आलेख भाषा और पत्रकार डॉ. रामवृक्ष सिंह प्रेस को प्रजातंत्र में बहुत ऊँचा मुकाम हासिल है। प्रेस के माध्यम से बुद्धिजीवियों, पत्रकारों, ने...
आलेख
भाषा और पत्रकार
डॉ. रामवृक्ष सिंह
प्रेस को प्रजातंत्र में बहुत ऊँचा मुकाम हासिल है। प्रेस के माध्यम से बुद्धिजीवियों, पत्रकारों, नेताओं, समाज-सुधारकों, विचारकों, उद्योग-पतियों, शिक्षाविदों, वैज्ञानिकों और दार्शनिकों, सबकी बात आम जन तक पहुंचती है। पत्र-पत्रिकाएं समाचार और विचार (न्यूज और व्यूज), दोनों को जन-जन तक पहुंचाती हैं। आधुनिक विश्व के प्रत्येक बड़े जन-नायकों और चिन्तकों ने अपनी बात जन-सामान्य तक पहुँचाने के लिए पत्रकारिता का सहारा लिया है। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी जब दक्षिण अफ्रीका में थे, तब उन्होंने अपने जनान्दोलन को आगे बढ़ाने के लिए प्रेस का ही सहारा लिया और हिन्दी-तमिल सहित त्रिभाषी पत्र छापे। भारत लौटने के बाद भी जन-सभाओं, देशाटन आदि के साथ-साथ वे निरन्तर पत्रकारिता करते रहे। अपने जीवन-काल में वे साबरमती आश्रम से नवजीवन प्रेस (लगभग 4 किलोमीटर) साइकिल से आते-जाते थे, जहाँ से उनका अख़बार नवजीवन निकला करता था। गुजरात विद्यापीठ के परिसर में उनका वह संस्थान और पुरानी ट्रेडिल मशीन आज भी देखी जा सकती है। उनकी स्थापित नवजीवन प्रेस आज भी सक्रिय है और हजारों की संख्या में उसके प्रकाशन बाज़ार में हैं।
पत्र-पत्रिकाओं में जो कुछ छपता है, वह आम पाठकों के लिए आर्ष वाक्य होता है। पाठक न केवल खुद उस चीज़ को पढ़ते हैं, बल्कि दूसरों को भी दिखाते हैं। उस पर चर्चाएँ होती हैं। इसीलिए यह माना जाता है कि पत्रकारिता के माध्यम से जनमत तैयार होता है। न केवल तैयार होता है, बल्कि कई बार पत्र-पत्रिकाएं जनमत की अभिव्यक्ति का माध्यम भी बनते हैं। मराठी के एक पत्र का तो नाम ही लोकमत है। लोकमत इसलिए क्योंकि पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से लोक-तत्व की अभिव्यक्ति होती है।
पत्र-पत्रिकाओं की भाषा को भी आदर्श माना जाता रहा है। एक ओर जहाँ उनमें छपे साहित्य, लेख, निबंध, कहानियाँ, कविताएँ आदि सुष्ठु, प्रांजल भाषा का आदर्श उपस्थित करती हैं, वहीं दूसरी ओर उनमें प्रकाशित खबरों की भाषा जन-व्यवहार में प्रचलित टकसालीपन लिए होती है। रोज-मर्रा के जुमले और मुहावरेदानी इन समाचारों में सहज ही देखी जा सकती है।
इसका अभिप्राय यह हुआ कि पत्र-पत्रिकाएं न केवल अपने कथ्य की दृष्टि से बल्कि भाषा की दृष्टि से भी अपने पाठक वर्ग की रुचि और उनके भाषा-ज्ञान का परिष्कार व संस्कार करती हैं। यही कारण है कि पारंपरिक रूप से यह माना जाता रहा है कि यदि भाषा में परिष्कार लाना है तो समाचार पत्र पढ़ने चाहिए। आज भी अंग्रेजी सीखने के इच्छुक बच्चे अंग्रेजी के अख़बार पढ़ते हैं। इन पंक्तियों के लेखक ने अपने बाल्य-काल में हिन्दी अख़बार ‘नवभारत टाइम्स’ का खूब वाचन किया और उसी का परिणाम है कि वह आज मानक भाषा लिख-पढ़ पाता है। बचपन में पढ़ी गई बाल पत्रिका चिल्ड्रेन्स वर्ल्ड से हमने अपने