पूर्वाग्रह / कहानी / विनीता शुक्ला

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सुजाता जा रही थी. देवेन ने उसे रोकने की जरा भी कोशिश न की. सुजाता के आंसुओं से, मन भीग उठा; पर भावनाएं उसको दुर्बल न बना सकीं. कुछ मूक वेदन...

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सुजाता जा रही थी. देवेन ने उसे रोकने की जरा भी कोशिश न की. सुजाता के आंसुओं से, मन भीग उठा; पर भावनाएं उसको दुर्बल न बना सकीं. कुछ मूक वेदनाएं, मौन की धडकनों में धड़क रही थीं. कुछ निठुर उपालम्भ, सन्नाटे की गूँज में गूँज रहे थे. देवेन्द्र ने ठंडी सांस ली. यह जीवन की इबारतें - शिलालेख सी पक्की इबारतें; क्या धो- पोंछकर मिटाई जा सकेंगी?!

किन्तु निस्तार ढूंढना ही होता है. शरीर का कोई अंग, विषाक्त हो जाये तो उसे काटकर फेंक देते हैं; ताकि वह देह को, बेकार न कर दे. सुजाता भी गले में, शूल सदृश अटकी थी... शूल जिसे निगलना सम्भव नहीं! दिल का गुबार, कोई कब तक दबाए रखे??? जबान सी लेने से, सच्चाई बदल तो नहीं जाती और जब सब्र का बाँध टूटता है- अपने साथ, बहुत कुछ बहाए लिए जाता है!! बचती है शून्यमय नीरवता और उसमें सुगबुगाती यादें- “कह रहे थे, बेटे के लिए, हीरा तलाशकर लाऊंगा” “हीरे के वास्ते गये- कोयले की खान में.... जो हीरा न मिला... कोयला लिए चले आये!!!” इस पर कईयों की हंसी फूट पड़ी. औरतें इस बात से अनजान थीं कि उनकी दिल्लगी भरी बातें, किसी दिल में नश्तर सी चुभ रही थीं. घूँघट के भीतर, बहती आँखें और धुआं धुआं अरमान!

दुल्हन की मुंह दिखाई हुई नहीं और स्त्रियाँ ‘पंचायत’ लेकर बैठ गयीं. सांवले चेहरे की वह लुनाई, वह तीखे नैन- नक्श, क्या मोहक न थे?! किसी ने सराहना के दो बोल नहीं बोले. खोट ढूँढने में जो मजा है, तारीफ़ में कहाँ! सुजाता गृहलक्ष्मी बनकर आई, सरस्वती का भी वरदहस्त था उस पर. वह एक सुरीली गायिका, उत्कृष्ट चित्रकार और विदुषी स्त्री थी. मगरूर औरतें, भला क्या समझें! वे तो जानती थीं कि भारी भरकम दहेज़ पर, सुदर्शन देवेन नीलाम हो गया. उनका भी सोचना स्वाभाविक था. समाज में बेमेल शादियाँ, पैसे के बल पर तो होती हैं. किन्तु क्या इसके मूल में, मात्र पैसा ही था?! सुदूर अतीत में फ़ैली थीं इसकी जड़ें. एक पूरा इतिहास था पीछे- देवेन के पिता, परेशचन्द्र का इतिहास; इतिहास, जो उनके लग्नमंडप से उद्भवित हुआ.

और देवेन... जीवन के मंच पर, कठपुतलियों के खेले में- उस इतिहास को ढोने वाला किरदार! ‘खेल खेल में’, विवाह- प्रकरण भी जुड़ गया. वह चाहता तो रिश्ता ठुकरा देता पर वधू पक्ष की समृद्धि देख, आँखें चुंधिया गयीं. जिसे अपनी ही मां से, लोभ विरासत में मिला हो; वह लोभ संवरण कैसे करता?! भोली अदाओं वाली, रूपवती प्रेयसी, उससे छिन गयी...तो क्या!! उस रत्ना के लिए, आती हुई लक्ष्मी को छोड़ देता?!!

