पटाक्षेप / कहानी / विनीता शुक्ला

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एक अनजानी कसक घुल उठी थी फिजांओं में... शाम ढल रही थी और डूबते सूरज के साथ, मानों दिल भी डूबा जा रहा था. महक खिड़की से बाहर, परिंदों की कतार...

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एक अनजानी कसक घुल उठी थी फिजांओं में... शाम ढल रही थी और डूबते सूरज के साथ, मानों दिल भी डूबा जा रहा था. महक खिड़की से बाहर, परिंदों की कतार को देख रही थी; नन्हे नन्हे पंखों की जोश भरी उड़ान ! आसमानी फलक पर, ताम्बई, नारंगी और सलेटी रंगों के सैलाब... बादलों के बनते बिगड़ते बिंब... उनमें सिन्दूरी रश्मियों की सेंध! फिर फोन आया था, मां का. कह रहीं थीं- “डॉक्टर समीर बहुत अच्छा लड़का है. तुम दोनों की जोड़ी बहुत जमेगी.” पर उसने हमेशा की तरह टाल दिया. सुरमई शाम का तिलस्म, उसके भीतर हलचल सी पैदा कर रहा था. मन भागकर कहीं और चला गया- जहां समुद्र की उत्ताल तरंगे, तटबंधों से टकराकर; फेन की शक्ल ले लेतीं... दूर तक उछलकर बिखरते दूधिया मोती! वहीँ तो मिला था ईशान उससे.

कितनी यादगार थी वह मुलाक़ात! उस दिन महक, भतीजे नमन के साथ वहाँ पहुंची . पहले दोनों ने बालू का घर बनाया; फिर लहरों पर, गेंद उछालने और पकड़ने लगे. खेल बहुत मजेदार था. इतने में एक लहर आकर गेंद को बहा ले गयी. नमन रोने लगा, “बुआ प्लीज़ मेरी बौल लाकर दो”

“बेटा ...जाने दो उसे. मैं दूसरी ला दूँगी- इससे भी अच्छी!” उसने समझाने की कोशिश की थी. “नो नो ...आई वांट माय बौल! हमारे बेस्ट फ्रेंड ने गिफ्ट की थी हमें!!” अपने भतीजे को कलपते देख, बुआ की भी मति मारी गयी. उसने सोचा, ‘थोड़ी दूर आगे जाकर देखती हूँ. शायद गेंद, तरंगों के साथ बहकर; वापस आ रही हो.’ जैसे ही महक आगे बढ़ी; उफनती हुई जलराशि ने, उसे असंतुलित कर दिया. हाथ- पैर मारने से कोई लाभ न था. उसको तैरना कहाँ आता था! फिर तो, टूट पड़ा था- सागर का कोप!! इसके बाद कुछ भी याद नहीं महक को.

होश आने पर पाया कि उसकी देह, दो बलिष्ट भुजाओं पर टिकी हुई थी. तभी नमन की सुबकियां सुनाई दीं और उसने उठने का यत्न किया; पर किसी जादुई मुस्कान ने, बाँध लिया था उसे, “लेटी रहिये; उठने से कमजोरी आ सकती है....आप अपने घर का फोन- नंबर बता दें, मै बुलाता हूँ- आपके घरवालों को.’ महक ने क्षीर्ण स्वर में भैया का मोबाइल नम्बर, उस युवक को बताया था. उसने बड़ी ही भलमनसाहत से, अपने सेल- फोन पर भैया को कॉल किया. दस मिनट में ही; बौखलाए से भैया- भाभी, उधर आ गए थे. दोनों ने महक को सहारा देकर, कार की बैक- सीट पर लिटाया और नमन को साथ बैठा दिया.

तब भैया, ईशान से मुखातिब हुए थे, “मैनी थैंक्स टु यू यंग मैन...आज अगर तुम न होते तो...!!” इस पर वह विनम्रता से कह उठा, “सर यह तो मेरा फर्ज था...आपकी बहन की जगह कोई दूसरा भी होता तो...” उसकी मोहक हंसी ने, भैया पर भी जादू सा कर दिया था. वे उसे अपना विज़िटिंग कार्ड थमाते हुए बोले, “माइसेल्फ कैप्टन रंधीर शर्मा. ये मेरी पत्नी वर्षा, बेटा नमन और ...मेरी बहन से तो तुम मिल ही चुके हो” कहते कहते उन्होंने कनखियों से महक को देखा. बहन के चेहरे पर उतर आई लाली, दूसरा ही संकेत दे रही थी. उनकी छठी इन्द्रिय ने भी उनसे कुछ कहा. झट उन्होंने ईशान को, चाय का न्यौता दे डाला.

