स्मरण जन्मशती पर विशेष : सुमन स्मरण पं. सुधाकर शर्मा प्रा तः स्मरणीय डॉ. शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ से मैंने दो बातें सीखी हैं- एक-अपनी प...
स्मरण
जन्मशती पर विशेष : सुमन स्मरण
पं. सुधाकर शर्मा
प्रातः स्मरणीय डॉ. शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ से मैंने दो बातें सीखी हैं- एक-अपनी पूर्ववर्ती पीढ़ी के प्रति अकूत श्रद्धाभाव रखना, और दो-अनुवर्ती पीढ़ी को प्रचुर स्नेह और प्रोत्साहन देना. अपने परम श्रद्धेय महाप्राण निराला के निधन पर सुमनजी ने जो मर्मस्पर्शी पंक्तियां लिखी थीं, मैं उन्हीं पंक्तियों को सुमन जी के प्रति आदरांजलि स्वरूप उद्धृत कर रहा हूं-
‘‘तुम जीवित थे तो सुनने को जी करता था,
तुम चले गये तो गुनने को जी करता है.
तुम सिमटे थे तो सहमी-सहमी सांसें थीं,
तुम बिखर गये तो चुनने को जी करता है.’’
मेरे पर पितामह स्वर्गीय मुंशी अजमेरी ‘प्रेम बिहारीजी’ के प्रति उनके मन में जो अगाध श्रद्धा थी, वह मैंने अनुभव की. मुंशी अजमेरी-जन्मशती समारोह, जो उस समय देशभर में मनाया गया, उसकी पृष्ठभूमि में पूज्य सुमनजी की सतत् प्रेरणायें, स्वयं आगे बढ़कर राह सुझाना, समस्या का निदान देना, मैं भूल नहीं पा रहा हूं. इस संदर्भ में मुझे सुमन जी के अलावा श्री नारायण चतुर्वेदी, डॉ. अमृतलाल नागर, डॉ. हरिवंशराय बच्चन, डॉ. धर्मवीर भारती सदृश अनेक मनीषियों का स्मरण हो रहा है, पर बात लम्बी खिंच जायेगी. ठीक इसी प्रकार का श्रद्धाभाव निराला जन्मशती के विविध राष्ट्रव्यापी आयोजनों की पृष्ठभूमि में भी विद्य रहा.
महामना मालवीयजी, चन्द्रशेखर आजाद, महात्मा गांधी, पं. जवाहरलाल नेहरू, मैथिलीशरण गुप्त, दिनकर, महादेवी, पंत, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी आदि के प्रति उनका श्रद्धाभाव भी सर्वविदित है. उल्लेखनीय तो यह भी है कि अपने समकक्ष मित्रों और वय में छोटे साहित्य-प्रेमियों के प्रति भी वे सदैव उदार रहे. मैं ऐसे अनेक मनीषी कवियों-लेखकों के नाम यहां ले सकता हूं, जिन्हें सुमनजी ने दुलारा, संवारा, सहयोग-प्रोत्साहन दिया पर उनके नाम गिनवाना मेरा उद्देश्य नहीं. अखिल भारतीय सुमन जन्मशती समारोह समिति के राष्ट्रीय संयोजक के नाते मुझे अनेक नामचीन लोगों से मिलने का अवसर प्राप्त हुआ. कई मीठे-कड़वे अनुभव भी हुए. किसी ने मुझे शेखचिल्ली कहा तो किसी ने यहां तक कह दिया कि जिनके पास अपना कुछ करने-धरने को नहीं होता वे ही ऐसे पचड़ों में पड़ते हैं. एक अन्य सुमन-प्रेमी ने कहा कि बन्धु, मैं केवल वहीं जा सकता हूं, जहां हवाई सेवा हो. पूछने पर पता चला कि जो आयोजक बुलायेगा, वह वायुयान का भार उठायेगा ही, यह तो सामान्य शिटता होगी. ऐसी तमाम बातें हैं जिनकी चर्चा यहां उपयुक्त प्रतीत नहीं होती. हां मैं एक नाम अवश्य लेना चाहता हूं, रतलाम की एक विदुषी लेखिका डॉ. शोभना तिवारी हैं, मैं इनसे बहुत प्रभावित हूं. आपके पास धन-साधन, सहयोगी हैं और आप भव्य आयोजन कर रहे हैं, आप स्तुत्य कार्य कर रहे हैं. परन्तु एक निजी स्कूल की सामान्य शिक्षिका; अपने निजी खर्चों में कटौती कर संपूर्ण वेतन को व्यय करते हुए अपने ही निवास के एक तल पर तीन वर्षों से बिना किसी आर्थिक अनुदान/सहायता के डॉ. शिवमंगल सिंह सुमन-स्मृति शोध संस्थान संचालित कर रही है तो यह अधिक प्रशंसनीय और उल्लेखनीय है. मैं समझता हूं कि डॉ. शोभना तिवारी का सुमनजी के प्रति अगाध श्रद्धाभाव ही इस तथ्य को प्रमाणित करता है कि पूज्य सुमनजी अनुवर्ती पीढ़ी को प्रचुर स्नेह और प्रोत्साहन देने हेतु कितने तत्पर रहे हैं.
