन हिलाता है और दियासलाई पर ताल काटता है. बीड़ी आदान-प्रदान करके हिरामन ने भी एकाध जान-पहचान कर ली. लालमोहर के परिचित आदमी ने बाहर से देह को ढंकते हुए कहा-नाच शुरू होने में अभी देर है, तब तक एक नींद ले लें...सब दर्जा से अच्छा अठनियां दर्जा. सबसे पीछे सबसे ऊंची जगह पर है. जमीन पर पुआल. हे-हे! कुरसी-बेंच पर बैठकर इस सरदी के मौसम में तमाशा देखने वाले अभी घुच-घुचकर उठेंगे चाह पीने.
उस आदमी ने अपनी सगी से कहा-खेला शुरू होने पर जगा देना. नहीं-नहीं, खेला शुरू होने पर नहीं; हिरिया जब स्टेज पर उतरे, हमको जगा देना.
हिरामन के कलेजे में जरा आंख लगी...हिरिया. बड़ा लटपटिया आदमी मालूम पड़ता है. उसने लालमोहर को आंख के इशारे से कहा-इस आदमी से बतियाने की जरूरत नहीं.
...घन-घन-घन-धड़ाम! परदा उठ गया. हे-ए, हे-ए, हीराबाई शुरू में ही उतर गई स्टेज पर. कपड़घर खचाखच भर गया है. हिरामन का मुंह अचरज से खुल गया. लालमोहर को न जाने क्यों ऐसी हंसी आ रही है. हीराबाई के गीत के हर पद पर वह हंसता है, बेवजह.
गुलबदन दरबार लगाकर बैठी है. ऐलान कर रही है. ‘‘और आदमी तख्त हजारा बनाकर ला देगा, मुंह मांगी चीज इनाम में दी जायेगी. अर्जी, है कोई ऐसा फनकार, तो हो जाये तैयार, बनाकर लाये लख्त-हजा-रा-आ! किड़किड़किर्र...!’’ अलबत नाचती है. क्या गला है? मालूम है, यह आदमी कहता है कि हीराबाई पान, बीड़ी सिगरेट, जर्दा कुछ नहीं खाती...ठीक कहता है. बड़ी नेमवाली रंडी है...कौन कहता है कि रंडी है. दांत में कस्सी कहां है? पोडर से दांत धो लेती होगी. हरगिज नहीं...कौन आदमी है, बात की बेबात करता है. कम्पनी की औरत को पतुरिया कहता है. तुमको बात क्यों लगी? कौन है रंडी का भड़ुवा? मारो साले को! मारो! तेरी...
हो हल्ले के बीच, हीरामन की आवाज कपड़घर को फाड़ रही है-आओ, एक-एक की गरदन उतार लेंगे.
लालमोहर दुआली से पटापट पोटता जा रहा है सामने के लोगों को. पलटदास एक आदमी की छाती पर सवार है-साला सिया सुकुमारी को गाली देता है, सो भी मुसलमान होकर.
धुन्नीराम शुरू से ही चुप था. मारपीट शुरू होते ही वह कपड़घर से निकलकर बाहर भागा.
काले कोट वाले नौटंकी के मैनेजर नेपाली सिपाही के साथ दौड़े आये. दारोगा साहब ने हंटर से पीट-पाट शुरू की. हण्टर खाकर लालमोहर तिलमिला उठा. कचहरी बोली में भाषण देने लगा...दारोगा साहब, मारते हैं, मारिये. कोई हर्ज नहीं. लेकिन यह पास देख लीजिये, एक पास पाकिट में भी है. देख सकते हैं हुजूर. टिकस नहीं, पास!...तब हम लोगों के सामने कम्पनी की औरत को कोई बुरी बात कहे तो कैसे छोड़ देंगे?
कम्पनी के मैनेजर की समझ में आ गई सारी बात. उसने दारोगा को समझाया-हुजूर, मैं समझ गया. यह सारी बदमाशी मथुरामोहन कम्पनी वालों की है. तमाशे में झगड़ा खड़ा करके कम्पनी को बदनाम...नहीं हुजूर, इन लोगों को छोड़ दीजिए, हीराबाई के आदमी हैं. बेचारी की जान खतरे में है. हुजूर से कहा था न!
हीराबाई का नाम सुनते ही दारोगा ने तीनों को छोड़ दिया. लेकिन तीनों की दुआली छीन ली गई. मैनेजर ने तीनों को एक रुपये वाले दरजे में कुरसी पर बिठाया-आप लोग यहीं बैठिये-पान भिजवा देता हूं.
