1. बड़े मजे से पत्थरों पे सो लेते अगर मेहनत कर के थके होते .... न भरते पेट को तिजोरी सा तो ट्रेडमिल पर क्यों खड़े होते .... उन की मखमूर आँखो...
1.
बड़े मजे से पत्थरों पे सो लेते
अगर मेहनत कर के थके होते ....
न भरते पेट को तिजोरी सा
तो ट्रेडमिल पर क्यों खड़े होते ....
उन की मखमूर आँखों की कसम
गर न पीते तो उबर गए होते .....
जो होता खुदा का रहमो करम
अपने दिन भी संवर गए होते ......
बहुत कुछ कर गुज़रना बाकी है
वरना कब के मर गये होते ......
न पीते हम तो क्या जीते
हादिसों में गुज़र गए होते .....
गर मेहनत से डर न गए होते
ज़िंदगी में कुछ बन गए होते ........
2.
दर्द के बिस्तर में जब रात मुकर जाती है ,
नींद जब निष्ठुर हो जाती है तो उठ जाता हूँ,
यादों में पैबस्त हैं कुछ सर्दिया
उन को सोचता हूँ .. ठिठुर जाता हूँ
कुछ दिनों तन्हा छोड़ देता हूँ "कविता "को
पर इस का भी कोई नहीं मेरे पास चली आती है!
3.
मुझे उन से कोई गिला नहीं
मुझे जिन से ज्यादा मिला नहीं
ये तो अपना अपना नसीब है
तुम्हें ये मिला नहीं मुझे वो मिला नहीं .....
4.
पलायन
गडरिये अब खुश नहीं हैं
अपने आप से
उकता गए हैं भेड़ की बदबू
और हालात से!!
बिल्डर, धनवान की घात से
बची नहीं जगह भेड़ों के वास्ते
न है कोई अमराई न चिकाड़े की तान
कम हो रहे
खेतिहर मजदूर और किसान
शहरीकरण दे रहा
दस्तक गाँव की दहलीज पर
बदल गए रीति रिवाज, खेल कूद
गाँव में घुल गई है गर्म हवा
आधुनिकता और शहरीकरण की गर्द
गुस्से में सूर्य है अधिक गर्म और जर्द
बची नहीं हरियाली न स्वच्छ हवा
गाँव नहीं रहे प्रदूषण और संक्रमण से जुदा!
खेत हैं बाबस्ता प्लास्टिक और पालिथीन से
नदियाँ हैं मालामाल गंद और कीचड़ से
नाले हैं अटे हुए शहरी कचरे से
सड़कें हैं खोई कहीं गड्ढों और गुबार में
आदमी बस तड़प रहा
प्रदूषित इस संसार में !
किसान को पछतावा है
अवसरों के छूट जाने का
इस लिये सुलग रहा है अंतर और आँचल
क्षुब्ध है मजदूर और किसान
पलायन है शहर की ओर
बनाने नई पहचान !
5.
बहुत दिनों से बेचैन थी तबीयत
मुद्दतों बाद नींद आयेगी ....
बहुत उदास और मायूस थी जिन्दगी
अब ग़मों की धुंध छटक जायेगी .....
एक शेर रूह में करवटें बदलता रहा
लगता है नई ग़ज़ल कही जायेगी.......
मुन्तजिर थे हम जिन के कभी
उन की आमद ही से रूह चैन पायेगी .....
वे जो खुद को जानते ही नहीं
उन्हें ये दुनियां क्या जान पाएगी......
जिन्हें याद रखने की हसीं वजूहात हों
उन्हें ये ज़िंदगी कैसे भूल पाएगी......
6.
मेरे शहर का मिजाज़
कोई बतला दे कैसा है मेरे शहर का मिजाज़ ,
यह एक ही करवट में है क्यों अटका हुआ ,
हाथी वाली गली भी वहीं
पूरन हलवाई की दूकान भी वहीं ,
मेरे दोस्त -हमराज पुतन्ने भी वहीं
मेरे रिश्ते नातेदार भी वहां
लावेला चौराहा भी वहां
कचहरी की भीड़ और बंदरों के उत्पात
कल भी थे आज भी है वहां
रोडवेज़ और प्राइवेट बस स्टैंड की गहमा गहमी
एस के कालेज के सामने का कब्रिस्तान और बेरीयाँ
सड़क के उथले गहरे गड्ढे
रेल लाइन पार का सिकुड़ता मैदान भी वहीं
छह सडक भी वहीँ और
सिमटता गांधी ग्राउंड भी वहीं
काली सड़क और बिरुआ बारी का मन्दिर भी वहीं
सब कुछ तो है वैसा ही जैसे पहले हुआ करता था
हाँ कुछ बदरंग और बदहाल जरुर
बस नहीं है तो कुछ बुजुर्ग, सखावत की बिल्डिंग –और
पुराने कुछ यार दोस्त , संगी साथी
पटियाली सराय का चुंगी स्कूल
उस के नीचे कमले मोची की दूकान
बाकी तो शहर जैसे ५० साल से नींद में है
कई तो बतला दे इस शहर का मिजाज़
कब और कैसे बदलेगा ?ये नींद से कब जागेगा ?