सुजाता बड़े घर की लड़की थी किन्तु उसका स्वाभिमान प्रबल था. जब उसके पिता, कुछ देने का प्रस्ताव रखते; वह नानुकुर करने लगती. यह बात और थी कि इन्कार के बावज़ूद, मैके से ‘लक्ष्मी’ आती रहती. जो भी हो- धन का ऐसा निरादर, देवेन को रास न आता. सुजाता में आयु से अधिक परिपक्वता थी. पति के हल्के फुल्के मजाक भी उसे विचित्र लगते...उनकी किशोरों जैसी हरकतें, पैसे उड़ाना, दोस्तों के साथ दारू- महफ़िलें सजाना, उस पर नागवार गुजरता. वह विनम्रता, किन्तु दृढ़ता से; इसका विरोध करती. धीरे धीरे पत्नी, देवेन की आँखों में चुभने लगी. वह मन से बूढ़ी, मनहूस स्त्री! पैसेवाले घर से आई; फिर भी ‘ऐश’ नहीं करने देती!!

देवेन अक्सर, रत्ना के ख्याल में गुम रहता और परेश बीते हुए पलों में. अतीत का वह ‘फ़्लैश बैक’- जब सुमुखी के साथ, फेरे लेते हुए, उनका सर्वांग पुलक उठा...जागती आँखें के सतरंगी सपने... सौभाग्य कोंपलें, हृदय की बन्ध्या- भूमि से उमगती; एक एक पल, मायावी रोमांच से सराबोर! विवाह के कुछ दिनों बाद तक, उनके पैर जमीन पर न थे. ऐसी सुन्दरी पत्नी, बिरलों को ही मिलती है. वह अनिन्द्य सौन्दर्य, उनकी प्रतिष्ठा को दमका रहा था...औरों को जलाकर!! हर स्वप्न का अंत होता है, किन्तु इस स्वप्न का अंत तो कल्पनातीत था.

एक दिन दोनों लॉन में बैठे थे. सूर्य अस्ताचल को बढ़ चला और वे सांझ की सुनहरी परछाइयों में, खो से गये. सुमुखी उनके लिए चाय बनाने लगी. चाय का प्याला बढ़ाते हुए बोली, “यह क्या?! आपने अब तक, मुंह- दिखाई का शगुन नहीं दिया” “मुंह दिखाई?!” वे नासमझ बच्चे जैसा भ्रमित थे. अर्थपूर्ण दृष्टि से वार करते हुए पत्नी ने कहा, “पहली रात मुंह देखकर, एक छोटी अंगूठी में ही ‘निपटा’ दिया आपने... बस इतनी अहमियत है मेरी??” “क्या कह रही हो सुमू?! अरे हमारा तो जन्म जन्म का साथ है...हमारा दिल, हमारी जान- सब आप पर कुर्बान!!!” परेश ने बात सम्भालनी चाही; लेकिन सुमू नहीं मानी. उसने मुंह बिचकाया और पैर पटकती हुई भीतर चली गयी.

कोपभवन में जाने का, यह पहला कारण नहीं था. सुमुखी अक्सर, ऐसे बहाने ढूंढ लेती. जब घर में शुभकार्य होता; मायके और ससुराल के रिश्तेदार इकट्ठे होते- कोपभवन में जा बैठती. पति को सताकर, उँगलियों पे नचाकर; हिंसक सुख की अनुभूति होती थी. अपनी सुन्दरता के गुमान में, ससुराल पक्ष का निरादर करना; उसके स्वभाव में था. वहीं नैहर वालों का स्वागत होता; परेश से छुपाकर, उन्हें उपहार दिए जाते. गरीब घर की वह लड़की, ऐश्वर्य और सुविधाएं देख बौरा गयी थी. सारी सत्ता, सारा ऐशोआराम मुट्ठी में कर लेना चाहती थी.

