जीवन न बने क्षेत्र ‘रण’ का डॉ. राजकुमार ‘सुमित्र’’ महत्वपूर्ण है ‘जन’ और ‘संख्या’ है अर्थपूर्ण. सम्पूर्णता मिलती है ‘जन’ को ...
जीवन न बने क्षेत्र ‘रण’ का
डॉ. राजकुमार ‘सुमित्र’’
महत्वपूर्ण है ‘जन’
और
‘संख्या’ है अर्थपूर्ण.
सम्पूर्णता मिलती है
‘जन’ को ‘संख्या’ से
और ‘संख्या’ को ‘जन’ से.
मन से
उठती है आवाज
कि आज
कितनी जनसंख्या देश की
क्या स्थिति है परिवेश की?
आज
भूख/बेकारी/गरीबी और
भ्रष्टाचार
हिला रहे हैं आधार
समृद्धि का,
कारण है
जनसंख्या वृद्धि का.
अधिक है क्षेत्रफल
कम है उपज और उत्पादन,
इसलिए
अभाव पीड़ित है
साधारण जन.
महंगाई सुरसा हो रही है.
खुशी उड़नछू हो रही है तो
जीवन न बने क्षेत्र ‘रण’ का
ध्यान रखना होगा
जनसंख्या नियंत्रण का.
संपर्कः 112 सराफा वार्ड, जबलपुर (म.प्र.)
मोः 09300121702
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दो गजलेंः शिवशरण दुबे
एक
अब तो हम बैसाखियों पर चल रहे
चौकड़ी भरने के दिन वे खल रहे
याद आते तो कुतरते जेहन को
दिन पुराने धीरे-धीरे ढल रहे
था समय, जब था पसीना इत्र-सा
आज अपने हाथ दोनों मल रहे
सब्र करना आजकल हम सीखते
फूल-से अहसास सारे जल रहे
तिलमिलाने के कई मौके यहां
दिल मिलाने के महूरत टल रहे
हम इशारों से चलाते थे जिन्हें
वे हमे हमदर्द बनकर छल रहे
था पिलाया दूध जिनको दूर से
हैं वही आस्तीन में अब पल रहे
दो
दफ्तर में बड़ा साहब औकात पूछता है
औकात से भी पहले वो जात पूछता है
बेटी बियाहने को भावी दमाद से
इक बाप आय-व्यय का अनुपात पूछता है
व्यापार खेती-बारी की बात न पूछे
किस ‘जॉब’ में है बेटा तैनात पूछता है
शादी के बाद दूल्हा दुल्हन से रात में
नैहर से मिली क्या-क्या सौगात पूछता है
देखा है एक खूसट को, नौजवान से
जो न बताई जाये वह बात पूछता है
मुंह पोपला है उसका, पर क्रूर मसखरा
कितने बचे हैं, भीतर के दांत पूछता है
बॉटल में रोज लाकर पापाजी क्या पियें
बच्चा ये प्रश्न मां से दिन-रात पूछता है
संपर्कः संदीप कॉलोनी, दमदहा पुल के पास, कटनी रोड, बरही-483770 (म.प्र.)
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मधुर नज्मी
जो लम्हे मुखातिब हुए मुझसे कल के
वही आज रंगी गजल बन के छलके
गुजरती है क्या गांव वालों के दिल पर
व्यथा उनकी समझेंगे गांवों में चल के
मोहब्बत की इक दास्तां कह रहे हैं
तखय्युल के शीशे में अल्फाज ढल के
गुजारिश यही है सभी हमजबां से
सियासत के सांपों से रहना संभल के
मुसलसल धुआं ही धुआं दे रहे हैं
सियासत के शोलों में एहसास जल के
जिन्हें आज रोटी के लाले पड़े हैं
उन्हें ख्वाब आते कहां हैं महल के
उसी के हवाले से सब कुछ कहा है
जो नश्शा अदब का चढ़ा हल्के-हल्के
मेरी फिक्र को मेरे एहसास को भी
समय ने छुआ किन्तु तेवर बदल के
खयालों के कुछ कुमकुमें हैं जो अक्सर
‘मधुर’ लफ्ज की हैं झंझरियों में झलके
सम्पर्कः ‘काव्यमुखी साहित्य अकादमी’ गोहना मुहम्मदाबाद, जिला-मऊ-276640
मोः 9369973494
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दो गजलें
साहिल
एक
एक साये से दूजे को जोड़ा होगा
और आहिस्ता से फिर आइना तोड़ा होगा