हिन्दी में आजकल दो प्रकार के विद्वान पाये जाते हैं- 1. वे जो लिखा हुआ पढ़ते हैं और 2. वे जो पढ़ा हुआ लिखते हैं. सुमनजी सर्वथा मौलिक लेखक और सुकवि रहे हैं. उनकी सरल सुबोध भाषा-शैली, काव्य कथ्य, प्रस्तुति (तीनों ही) मनोहारी और विशिष्ट थे. जो लोग सुमनजी को मंचीय कवि कहकर अनदेखा करना चाहते हैं, वे वस्तुतः उनकी श्रेष्ठता-ज्येष्ठता के प्रति दुराग्रह रखते हैं. यह सच है कि हिन्दी मंचों पर उन्हें पूरे सम्मान और मनोयोग से सुना-सराहा गया पर सुमनजी ने आज के कवि सम्मेलनीय मंचों के स्तरहीन कवियों की तरह भोंडा काव्य-पाठ कर घटिया चुटकुले नहीं परोसे. उनकी कविताओं का हिन्दी मंचों से लेकर शैक्षणिक पाठ्यक्रम तक सम्मानजनक स्थान रहा. मुझे तो बहुत दिनों तक यह भ्रम बना रहा कि हिन्दी जगत में पूज्य सुमनजी से अधिक श्रेष्ठ वक्ता कोई अन्य हो ही नहीं सकता. यह भ्रम मेरा तब टूटा जब मैं महादेवी जी के सानिध्य में पहुंचा, उन्हें सुना-गुना. मैंने तब कहा भी कि, ‘‘दादीजी, आज मेरी एक मान्यता टूट गई, मैं समझता था कि सुमनजी से अधिक श्रेष्ठ और प्रभावशाली वक्ता हिन्दी में अन्य कोई नहीं होगा.’’ वे गंभीरतापूर्वक बोलीं, ‘‘ऐसी बात नहीं है, सुमनजी विद्वान हैं, पर तुम्हारी पीढ़ी का दुर्भाग्य यह है कि तुमने हजारीप्रसाद जी और निराला जी जैसों को बोलते हुए नहीं देखा-सुना. निराला जी बताते थे कि तुम्हारे परदादा (मुंशीजी) तो साक्षात देवगुरु ब्रहस्पति की भांति श्रोता-मंडल पर छाये हुए प्रतीत होते थे. यद्यपि मैंने मुंशीजी को कभी सुना नहीं, परन्तु दद्दा (मैंथिलीशरण गुप्त) भी उनके विषय में बताते-बताते भवुकतावश कभी तो फूट-फूटकर रो पड़ते थे और कभी बच्चों की तरह पुलक उठते थे. महादेवी जी से हुई इस भेंट के उपरांत मैं चिरगांव न जाकर सीधे लखनऊ जा पहुंचा, पूज्य सुमनजी को शब्दशः पूरा हाल सुनाया तो वे भी विनम्र भाव से कह उठे- अरे भाई, महादेवी से मेरी क्या तुलना? वे तो साक्षात् वाग्मूर्ति हैं. उन दिनों पूज्य सुमनजी लखनऊ के हिन्दी संस्थान में कार्यकारी अध्यक्ष हुआ करते थे.