परेशचन्द्र जानकर ऐसी बहू लाये थे जो सुमुखी से १८० डिग्री उलट थी. गंभीर मिजाज, औसत रंगरूप, और समर्थ घर की उच्चशिक्षित लड़की. वह न रूप पर इतरा सकती थी और न उसकी सोच ही दरिद्र थी. सास जैसे दुर्गुण उसमें नहीं थे. सुमुखी जब तक ज़िंदा रही, पति को प्रताड़ित करती रही. उसका त्रिया हठ परेश को घर से; परिवार और बच्चों के सुख से, दूर करता गया. उन्होंने अपना कार्यक्षेत्र बदलकर ऐसा कर लिया- जहां आये दिन टूर पर जाना होता. सुमुखी से भागकर, वे नित नई रमणियों का साहचर्य तलाशते. भटकाव की अंधी सुरंग में; वे खुद अपना पता भूल चले! पति पत्नी के बीच मतभेद, बढ़ते ही रहे.

बेटी वैभवी के विवाह को लेकर, दोनों में खूब घमासान हुआ, “कहे देती हूँ, तुम्हारे दोस्त के बेटे को, दामाद नहीं बनने दूंगी. दोस्त के साथ मिलकर, दबंगई करोगे?! अंजाम बुरा होगा... देख लेना!!” सुमुखी अपने साम्राज्य में, सेंध लगते देख न सकी. परेश भी रोज के नाटक से, तंग आ चुके थे. उन्होंने तुरंत पलटवार किया, “क्या कर लोगी तुम...बताओ” दुस्साहसी पत्नी ने, मुंडेर से कूदने की धमकी दी; अपने कदम भी वहीं ले गयी. परेश के लिए, नौटंकी नई नहीं थी- सो अनदेखा कर दिया. किन्तु दैवयोग से इस बार, उसके पैर फिसल गये और वह तीसरी मंजिल से नीचे गिर पड़ी. ‘भेड़िया आया’ वाली दंतकथा का, यह अलग ही रूप था!

दुनियाँ उनकी गाम्भीर्य भरी चुप्पी देखकर सोचती कि वे सुमुखी का शोक मना रहे थे पर इसके विपरीत, वह स्वयं को हल्का महसूस करते - जिद्दी, सनकी औरत से, पीछा जो छूटा था! देवेन की बात दूसरी थी. वह मां का अभाव महसूस करता. उन्होंने उसे लाड़ से पाला था. उसकी हर इच्छा पूरी की...सर आँखों पर बिठाकर रखा. वह अम्मा की सनक से, परेशान जरूर रहता; किन्तु उनका प्यार, उसके लिए अनमोल था. मां का वह दिव्य रूपरंग...ऊपरवाले ने उन्हें, फुर्सत में बनाया होगा! वह भी सुंदर दुल्हन चाहता था. ऐसी कन्या- जो अम्मा जैसी आकर्षक हो पर उन सी हठी न हो. भोली और बुद्धू लड़की; जिसके पास लड़ने की बुद्धि तक न हो...जो बिना शर्त उसकी हर बात माने...उसे सबसे ऊंचा दर्जा दे!

दुर्भाग्य से सुजाता, उन मानदंडों पर खरी नहीं उतरी. वह मां का लाड़ला...उसके अंदर का बच्चा, जब भी सर उठाता- सुजाता उसे टोक देती. बचकानेपन से उसे विरक्ति सी होती. सुजाता जो भोली होने के बजाय परिपक्व थी...गोरी होने के बजाय सांवली थी...चाटुकार होने के बजाय आत्मकेंद्रित थी!! एक न एक दिन कुछ अघट तो होना था. सुजाता के पिता की मृत्यु के बाद, उसके घर से तोहफे आने बंद हो गये और समय समय पर मिलने वाले चेक भी. अब तो वह किसी काम की नहीं थी. दोनों के बीच टकराव होने लगे और फिर आज...!! देवेन वर्तमान में वापस लौट आया.

