समीक्षात्मक लेख ‘नया स्पंदन’ : गजल विशेषांक की प्रतिक्रिया के बहाने प्रो. ओम राज प्र सिद्ध गजलकार दीक्षित दनकौरी ने 2000 में प्रकाशि...
समीक्षात्मक लेख
‘नया स्पंदन’ : गजल विशेषांक की प्रतिक्रिया के बहाने
प्रो. ओम राज
प्रसिद्ध गजलकार दीक्षित दनकौरी ने 2000 में प्रकाशित अपने गजल-संग्रह ‘‘डूबते किनारे’’ के अग्रलेख में नामवर सिंह की यह टिप्पणी उद्धृत की थी, ‘‘बह्र की जानकारी हो जाने पर कोई भी, यहां तक जूते गांठने वाला भी गजल लिख सकता है.’’ नामवर सिंह की इस व्यंग्यात्मक उक्ति का संबंध 30 साल पहले के आठवां पास उर्दू के उन शायरों से था जो इश्किया गजलें नाशिश्तों में गाकर और लहरा कर पढ़ते थे. मेरे अपने नगर रामपुर में, जिसे उर्दू शायरी का तीसरा स्कूल कहा जाता है और जहां गालिब और दाग आकर रहे, एक शायर मरहूम एजाज सुल्तानी वास्तव में जूते बनाते थे.
दुष्यंत के अनेक शेरों में फन्नी खामी होते हुए भी उन्हें समकालीन हिन्दी गजल का प्रणेता तो माना ही जाएगा, लेकिन ‘‘दुष्यंत का सबसे बड़ा योगदान तो यह है कि वह हर ऐरा-गैरा में गजल लिखने की लत लगा गए, लेकिन लत के शिकार यह नहीं जानते कि दुष्यंत गजल के जिस्म और रूह से बखूबी परिचित थे. इसीलिए उनकी गजलों ने केवल हिन्दी गजलकारों के लिए ‘रेल की पटरी’ और ‘पुल’ बन गई. वरन् उर्दू जुबान के शायर भी उनकी गजलों की जदीदियत से प्रशंसा के स्तर तक प्रभावित हुए.’’
आज प्रेमपरक श्रृंगारिक गीत ‘अस्पताल की उदास शाम’ की मनहूसियत झेल रहा है. नई अतुकांत कविता की तर्ज पर नए प्रतीकों तथा विलक्षण मानसिक बिम्बों को छंदबद्ध गीतों में पिरोकर नवगीत कविता के सभागार में नई कविता से टक्कर ले रहे हैं; लेकिन नवगीत के नाम पर ऐसे नवगीतकार भी उभर रहे हैं जो बिना छंद-ज्ञान के नवगीत कह रहे हैं. मेरी अपनी मान्यता है कि नवगीत को पहले गीत होना चाहिए. ठीक उसी प्रकार जैसे जदीद गजल को पहले गजल होना चाहिए. ‘फार्म’ जदीद नहीं होता, ‘कान्टेन्टस्’ जदीद होते हैं. मैं स्वयं गीतकार और गजलकार हूं, इसलिए यह दावा करता हूं कि नामवर सिंह की चहेती टी.एस. इलिएट की जूठन की खाद से उगे केदारनाथ सिंह, स्व. वीरेन डंगवाल, मंगलेश डबराल की ‘एक इंच बराबर चार इंच’ वाली नई अतुकांत छंदहीन कविता को अगर खतरा है तो सिर्फ समकालीन हिन्दी गजल से.
किसी भी विरोधी साहित्यिक विधा से भुचैटा आप कागज में नहीं सिर्फ कागज पर ले सकते हैं. पिछले 40 सालों से हिन्दी गजल के रूप-स्वरूप को सजाने और संवारने में व्यस्त अति व्यस्त तथा आदरणीय गजलकारों- डॉ. रामदरश मिश्र, नीरज, डॉ.