शर्मा परिवार में, ईशान का आना- जाना शुरू हो गया. नमन की भोली बातें, वर्षा भाभी की आत्मीयता, रंधीर सर की खुशमिजाजी...और इन सबसे बढ़कर- महक का आकर्षण! कोई अज्ञात शक्ति उसे वहाँ खींचती. महक और ईशान का आपसी लगाव, छुप न सका. रंधीर ने सब देखा सुना; और मन में तय किया कि महक का बी. ए. कम्प्लीट होते ही, दोनों की सगाई कर देंगे. पर विधि को कुछ और ही मंज़ूर था! दोनों परिवार मिले. आपस में घुलमिलकर बातें भी हुईं. सम्बन्ध लगभग तय सा था. भावी समधी और समधनों को, एक –दूजे का मुंह मीठा कराना था. ईशान की नानी को वहां लाया गया और वे लड़की वालों से रूबरू हुईं. इस बीच ना जाने क्या हुआ कि उनकी भंवें तन गयीं; वे चुपचाप भीतर चली आयीं.

आगे का घटनाचक्र, इस तरह घूमा; जिससे कप्तान रंधीर और उनके परिवारजन हैरान रह गये. बारी बारी से नानी ने, अपने करीबियों को अंदर बुलाया और उनके कानों में, ऐसा कोई मन्त्र फूँका कि बनती बात बिगड़ गयी. ज्यों सांप सीढ़ी के खेल में, सौंवें पायदान तक पहुँचते पहुँचते ‘99’ वाला सांप डंस लेता है और खिलाड़ी अर्श से फर्श पर आ जाता है. ईशान के पिता ने दार्शनिक जैसा चेहरा बनाते हुए, महक के डैड से कहा, “रासबिहारी जी, ये जीवन बहुत अजीब हैं...इंसान सोचता कुछ और है और होता कुछ और है. हम रिश्ता फाइनल करने जा रहे थे; पर लगता है कि थोड़ा विचार कर लेना चाहिए...फैसला होते ही- आपको इत्तला कर देंगे” कहते हुए, उन्होंने डैड की तरफ हाथ बढ़ाया.

मामला उलझ गया था. कन्या पक्ष को तो जैसे सांप सूंघ गया हो; वक्त की दिलफरेब चाल ने, उन्हें बेबस कर दिया. आश्चर्य तो यह था कि ईशान भी महक से मुंह चुरा रहा था. घर पहुंचकर महक कटे वृक्ष सी पलंग पर ढह गयी. कुछ देर बाद, उसे दीन दुनियाँ की सुध हुई और उसने ईशान के मोबाइल पर फोन किया. किन्तु यह क्या- ईशान ने कॉल को डिसकनेक्ट कर दिया! महक ने फिर कई बार, सम्पर्क साधने की कोशिश की. लेकिन सब बेकार! लगता था ईशान ने उसका नम्बर ही ब्लाक कर दिया था. ईशान के परिवार का रुख देखकर, धीरे धीरे, रंधीर ने समझ लिया कि यह विवाह नहीं होने वाला. अब तो परिस्थिति से समझौता करना ही उचित था. वर्षा भाभी ने महक को दिलासा देना चाहा. कई बार वह मुद्दा खोलने की कोशिश भी की लेकिन उसने साहस के साथ, भाभी को रोक दिया.

महक ने अकेले ही, अपने बिखरे वजूद को सहेजा था. आगे की पढ़ाई जारी रखकर, चित्रकारी के अपने शौक को संवारा- निखारा. अब तो उसकी अपनी पेंटिंग्स की, एग्ज़िबीशन होनी थी. ऐसे में ईशान की याद सता रही थी. वह मुंह से तो कुछ न कहती; किन्तु उन कृतियों में, अधूरे प्रेम की व्यथा आकार ले लेती. कैनवास पर छिटके रंग, और ब्रश के स्ट्रोक्स, टूटे दिल का हाल बयां कर ही देते. आर्ट गैलरी के अपने स्पेस में, वह तस्वीरें लगवा रही थी. हर तस्वीर से जुड़ी कोई न कोई दास्ताँ जरूर थी, जो महक के मन में कौंधती रहती. जो हो- महक ने खुद को भुलाकर यह काम किया था. उत्साह कुछ ऐसा कि हाथों से अभी तक, आयल पेंट्स के निशान मिटे नहीं.

