लंबोधरन पिल्लै. बी कोयमबत्तूर कर्पगम विश्वविद्यालय में डॉ.के.पी.पद्मावती अम्मा ...
लंबोधरन पिल्लै. बी
कोयमबत्तूर कर्पगम विश्वविद्यालय में
डॉ.के.पी.पद्मावती अम्मा के मार्गदर्शन में
पी.एच.डी केलिए शोधरत
प्रेमचन्द हिन्दी भाषा में लिखकर विश्व प्रसिद्धि पाया उपन्यासकार है । तकष़ी शिवशंकर पिल्लै मलयालम माध्यम में लिखकर ख्याति प्राप्त उपन्यासकार है । विभिन्न काल में, उत्तर और दक्षिण में जन्मे दोनों उपन्यासकारों में अनेक समानताएँ प्रत्यक्ष रूप में देखने को मिलते है ।
व्यक्तित्व को परिभाषित किया जायें तो कहा जा सकता है कि - तीनों गुणों (सत्व, रज, तम) में से जो गुण सबसे अधिक सक्रिय होता है, वह व्यक्तित्व का निर्माण करता है । समाज में व्यक्ति की गति - विधियाँ चलती रहती है । वह मित्रों से मिलता है, सगे - संबंधियों के पास जाता है, अपने अधीनस्थ कर्मचारियों और अपने अधिकारियों से जुड़ा होता है । कहने का तात्पर्य यह है कि समाज में उसकी सक्रियता बनी रहती है । उसके द्वारा किया गया व्यवहार उसके व्यक्तित्व के संबंध में बताता है कि अमुख व्यक्ति कैसा है ? महान व्यक्ति समाज के आदर्श होते है । वे अपने व्यवहार से समाज को कुछ देते रहते हैं । ये महान व्यक्ति डाक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक, अध्यापक, मूर्तिकार, साहित्यकार कोई भी हो सकते हैं । संक्षेप में कहें तो व्यक्तित्व व्यक्ति विशेष का अपना दृष्टिकोण ही होता है ।
‘प्रेमचन्द’ शब्द भारतीय जन मानस में चिर प्रतिष्ठित है । उसमें एक मजबूत सैनिक की ताकत है, साहसी की आवाज़ भी । उन्होंने समाज में प्रचलित अन्यायों और अत्याचारों के विरुद्ध अपनी कलम से संघर्ष चलाया । उनकी तूलिका तलवार से भी ज्यादा पैनी और तेज़ थी । इसलिए उन्हें ‘कलम के सिपाही’ कहते है । अंग्रेज़ों ने उनकी पहली रचना ‘सोजेवतन’ को जलाकर उनके जीवन को हिलाना चाहा । किन्तु वे न हिले न डुले, कलम को बंदूक बनाकर उनकी छाती की ओर अक्षर की गोली चलाकर लाखों - करोड़ों निस्सहायों-अस्सहायों की रक्षा की ।
प्रेमचन्द भारतीय समाज के तरह - तरह के सवालों का जवाब है । जो भी बुराई हो, वे समरसता के बिना अनवरत लड़ते रहे । महत्वपूर्ण कार्य करने वाले को महान कहते है । प्रेमचन्द महत्वपूर्ण कार्य कर महान बन गये है । उस महान का जीवन एक इतिहास है । विद्यालय से ले कर विश्वविद्यालय तक उनकी एक न एक कृति आज भी पढ़ने को मिलती है। वे अपनी अनुपम कृतियों के द्वारा देशवासियों के दिल जीतकर सम्राट बन गये है । उन पर दृष्टि डालना हमारे इतिहास पर दृष्टि डालने के बराबर है ।
प्रेमचन्द की तरह 'तकष़ी' ने भी मलयालम भाषा में लिखकर विश्व साहित्य में प्रतिष्ठा पायी है । प्रेमचन्द की तरह तकष़ी भी गाँव में जन्मे थे । प्रेमचन्द की तरह तकष़ी भी लोगों के बीच अति साधारण मनुष्य के रूप में जीवन बिताकर, साहित्य में अमर स्थान पा कर, शाश्वत स्मृति छोड़कर चले गये विश्व विख्यात उपन्यासकार है ।