मधुर नज्मी, चंद्रसेन विराट, विज्ञानव्रत, ज्ञान प्रकाश विवेक, शेरजंग गर्ग, डॉ. शिवओम अम्बर आदि को पत्रिका में उनके वकार के अनुरूप उन्हें बावकार जगह दी गई है. नई पीढ़ी के गजलकारों के इस संग्रहणीय गजल विशेषांक में एक-एक, दो-दो रचनाएं छापकर संपादक ने उनमें गजलकार होने की संभावना को सप्रमाण पुष्ट किया है. एक जमाना था जब बाराती पहले जीमते थे, घराती बाद को. इस परम्परा को साहित्यिक परम्परा के रूप में प्रतिष्ठापित करते हुए संपादक श्री धर्मेन्द्र गुप्त ‘साहिल’ ने अपनी गजलें पत्रिका के अंतिम पृष्ठ पर छापी हैं; हालांकि उनकी 4 गजलें मुझ जैसे 71 साल के बूढ़े गजलकार की 40 गजलों पर भारी हैं. उनके अशआर यह सिद्ध करते हैं कि उन्होंने गजल का वरण नहीं किया है, वरन् गजल ने उनको वरा हैः-
प्यासे मेरे पास आते हैं
शायद मुझमें कोई नदी है
मां के अधरों पर रामचरित
आंखों में गंगाजल था
और अर्थदोहन की दृष्टि से बेमिसाल शेर, जिसको नदी और कूप दो शब्दों के राब्ते ने उद्धरणीय बनाया हैः-
जब तलक तू नदी नहीं देता
तब तलक कोई कूप दे मुझको
मेरा एक शेर हैः-
है गजल आजाद फितरत जिस पे चाहें मर मिटें
शायरी के मीर की पाबन्द रक्काशा नहीं
इस शेर की दलील में जहां धर्मेन्द्र गुप्त साहिल के शेर उद्धृत किए हैं, वहीं बलजीत सिंह रैना के सिर्फ चार शेरों की गजल के दो शेर इसलिए नीचे दे रहा हूं जिससे मुझ जैसे बूढ़े ईमानदारी से यह तस्लीम करें कि हमारी नई नस्ल नजर का चश्मा नहीं लगाती इसलिए उसकी ‘साईट’ कोरी है और ‘सोच का विजन’ व्यापक हैः-
इक तिलस्मी रंग भाषा साथ लाए हैं
बेचनेवाले तमाशा साथ लाए हैं
देखकर जिसको कोई भी माल बिक जाए
जिस्म औरत का तराशा साथ लाए हैं
वय में वरिष्ठ गजलकारों ने कारीगरी से शेर कहे हैं और जो नई नस्ल के लिए आइना है. माननीय भानुमित्र जी शेर कहने से पहले चौंकाहट भरे तत्सम शब्द खोजते हैं इसलिए उनकी गजल के शेर में सिर्फ शब्द चमत्कार है. मेरा अनुभव है कि शब्द चमत्कार से पूर्ण गजल तथा तगण-मगण, या फाइलुन, फाईलुन को शेर की मां बनाकर शेर कहनेवाले शायर, शायर कम बाजीगर ज्यादा हैं. भानुमित्र जी का मत्ला हैः-
‘‘फोड़ दे ज्वालामुखी तृणबान से
शब्द तेरा कम नहीं चट्टान से’’
बहरहाल गजल को चट्टान जैसे शब्द नहीं फूल जैसे शब्द चाहिए. उन्हीं की उम्र की आसपास ठहरे डॉ. मधुर नज्मी शेर पहले कहते हैं, मिस्रों का वज्न तोलने के लिए तख्ती की तराजू बाद को इस्तेमाल करते हैंः-
‘‘कथानक से कट कर कहानी हमारी
सभी के लिए बेअसर हो गई है.’’
‘‘वक्त ने कितना बदल डाला है रंगे-शाइरी
हो सके तो शाइरी का गमजदा चेहरा पढ़ो’’
डॉ. दरवेश भारती, श्याम सखा ‘श्याम’, धनीराम बादल, कमलेश भट्ट, डॉ. ब्रह्मजीत गौतम आदि के गजल के छंद विधान पर केन्द्रित लेख ज्ञानवर्धक हैं, जो पत्रिका को भारी-भरकम बना रहे हैं. ‘समकालीन हिन्दी गजल में स्त्री’ ‘समकालीन गजल में मां’ तथा ‘हिन्दी गजल में राजनीतिक रंग’ शोध-परक लेख हैं और लेखकों ने भरपूर ‘डेस्कवर्क’ किया है. सभी को मुबारकबाद!
डॉ. मधुर नज्मी का लेख ‘गजल कुछ प्रश्न कुछ उत्तर’ चुनौतीपूर्ण लेख है. त्रिलोचन शास्त्री और ज्ञान प्रकाश ‘विवेक’ के माध्यम से डॉ. मधुर नज्मी ने कुछ अत्यंत महत्त्वपूर्ण प्रश्न उभारे हैं, जिनका उत्तर ‘दे दबादब’ गजल की रेड़ पीटनेवाले गजलावतार तो क्या देंगे, लेकिन गजल पर मौलिक रूप से गंभीर सोचवाले प्रतिष्ठित समीक्षकों को सार्थक उत्तर अवश्य देना चाहिए. ज्ञान प्रकाश ‘विवेक’ के इस प्रश्न में- हिन्दी गजल के पास अपनी कोई सार्थक जमीन नहीं है- निहित सच्चाई को या तो ईमानदारी से स्वीकार कर लेना चाहिए या फिर तर्कपूर्ण प्रतिवाद किया जाना चाहिए. वैसे मेरा जवाब सिर्फ इतना सा है कि हिन्दी गजलकार जमीन की तरफ बिना देखे आसमान में उड़ते नजर आ रहे हैं.