प्रदर्शनी का उद्घाटन, सुविख्यात चित्रकार मणिदीपा द्वारा किया गया. समारोह की औपचारिकताएँ निभायी जा रही थीं किन्तु महक सबसे असम्पृक्त, अपने ही रचना- संसार में डूब- उतरा रही थी- प्रपातों को घेरे हुए बौने पहाड़, दूर कहीं क्षीर्ण सी जलराशि, मेघों का पर्वतीय अंचल में तिरना, हिमशिखरों से टकराकर, संघनित होना, समन्दर के दामन पर, झरती हुई रोशनी! मुंबई व समीपवर्ती पर्यटक स्थल; उनका विराट प्राकृतिक वैभव, खंगाल डाला था- सृजन के नवहस्ताक्षरों ने!! वह ईशान के ही साथ तो गयी थी उन राहों पर...ऊबड़- खाबड़ पगडंडियों पर बंजारन बन डोलती फिरी. कुदरत की वादियों में बसी वे यादें, रंगों और आकृतियों में उभर आई थीं. स्मृतियों का विस्तृत पटल, तूलिका के संस्पर्श से, जीवंत हो उठा. वहां कहीं उम्मीद की चमक थी तो कहीं गहरी, निस्पंद उदासी!

“अच्छा काम किया है...कौन है ये आर्टिस्ट?” गैलरी के दूसरे चित्रकारों से मिलकर, अंत मे मणिदीपा, महक के पास तक आयीं. साथ चल रहे कलाकारों से उनका यह प्रश्न, महक को होश में ले आया. “जी मैम...यह मेरे ही...आई मीन...” महक ने कुछ चौंकते और हकलाते हुए बोला. “योर पेंटिंग्स आर क्वाइट गुड...आप इतना घबरा क्यों रही हैं मिस- व्हाट शुड आई कॉल यू?!”

“माइसेल्फ महक शर्मा” महक ने सकुचाकर कहा. “प्रोग्राम के बाद टाइम मिले तो हमसे मिल लीजिएगा. नई आर्ट टेकनीक्स के बारे में, बात भी हो जायेगी”

“माय प्लैज़र मैम !!” महक की खुशी का ठिकाना ना था. मणिदीपा के बाद, अन्य कला रसिक वहां आ- जा रहे थे दिन ढलने के साथ, प्रदर्शनी कक्ष बंद होने वाला था. महक, मणिदीपा को खोजने लगी. संभवतः उसके चित्रों के कलापक्ष को लेकर कुछ कहें. उनसे मार्गदर्शन तो बिरलों को मिलता होगा. गैलरी के बाहर, प्रशंसकों से घिरी मणिदीपा ने ना जाने कैसे महक को देख लिया, “तो मिस शर्मा...कैसा रहा आपका दिन?” वे अपने मोहक अंदाज़ में बोलीं. “जी वो...” महक के शब्द लड़खड़ा गये. भीड़ के सम्मुख, कलाशिल्प की बात छेड़ना, असम्भव जान पड़ा. वहां से जाने को, पग मोड़े ही थे कि उन्होंने रुकने का संकेत दिया.

जल्दी जल्दी लोगों को निपटाकर, वह उसे सामने वाले बगीचे में ले आयीं. वे दोनों वहां, एकांत में चर्चा कर सकती थीं. बैठने को उधर, एक पुरानी बेंच भी दिख गयी. मणिदीपा से, कला की बारीकियों पर बात हुई. महक मानों दूसरे ही लोक में थी; एक प्रतिष्ठित चित्रकार, उसे अपने अनमोल सुझाव दे रही थी! अनगढ़ प्रतिभाओं को, ऐसे ही अवसर तो चाहियें. वार्तालाप के अंत में, उन्होंने उससे पूछा, “एक निजी सवाल कर सकती हूँ...आपकी ज्यादातर पेंटिंग्स में, विरह की तड़प दिखाई देती है- क्यों, किसलिए?!” प्रश्न सरल था और पूछने का ढंग भी स्वाभाविक, फिर भी महक असहज हो गयी. तीव्र बुद्धि मणिदीपा ने, परिस्थिति को भांप लिया और शीघ्रता से बात पलट दी, “आपके परिवार में कौन कौन है?” इसके पहले कि कोई उत्तर दिया जाता, किसी ने पुकारकर कहा, “मासी! ... ओह आप यहाँ हैं मासी!! कबसे ढूंढ रहा हूँ आपको”