मलयालम साहित्य में अपना स्थान निर्धारित करते हुए 1970 में उन्होंने कहा :- “ऐसा एक ज़माना था, जब कि केरल जनता और उनका साहित्य पूर्ण रूप से अवरुद्ध होकर खड़ा था । ऐसे समाज में साहित्य को रास्ता दिखाकर आगे ले जाने के लिए कुछ लोग आये ।” उन लोगों में तकष़ी का स्थान सर्वोपरि है । उन्नीसवीं शती में हिन्दी साहित्य की श्री वृद्धि के लिए प्रेमचन्द ने जो काम किया, वही काम मलयालम साहित्य में तकष़ी ने किया।
तकष़ी मलयालम के संक्रांति काल के साहित्यकार है । उस समय समाज साहूकारी, सामंतवादी अव्यवस्था के चक्कर से धीरे - धीरे मुक्ति पाकर जमींदारी व्यवस्था के नीचे दबा हुआ था । कुत्ते - बिल्ली को पालना तथा छूना पुण्य और दलित के पास खड़ा होना भी पाप समझने वाले लोगों के बीच से उठ कर तकष़ी पद दलित लोगों के पक्षपाती बन कर रहे । वह सैकड़ों वर्षों से जानवर से भी तुच्छ जीवन बिताने वाले लोगों के इतिहासकार थे । प्रेमचन्द को दीन - दुखियों के वकील कहते है । तकष़ी ने भी प्रेमचन्द के समान दुखियों और पीड़ितों को अपनी कृतियों का विषय बनाया । उनके समान पद - दलितों को साहित्य में स्थान देने वाला कोई भी साहित्यकार उस समय केरल में नहीं थे ।
हिन्दी भाषी उपन्यास सम्राट स्वर्गीय प्रेमचन्द का जितना आदर - सम्मान करते हैं, मलयालम भाषा - भाषी तकष़ी को उतना आदर - सम्मान देते हैं । वे उन्हें अपने पथ प्रदर्शक समझते है । तकष़ी मलयालम के मौलिक प्रतिभा संपन्न लेखक है । प्रेमचन्द ने उत्तर भारत के, विशेषकर अवध के किसानों - पद दलितों का चित्रण किया है तो तकष़ी ने ‘आलप्पुष़ा’ को पृष्ठभूमि बनाया है । कुट्टनाडु के किसान, मज़दूर एवं साधारण लोगों के चित्रण ने उन्हें विश्व साहित्यकार के अनुपम पद पर बिठाया था । तकष़ी ‘कुट्टनाडु’ के इतिहासकार है ।
तकष़ी का वास्तविक नाम शिवशंकर पिल्लै है । ‘तकष़ी’ उनके जन्म स्थान का नाम है। इस नाम से वे आगे जाने जाते हैं । उनका जन्म 17 अप्रैल 1912 में केरल के ‘आलप्पुष़ा’ जिले के तकष़ी ‘पटहारम् मुरी’ गाँव में हुआ था । उनके पिता ‘कथकली’ (केरल की एक प्रसिद्ध नृत्य कला) अभिनेता, धर्मपरायण व्यक्ति पोय्प्पल्लिक्कलत्तिल शंकर कुरुप और माता ‘पटहारम् मुरियिल पार्वती अम्मा’ थी ।
प्रेमचन्द के समान बचपन में तकष़ी ने भी आर्थिक संकट झेले थे । परिवार में ‘कथकली’ का ऊँचा स्थान था । पिता शंकर कुरुप का कथकली प्रेम पैतृक रूप में तकष़ी को भी मिला । वे बालक शिवशंकर को पौराणिक कथाएँ सुनाया करते थे । बच्चे के मन में राष्ट्र भक्ति, ब्राह्मण भक्ति, गुरु भक्ति, ईश्वर भक्ति, आचार - व्यवहार की मर्यादाएँ आदि सद्गुण बढ़ाने में पिताजी सदा ध्यान रखते थे । वे प्रेमचन्द के समान बचपन से ही साहित्य - प्रेमी थे ।
‘वड़यार’ (स्थान विशेष) के स्कूल में पढ़ते समय तकष़ी ने अपनी प्रथम कहानी रचकर भी उसे प्रकाशित नहीं किया । प्रेमचन्द ने अपने विद्यार्थी काल में ही गोर्की, चेखव, मोपसांग आदि साहित्यकारों की कृतियाँ पढ़ी थी । तकष़ी भी स्कूल शिक्षा काल में ही इन साहित्यकारों की कृतियों से परिचित थे ।