सिर्फ राहें ही नहीं मोड़ते हैं दीवाने
जानिबे-राह पूरा दौर भी मोड़ा होगा
हाथ काटे गये फिर भी जुझारू लोगों के
हाथ तूफान का दिन रात झिंझोड़ा होगा
झुर्रियां अपने ही चेहरे की न बरदाश्त हुईं
घर के माहौल को फिर यूं ही मरोड़ा होगा
दूर सहरा से निकलने के लिये लोगों ने
प्यास का रिश्ता सराबों से ही जोड़ा होगा
डूब जाता है जो बिंबों की रगों में तो क्या
शीशे के वास्ते वो शख्स भगोड़ा होगा
लहू के नाम पे साहिल न मिले कतरा तक
वक्त ने ऐसा हर इंसां को निचोड़ा होगा
दो
भीड़ में तनहाई की तकदीर हूं
खल्वतों की फैलती तदबीर हूं
सामने ही मंजिलें मकसूद है
और मैं घर लौटता रहगीर हूं
हौसला-अफजाई के इस दौर में
मैं हर अपने पांव की जंजीर हूं
नाज है मुझको कि मेरी खुद की है
चाहे बिल्कुल मांद सी तन्वीर हूं
आइना पहचान कैसे पाएगा
मैं बदलते वक्त की तासीर हूं
जक्ष्म-गम-आंसू-उदासी-ठोकरें
मैं सरापा दर्द की जागीर हूं
जंग ‘साहिल’ कैसे जीती जाएगी
मैं तो अब इक जंग-जूं शमशीर हूं
सम्पर्कः ‘नीसा’ 3/15, दयानंद नगर, वानिया वाडी, राजकोट-360002
मोः 9428790069
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गीत और मुक्तक
मधुर गंजमुरादाबादी
बहुत दिनों के बाद
गांव को आए गंगाधर
भुलभुल, कीचड़ धूल नहीं है
पक्की सड़क बनी.
पर न किनारों पर पेड़ों की
छाया कहीं घनीं.
दूर-दूर तक कहीं न दिखते
हैं छानी-छप्पर.
बैठ गया है कुआं न दिखता
यहां कहीं पनघट,
सूखी हुई नहर गुमसुम है
टूटा पड़ा रहट.
सबके चेहरों पर उतरा
सूखा-अकाल का डर.
जिसे देखकर उनके मन को
लगा बड़ा झटका,
चौराहे पर मधुशाला का
बोर्ड मिला लटका.
ठीक सामने मंदिर से
उठता कीर्तन का स्वर
मिले सभी से किन्तु किसी से
अपनापन न मिला,
झील पटी है, जलकुम्भी से
पंकज-वन न खिला.
सोच रहे हैं क्या पाया है
भला यहां आकर.
1.
काव्य में मुक्ति की लहर आई,
कितनों ने राह नयी अपनाई,
कुछ नहीं, गति न लय रही बाकी-
अब तो मुश्किल नहीं है कविताई.
2.
चाहते पाना यश गजल कहिए,
कुछ न कहिए कि बस गजल कहिए
छोड़िए तख्ती-बहर का झंझट-
एक क्या आप दस गजल कहिए.
3.
किसको मक्ता कहें किसे मतला,
आपके मन से भ्रम नहीं निकला,
काफिए की कहीं नहीं बन्दिश-
एक ही बस रदीफ है किबला.
4.
चुटकुले मंच पर उछालेंगे,
लोग बढ़कर गले लगा लेंगे,
गीत-नवगीत कौन सुनाता है-
हंस के साहित्य का मजा लेंगे.
5.
नीति-नियमों से इनको क्या लेना,
और उत्तर भी किसको क्या देना,
मन में आए करें वही मन की-
राज तो इनका ही यहां है ना.
6.
कैसे-कैसे हैं लोग दुनिया में,
जाने कितने हैं रोग दुनिया में,
त्याग को त्याग चुके हैं कब के-
जिनको करना है भोग दुनिया में.
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कविता
जब किसान आंसू बोता है
आचार्य भगवत दुबे
जब किसान आंसू बोता है
हर पौधा शोला होता है
कुटियों को नचवाया जाता
जश्न महल में जब होता है
हर चुनाव ने इसको लूटा
मतदाता फिर भी सोता है
लोकतंत्र फल-फूल रहा है
संविधान फिर क्यों रोता है
ग्रंथों से मोती बटोरता
गहन लगाता वह गोता है
ज्ञान नहीं खुद का भविष्य फल
बना ज्योतिषी जो तोता है
अंतर्मन का मैल न धोया
गंगा में तन को धोता है.