अंग्रेजी ज्ञान को चमकाया। फिर टाइम्स ऑफ इंडिया ने इसे और निखारा। लिखित पत्रकारिता ने ही कालान्तर में रेडियो और दूरदर्शन की पत्रकारिता का मार्ग प्रशस्त किया। एक ज़माना था जब ऑल इंडिया रेडियो या आकाशवाणी के समाचारों की भाषा को मानक भाषा माना जाता था। शुरुआत में दूरदर्शन से भी ऐसी ही मानक भाषा का मुज़ाहिरा हुआ। यहाँ तक कि शुरुआत के दिनों में दूरदर्शन पर प्रसारित मनोरंजक कार्यक्रमों में भी भाषा की मानकता काफी हद तक बरकरार रही।
जहाँ तक हिन्दी पत्रकारिता का संबंध है, अपने ज़माने के कुछ नामचीन साहित्यकारों ने हिन्दी के कुछ बहुत-ही उम्दा प्रकाशन निकाले। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, बालकृष्ण भट्ट, आचार्य केशवचन्द्र सेन, पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी, गणेशशंकर विद्यार्थी, निराला, प्रेमचंद, अज्ञेय, राजेन्द्र यादव आदि से होती हुई यह परम्परा मृणाल पाण्डेय और आज के बहुत से साहित्यकार-पत्रकारों तक चली आती है। यह सूची 1826 में पं. जुगल किशोर से बननी आरम्भ होती है और आज भी इसमें नए नाम जुड़ रहे हैं। उन सैकड़ों नामों का उल्लेख जान-बूझकर यहाँ नहीं किया जा रहा।
एक लिहाज़ से देखें तो पत्रकारिता ने हिन्दी भाषा को गढ़ा, सजाया और संवारा। यह काम इसलिए हो पाया कि पत्रकारों ने अपने भाषिक ज्ञान और विविध विषयों की जानकारी को निरन्तर संवलित किया, उसमें वृद्धि करते गए। किन्तु यह देखकर बहुत खेद होता है कि आज के हिन्दी पत्रकार भाषा के लिहाज़ से उतने सजग और सचेत नहीं हैं, जितने पहले हुआ करते थे। बहुतों को तो उससे कोई सरोकार ही नहीं है। मेरी यह टिप्पणी यों ही नहीं है।
हिन्दी पत्रकारों की सुषुप्ति का एक नमूना देखना हो तो कल दिवंगत हुए लांस नायक हनुमंतप्पा का प्रकरण लें। दक्षिण में हनुमंतप्पा, हनुमंतैय्या, रामय्या, वेंकैय्या, चेल्लैय्या आदि नाम बहुलता में सुने जा सकते हैं। किन्तु चूंकि हमारे पत्रकारों को दक्षिण की भाषाओं, उनके शब्दों, नामों, द्रविड़ संस्कृति आदि का कोई प्राथमिक बोध नहीं है, इसलिए जो कुछ भी वे ग्रहण कर रहे हैं, वह द्वितीयक स्रोतों से उन तक पहुँच रहा है। ये द्वितीयक स्रोत प्रायः अंग्रेजी के फिल्टर से होकर गुज़रते हैं। अंग्रेजी में ta से ट भी बनता है और त भी। इस दुविधा को दूर करने के लिए दक्षिण भारतीय भाषा-भाषियों ने एक उपाय निकाला कि ट उच्चारण अभिप्रेत हो तो ta लिखो और यदि त लिखना अभिप्रेत हो तो tha. इसी का परिणाम है कि हनुमंतप्पा को वे रोमन में Hanumanthappa लिखते हैं। इसी तर्ज़ पर वे Githa, Sitha आदि भी लिखते हैं। किन्तु जब उच्चारण करते हैं या अपनी लिपि में लिखते हैं तो गीता और सीता ही लिखते हैं, न कि गीथा या गीठा, या सीथा या सीठा। यदि हमारे हिन्दी पत्रकार बन्धु इतना-सा अध्यवसाय कर लेते तो हनुमंतप्पा को वे हनुमंथप्पा न लिखते। (शुक्र है कि उन्होंने हनुमंतप्पा को हनुमंठप्पा नहीं लिख दिया)। क्या हमारा यह फर्ज़ नहीं बनता कि सीमा पर अपनी जान देनेवाले बहादुर शहीद का नाम तो कम से कम ठीक लिखें?