तकष़ी की प्राथमिक शिक्षा गाँव के सरकारी विद्यालय में हुई । उन दिनों में गाँव में अस्पृश्यता जोरों पर थी । इसलिए उन्हें ‘करुवाट्टा हाईस्कूल’ में भरती करवा दिया, जहाँ सवर्ण बच्चे पढ़ते थे । प्रेमचन्द के समान तकष़ी भी पाँच मील दूर पैदल चलकर ही स्कूल जाते थे । प्रेमचन्द और तकष़ी में एक और समानता थी कि दोनों गणित में पीछे थे । तकष़ी अपनी आत्म कथा में लिखते है :- “उस ज़माने में लड़कों को कुर्ता पहनने का रिवाज न था । जब अंपलप्पुष़ा स्कूल में पढ़ने के लिए जाने लगा, तब मैंने पहले पहल कुर्ता पहन लिया था। साबुन, गाँव की एक अपूर्व एवं विशिष्ट वस्तु थी, जिसका उपयोग धनवान ही करते थे ।”
कहते है कि प्रेमचन्द दिखावा नहीं करते थे । तकष़ी भी आडंबर प्रिय नहीं थे । उन्होंने प्रेमचन्द की तरह सीधा - सादा जीवन बिताया । वे साधारण धोती मात्र पहन कर अपने गाँव भर घूमते थे । दूर कहीं जाते तो कुर्ता पहनते थे , प्रेमचन्द भी ऐसे थे । निर्धन हो या धनी, प्रेमचन्द और तकष़ी को समान लगते थे । कहा जाता है कि प्रेमचन्द और तकष़ी सबेरे और सायंकाल खूब पान खाकर गाँव भर घूमते थे । दोनों की हँसी में भी समानताएँ थी । पान मुंह में भरकर प्रेमचन्द की तरह तकष़ी भी ठहाका मारकर हँसते थे । दोनों प्रसिद्धि और संपत्ति के पीछे दौड़ने वाले नहीं थे । कहते है कि गाँव में प्रेमचन्द के कम मित्र थे, किन्तु तकष़ी के लिए गाँव के करीब सभी लोग सगे संबंधी जैसे थे । तकष़ी ने अपनी आत्म कथा में लिखा है :-“सच्ची आत्म कथा समय की निष्ठा करने वाले ही लिख सकते हैं । लिखने वाले को सत्यवादी भी होना चाहिए । मैं यह नहीं मानता हूँ कि आत्म कथा केवल उच्च श्रेणी के व्यक्तियों में ही सीमित हो । एक साधारण किसान की आत्म कथा भी लाभदायक बन जायेगी ।” यहाँ उनकी आडम्बर हीनता और निष्कलंकत्व व्यक्त होते है ।
प्रेमचन्द आधुनिक भारतीय साहित्य के ध्रुव तारा है तो तकष़ी अब तक के मलयालम साहित्य के गुंबज है । दोनों सचमुच बहु आयामी कलाकार है । प्रेमचन्द के पात्र और उनके संदेश जहाँ जहाँ व्याप्त है वहाँ वहाँ रचयिता का यश फैले है । उनके कालातीत उपन्यासों की संख्या ग्यारह है, इसके अलावा 300 से भी अधिक कहानियाँ और अनेक निबंध आदि उन्होंने लिखे हैं । तकष़ी ने अपनी लंबी जीवन - यात्रा के बीच तीस से अधिक छोटे - बड़े उपन्यास लिखे हैं । उनके मुख्य उपन्यासों का, जिनमें साम्य अधिक दिखायी पडता हैं, अध्ययन विषय बनाया है । दोनों लेखक मुख्य रूप से उपन्यासकार के रूप में ही जाने जाते हैं । दोनों के मुख्य उपन्यासों का अध्ययन मैं अपनी लक्ष्य - प्राप्ति का अनिवार्य अंग समझता हूँ ।
