हास्य-व्यंग्य बुलेट ट्रेन : साहित्यकारों की दृष्टि में डॉ. राकेश कुमार सिंह ‘बु लेट ट्रेन : साहित्यकारों की दृष्टि में’ टॉपिक पर मैंने जब...
हास्य-व्यंग्य
बुलेट ट्रेन : साहित्यकारों की दृष्टि में
डॉ. राकेश कुमार सिंह
‘बुलेट ट्रेन : साहित्यकारों की दृष्टि में’ टॉपिक पर मैंने जब शोध करना स्वीकार किया तो ‘अशिष्टजी’ को मेरी पीठ के स्पर्श सुख के अवसर सहज ही प्राप्त होने लगे. ‘वाह-वाह’ करके वह जब-तब मेरी पीठ को अनावश्यक होने पर भी पुरस्कृत कर ही देते. लेकिन इसे मैं अपने मुण्य कर्मों का फल ही मानती हूं कि ‘अशिष्टजी’ जैसे श्रृंगार भक्त विद्वान को यूनीवर्सिटी ने मेरे रिसर्च गाइड के रूप में अलॉट किया. अपनी विद्वता और श्रृंगार भक्ति के कारण यह अभद्र पुरुषों और भद्र महिलाओं द्वारा सार्वजनिक स्थानों पर कई बार सम्मानित हो चुके हैं. ये और कुछ भी हों, न हों लेकिन ईमानदार जरूर हैं. बड़ी ही ईमानदारी से स्वीकारते हैं कि इससे पहले ‘बुलेट ट्रेन’ से इनका सम्बन्ध जन्म-जन्मान्तर में भी कभी नहीं रहा. फिर भी वह इस टॉपिक के गाइड बना दिये गये. क्या करें, ‘समरथ को नहिं दोष गुसाईं.’
‘‘क्या ही मौलिक और अछूता-अनूठा विषय है रिसर्च के लिए यह!’’ जब-तब अशिष्ट जी यह कह ही उठते हैं-‘‘प्रिया, इस विषय पर रिसर्च कर तुम धन्य हो जाओगी. हिन्दी साहित्य के अब तक तमाम हीरो रहे रामचन्द्र शुक्लों, राम विलासों और नामवरों की तुम छुट्टी कर दोगी. इससे नये-नये कबीरों, तुलसीदासों, पंतों और प्रसादों पर रिसर्च के नये द्वार खुलेंगे. सड़े-गले और पिसे हुए को पीसने से तमाम शोधार्थियों का पिंड छूट जायेगा. जानती हो, प्रिया, इस विषय पर रिसर्च कराने के कारण ही मेरा नाम ‘पद्मश्री’ के लिए भी प्रस्तावित हो गया है.’’ ‘अशिष्टजी’ जब मेरा नाम ‘प्रिया’ अपनी जुबान पर लाते हैं तो उनके होंठों तक टपक आई लार और उनकी छोटी-छोटी आंखों में तैर उठी श्रृंगार लोलुपता स्पष्ट देखती हूं लेकिन दुधारू गाय की लातें सहने की शिष्टता अपनी संस्कृति से बाहर भी तो
नहीं है.
सोचती हूं-जब अशिष्टजी बुलेट ट्रेन पर केवल रिसर्च कराने के कारण ‘पद्मश्री’ से अलंकृत होने जा रहे हैं तो मैं तो इस विषय पर रिसर्च कर रही हूं, एक रिसर्च स्कॉलर हूं. कुछ न कुछ इसका फायदा तो हमें भी मिलेगा ही. ‘बुलेट ट्रेन’ चलाने वाली सरकार के कुछ तो नजदीक हो ही जाऊंगी. फिर...सैंया भये कोतवाल तो डर काहे का!
अशिष्टजी ने एक आदर्श ‘रिसर्च गाइड’ की तरह मुझे धीरज बंधाया-‘‘प्रिया, जैसा मैं कहूं, आंख मूंद कर तुम वैसा ही करती जाओ. बाद में, मैं सभी को देख लूंगा कि किस-किस के सींग उग आये हैं जो अशिष्ट से अशिष्टता कर सकें. सभी को धोकर रख दूंगा दो मिनट में. मैं जानता हूं इन बड़े-बड़े आलोचकों को. बच्चा जमीन पर आया है, लेकिन उसका नाम रख दिया-रामधनी. इतना ही नहीं, रामकली के साथ उसका विवाह भी हो गया. हिन्दी की तमाम रिसर्चें ऐसी ही हैं. पुस्तक तो प्रकाशित हुई नहीं, लेकिन उसकी समीक्षा छपकर पहले से ही तैयार है. क्या बड़े-बड़े आलोचकों के लिए ही यह गर्व और गरिमा का विषय है.