निरालाजी और सुमनजी के रिश्ते हवा, पानी, मिट्टी और परिवेश के प्रगाढ़ रिश्ते थे. सुमनजी जितना उन्हें आदर देते थे वे उतना ही सुमनजी को स्नेह देते थे. ग्वालियर के साहित्यकारों ने सुमनजी से आग्रह किया कि आप निरालाजी को पत्र लिख दें तो वे आयोजन हेतु हमारा आमंत्रण स्वीकार कर लेंगे. सुमनजी ने सहर्ष पत्र लिख दिया. नियत समय पर निरालाजी ग्वालियर पहुंचे तो उन्हें रेलवे स्टेशन पर लेने आयोजन समिति के लोग पहुंचे. उनमें से किसी प्रमुख ने निरालाजी से सगर्व कहा कि ‘आप महाराजा ग्वालियर के राजकीय अतिथि हैं. आपको राजकीय अतिथि गृह में पूरे सम्मान के साथ ठहराया जा रहा है.’ निरालाजी ने पूछा, ‘तुम्हारा महाराज क्या साहित्यिक है?...नहीं, तो मैं उनके राजकीय भवन में आतिथ्य क्यों ग्रहण करूं? मैं सुमनवा के यहां ही रुकूंगा....’ और तमाम आग्रहों के बावजूद भी वे सुमनजी के छोटे से अभावग्रस्त कमरे पर ही रुके.
सुमनजी अपने वरिष्ठजनों के प्रति कितने विनम्र और समर्पित रहते थे, इसके अनेक उदाहरण मैं दे सकता हूं. एक विशेष संस्मरण याद आ रहा है, जो मैंने सुमनजी के मुखारबिन्द से ही सुना था. सुमनजी आचार्य बिनोबा भावे से मिलने पवनार आश्रम वर्धा पहुंचे, अपना ग्रीटिंग कार्ड बाबा की सेवा में भिजवाया, जिसमें लिखा था- ‘‘डॉ. शिवमंगल सिंह सुमन, हिन्दी विभागाध्यक्ष, माधव महाविद्यालय, उज्जैन.’ बाबा ने भेंट होने पर पूछा- ‘सुमनजी, आप हिन्दी पढ़ाते हैं? किस कक्षा को पढ़ाते हैं?’ सुमनजी ने कहा, ‘हिन्दी की सर्वोच्च कक्षा (एम.ए.) को पढ़ाता हूं.’ बाबा ने अपने स्थान से उठकर समीप ही रखी एक पुस्तिका उठाई, पन्ने पलट कर एक पद खोलकर सुमनजी के सामने रखते हुए कहा कि कबीर का यह पूरा पद समझ में आ गया, परन्तु एक शब्द समझ में नहीं आ रहा है. आप मुझे समझाने की कृपा करें. ‘‘दास कबीर जतन से ओढ़ी, जस की तस धर दीन्ही चदरिया’’ इसमें केवल ‘जतन’ शब्द समझ में नहीं आ रहा है. आखिर वह कौन सा जतन था, जिसे महात्मा कबीर ने जीवन रूपी चादर को जस का तस निष्कलुष रख दिया? सुमनजी ने बाबा के पैर पकड़ लिये, विनम्रतापूर्वक कहा- ‘मैं बच्चों को हिन्दी पढ़ाता हूं, आप जैसे तत्व वेत्ता को नहीं पढ़ा सकता.’