जिस प्रकार प्रेमचन्द हिन्दी के शीर्षस्थ उपन्यासकार है उसी प्रकार तकष़ी मलयालम के शीर्षस्थ उपन्यासकार है । उनके मुख्य उपन्यासों के सर्वेक्षण मेरी लक्ष्य - पूर्ति का आवश्यक अंग है । मलयालम के आलोचक डॉ. पी. वेणुगोपालन के मत में :- “तकष़ी के साहित्य में कहने वाले और सुनने वाले को एक रस्सी में बाँधने की शक्ति संपन्नता है । उन्हें कथा अपना जीवन ही था ।” तकष़ी के उपन्यास यह साबित करता है कि वे ललित - कोमल, बोल-चाल की भाषा एवं शैली के धनी हैं । प्रेमचन्द की कृतियों में तत्कालीन समाज का इतिहास दृश्यमान है तो तकष़ी ने अपनी कृतियों में तत्कालीन समाज का जीवंत चित्रण प्रस्तुत किया है ।
निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि प्रेमचन्द की तरह तकष़ी ने भी एक दर्जन से अधिक उपन्यास लिखे हैं । प्रेमचन्द के उपन्यासों में दो प्रकार की प्रणालियाँ देख सकते हैं । पहली एक मुख्य कथा को लेकर चलने वाली और दूसरी एक से अधिक कथाओं के साथ चलने वाली है । प्रेमचन्द के उपर्युक्त सारे उपन्यासों में ‘प्रेमा’, ‘प्रतिज्ञा’, ‘गबन’, ‘सेवासदन’, ‘निर्मला’, ‘मंगल सूत्र’ आदि एक मुख्य कथा को ले कर रचित है । ‘रंगभूमि’, ‘प्रेमाश्रम’, ‘कर्मभूमि’, ‘कायाकल्प’ एवं ‘गोदान’ में एक से अधिक कथानक की चर्चा होती है । ये कृतियाँ किसानों के जीवन - विषयों पर आधारित उपन्यास है । ऐसे उपन्यासों में स्वाभाविक रूप से वर्ग संघर्ष का चित्रण आता है । इसलिए दरिद्र - धनिक या किसान - जमींदार का चित्रीकरण अनिवार्य बन पड़ता है । अथवा ऐसे संदर्भों में दुहरी कथा को एक साथ चलाने की नौबत पड़ती है । उन्होंने किसान संबंधी उपन्यासों में संघर्ष का वर्णन कितने ज़ोर से करता है उतना तीष्ण चित्रण पारिवारिक उपन्यासों में नहीं होता है । तकष़ी ने भी किसानों - मज़दूरों का वर्णन बडे ऊर्ज के साथ किया है ।
प्रेमचन्द और तकष़ी के आदर्श एवं दृष्टिकोण में जो समानता पायी जाती है, वही समानता दोनों के कथापात्रों में भी दिखायी पड़ती है । ‘प्रेमाश्रम’ का मुख्य पात्र प्रेमशंकर और तकष़ी के ‘पेरिल्ला कथा’ (नामहीन कथा) उपन्यास के शशी साम्यवादी है । जमींदारों के विरुद्ध आवाज़ उठाने वाला प्रेमशंकर और शशी में नवचेतना का ऊर्ज भरा हुआ है ।
प्रेमचन्द और तकष़ी ने अपने - अपने उपन्यासों में स्त्रियों को महत्वपूर्ण स्थान दिया है । दोनों की दृष्टि में अधिकांश स्त्रियाँ विविध कारणों से दुःखी एवं पीड़ित हैं । दोनों ने विरल स्त्री पात्रों को छोड़ कर बाकी सभी के वर्णन में सहानुभूति दर्शायी है । वैसे प्रेमचन्द और तकष़ी के अधिकांश स्त्री पात्र परिवर्तनवादी है । तकष़ी ने अपने कुछ स्त्री पात्रों में साम्यवाद की शक्ति दर्शायी है ।
प्रेमचन्द के समान तकष़ी ने भी स्त्री को लड़की, युवती, प्रेमिका, वेश्या, माता, सेविका आदि विभिन्न रूपों में चित्रित किया है । दोनों के स्त्री पात्रों में कर्तव्य निभाने वालों के साथ कर्तव्य भूलने वाले भी होते है । दोनों उपन्यासकारों ने स्त्री का मातृत्व भाव साकार करने का प्रयास किया है । प्रेमचन्द के ‘वरदान’ की सुवामा, ‘रंगभूमि’ की रानी जाह्नवी एवं मिसिस जॉनसेवक, ‘गोदान’ की धनिया तथा गोविंदी, ‘निर्मला’ की कल्याणी, तकष़ी