सुजाता को गये तीन घंटे हो गये थे. वह खुद को ठेलकर उठा. नौकर से चाय बनाने को कहा. झट दिमाग में, रत्ना का मोबाइल- नम्बर कौंधा और वह बैठ गया- उसे फोन लगाने. दूसरी तरफ से, कोई जगत बोल रहा था. “आप कौन” उसने देवेन से पूछा. “जी मैं...रत्ना से बात करनी थी...मैं उसके पुराने ऑफिस का हेड देवेन” जवाब देते हुए, देवेन हकलाने लगा था. उसे लगा जगत, रत्ना का कोई कजिन होगा. रत्ना ने बताया था कि वह संयुक्त परिवार में, अपने चचेरे भाइयों के साथ रहती है. उसका परिचय जानकर, जगत का रूखा स्वर कुछ नरम पड़ा, “ओह आई सी...हाउ डू यू डू देवेन जी?! मैं रत्ना का पति...पिछले ही हफ्ते, हमारा प्रेम- विवाह हुआ है” प्रेम विवाह कहते हुए, जगत की आवाज खनकने लगी! कोई जवाब न पाकर, वह खुद बोलने लगा था, “रत्ना फिलहाल बाहर गयी है. उसे बता दूंगा कि आपका फोन था” इधर देवेन के गले में मानों, कोई भारी पत्थर अटक गया था... आवाज़ ही नहीं निकल रही थी! मुश्किल से बोला, “थैंक्स... कॉल यू लेटर”

रत्ना और उसका ‘भोलापन’! देवेन की शादी को महज पांच महीने ही बीते थे...इतनी जल्दी दूसरा प्रेमी कर लिया. उससे भी पहले वह, अपने पुराने मंगेतर रमेश के प्रेम में थी- बिलकुल मजबूरन!! आखिर मां बाप यही तो चाहते थे... फिर न जाने क्यों, रमेश से सम्बन्ध तोड़ दिया. मानों प्रेम न हुआ, फुटबॉल हो गयी; कभी इस पाले में, कभी उस पाले में!!! बुरी तरह मोहभंग होने के बाद, देवेन का सर फटा जा रहा था. चाय हलक से नीचे नहीं जा रही थी. दिन भर में उसने, कुछ खाया तक नहीं. विचित्र मनःस्थिति में, चार पांच दिन गुजरे. फिर पिताजी का सन्देश आया, “तुम्हारे पास रहा हूँ. हफ्ते भर रहूंगा... बहू को बता देना...हो सके तो छुट्टी ले लेना”

देवेन मुश्किल में पड़ गया. परेशचन्द्र रिटायरमेंट के बाद, पहली बार यहाँ आ रहे थे. आश्रम जाने के पहले, उन दोनों से मिलना चाहते थे. विशेष तौर पर, अपनी प्यारी पुत्रवधू को; आशीर्वाद देना चाहते थे. गुरूजी से दीक्षा लेने के बाद, मोहमाया के बंधन टूट ही जाने थे. बेटा, बेटी से दूर... बहुत दूर चले जाना था. वे चाहते थे कि अपनी चल- अचल सम्पत्ति; दोनों संतानों में बाँट दें; ताकि सांसारिक कर्तव्यों से मुक्त हो सकें. ऐसे में यदि सुजाता उन्हें न मिली तो देवेन का क्या हश्र होगा...कल्पना तक से परे था!! अब तो एक ही चारा था- पत्नी को कुछ दिनों के लिए, बुला लिया जाए. सुजाता का आत्मसम्मान इस बात की अनुमति तो नहीं देता किन्तु अपने प्रिय ससुरजी के खातिर; शायद मान ही जाए!