‘‘मैं रिसर्च गाइड हूं, प्रिया! तुम्हारा रिसर्च गाइड हूं. जब शोधार्थी मेरे लिए ‘कुछ’ भी करने को तैयार हैं तो मैं शोधार्थी के लिए कुछ भी क्यों नहीं कर सकता. ‘बुलेट ट्रेन’ से सम्बन्धित तुम्हें कोई ‘मसाला’ नहीं मिल रहा है, कोई बात नहीं. तुम चिन्ता न करो प्रिया जी, मैं लिखूंगा इस टॉपिक पर और औरों से भी लिखवाऊंगा इस पर. हिन्दी में केवल एक मैं ही अशिष्ट नहीं, मुझ अशिष्ट के भी तमाम बाप हैं.’’
‘हिन्दी में हजारों साहित्यकार हैं. रिसर्च के लिए इन सबको पढ़ने बैठ गई तो यह जनम तो जरूर पूरा हो जायेगा, लेकिन रिसर्च पूरी नहीं हो सकती.’ मेरे मन के इस भय को भांप लिया अशिष्टजी ने, कहा-‘‘शार्ट कट प्रिया जी शार्ट कट! पांच-छः छंटे हुए चर्चित लोग पकड़ लिये, बस हो गया पूरा क्षेत्र, बस हो गया पूरा काल खंड, बस हो गया समग्र साहित्य! है कोई मूसल चंद जो शोधार्थी का हाथ पकड़ कर लिखवाये, कहे-‘मैं तो अभी रह ही गया हूं. बिना मुझ पर लिखे आपकी रिसर्च पूरी कैसे हो गई?’ ’’ अशिष्ट जी ने हिम्मत बंधवायी-‘‘डरो मत, प्रिया जी डरो मत. इन ‘शोध प्रबन्धों’ को जांचने वाले भी तो आदी ही होते हैं-चोर-चोर मौसेरे भाई.’’
अशिष्टजी का व्यावहारिक रूप थे-चालीसा विशेषज्ञ, चाटुकारिता शिरोमणि, आचार्य साक्षात गुप्त जी, मेरे ‘शोध प्रबन्ध’ की महत्त्वपूर्ण फीगर. न जाने कहां से वह एक चित्र ले आये थे जिसका सिर तो ट्रेन के इंजन का था और धड़ एक औरत का. यह इस चित्र को एक आले में रखकर इसके आगे धूप बत्ती सुलगा रहे थे. बोले-‘‘यही है मेरी बुलेट ट्रेन महारानी. बुलेट ट्रेन पर चालीसा लिख कर, भक्तों के सहयोग से उसे प्रकाशित करवा कर लोंगों में बंटवा भी दिया है
मैंने.’’ बताने लगे-‘‘इससे बहुत से लोगों को लाभ हो रहा है. एक भक्त तो मेरी उपस्थिति में भी उनके पास आया. आचार्य जी ने उसे अपनी ‘बुलेट ट्रेन चालीसा’ दी. कहा-‘नहा-धोकर भैंसे के आगे गूगल धूप सुलगाकर इसका पाठ करना. ‘बुलेट ट्रेन महारानी’ की कृपा होगी. तुम्हारी भैंस जहां रोज पांच लीटर दूध देती है. इसके पाठ के बाद छः-सात लीटर दूध देने लगेगी.’ फिर अपने आप ही गुनगुना उठे. भक्ति रस में डूबी कुछ पंक्तियां हमें भी याद रह गईं. इसका प्रभाव मेरे जीवन में भी झलकने लगा है. प्रसाद के रूप में चार पंक्तियां आप भी पायें-
नमो नमो ट्रेन महारानी.
महिमा मातु न जाय बखानी.
दिनों रात तुम्हरो यश गाऊं,
संसद बसूं, मंत्रि पद पाऊं.
चाटुकारिता शिरोमणि आचार्य गुप्त जी के ही नगर में हैं एक प्रगतिशील कवि श्री भोगीन्द्र जी. वे सीमेन्ट के सीले हुए प्लास्टर की भांति एकदम उखड़ पड़े-‘‘मैंने बहुत कुछ लिखा है इस विषय पर-गद्य में भी, पद्य में भी. बहुत कुछ समझा है इस विषय को मैंने. ‘बुलेट ट्रेन’ वह ट्रेन है जिसमें तड़ातड़ गोलियां चलें. ऐसी ट्रेन पहले भी चल चुकी हैं. लेकिन वे अघोषित थीं. जनहित को ध्यान में रखते हुए अब इसकी घोषणा पूर्व में ही कर दी गई है, बस.’’ काफी समझदार और हेल्पिंग नेचर के लगे यह. कहने लगे-‘‘ऐसी ट्रेनों में सवार होकर पहले भी कई लोग शहीद का सम्मान पा चुके हैं. सरकारी कार्यालयों के चक्कर काटते, भटकते उनके बीवी-बच्चों के ‘इन्टरव्यू’ लेकर इस बुलेट ट्रेन के सुखद स्वरूप के गद्यात्मक पक्ष को भी अपनी थीसिस में रख सकती हो.’’ उन्होंने मुझे सलाह दी.