के ‘चेम्मीन’ की चक्की, ‘रंटिटंङष़ी’ की चिरुता, ‘परमार्थङल’ (सच) की जानकी अम्मा आदि स्त्रियाँ मातृत्व भाव की प्रतिमूर्तियाँ है । ‘गोदान’ की धनिया मातृत्व की सच्ची प्रतिमूर्ति ही है । वह सोना एवं रूपा को अमित प्यार करती है । वैसे मातृ स्नेह ‘चेम्मीन’ की चक्की अपनी संतान करुत्तम्मा तथा पंचमी से करती है । तकष़ी ने ‘चेम्मीन’ (झींगा मछली) में करुत्तम्मा, ‘परमार्थंङल’ (सच) में विजयम्मा, ‘एणिप्पटिकल’ (सीढियाँ) में तंक्कम्मा, ‘औसेप्पिन्टे मक्कल’ (औसेप्प् के बेटे) में क्लारा आदियों में सच्ची प्रेमिका का रूप दर्शाया है । प्रेमचन्द ने ‘रंगभूमि’ की सोफिया, ‘गोदान’ की मालती, ‘कायाकल्प’ की मनोरमा, ‘कर्मभूमि’ की सकीना आदि अनेक पात्रों द्वारा प्रेमिका का भव्य चित्र खींचा है ।
प्रेमचन्द उत्तर भारत में जन्म ले कर, वहाँ के वातावरण में पल कर, वहाँ के लोगों के बीच रह कर साहित्य सर्जना करते थे । तकष़ी दक्षिण भारत में जन्म ले कर, इधर की परिस्थिति में रह कर, यहाँ के लोगों के जीवन से मिल - जुल कर रचना करते थे । दोनों के जीवन काल में भी अंतर है । कहने का तात्पर्य है कि दोनों की रचनाओं में समानताएँ ही नहीं, असमानताएँ भी पायी जाती है । सच कहें तो दोनों में विभिन्नता कम और एकता ज्यादा है । इस प्रकार हम देख सकते है कि जिस प्रकार प्रेमचन्द हिन्दी के शीर्षस्थ उपन्यासकार है, उसी प्रकार तकष़ी भी मलयालम के शीर्षस्थ उपन्यासकार है ।
समग्रत: कह सकते हैं कि प्रेमचन्द और तकष़ी दोनों उपन्यासकारों ने अपने - अपने उपन्यासों में तत्कालीन समाज का भरे - पूरे चित्र उतार दिये हैं ।
Written By: LEMBODHARAN PILLAI. B, Research scholar, under the guidance of Dr.K.P Padmavathi Amma, Karpagam University, Coimbatore.
कोयमबत्तूर कर्पगम विश्वविद्यालय में
डॉ.के.पी.पद्मावती अम्मा के मार्गदर्शन में
पी.एच.डी केलिए शोधरत
प्रेमचन्द हिन्दी भाषा में लिखकर विश्व प्रसिद्धि पाया उपन्यासकार है । तकष़ी शिवशंकर पिल्लै मलयालम माध्यम में लिखकर ख्याति प्राप्त उपन्यासकार है । विभिन्न काल में, उत्तर और दक्षिण में जन्मे दोनों उपन्यासकारों में अनेक समानताएँ प्रत्यक्ष रूप में देखने को मिलते है ।
व्यक्तित्व को परिभाषित किया जायें तो कहा जा सकता है कि - तीनों गुणों (सत्व, रज, तम) में से जो गुण सबसे अधिक सक्रिय होता है, वह व्यक्तित्व का निर्माण करता है । समाज में व्यक्ति की गति - विधियाँ चलती रहती है । वह मित्रों से मिलता है, सगे - संबंधियों के पास जाता है, अपने अधीनस्थ कर्मचारियों और अपने अधिकारियों से जुड़ा होता है । कहने का तात्पर्य यह है कि समाज में उसकी सक्रियता बनी रहती है । उसके द्वारा किया गया व्यवहार उसके व्यक्तित्व के संबंध में बताता है कि अमुख व्यक्ति कैसा है ? महान व्यक्ति समाज के आदर्श होते है । वे अपने व्यवहार से समाज को कुछ देते रहते हैं । ये महान व्यक्ति डाक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक, अध्यापक, मूर्तिकार, साहित्यकार कोई भी हो सकते हैं । संक्षेप में कहें तो व्यक्तित्व व्यक्ति विशेष का अपना दृष्टिकोण ही होता है ।