प्रवासी गजल विशेषज्ञ श्री अमरेन्द्र कुमार ने गजलावतार आदणीय जहीर कुरैशी का साक्षात्कार लिया है. हम सब जानते हैं कि पत्रिकाओं में प्रकाशित 90 प्रतिशत साक्षात्कार रजत शर्मा की ‘आपकी अदालत’ पैटर्न पर नहीं होते, यह पूर्व नियोजित इस सेटिंग पर होते हैं- ‘तू यह पूछ, मैं यह जवाब दूंगा.’ जहां तक जनाबे-जहीर कुरैशी का सवाल है तो वह हमारी तरह गजल फैक्ट्री के पार्ट टाइम वर्कर नहीं, फुलटाइम पेड वर्कर हैं. 700 शेर कह चुके हैं जिस रोज एक हजार पूरे हो गए तो 21वीं सदी के गजल के शेक्सपियर का बिल्ला जेब पर चस्पां करके हिन्दीवालों से यह कहेंगे कि आप मुझे ‘भारत गजल रत्न’ की उपाधि से विभूषित कीजिए. इधर वह अम्मा (उर्दू) को घर छोड़ कर खाला (हिन्दी) की सेवा में लगे हैं क्योंकि अम्मा के पास ओढ़ने-बिछाने का सामान दैरीना है. जहीर अब इसी तहरीक के अलमबरदार हैं जो हिन्दी गजल में जब्रन तत्सम शब्दों को ठूंस कर उसके प्रभाव को खत्म कर रही है. उनका एक शेर हैः-
कलम की नोक तक आते नहीं हैं शब्द के पाखी
जो कहना चाहता हूं मैं शब्दातीत लगता है
हिन्दी शब्दकोष में शब्दातीत का अर्थ यह दिया है- शब्द से परे अर्थात ईश्वर. आर.एस. मैकग्रेगोर ने ऑक्सफोर्ड हिन्दी-इंगलिश डिक्शनरी में शब्दातीत के दो और अर्थ दिए हैं- बीयांड द् रीच ऑफ साउण्ड (ध्वनि से परे) तथा बीयांड द् पावर ऑफ एक्सप्रेशन (अभिव्यक्ति से परे)! फेसबुक की शायरी की तर्ज पर आप भले ही- वाह, वाह, वाह; बहुत खूब; अति सुंदर- से शेर को नवाजें लेकिन मैं इस नतीजे पर पहुंच चुका हूं कि शेर आमद के तहत अर्थात् ‘द् मोस्ट इंटीमेट स्पर ऑफ द् स्पॉन्टैनियस ओवरफ्लो’ के अन्तर्गत नहीं केवल विशिष्ट शब्द-चमत्कार प्रदर्शन के पूर्वनियोजित मानसिक प्रयोजन के तहत गढ़ा गया है. वैसे पाखी या पंक्षी शार से अधिक समझदार है जो कलम की नोक पर बैठ कर अपने पंजे घायल नहीं करते. गजलकार की हैसियत से मैं इस अशुभ आशंका से ग्रस्त हूं कि गजल का बलात् तत्समीकरण इसकी सर्वप्रियता और सर्वग्राह्यता को समाप्त कर देगा. एक दिन ऐसा आएगा कि हिन्दी शब्दकोष के विशुद्ध तत्सम शब्द गजल के शेरों में घुसपैठ करा दिए जायेंगे. जब हिन्दी शब्दकोष तत्सम शब्दों से खाली हो जाएगा तो गजलकार बाध्य होकर संस्कृत शब्दकोष की शरण लेंगे और उनकी गजल के मिस्रे भर्तहरि की तर्ज पर कुछ ये रूप धारण कर लेंगे- येषां विद्या तपो न दानम ज्ञानम् न शीलम गुणो न धर्मा...मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति! बरेली से एक पत्रिका निकल रही है- नई लेखनी! सम्पादक हैं 79 वर्षीय गजलकार शिवनाथ ‘बिस्मिल’. जब शायर की हैसियत से उनकी कोई खास शिनाख्त नहीं बनी तो आहत (बिस्मिल) होकर इस तहरीक के सिपहसालार बन गए कि गजल ‘शुद्ध’ हिन्दी भाषा में कही जाए. इस तहरीक में शायर नहीं तत्समबाज दाखिल हो गए. 2014 के अंक में एक महिला गजलकार का शेर हैः-
अशेष कीर्ति कामना विशिष्ट व्यंजना लिए
रचे प्रवाह वंचना विदग्ध भावना लिए
गजलकार महिला संस्कृत की प्राध्यापिका मालूम होती हैं. बहरहाल मुझे अर्थदोहन के लिए शब्दकोष का सहारा लेना पड़ेगा.