“यहीं हूँ बेटा...ज़रा इधर तो आओ” मणिजी ने, अपेक्षाकृत ऊंचे स्वर में बोला. “आता हूँ” वह आवाज़ सुनकर महक सिहर उठी . “एक्सक्यूज़ मी” उसने कहा और उठ खड़ी हुई. मणि का पूरा ध्यान अपने भांजे पर था, इसी से महक को जाते हुए ना देख सकीं. आगन्तुक का चेहरा भी दूसरी तरफ था; लिहाजा बचकर निकलना आसान हो गया. वह हौले हौले, वृक्षों की ओट में, छिपते छिपाते चल पड़ी. सहसा पीछे से मणिदीपा आ गयीं और उसका हाथ पकड़कर रोक लिया. “यू आर वैरी शाय डिअर... हमारे भांजे से तो मिली ही नहीं” महक की सांस मानों रुक सी गयी! पीछे मुड़ी तो पाया, ईशान उसके ठीक सामने खड़ा था!! मासीजी अपने भांजे का, जोशखरोश से, तार्रुफ़ करा रही थीं, “मीट माय नेफ्यू ईशान...भांजा है पर बेटे से कम नहीं!”

ईशान और महक- दोनों की आँखें जड़ हो गयी थीं...वे एक दूजे को देखकर भी, नहीं देख रहे थे! समय थम गया- नियति के क्रूर उपहास से, निबद्ध होकर!! मणि ने ईशान और महक पर दृष्टिपात किया. माहौल में सनसनी सी थी वे स्थिति की गम्भीरता को समझ गयीं. युवा- द्वय की भंगिमाएं, निःशब्द, किसी अनाम व्यथा को बांच रही थीं. “मिस शर्मा” उन्होंने सामान्य होने का प्रयत्न किया, “मेरा कार्ड रख लो. कभी फुर्सत हो तो...” अंतिम वाक्य उन्होंने जानकर अधूरा छोड़ दिया. ‘मिस शर्मा’ ने सायास, खुद को सहेजा और विज़िटिंग कार्ड पर्स में रख लिया. “थैंक यू मैम” वह शून्य में तकते हुए बुदबुदाई. ईशान का मुख पीला पड़ गया था; किन्तु मणि जी ने अनदेखा कर दिया. अपनी मारक हंसी से वार करते बोलीं, “तुम्हारा भी कोई कार्ड- शार्ड हो तो हमें दे दो...कोई कांटेक्ट नंबर, ई -मेल या फिर...”

महक ने एक चिट पर, अपना मोबाइल नंबर लिखकर, उन्हें दे दिया. “तुम बगल वाले लेडीज हॉस्टल में रहती हो- देट ओनली यू टोल्ड...इज़िंट इट?” वे सधे हुए अंदाज़ में पूछ रही थीं. महक बोल ना सकी; दिल बेतरह कसक जो रहा था. उसने सिर हिलाकर मूक सहमति दे दी. “ओके सी यू समटाइम्स” मणिदीपा ने ‘बाय’ की मुद्रा में, हाथ उठाया. उसका हाथ भी यंत्रवत, हवा में लहरा गया. धीरे धीरे मणि और ईशान, दृष्टिपथ से अदृश्य हो गये. महक भी थके कदमों से, छात्रावास की ओर चल पड़ी. आज उसे रहरहकर मां की याद आ रही थी. मां के जाने के बाद, पिता का विशाल बंगला, उसे कभी घर नहीं लगा. वहां नौकरों की फ़ौज थी, सुविधाएँ थीं; तो भी विरक्ति सी होती. वर्षा भाभी का साथ, उसे अच्छा लगता था पर ईशान से ‘ब्रेकअप’ के बाद, वहां जाने को जी नहीं करता.