जैसे तैसे उसने, खुद को तैयार किया- ससुराल जाने के लिए! रास्ता आठ घंटों का था. कार ड्राइव करते हुए, खासी थकान हो गयी थी. भूख- प्यास से हाल बेहाल हो रहा था. मन करता था कि जल्दी से कुछ खा- पीकर, बिस्तर में पड़ रहे... लेकिन जिन परिस्थितियों में वह, पत्नी के घर जा रहा था; संभवतः वहां उससे, कोई बात तक न करे!! उधर बंगले के भीमकाय गेट पर, रामू काका दिखे. वह सुजाता के यहाँ, बरसों से मालीगिरी कर रहे थे. उसे देखते ही फुसफुसाए, “जंवाई राजा आप!... हियाँ बिटिया नाहीं मिलिहै. आपौ न भीतर जावो...”

“सुजाता यहाँ नहीं है, तो कहाँ है?!!” विस्मय से देवेन की आँखें चौड़ी हो गयीं. “अबै कछू पूछौ नाहीं... आप बस हमरे साथे चलो”. बंगले के पिछवाड़े पर, एक पुरानी बस्ती थी. टूटे फूटे मकान, तंग गलियाँ, उधड़े प्लास्टर वाली बाउंड्री. वहीं रामू काका की, ‘कुटिया’ भी थी. बरामदे में एक जर्जर बेंच पर; भावहीन, स्पन्दनहीन सी, कोई स्त्री बैठी थी. उसे देखते ही देवेन के मुंह से, चीख सी निकल गयी, “सुजाता!!!” पति की आवाज़ सुनकर, सुजाता बेतरह चौंक पड़ी और फुर्ती से भीतर चली गयी.

बाकी की कहानी, रामू काका के आंसुओं और सिसकियों में डूबी हुई थी, “आपौ नाहीं जानत जंवाई राजा...सुजाता की अम्मा और भैय्या सब सौतेले हंय. बहुतहि चंचल रही, हमार बिटिया- मां बाप की आँखन का तारा...ई चिरैया अस फुदकत...गावत, नाचत, बंगले भरै मां डोलत फिरत रही ...तब ई साइद (शायद), छः- आठ साल की होई. मेमसाब को मरा लरिका पैदा भवा. तीन दिनन के भीतर, ऊ भी गुजर गयीं. सौतेली अम्मा का सासन(शासन) बिकट रहा...बहुतै अतियाचार(अत्याचार) करत रही! ईका जीवन, नरक कइ(कर) दिहिस...बड़ी कुगत रही भैया... छोट उमर मां, सयान भई हमार बिटिया!!!”

देवेन की आँखें भी भर आई थीं. सुजाता उसके अंश को कोख में सहेजे, चुपचाप घर से निकल आई थी. उसके स्वभाव की गम्भीरता को, वह उसकी मनहूसियत समझता रहा... सयानेपन को उसकी खामी...और गैरत को उसकी अकड़! वक्त ने देवेन को ऐसा सबक सिखाया, जिससे मन के सारे भरम धुल गये थे!! सुजाता के वजूद की चमक, उसे अब जाकर दिखाई दी; उसके गुणों का मोल भी अब ही समझ आया. कैसे भी वह, सुजाता को वापस ले जाएगा... फिर कभी उसे, खुद से दूर न होने देगा. देवेन के सब पूर्वाग्रह, ध्वस्त हो चुके थे!!!

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नाम- विनीता शुक्ला

शिक्षा – बी. एस. सी., बी. एड. (कानपुर विश्वविद्यालय)

परास्नातक- फल संरक्षण एवं तकनीक (एफ. पी. सी. आई., लखनऊ)

अतिरिक्त योग्यता- कम्प्यूटर एप्लीकेशंस में ऑनर्स डिप्लोमा (एन. आई. आई. टी., लखनऊ)

कार्य अनुभव-

१- सेंट फ्रांसिस, अनपरा में कुछ वर्षों तक अध्यापन कार्य

२- आकाशवाणी कोच्चि के लिए अनुवाद कार्य

सम्प्रति- सदस्य, अभिव्यक्ति साहित्यिक संस्था, लखनऊ

सम्पर्क- फ़ोन नं. – (०४८४) २४२६०२४

मोबाइल- ०९४४७८७०९२०

प्रकाशित रचनाएँ-

१- प्रथम कथा संग्रह’ अपने अपने मरुस्थल’( सन २००६) के लिए उ. प्र. हिंदी संस्थान के ‘पं. बद्री प्रसाद शिंगलू पुरस्कार’ से सम्मानित