वाक्चातुर्य, प्रत्युत्पन्नमति, ऐतिहासिक ज्ञान और श्रुतियों, ऋचाओं, श्लोकों, पुराने कवियों के काव्यांशों का संदर्भ सम्यक उपयोग, संवेदनशीलता, भाषायीशालीनता आदि उनके अप्रतिम व्यक्तित्व को गढ़ते हैं. वे जब संस्मरण सुनाते थे तो स्वयं गौण और संस्कृत मूल होते थे. कवियों, लेखकों ही नहीं, संगीतज्ञों, गायकों, अभिनेताओं, नेताओं और खिलाड़ियों के संस्मरण भी सुनाते समय वे भावविभोर हो उठते थे. हाकी खिलाड़ी कैप्टन रूपसिंह और कैप्टन ध्यानचन्द के संस्मरण सुनाते समय तो मानो वे खेल के मैदान में ही सुनने वाले को पहुंचा देते थे. कैप्टन रूप सिंह ने हाकी से गेंद को ऐसी हिट मारी कि वह विक्टोरिया कॉलेज के बड़े मैदान को पार कर सीधे अंग्रेज प्राचार्य की खिड़की से जा टकराई और खिड़की का शीशा छन्न...से चकनाचूर हो गया. ‘छन्न’ शब्द को वे ऐसे सम्प्रेषित करते थे मानों अभी-अभी खिड़की का शीशा टूटने की ध्वनि करते हुए जमीन पर आ गिरा हो. उनकी संस्मरण सुनाने की कला अद्भुत ही थी. वे छोटी सी छोटी बात को भी अपनी गहन अध्ययनशीलता और वाक्पटुता से अनंत विस्तार दे दिया करते थे.
मेरे काकाजी (पं. गुणसागर शर्मा सत्यार्थी) कहते हैं कि सुधाकर में बन्दर प्रवृत्ति है. बन्दर को जरा सा चूमो-पुचकारो तो वह कंधे पर बैठकर बाल नोचने लगता है. पूज्य सुमनजी मेरे श्रृंगार गीतों को सुनकर तनिक सराहना कर उठे तो मैं अपनी बन्दर प्रवृत्ति के वशीभूत उनसे पूछा बैठा- ‘दादाजी, वासना पीछा क्यों नहीं छोड़ती?’ प्रश्न सुनकर सुमनजी स्प्रिंग लगे गुड्डे (खिलौने) की भांति कुर्सी से उछल कर उठ खड़े हुए, अपने छितराये बालों को दोनों हाथों से पकड़ कर आश्चर्यचकित स्वर में बोले, ‘अच्छा! कितनी वासना? वासना कितनी? क्या इतनी कि मूसलाधार बारिश में, घनी अंधेरी रात में विकट घनगर्जना और आकाशी बिजली की तड़तड़ाहट के बीच घर से निकल पड़ी? क्या इतनी कि भादों की उफनती हुई काली भयावनी जमुना में कूद पड़ी? मुर्दे को लक्कड़ समझ कर उसके सहारे पार उतर जाओ? सांप को रस्सी समझकर बिना किसी काल-बोध के खिड़की के रास्ते अपनी प्रियतम से प्रणय-निवेदन करने जा पहुंचा? यदि वासना इतनी है तो सुधाकर, सुमन तुम्हारा अभिनंदन करता है.’ मैं अब तक रोमांचित हूं. पूज्य सुमनजी के भावविदग्ध सारस्वत स्वरूप को, उनके आश्रयपूर्ण वरदहस्त को आज तक अनुभूत कर रहा हूं. वस्तुतः उनके साथ बिताये समय को, उनकी धाराप्रवाह (कभी गंगाप्रवाह तो कभी क्षिप्राप्रवाह) वाणी की अनुगूंज को अनुभूत कर रहा हूं. उनके विषय में जितना कहूं, जितना लिखूं, उतना ही कम होगा. उनका श्रऋास्मरण ही सुभाषीषवत् मार्ग प्रशस्त करता है. सचमुच वे प्रेरणा के कालजयी अजस्र स्रोत थे. सुमन स्मृतियों को अनंत प्रणाम! श्रद्धास्मरण!
सम्पर्कः अनुपम सदन, पं. विद्यासागर शर्मा मार्ग,
प्रेम नगर, बालाघाट (म.प्र.)-481001
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