हॉस्टल के कमरे में महक, एकाकीपन से जूझती रही. विचारों का बवंडर, उसके अंतस में घुमड़ रहा था. किसी काम में मन नहीं लग पाया. रात आँखों में कटी. सुबह खुद को ठेलकर उठी. रविवार होते हुए भी, बाहर जाने को जी नहीं किया. बेमन से खाया पिया और बिस्तर पर पड़ रही. सूरज के संग, नींद की खुमारी भी चढ़ गयी थी. निद्रादेवी की गोद में रहकर, व्यग्रता कुछ कम हुई. वह बीती बातों को भुलाने की चेष्टा करने लगी. म्यूजिक सिस्टम में उसने, पसंदीदा गानों की सी. डी. लगा दी. उसे प्ले ही करने वाली थी कि केयरटेकर ने दरवाजे पर दस्तक दी, “शर्मा बहनजी, आपसे कोई मिलने आई हैं”

“कौन...कहाँ?!” उसने हतप्रभ होकर कहा. “रिसेप्शन में हैं. आपका इंतज़ार कर रही हैं” महक ने मैक्सी के ऊपर गाउन चढ़ाया. बालों पर हल्की सी कंघी फेरी और रिसेप्शन की तरफ बढ़ चली. वहां मणिदीपा को पाकर, बेतरह चौंक पड़ी, “आप!!!” देह का कम्पन, उसके स्वर में उतर आया था. “क्यों...मेरा आना अच्छा नहीं लगा?!” हंसी तो हंसी, मणि जी की मुस्कान भी मारक थी!! “नहीं, नहीं...ऐसी तो कोई बात नहीं” महक ने जल्दी जल्दी कहा. हालांकि वह अंदर ही अंदर घबरा रही थी. “हमें अपने रूम नहीं ले चलोगी?!” मणि ने मासूमियत भरे लहजे में पूछा. “जी...आइये” वह डरते डरते उन्हें अपने कक्ष तक ले आई. उन्हें बैठने को कुर्सी दी. पलंग पर पड़ी, मुचड़ी हुई चादर को तहाया. अस्त व्यस्त कपड़ों का ढेर समेटकर, एक ओर खिसका दिया.

“ सॉरी” वह उनसे मुखातिब हुई, “ सामान थोड़ा बिखरा हुआ है” उसकी हड़बड़ाहट से, वह तनिक भी विचलित नहीं हुईं. “भई पहली बार आई हूँ” वे बड़ी अदा से हंसी “कुछ स्वागत नहीं करोगी?”

“जी” महक के पसीने छूटने लगे थे; “अभी अटेंडेंट को कॉल करती हूँ...आप क्या लेंगी? ठंडा या गरम??”

“कुछ नहीं, तुम बैठो...मैं तो यूँ ही मजाक कर रही थी” इस बार उनकी हंसी में, करुणा का पुट था. थोड़ा रूककर वह बोलीं, “मुझे तुम्हारे और ईशान के बारे में, सब पता चल गया है” महक चुपचाप फर्श को देखने लगी. हठात ही आंसू बह निकले. मणि ने रूमाल उसकी तरफ बढ़ाया, “भई रोओ नहीं. मैं जरा कमजोर दिल की हूँ...रोने धोने से कलेजा बैठने लग जाता है” महक ने किसी भांति आंसू सुखाये. वे संजीदगी से कह उठीं, “तुम जानना चाहती होगी, ईशान तुमसे दूर क्यों चला गया” उसके आकुल हाव- भाव, उन्हें पल भर को विचलित कर गये किन्तु दूसरे ही क्षण वे सम्भलकर बोलीं, “यह बताने के पहले, तुम्हें उस लड़की की कहानी सुनाऊंगी जो तुम्हारी ही तरह भावुक और सम्वेदनशील थी” महक अपनी मनःस्थिति से बाहर आ चुकी थी. उसकी जिज्ञासु आंखें, मणि पर गड़ गयीं.