‘इण्टरव्यू’ तो मैंने कई लिये लेकिन अपना ‘इण्टरव्यू’ ज्यादा यादगार बनाने की कोशिश की उपन्यासकार श्री सज्जन कुमार जी यादव ने. उन्होंने अपने अध्ययन कक्ष में बड़े सोफे पर बिठाया. चाय पिलाई. लेकिन जैसा कि प्रायः होता है, उन्होंने चाय में बेहोश होने की कोई औषधि नहीं मिलायी. सच्ची! हो सकता है, ऐसी कोई औषधि उस समय उनके पास उपलब्ध न रही हो. बात करते-करते यकायक उन्होंने मेरा हाथ अपने हाथ में थाम लिया. फिर मौखिक रूप से ही जानने लगे-‘‘कुंआरी हो?’’ मैंने स्थिति स्पष्ट की. हाथ पकड़े-पकड़े ही बोले-‘‘मैं भी.’’ किसी गंडे-ताबीज की तरह अपने छः-सात उपन्यासों को सौंपते हुए कहने लगे-‘‘लो, इन्हें पढ़ो, तुम्हारे अंदर ब्याह करने की इच्छा अपने आप जाग्रत हो जायेगी.’’
‘‘आपके टॉपिक से सम्बन्धित यानी ‘बुनेट ट्रेन’ पर भी मैं एक उपन्यास लिख रहा हूं.’’ सज्जन कुमार जी ने बताया-‘‘मेरी दृष्टि में ‘बुलेट ट्रेन’ सक्षम लोगों के लिए सुखद अनुभूति का
साधन है. महान लोगों के साथ यात्रा कर शिष्टाचार की अवहेलना करने का साहस यदि आप में न हो तो भी कोई बात नहीं. वैसे प्लेटफार्म पर खड़े होकर, इसे देखकर आप आनन्दित हो सकती हैं और गौरवान्वित भी कि ऐसी ट्रेनें भारत में भी हैं. ‘वाटर प्रूफ्र’, ‘साउण्ड प्रूफ्र’ की तरह ही इसको अघोषित ‘पब्लिक प्रूफ्र’ रखा गया है. ध्यान रखें, इसकी एक विशेषता यह भी है.’’
महिलावादी कवयित्री मौसमी गर्ग का दृष्टिकोण सबसे अलग था, बिल्कुल जनवादी. उन्होंने कहा-‘‘तुम्हारी थीसिस का निचोड़ तो यही होना चाहिए कि ‘बुलेट ट्रेन’ खतरों के खिलाड़ियों के लिए ‘करतब’ दिखाने का एक साधन सिद्ध होगी. वे सुनियोजित ढंग से इस चलती ट्रेन के आगे कूदें, फिर बच कर दिखायें. इस ट्रेन के इस स्वरूप की ओर तो स्वयं ‘बुलेट ट्रेन’ को जमीन पर लाने वालों का भी ध्यान न गया होगा. लेकिन खतरों के खिलाड़ियों का रुझान कहीं कम न हो जाय, इसलिए ध्यान रखना होगा कि ऐसे खेलों में जनसाधारण भी शामिल होकर ‘बुलेट ट्रेन’ को कहीं प्रदूषित न करने लग
जायं.’’
काबुल में सब घोड़े ही नहीं, गदहे भी हैं. ऐसे में, अशिष्टजी की एप्रोच पर मुझे पूरा भरोसा है. लेकिन यूनीवर्सिटी में तो रामराज्य है. अर्थशास्त्र के परीक्षक हैं, भौतिक शास्त्र की कॉपियां जांच रहे हैं, तो मन में ख्याल तो आता ही है कि संयोग से मेरा यह शोध प्रबन्ध जंचने के लिए यदि किसी ऐसे गदहे के ही पास पहुंच गया जो यह भी न जानता हो कि ‘बुलेट ट्रेन’ किस उड़ती चिड़िया का नाम है, तो...’’
सम्पर्कः ‘सुमन कॉटेज’, शिवाकुंज, बाबरपुर,
सिकन्दरा, आगरा-282007 (उ.प्र.)
मोः 9456800617
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