कपड़घर शान्त हुआ और हीराबाई स्टेज पर लौट आई.
नगाड़ा फिर घनघना उठा.
थोड़ी देर बाद तीनों को एक ही साथ धुन्नीराम का ख्याल आया-अरे, धुन्नीराम कहां गया?
...मालिक, ओ मालिक!...लहसनवां कपड़घर के बाहर चिल्लाकर पुकार रहा है...ओ लालमोहर मा-लिक!
लालमोहर ने तार स्वर में जवाब दिया-इधर से, इधर से. एकटकिया फाटक से...सभी दर्शकों ने लालमोहर की ओर मुड़कर देखा. लहसनवां को नेपाली सिपाही लालमोहर के पास ले आया. लालमोहर ने जेब से पास निकालकर दिखा दिया. लहसनवां ने आते ही पूछा-मालिक, कौन आदमी क्या बोल रहा था? बोलिये तो जरा. चेहरा दिखला दीजिये, उसकी एक झलक!
लोगों ने लहसनवां की चौड़ी आधी सपाट छाती देखी. जाड़े के मौसम में भी खाली देह!...चेले-चाटी के साथ हैं ये लोग!
लालमोहर ने लहसनवां को शान्त किया.
तीनों-चारों से मत पूछे कोई नौटंकी में क्या देखा? किस्सा कैसे याद रहे? हिरामन को लगता था, हीराबाई शुरू से ही उसी की ओर टकटकी लगाकर देख रही है, गा रही है, नाच रही है. लालमोहर को लगता था, हीराबाई उसकी ओर देखती है. वह समझ गई है हिरामन से भी ज्यादा पत्थर वाला आदमी है लालमोहर. पलटदास किस्सा समझता है...किस्सा और क्या होगा? रसैल की ही बात. वही राम, वही सीता, वही लखन लाला और वही रावन! सिया सुकुमारी को राम से छीनने के लिए रावन तरह-तरह का रूप धरकर आता है. राम और सीता भी रूप बदल लेते हैं. यहां भी तख्त-हजारा बनाने वाला माली का बेटा राम है. गुलबदन सिया सुकुमारी है. माली के लड़के का दोस्त लखन लला है और सुलतान रावन...धुन्नीराम को बुखार है, तेज. लहसनवां को सबसे अच्छा जोकर का पार्ट लगा है-‘‘चिरैया तोहके लेके ना, जअवे नरहट के बजरिया!’’
वह उस जोकर से दोस्ती लगाना चाहता है...नहीं लगावेगा दोस्ती, जोकर साहब?
हिरामन को एक गीत की आधी कड़ी हाथ लगी है-मारे गये गुलफाम. कौन था गुलफाम? हीराबाई रोती हुई गा रही थी...अजी हां, मारे गये गुलफाम! टिड़िड़िड़ि...बेचारा गुलफाम!
तीनों की दुआली वापस देते हुए पुलिस के सिपाही ने कहा-लाठी दुआली लेकर नाच देखने आते हो?
दूसरे दिन मेले भर में यह बात फैल गई-मथुरामोहन कम्पनी से भागकर आई है हीराबाई, इसलिए इस बार मथुरामोहन कम्पनी नहीं आई है...उसके गुण्डे आये हैं...हीराबाई भी कम नहीं. बड़ी खेलाड़ी औरत है. तेरह-तेरह देहाती लठैत पाल रही है...वाह! मेरी जान भी कहे तो कोई मजाल है.
दस दिन! दस रात!...
दिन भर भाड़ा ढोता हिरामन. शाम होते ही नौटंकी का नगाड़ा बजने लगता. नगाड़े की आवाज सुनते ही हीराबाई की पुकार कानों के पास मंड़राने लगती-भैया...मीता...हिरामन...उस्ताद...गुरूजी! हमेशा कोई-न-कोई बाजा उनके मन के कोने में बजता रहता, दिन भर. कभी हारमोनियम, कभी नगाड़ा, कभी ढोलक और कभी हीराबाई की पैजनी. उन्हीं साजों की गत पर हिरामन उठता-बैठता, चलता-फिरता. नौटंकी कम्पनी के मैनेजर से लेकर परदा खींचने वाले तक उसकी पहचानते हैं-हीराबाई की आदमी है.