वे अपनी रौ में कहती रहीं, “उसकी सगाई अपने सपनों के राजकुमार से हुई. वह बहुत संकोची, बहुत लजीला था. नपी- तुली बातें करता. लड़की सोचती थी कि उसका मंगेतर, संस्कारों का लिहाज करता है तभी अकेले में उसे छेड़ता नहीं और बहुत सभ्यता से पेश आता है. वह उसके शर्मीले स्वभाव पर मुग्ध थी. पर बात दरअसल कुछ और ही थी” कहकर मणिदीपा ने, गहरी नजरों से महक को देखा. अपना दुःख बिसराकर महक, आगे की कहानी सुनना चाहती थी. उत्सुकता का समाधान करते हुए, वे पुनः बोल उठीं, “ ब्याह वाले दिन ही दूल्हा गायब हो गया...कोई बातचीत नहीं, कुछ अता पता नहीं; बैंड, बाजा, बारात सब व्यर्थ...दुल्हन मेंहदी रचाए बैठी रही और लग्न- मुहूर्त ही निकल गया” उनके बोलों में कड़वाहट उतर आई और उनकी लरजती आवाज़ कठोर हो चली; मानों वह स्वयम से ही बोल रही हों, “ लड़के वालों ने माफी तक ना माँगी...समाजवालों के आगे, रुसवाई जो होती!!”

“और दुल्हन” महक ना जाने कैसे बोल पड़ी; इसके लिए वह खुद आश्चर्य में थी. “और दुल्हन!” मणिदीपा की अर्थ पूर्ण दृष्टि महक को सहमा गयी, “बिरादरी ने समझा कि उसमें ही कुछ खोट रही होगी...यहाँ तक कि उसका चरित्र भी सवालों के घेरे में आ गया. अपने और परिवार के अपमान से त्रस्त, वह डिप्रेशन में चली गयी. उसे बारम्बार डिप्रेशन के दौरे पड़ते. इलाज लम्बा चला; पर बाद में सब ठीक हो गया...” कहते कहते उन्होंने ठंडी सांस ली; फिर धीमे से फुसफुसाईं, “ गोपाल ने... उसके चचेरे देवर ने ही, उसके आगे विवाह- प्रस्ताव रखा क्योंकि वह असलियत जानता- समझता था! उस धोखेबाज का चचेरा भाई जो ठहरा. वह धोखेबाज- जो प्रेमिका की खातिर, एक निर्दोष ज़िन्दगी से खेल गया...अपनों के खिलाफ हिम्मत जुटाने में, गोपाल को समय लगा. भगवान के घर देर है अंधेर नहीं!”

महक कहानी में इतना डूबी कि मणिदीपा के आने का सबब ही भूल गयी. लेकिन वे अपनेआप मुद्दे पर आ गयीं, “वह लड़की तुम्हारी ही तरह चित्रकार बनी...तुम समझ गयीं कि वह कौन थी?”

“आप” महक ने रोमांचित होकर कहा. “और वह धोखेबाज दूल्हा- तुम्हारे पिता रासबिहारी” सुनते ही महक, लज्जा से गड़ गयी! कथा का रोमांच, निमिष भर में छूमंतर हो चला!! समझ नहीं आया कि वह हंसे या रोये. किन्तु मणिदीपा ने उसे उबार लिया, “पर उनकी कायरता की सजा, मैं तुमको नहीं दूंगी. तुममें मुझे, अपने अतीत की परछाईं दिखाई देती है. ईशान मेरे बेटे की तरह है... उसकी मां लम्बे समय तक बीमार रहीं. मैंने ही उसे पाला है. वह मां से भी बढ़कर, मुझे मानता है... चिंता ना करो; मैं सब ठीक कर दूंगी” और फिर उन्होंने, महक के हाथों को पकड़ लिया. इस बार उनके साथ, महक भी हंस पड़ी थी!!!

 

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नाम- विनीता शुक्ला

शिक्षा – बी. एस. सी., बी. एड. (कानपुर विश्वविद्यालय)

परास्नातक- फल संरक्षण एवं तकनीक (एफ. पी. सी. आई., लखनऊ)

अतिरिक्त योग्यता- कम्प्यूटर एप्लीकेशंस में ऑनर्स डिप्लोमा (एन. आई. आई. टी., लखनऊ)