कई दशकों से ये हड़ताल पे क्यों है बैठा हुआ ?
7.
चुप रहने की सज़ा पाता हूँ
और झूठ मैं बोल नहीं पाता हूँ ....
अपनी बातों में मिलावट जो नहीं
मुश्किलों में इसलिए घिर जाता हूँ ...
उन से कुछ मांगने में सकुचाता हूँ
दर्द अपने उनकी आँखों में देख पाता हूँ ....
रोज़ होता है भगवान् से सामना अपना
उन के और तकदीर के आगे मैं झुक जाता हूँ ...
8.
नई ग़ज़ल
हम हैं तुम हो और शगुफ्ता तन्हाई भी
मोहब्बत की बात करें कि रात जाती है...
नजदीकियों में भी दूरी का हो रहा एहसास,
नए पैमाने सजाओ कि रात जाती है.......
जामो मीना जो खाली हैं तो कोई बात नहीं ,
अपनी आंखों से पिलाओ कि रात जाती है ....
वो रूबरू हों तो सामने जाम क्यों कर हो,
कोई ये गिलास हटाओ कि रात जाती है....
ये हसीन ग़ज़ल कौन कह गया शायर ,
तुम उस का नाम बताओ की रात जाती है....
9. कंधे पे रख के खाव्बों का जुआ
न जाने कब पैंतालीस का हुआ .....
उठता जगता तो हर रोज़ था ,
महसूस अब जा के ज़िंदा हुआ ....
मैं जानता था यहीं है सपनों का जहां
ताउम्र जिसे ढूंढ़ता मैं घुम्मकड़ हुआ ....
कहता रहा मैं पर कोइ मानता न था
जानोदिल पर मेरे जो फितूर था छाया हुआ ...
सवाल रोजी रोटी का न है न पहले कभी रहा
ये तो यक्ष प्रश्न मेरे अस्तित्व का हुआ ......
हो पूरी हर ख़्वाब हर इल्तिजा
दिल से निकलती है बस यही दुआ ......
10.
भीड़
भीड़ कहाँ सोचा करती है
भीड़ नहीं सोचा करती है
पकड़ो पकड़ो का शोर हुआ
और लगे दौड़ने दर्जनों पग डग में
मची उधर कुछ चीख पुकार
धर पकड़ा जो भाग रहा था
शुरू हुई जूतम पैजार!
किस को फुर्सत किससे पूछे
क्या है माजरा ?क्यों कर रहे अत्याचार
मगन रहे सब हाथ सेंकते
नहीं सुनी गई कोई गुहार
ठोंक पीट ढीला कर डाला
दिए सारे वस्त्र उतार!
पता नहीं किसी को, क्यों मारा
क्या था उस जन का अपराध
भीड़ तो बस धुन में रहती है
जो मिल जाए धुन देती है
कितने ही मारे जाते हैं
कितनी संपत्ति लुट जाती
भीड़ के हाथों फुंक जाते हैं
जन धन की कितनी हानि होती है !
भीड़ कहाँ सोचा करती है
भीड़ नहीं सोचा करती है
भीड़ तो बस डरा सकती है!!
मेरे प्रियवर मुझे बताओ
तुम क्यों इस का हिस्सा होते हो ?
इस की जब पहचान नहीं है
इस की कोई शिनाख्त नहीं है
इस को सजा नहीं होती है
जहां भीड हो तुम मत जाना
इसके रस्ते से कतराना
ये ठहरी संवेदना शून्य
भीड़ तो विचार विवेक से परे है
भीड़ तो बस अनिष्ट करे है !!
11.
जिन्दगी में नाकामियों की शिकायत नहीं है
बेवजह खुश होने की रवायत नहीं है !
अपने दम पर जो है मुकाम हासिल
किसी रहमो -करम की ख्वाहिश नहीं है!
मुश्किलों और हादिसों का हूँ पाला
कोई सूरते हाल दिल अब दुखाती नहीं है !
मैं करता हूँ दिल की जो है मेरे बस में
ये उस की मर्जी जो इनायत नहीं है!
--
स्वराज सेनानी,
टाइप V/1 रेसिडेंशियल काम्प्लेक्स,
NIANP, आडूगुड़ी, बेन्गालोरू-56030
शब्दों की कमी सी पड़ गयी है...आपके सभी शीर्षकों को ध्यान में रखकर टिप्पणी करना भी मेरे लिए काफी कठिन सा पड़ गया है . भीड़ जैसी आपकी काव्य रचना वर्तमान सन्दर्भ में काफी महत्वपूर्ण स्थान रखती है. आपकी यह कविता भाव पूर्ण, रूचि पूर्ण और काफी शिक्षाप्रद भी है ...पढवाने के लिए आभार
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