पलटदास हर रात नौटंकी शुरू होने के समय श्रद्धापूर्वक स्टेज को नमस्कार करता, हाथ जोड़कर. लालमोहर एक दिन अपनी कचराही बोली सुनाने गया था हीराबाई को. हीराबाई ने पहचाना ही नहीं. तब से उसका दिल छोटा हो गया है. उसका नौकर लहसनवां उसके हाथ से निकल गया है. नौटंकी कम्पनी में भरती हो गया है. जोकर से उसकी दोस्ती हो गई है. दिन भर पानी भरता है, कपड़े धोता है. गांव में क्या है जो जायेंगे? लालमोहर उदास रहता है. धुन्नीराम घर चला गया है, बीमार होकर.
हिरामन आज सुबह से तीन बार लदनी लादकर स्टेशन आ चुका है. आज न जाने क्यों उसको अपनी भौजाई की याद आ रही है...धुन्नीराम ने कुछ कह तो नहीं दिया बुखार की झोंक में. यहां कितना अटर-पटर बक रहा था...गुलबदन, तख्त-हजारा!...लहसनवां मौज में है. दिन-भर हीराबाई को देखता ही होगा. कल कह रहा था-हिरामन मालिक, तुम्हारे अकबाल से खूब मौज में हूं. हीराबाई की साड़ी धोने के बाद कठौते का पानी अतरगुलाब हो जाता है. उसमें अपनी गमछी डुबाकर छोड़ देता हूं. लो सूंघोगे?...हर रात, किसी-न-किसी के मुंह से सुनता है वह-हीराबाई रंडी है. कितने लोगों से लड़े वह. बिना देखे ही लोग कैसे कोई बात बोलते हैं. राजा को भी लोग पीठ-पीछे गाली देते हैं!...आज वह हीराबाई से मिलकर कहेगा-नौटंकी कम्पनी में रहने से बहुत बदनाम करते हैं लोग. सरकस कम्पनी में क्यों नहीं काम करती,...सबके सामने नाचती है. हिरामन का कलेजा दप-दप जलता रहता है उस समय. सरकस कम्पनी में बाघ को नचायेगी...बाघ के पास जाने की हिम्मत कौन करेगा? सुरक्षित रहेगी हीराबाई...किधर की गाड़ी आ रही है?
-हिरामन, ए हिरामन भय!-लालमोहर की बोली सुनकर हिरामन ने गरदन मोड़कर देखा-क्या लादकर लाया है लालमोहर?
-तुमको ढूंढ़ रही है हीराबाई, इश्टीशन पर. जा रही है-एक ही सांस में सुना गया-लालमोहर की गाड़ी पर ही आई है मेले से!
-जा रही है? कहां? लालमोहर, रेलगाड़ी से जा रही है?
हिरामन ने गाड़ी खोल दी. मालगुदाम के चौकीदार से कहा-भैया, जरा गाड़ी-बैल देखते रहिये. आ रहे हैं.
-उस्ताद!...जनाना मुसाफिर खाने के फाटक के पास हीराबाई ओढ़नी से मुंह-हाथ ढंककर खड़ी थी. थैली बढ़ाती हुई बोली-लो! हे भगवान्! भेंट हो गई, चलो, मैं तो उम्मीद खो चुकी थी. तुमसे अब भेंट नहीं हो सकेगी...मैं जा रही हूं, गुरुजी!...
बक्सा ढोने वाला आदमी आज कोट-पतलून पहनकर बाबू साहब बन गया है. मालिकों की तरह कुलियों को हुकम दे रहा है.-जनाना दर्जा में चढ़ाना.
हिरामन हाथ में थैली लेकर चुपचाप खड़ा रहा. कुरते के अन्दर से थैली निकालकर दी है हीराबाई ने. चिड़िया की देह की तरह गर्म है थैली!
-गाड़ी आ रही है!-बक्सा ढोने वाले ने मुंह बनाते हुए हीराबाई की ओर देखा. उसके चेहरे का भाव स्पष्ट है-इतना ज्यादा क्या है...?
हीराबाई चंचल हो गई. बोली-हिरामन, इधर आओ अन्दर. मैं फिर लौटकर जा रही हूं मथुरामोहन कम्पनी में, अपने देश की कम्पनी है...बनैली मेला आओगे न?
हीराबाई ने हिरामन के कन्धे पर हाथ रखा...इस बार दाहिने कन्धे पर. फिर अपनी थैली से रुपया निकालते हुए बोली-एक गरम चादर खरीद लेना...