२- ‘अभिव्यक्ति’ के कथा संकलनों ‘पत्तियों से छनती धूप’(सन २००४), ‘परिक्रमा’(सन २००७), ‘आरोह’(सन २००९) तथा प्रवाह(सन २०१०) में कहानियां प्रकाशित

३- लखनऊ से निकलने वाली पत्रिकाओं ‘नामान्तर’(अप्रैल २००५) एवं राष्ट्रधर्म (फरवरी २००७)में कहानियां प्रकाशित

४- झांसी से निकलने वाले दैनिक पत्र ‘राष्ट्रबोध’ के ‘०७-०१-०५’ तथा ‘०४-०४-०५’ के अंकों में रचनाएँ प्रकाशित

५- द्वितीय कथा संकलन ‘नागफनी’ का, मार्च २०१० में, लोकार्पण सम्पन्न

६- ‘वनिता’ के अप्रैल २०१० के अंक में कहानी प्रकाशित

७- ‘मेरी सहेली’ के एक्स्ट्रा इशू, २०१० में कहानी ‘पराभव’ प्रकाशित

८- कहानी ‘पराभव’ के लिए सांत्वना पुरस्कार

९- २६-१-‘१२ को हिंदी साहित्य सम्मेलन ‘तेजपुर’ में लोकार्पित पत्रिका ‘उषा ज्योति’ में कविता प्रकाशित

१०- ‘ओपन बुक्स ऑनलाइन’ में सितम्बर माह(२०१२) की, सर्वश्रेष्ठ रचना का पुरस्कार

११- ‘मेरी सहेली’ पत्रिका के अक्टूबर(२०१२) एवं जनवरी (२०१३) अंकों में कहानियाँ प्रकाशित

१२- ‘दैनिक जागरण’ में, नियमित (जागरण जंक्शन वाले) ब्लॉगों का प्रकाशन

१३- ‘गृहशोभा’ के जून प्रथम(२०१३) अंक में कहानी प्रकाशित

१४- ‘वनिता’ के जून(२०१३) और दिसम्बर (२०१३) अंकों में कहानियाँ प्रकाशित

१५- बोधि- प्रकाशन की ‘उत्पल’ पत्रिका के नवम्बर(२०१३) अंक में कविता प्रकाशित

१६- -जागरण सखी’ के मार्च(२०१४) के अंक में कहानी प्रकाशित

१८-तेजपुर की वार्षिक पत्रिका ‘उषा ज्योति’(२०१४) में हास्य रचना प्रकाशित

१९- ‘गृहशोभा’ के दिसम्बर ‘प्रथम’ अंक (२०१४)में कहानी प्रकाशित

२०- ‘वनिता’, ‘वुमेन ऑन द टॉप’ तथा ‘सुजाता’ पत्रिकाओं के जनवरी (२०१५) अंकों में कहानियाँ प्रकाशित

२१- ‘जागरण सखी’ के फरवरी (२०१५) अंक में कहानी प्रकाशित

२२- ‘अटूट बंधन’ मासिक पत्रिका ( लखनऊ) के मई (२०१५), नवम्बर(२०१५) एवं दिसम्बर (२०१५) अंकों में रचनाएँ प्रकाशित

२३- ‘वनिता’ के अक्टूबर(२०१५) अंक में कहानी प्रकाशित

पत्राचार का पता- टाइप ५, फ्लैट नं. -९, एन. पी. ओ. एल. क्वार्टस, ‘सागर रेजिडेंशियल काम्प्लेक्स, पोस्ट- त्रिक्काकरा, कोच्चि, केरल- ६८२०२१

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तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड 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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: पूर्वाग्रह / कहानी / विनीता शुक्ला
पूर्वाग्रह / कहानी / विनीता शुक्ला
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