संपर्कः पिसनहारी-मढ़िया के पास
जबलपुर-482003 (म.प्र.)
मोः 09300613975
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कविता
चाहता हूं इस धरा पर
कार्तिकेय त्रिपाठी
चाहता हूं इस धरा पर
स्वर्ग को बसने भी दूं,
पनप रही शाब्दिक कटुता में
प्रेम के मैं रंग भर दूं,
सत्य की ही बात हो
और सत्य की ही जीत हो,
भूखे उर की चाह को मैं
पूर्ण संतुष्टि से भर दूं,
न बहे मदिरा की हाला
दूध, जल बहता रहे,
इस धरापर बेटियों का
कुनबा भी नित बढ़ता रहे,
सुख की हर एक कल्पना को
मैं यहां साकार कर दूं,
प्यार के रंगों में भरकर
खुशियों की बौछार कर दूं,
स्नेह, दया की पाखुंडी से
सब समर्पण मैं करूं,
जिन्दगी को जीने की
बस एक यही पहचान हो,
चाहता हूं इस धरा पर
सबके होंठों पर मुस्कान हो.
संपर्कः 117 सी. स्पेशल गांधीनगर,
453112 इन्दौर (म.प्र.)
मोः 7869799232
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कविता
एक निहोरा!
अभिनव अरुण
चलो नहरों से कह दें
गांव में कुछ दिन गुजारें
बहुत बेचैन से हैं
वर बने ये खेत सारे
रचे कोहबर हमारे आंगनों में
क्यारी क्यारी
महावर से सजे पगडंडियों के द्वार सारे
नहीं नदियों से हमको कुछ शिकायत
वो चाहे जाएं जा सागर को जी भर कर पखारें
हैं चिर आशीष उनको दे रहे
ये बीज सारे
ये सूखी पत्तियों पर
प्रेम पाती कौन लिखता
कि इतने आर्त्र स्वर में कौन लहरों को पुकारे
किसे बेचैन करती प्रेम कोंपल
जो ठूंठों पर कई रातें बिताते चांद तारे
भला किसको खबर किसको पता है
कि किससे कौन रूठा
कौन सोता है ओसारे
हमीं फिर से करें आदाब सारे और सीखें
चमन के भंवरे सारे फिर सुबह को चल पड़े हैं
तमाम रात की बंदिश बिसारे
चलो नहरों से कह दें
गांव में कुछ दिन गुजारें
बहुत बेचैन से हैं
वर बने ये खेत सारे
सम्पर्कः बी- 12, शीतल कुंज,
लेन-10, निराला नगर, महमूरगंज,
वाराणसी-221010 (उ.प्र.)
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कविता
चिर प्रतीक्षा
केदारनाथ सविता
मेरे मीत!
तुम आज भी नहीं आये
मैं पूजा की थाली लेकर
मंदिर में देर तक बैठी रही
मैं जानती हूं कि पहले तुम
मंदिर के घंटे की
एक धीमी आवाज पर
दौड़े चले आते थे,
तुम भी जानते हो
कि मैं मंदिर में
पूजा की थाली
भगवान के लिए नहीं लाती
मेरे देवता
तुम्हारे लिए लाती हूं,
केवल तुम्हारे लिए,
मेरे मीत.
मैं कल भी आऊंगी
और तुम्हारी प्रतीक्षा करूंगी
मैं जानती हूं
कि तुम कल भी नहीं आओगे
कभी नहीं आओगे
मगर मैं इसी मंदिर में
प्रतिदिन तुम्हारी प्रतीक्षा करूंगी
प्रतीक्षा...चिर प्रतीक्षा.
संपर्कः लालडिग्गी थाना रोड,
सिंहगढ़ की गली, नई कालोनी,
मीरजापुर-231001 (उ.प्र.)
मोः 05442-64389
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डॉ डी एम मिश्र की चार गजलें
1
ख्वाब सब के महल बंगले हो गये.
जिंदगी के बिंब धुंघले हो गये.
दृष्टि सोने और चांदी की जहां,
भावना के मोल पहले हो गये.
उस जगह से मिट गयीं अनुभूतियां,
जिस जगह के चाम उजले हो गये.
आसमां को जो चले थे रोपने,
पोखरों की भांति छिछले हो गये.
कौन पहचानेगा मुझको गांव में,
इक जमाना घर से निकले हो गये.
2
आदमी देवता नहीं होता.