हिरामन की बोली फूटी, इतनी देर के बाद-इस्त! हरदम रुपया-पैसा. रखिए रुपया...क्या करेंगे चादर?
हीराबाई का हाथ रुक गया. उसने हिरामन के चेहरे को गौर से देखा. फिर बोली-तुम्हारा जी बहुत छोटा हो गया है. क्यों मीता? महुआ घटवारिन को सौदागर ने खरीद जो लिया है गुरु जी.
गला भर आया हीराबाई का. बक्सा ढोने वाले ने बाहर से आवाज दी-गाड़ी आ गई. हिरामन कमरे से बाहर निकल आया. बक्सा ढोने वाले ने नौटंकी के जोकर जैसा मुंह बनाकर कहा-लाटफारम से बाहर भागो. बिना टिकट के पकड़ेगा तो तीन महीने की हवा...
हिरामन चुपचाप फाटक से बाहर जाकर खड़ा हो गया...टीशन की बात, रेलवे का राज! नहीं तो इस बक्सा ढोने वाले का मुंह सीधा कर देता हिरामन...
हीराबाई ठीक सामने वाली कोठरी में चढ़ी. इस्स! इतना टान! गाड़ी में बैठकर भी हिरामन की ओर देख रही है, टुकुर-टुकुर...लालमोहर को देखकर जी जल उठता है, हमेशा पीछे-पीछे, हरदम हिस्सादारी सूझती है...
गाड़ी ने सीटी दी. हिरामन को लगा, उसके अन्दर से कोई आवाज निकलकर सीटी के साथ ऊपर की ओर चली गई...कू-ऊ-ऊ! इस्स!...
-छि-ई-ई-छक्क! गाड़ी हिली! हिरामन ने अपने दाहिने पैर के अंगूठे को बायें पैर की ऐड़ी से कुचल लिया. कलेजे की धड़कन ठीक हो गई...हीराबाई हाथ की बैंगनी साफी से चेहरा पोंछती है. साफी हिलाकर इशारा करती है-अब जाओ...आखिरी डब्बा गुजरा, प्लेटफार्म खाली, सब खाली...खोखले...मालगाड़ी के डिब्बे. दुनिया ही खाली हो गई मानो! हिरामन अपनी गाड़ी के पास लौट आया.
हिरामन ने लालमोहर से पूछा-तुम कब तक लौट रहे हो गांव?
लालमोहर बोला-अभी गांव जाकर क्या करेंगे? यही तो भाड़ा कमाने का मौका है. हीराबाई चली गई, मेला अब टूटेगा.
-अच्छी बात. कोई संवाद देना है न?
लालमोहर ने हिरामन को समझाने की कोशिश की. लेकिन हिरामन ने अपनी गाड़ी गांव की ओर जाने वाली सड़क की ओर मोड़ दी...अब मेले में क्या धरा है! खोखला मेला!
रेलवे लाइन की बगल से बैलगाड़ी की कच्ची सड़क गई है दूर तक. हिरामन कभी रेल पर नहीं चढ़ा है. उसके मन में फिर पुरानी लालसा झांकी, रेलगाड़ी पर सवार होकर, गीत गाते हुए जगन्नाथ धाम जाने की लालसा...उलटकर उसने खाली टप्पर की ओर देखने की हिम्मत नहीं होती है. पीठ में आज भी गुदगुदी लगती है. आज भी रह-रहकर चम्पा का फूल खिल उठता है उसकी गाड़ी में. एक गीत की टूटी कड़ी पर नगाड़े का ताल कट जाता है बार-बार!...
उसने उलटकर देखा, बोरे भी नहीं, बांस भी नहीं, बाघ भी नहीं...परी...देवी...मीता...हीरादेबी...महुआ घटवारिन...कोई नहीं. मरे हुए मुहूर्तों की गूंगी आवाजें मुखर होना चाहती हैं. हिरामन के होंठ हिल रहे हैं. शायद वह तीसरी कसम खा रहा है...कम्पनी की औरत की लदनी...
हिरामन ने हठात् दोनों बैलों को झिड़की दी, दुआली से मारते हुए बोला-रेलवे लाइन की ओर उलट-उलटकर क्या देखते हो? दोनों बैलों ने कदम खोलकर चाल पकड़ी. हिरामन गुनगुनाने लगा...अजी हां, मारे गए गुलफाम...!
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