कार्य अनुभव-

१- सेंट फ्रांसिस, अनपरा में कुछ वर्षों तक अध्यापन कार्य

२- आकाशवाणी कोच्चि के लिए अनुवाद कार्य

सम्प्रति- सदस्य, अभिव्यक्ति साहित्यिक संस्था, लखनऊ

सम्पर्क- फ़ोन नं. – (०४८४) २४२६०२४

मोबाइल- ०९४४७८७०९२०

प्रकाशित रचनाएँ-

१- प्रथम कथा संग्रह’ अपने अपने मरुस्थल’( सन २००६) के लिए उ. प्र. हिंदी संस्थान के ‘पं. बद्री प्रसाद शिंगलू पुरस्कार’ से सम्मानित

२- ‘अभिव्यक्ति’ के कथा संकलनों ‘पत्तियों से छनती धूप’(सन २००४), ‘परिक्रमा’(सन २००७), ‘आरोह’(सन २००९) तथा प्रवाह(सन २०१०) में कहानियां प्रकाशित

३- लखनऊ से निकलने वाली पत्रिकाओं ‘नामान्तर’(अप्रैल २००५) एवं राष्ट्रधर्म (फरवरी २००७)में कहानियां प्रकाशित

४- झांसी से निकलने वाले दैनिक पत्र ‘राष्ट्रबोध’ के ‘०७-०१-०५’ तथा ‘०४-०४-०५’ के अंकों में रचनाएँ प्रकाशित

५- द्वितीय कथा संकलन ‘नागफनी’ का, मार्च २०१० में, लोकार्पण सम्पन्न

६- ‘वनिता’ के अप्रैल २०१० के अंक में कहानी प्रकाशित

७- ‘मेरी सहेली’ के एक्स्ट्रा इशू, २०१० में कहानी ‘पराभव’ प्रकाशित

८- कहानी ‘पराभव’ के लिए सांत्वना पुरस्कार

९- २६-१-‘१२ को हिंदी साहित्य सम्मेलन ‘तेजपुर’ में लोकार्पित पत्रिका ‘उषा ज्योति’ में कविता प्रकाशित

१०- ‘ओपन बुक्स ऑनलाइन’ में सितम्बर माह(२०१२) की, सर्वश्रेष्ठ रचना का पुरस्कार

११- ‘मेरी सहेली’ पत्रिका के अक्टूबर(२०१२) एवं जनवरी (२०१३) अंकों में कहानियाँ प्रकाशित

१२- ‘दैनिक जागरण’ में, नियमित (जागरण जंक्शन वाले) ब्लॉगों का प्रकाशन

१३- ‘गृहशोभा’ के जून प्रथम(२०१३) अंक में कहानी प्रकाशित

१४- ‘वनिता’ के जून(२०१३) और दिसम्बर (२०१३) अंकों में कहानियाँ प्रकाशित

१५- बोधि- प्रकाशन की ‘उत्पल’ पत्रिका के नवम्बर(२०१३) अंक में कविता प्रकाशित

१६- -जागरण सखी’ के मार्च(२०१४) के अंक में कहानी प्रकाशित

१८-तेजपुर की वार्षिक पत्रिका ‘उषा ज्योति’(२०१४) में हास्य रचना प्रकाशित

१९- ‘गृहशोभा’ के दिसम्बर ‘प्रथम’ अंक (२०१४)में कहानी प्रकाशित

२०- ‘वनिता’, ‘वुमेन ऑन द टॉप’ तथा ‘सुजाता’ पत्रिकाओं के जनवरी (२०१५) अंकों में कहानियाँ प्रकाशित

२१- ‘जागरण सखी’ के फरवरी (२०१५) अंक में कहानी प्रकाशित

२२- ‘अटूट बंधन’ मासिक पत्रिका ( लखनऊ) के मई (२०१५), नवम्बर(२०१५) एवं दिसम्बर (२०१५) अंकों में रचनाएँ प्रकाशित

२३- ‘वनिता’ के अक्टूबर(२०१५) अंक में कहानी प्रकाशित

पत्राचार का पता- टाइप ५, फ्लैट नं. -९, एन. पी. ओ. एल. क्वार्टस, ‘सागर रेजिडेंशियल काम्प्लेक्स, पोस्ट- त्रिक्काकरा, कोच्चि, केरल- ६८२०२१

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फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
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रचनाकार: पटाक्षेप / कहानी / विनीता शुक्ला
पटाक्षेप / कहानी / विनीता शुक्ला
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