पाक दामन सदा नहीं होता.
कब, कहां, क्या गुनाह हो जाये,
ये किसी को पता नहीं होता.
आदमी आसमान छू सकता,
वक्त से, पर बड़ा नहीं होता.
काम का बस जुनून चढ़ जाये,
उससे बढ़कर नशा नहीं होता.
टूटकर हम बिखर गये होते,
साथ गर आपका नहीं होता.
जब तलक आंख नम न हो जाये,
हक गजल का अदा नहीं होता.
3
जिनके जज्बे में जान होती है.
हौसलों में उड़ान होती है.
जो जमाने के काम आती है,
शख्सियत वो महान होती है.
सबको क़़़ुदरत ने बोलियां दी हैं,
आदमी के जुबान होती हैं.
ये परिन्दे भी जाग जाते हैं,
भोर की जब अजान होती है.
सब किताबें हैं बाद में, पहले,
भूख की दास्तान होती है.
हम मुसाफिर हैं रुक नहीं सकते,
पांव में बस थकान होती है.
4
प्यार मुझको भावना तक ले गया.
भावना को वन्दना तक ले गया.
रूप आंखों में किसी का यूं बसा,
अश्रु को आराधना तक ले गया.
दर्द से रिश्ता कभी टूटा नहीं,
पीर को संवेदना तक ले गया.
हारना मैंने कभी सीखा नहीं,
जीत को संभावना तक ले गया.
मैं न साधक हूं, न कोई संत हूं,
शब्द को बस साधना तक ले गया.
अब मुझे क्या और उनसे चाहिए,
एक पत्थर, प्रार्थना तक ले गया.
सम्पर्कः 604, सिविल लाइन, निकट राणा प्रताप पी जी कालेज,
सुलतानपुर-228001
मोः 09415074318
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अभिनव अरुण की दो गजलें
1
बंद दरवाजे देखे घर घर के.
कैसे जीते हैं लोग मर मर के.
है सुकूं उनको भी नहीं गोया,
जी रहे जो फरेब कर कर के.
हमने तर्पण किया है मूल्यों का,
अपनी अंजुरी में रेत भर भर के.
आदमी दास है मशीनों का,
हैं नजारे अजब शहर भर के.
हर गली मोड़ पर तमाशा है,
देखता हूं ठहर ठहर कर के.
किस शहर में हमें ले आये मियां.
लोग मिटटी के घर हैं पत्थर के.
हाथ में उसके जाल भी देखो,
देखते हो जो दाने अरहर के.
दांव पर कौन है लगा बोलो,
किसकी मुट्ठी में पासे चौसर के.
आज भी द्रौपदी है सहमी सी,
ढंग बदले हुए हैं शौहर के.
हमने शेरों में खुदा को देखा,
तुमने देखे लिबास शायर के.
2
दुश्मनी सबसे पुरानी है तो है.
मेरी आदत खानदानी है तो है.
झूठ को मैं झूठ कहता हूं सदा,
गर ये मेरी बदजुबानी है तो है.
तुझमें देखे पीर देखे औलिया,
मां तेरा चेहरा नूरानी है तो है.
मेरे आंगन बारिशें होती नहीं,
फिर भी फस्ले जाफरानी है तो है.
बा अदब वो शेर पढ़ते हैं मेरे,
फिक्र ही मेरी रुहानी है तो है.
गुलशनों की सैर मैं करता नहीं,
शेर में खुशबू लोबानी है तो है.
चापलूसों को नवाजा जा रहा,
आप की ये हुक्मरानी है तो है.
खौलता हूं जुल्म होता देख कर,
पागलों की ये निशानी है तो है.
इस सियासत से मिला है क्या भला,
पर यही चादर बिछानी है तो है.
आप बिरयानी उड़ायें शौक से,
अपने हिस्से भूसा सानी है तो है.
सैकड़ों करते बसर फुटपाथ पर,
ये तरक्की की निशानी है तो है.
चांदी की चौखट है सोने का पलंग,
आपकी किस्मत सुहानी है तो है.
गांव की संसद करे हर फैसला,
ख्वााब ये भी आसमानी है तो है.
ये अदब तहजीब से वाकिफ नहीं,
सर्फ होती नौजवानी है तो है.
बांध तुमने बांध डाले सैकड़ों,
अब ये गंगा सूख जानी है तो है.
लाल कर देगा जमीं को छोर तक,
खून में मेरे रवानी है तो है.
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" रविवार 06 मार्च 2016 को लिंक की जाएगी...............http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
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