दुष्यंत ने हिन्दी गजल के स्वर्णिम मंगलमय भविष्य की कामना की थी. क्या ऐसी गजलों से समकालीन गजल का स्वर्णिम भविष्य बन सकेगा?
खैर जहीर कुरैशी साहब प्रशंसा व सराहना के पात्र इसलिए हैं क्योंकि वह यूसुफ-जुलैखा, कैस-लैला का दियार छोड़ कर सीता-राम राधे-श्याम जैसे विशुद्ध भारतीय प्रतीकों की मरमरी शरण स्थली में दाखिल हो गए हैं अथवा बसरे के खजूर के दरख्त के नीचे से पीपल की घनेरी छांव में आ गए हैं.
मुझे यह अपेक्षा थी कि नया स्पंदन के इस विशेषांक में कोई प्रबुद्ध गजल समीक्षक इस विषय पर भी कलम चलाएगा- समकालीन हिन्दी गजल के सामने खतरे!
गजल दोहे की तरह हिन्दी काव्य-साहित्य की अपनी मौलिक विधा नहीं, हिन्दी में यह ‘एडाप्टेड ज्हानरा’ है और ‘एडाप्टेड’ भी फारसी गजल से नहीं उर्दू गजल से ली गई है. अमीर खुसरो ने फारसी गजल के बदन पर केवड़े के अर्क में भीगी कश्मीरी केसर और मलियागिरि के चंदन की उबटन लगाई. वली दक्किनी ने इसके चेहरे पर ब्रज का मक्खन मला और इसे कृष्ण-प्रिया
राधा बनाया. हिन्दी गजलकारों का यह अधिकार तो बनता है कि वह उसकी ईरानी वेष-भूषा, घाघरा-कुरती बदलें, लहंगा-चोली पहनाएं, ईरानी काली की जगह कश्मीरी कालीन पर बिठाएं, ईरानी जेवरात की जगह भारतीय आभूषणों से सजाएं, लेकिन उन्हें यह हक नहीं जाता कि इसके माथे पर चंदन लेप कर किसी मंदिर के दरवाजे पर राह जाप करने बैठा दें- श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारी, हे नाथ नारायण वासुदेवा. किसी सोची-समझी तहरीक के तहत गजल के इस तत्समीकरण को ही मैं गजल का हिन्दीकरण नहीं हिन्दूकरण मानता हूं. फारसी के शायरों ने कभी गजल को ‘आफीकः (साध्वी) नहीं बनाया, उमर खय्याम के साए में पाला. ये क्या मानसिकता है कि घर की बूढ़ी अम्मा आज भी मतबल (मतलब) प्रयोग कर रही है लेकिन घर के खब्ती लौंडे अभिप्राय, अर्थ प्रयोग कर रहे हैं.
भाषाई संकीर्णता अथवा साम्प्रदायिकता हिन्दी गजल को अवाम तक नहीं पहुंचने देगी. खुदा का लाख शुक्र है कि 1931 में पं. गया प्रसाद शुक्ल सनेही/त्रिशूल हिन्दी में गजलें कह रहे थे, लेकिन विशुद्ध हिन्दी के शब्दों की शेरों में ठूंस-ठांस की गहनी खलल उस वक्त पैदा नहीं हुई थी, वरना भगत सिंह, जैसे फांसी पर चढ़ने वाले शहीदों के होठों पर राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ की गजल का यह मिस्रा नहीं होता- ‘सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है...’