इस देश में त्रिभाषा सूत्र की बात करते हमें लगभग पचास-साठ वर्ष हो चुके हैं। त्रिभाषा सूत्र के तहत हम उत्तर भारतीय लोगों को दक्षिण की एक भाषा सीखनी थी। हम बड़े शातिर निकले और दक्षिण की भाषाओं के बजाय हमने संस्कृत सीखी। सीखी क्या उसका स्वांग किया। दिल्ली आदि प्रान्तों में तीसरी भाषा के तौर पर गुरुमुखी सिखाई जाती रही। अब तो खैर इन सभी को दरकिनार करके स्कूलों में फ्रेंच आदि विदेशी भाषाएं सिखाई जा रही हैं। इस प्रकार त्रिभाषा-सूत्र की तो हमारे शिक्षा-विदों ने हवा ही निकाल दी है। जिस त्रिभाषा-सूत्र के ज़रिए राष्ट्रीय एकता जगाने की योजना था, उसे हमने पूरी तरह ध्वस्त कर दिया। अभी दो दिन पहले पढ़ा कि संस्कृत को स्कूलों में अनिवार्य करने के प्रस्ताव को भी गिरा दिया गया है और अब वह भी हमारे पाठ्यक्रम से बहिष्क्रमित होनेवाली है। आलम यह है कि दक्षिण के लोग तो उत्तर भारतीय भाषाएं (खास तौर से हिन्दी) सीख रहे हैं, किन्तु हम उत्तर वाले दक्षिण के लोगों की भाषा, संस्कृति आदि के बारे में कुछ भी जानना-सीखना नहीं चाहते। पत्रकार भी इस दिशा में सक्रिय नहीं दिखते, वरना वे हनुमंतप्पा को हनुमंथप्पा क्यों लिखते?
इसी प्रकार नभाटा (जो खुद को अब एनबीटी कहना अधिक पसंद करता है) आदि अख़बार सॉङ्ग को सॉन्ग लिख रहे हैं। लखनऊ से छपने वाला अमर उजाला भी उसी रास्ते निकल पडा है। बॉण्ड, लॉङ्ग, हॉङ्ग-कॉङ्ग, आदि विदेशी शब्दों को हम बांड, लांग, हांग-कांग या फिर बाँड, लाँग, हाँग-काँग आदि लिख रहे हैं। यह रोग सभी हिन्दी प्रान्तों में संचरित हो चला है। हिन्दी में अनुसंधान और विकास लगभग बन्द है। कोई मौलिक चिन्तन नहीं हो रहा। हिन्दी का सरकारी अमला केवल दौरे कर रहा है। ज्यादा दौरे करनेवाला आदमी अपनी टिकटों और होटल बुकिंग का हिसाब रखेगा या भाषा की पेचीदगियों पर सोचेगा? आज का पत्रकार भी ऐसा ही है। उसे घूमने और पुजापा कराने से ही फुरसत नहीं। उसे भी विवेक नहीं कि हिन्दी के आगत शब्दों की वर्तनी कैसे ठीक की जाए। एक ज़माना था जब आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी सरस्वती के लेखकों की भाषा को माँजते-चमकाते थे, उन्हें संस्कारित करते थे। किन्तु आज के पत्रकार जगत में हमें ऐसा कोई मनस्वी संपादक नहीं दिखता।
पत्रों-पत्रिकाओं की पैठ बहुत गहरी होती है। यदि वे गलत वर्तनियाँ लिखेंगे तो हिन्दी एक दिन ज़मींदोज़ हो जाएगी, उसकी लुटिया डूब जाएगी। इसलिए पत्रकारों और संपादकों से हमारा विनम्र निवेदन है कि वे कृपया थोड़ा-सा अध्यवसाय करें और सही भाषा लिखें। सरल लिखना ठीक है, किन्तु सरल का अभिप्राय व्याकरण-विरुद्ध और नियम-विपरीत नहीं होता। यदि हिन्दी पत्रकारों ने इस भाषा व लिपि का विन्यास ठीक नहीं किया तो इतना पक्का है कि आनेवाले समय में हिन्दी पद-दलित हो जाएगी और केवल बोल-चाल की भाषा बनकर रह जाएगी। सरकार चाहे जितने प्रयास करे, हिन्दी को यदि फैशन में बनाए रखना है और उसकी आत्मा को सही-सलामत जिलाए रखना है तो यह काम केवल पत्रकार कर सकते हैं, ऐसे पत्रकार जो अपनी भाषा के प्रति सजग और सचेत हैं। सजग और सचेत रहने के लिए निरन्तर पढ़ना-लिखना और सोचना-समझना ज़रूरी है। दूसरी भाषाओं की प्रकृति को समझना और उनसे आगत तत्वों को अपनी भाषा में अभिव्यक्त करने के लिए अपनी भाषा में अनुसंधान और विकास भी ज़रूरी है। यदि हम इस दिशा में निरन्तर प्रयासरत नहीं हैं तो निश्चय ही हम अपने पेशे के प्रति ईमानदार नहीं हैं।
पत्रकारों को भाषा संबंधी उनकी भूमिका याद दिलाने के लिए लेखक को बधाई.
जवाब देंहटाएं