मनोचिकित्सा विज्ञान के अनुसार किसी क्षेत्र का अत्यंत विशिष्ट व्यक्ति होने का, किसी विषय का अंतिम सर्वज्ञ कोटि का विद्वान समझ लेने का, आत्ममुग्धता, सर्वोच्चता आदि का मतिभ्रम उत्पन्न हो जाना मानसिक व्याधि में गिने जाते हैं. यह बीमारियां वृद्धावस्था में अधिक उभरती हैं. निरंतर किसी क्षेत्र अथवा बौद्धिक क्रियाकलाप में मिलनेवाली असफलता और निराशा से उत्पन्न कुंठा और संत्रास का शिकार व्यक्ति कुछ अप्रत्याशित व अप्रतिम कर गुजर जाने के मतिभ्रम के कारण हास्यास्पद प्रयास करने लगता है. ‘बिस्मिल’ जी की श्रेणी के परम आदरणीय भानुमित्र महोदय हैं. ‘‘गजल गरिमा’’ नामक लघुतम पत्रिका निकालते हैं. गजल की गरिमा के बहाने वह मासूम गजल के वकार को तार-तार करने के लिए शपथबद्ध हैं. उन्होंने किसी पत्रिका (संभवतः हंस अथवा किसी गजल विशेषांक में) मेरी इस गजल जिसके दो शेर नीचे दे रहा हूं, को पढ़ा. 12 जनवरी 2012 को लिखा उनका एक पोस्टकार्ड मुझे मिला, जिसमें उन्होंने मेरी इस गजल को ‘‘हिन्दी भाषा की प्रतीक गजल’’ बताया तथा अपनी पत्रिका हेतु गजलें भेजने का अनुरोध किया.
1. धर्म का जयघोष हूं मैं युगपुरुष का छल हूं मैं
इन्द्र के हाथों में हूं और कर्ण का कुण्डल हूं मैं
2. इस सदी के हादिसों का राज घायल पल हूं मैं
चूड़ियां टूटी हुईं उतरी हुई पायल हूं मैं
30 जनवरी का लिखा मुझे उनका दूसरा पोस्टकार्ड मिला जिसमें उन्होंने लिखा थाः ‘‘गजल गरिमा में नुक्तों की प्रयुक्ति नहीं होती. यदि आप चाहें तो गजलें बिना नुक्तों के प्रकाशित की जा सकती हैं.’’ मैंने फौरन उन्हें फोन किया और कहाः ‘‘महोदय, नुक्ते हटाकर मेरी गजलें छापने की जुर्रत न करें. छपने की भड़ास से बालातर हूं. 80 से 85 तक उर्दू अखबारों (मिलाप, प्रताप, तेज, ट्रिब्यून उर्दू) तथा पत्रिकाओं (राष्ट्रीय सहारा उर्दू डाइजेस्ट, नया दौर आदि) में मय फोटो के छपा हूं. ‘सारिका’ जैसी हिन्दी पत्रिका में गजलें प्रकाशित हुई हैं. राजेन्द्र यादव के ‘हंस’ में छपता रहता हूं. संपादित गजल संकलनों तथा विशेषांकों में गजलें छपी हैं. मेरे लिए नुक्ते का प्रयोग महत्त्वपूर्ण है क्योंकि मैं किसी को जलील
(अधम/कमीना) लिखूंगा और नुक्ता हटाकर ‘जलील’ (सौन्दर्यवान) समझ लेगा.’’ जहां तक उर्दू का प्रश्न है तो मेरे दादा ने ‘तिलिस्मे होशरुबा’ और ‘फसानाए आजाद’ पहले पढ़े. ‘राजा भोज का सपना’ और ‘चन्द्रकांता’ बाद को पढ़े. मैं खुद उर्दू-पर्शियन जानता हूं. मेरी बेटी ने बी.ए. आनर्स पर्शियन से और एम.ए. उर्दू प्रथम श्रेणी में पास किया है. मेरी पत्नी उर्दू पढ़ लेती हैं. मुझे जितना प्यार हिन्दी से है उतना ही प्यार उर्दू से है.
एक सवाल आप विवेकशील गजलकारों और हिन्दी गजल के प्रतिष्ठित समीक्षकों व आलोचकों से पूछ रहा हूं कि क्या इस प्रकार की भाषाई संकीर्णता की मानसिकता हिन्दी गजल के परिवर्धन और विकास में सहायक होगी?
अंत में ‘शुद्ध हिन्दी में गजल कहने वालों’ और भाषाई शुचितावादियों से विनम्र आग्रह है कि वह मेरे इस लेख को पढ़ने के बाद तत्काल मां सरस्वती के चित्र के सामने यह सौगंध खाएं कि ‘‘यदि मेरे मुंह से अब कोई उर्दू का शब्द बोलचाल में भी निकला तो मैं अपनी जुबान काट कर तेरे चरणों में अर्पित कर दूंगा.’’
ऐसे नायाब गजल विशेषांक की प्रस्तुति के लिए धर्मेन्द्र गुप्त ‘साहिल’ साहब को पुनः एक बार बधाई!
सम्पर्कः 255, आर्य नगर,
काशीपुर (उत्तराखंड)-244713
मोः 9412152858
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