‘प्रेमचन्द’ शब्द भारतीय जन मानस में चिर प्रतिष्ठित है । उसमें एक मजबूत सैनिक की ताकत है, साहसी की आवाज़ भी । उन्होंने समाज में प्रचलित अन्यायों और अत्याचारों के विरुद्ध अपनी कलम से संघर्ष चलाया । उनकी तूलिका तलवार से भी ज्यादा पैनी और तेज़ थी । इसलिए उन्हें ‘कलम के सिपाही’ कहते है । अंग्रेज़ों ने उनकी पहली रचना ‘सोजेवतन’ को जलाकर उनके जीवन को हिलाना चाहा । किन्तु वे न हिले न डुले, कलम को बंदूक बनाकर उनकी छाती की ओर अक्षर की गोली चलाकर लाखों - करोड़ों निस्सहायों-अस्सहायों की रक्षा की ।
प्रेमचन्द भारतीय समाज के तरह - तरह के सवालों का जवाब है । जो भी बुराई हो, वे समरसता के बिना अनवरत लड़ते रहे । महत्वपूर्ण कार्य करने वाले को महान कहते है । प्रेमचन्द महत्वपूर्ण कार्य कर महान बन गये है । उस महान का जीवन एक इतिहास है । विद्यालय से ले कर विश्वविद्यालय तक उनकी एक न एक कृति आज भी पढ़ने को मिलती है। वे अपनी अनुपम कृतियों के द्वारा देशवासियों के दिल जीतकर सम्राट बन गये है । उन पर दृष्टि डालना हमारे इतिहास पर दृष्टि डालने के बराबर है ।
प्रेमचन्द की तरह 'तकष़ी' ने भी मलयालम भाषा में लिखकर विश्व साहित्य में प्रतिष्ठा पायी है । प्रेमचन्द की तरह तकष़ी भी गाँव में जन्मे थे । प्रेमचन्द की तरह तकष़ी भी लोगों के बीच अति साधारण मनुष्य के रूप में जीवन बिताकर, साहित्य में अमर स्थान पा कर, शाश्वत स्मृति छोड़कर चले गये विश्व विख्यात उपन्यासकार है ।
मलयालम साहित्य में अपना स्थान निर्धारित करते हुए 1970 में उन्होंने कहा :- “ऐसा एक ज़माना था, जब कि केरल जनता और उनका साहित्य पूर्ण रूप से अवरुद्ध होकर खड़ा था । ऐसे समाज में साहित्य को रास्ता दिखाकर आगे ले जाने के लिए कुछ लोग आये ।” उन लोगों में तकष़ी का स्थान सर्वोपरि है । उन्नीसवीं शती में हिन्दी साहित्य की श्री वृद्धि के लिए प्रेमचन्द ने जो काम किया, वही काम मलयालम साहित्य में तकष़ी ने किया।
तकष़ी मलयालम के संक्रांति काल के साहित्यकार है । उस समय समाज साहूकारी, सामंतवादी अव्यवस्था के चक्कर से धीरे - धीरे मुक्ति पाकर जमींदारी व्यवस्था के नीचे दबा हुआ था । कुत्ते - बिल्ली को पालना तथा छूना पुण्य और दलित के पास खड़ा होना भी पाप समझने वाले लोगों के बीच से उठ कर तकष़ी पद दलित लोगों के पक्षपाती बन कर रहे । वह सैकड़ों वर्षों से जानवर से भी तुच्छ जीवन बिताने वाले लोगों के इतिहासकार थे । प्रेमचन्द को दीन - दुखियों के वकील कहते है । तकष़ी ने भी प्रेमचन्द के समान दुखियों और पीड़ितों को अपनी कृतियों का विषय बनाया । उनके समान पद - दलितों को साहित्य में स्थान देने वाला कोई भी साहित्यकार उस समय केरल में नहीं थे ।
हिन्दी भाषी उपन्यास सम्राट स्वर्गीय प्रेमचन्द का जितना आदर - सम्मान करते हैं, मलयालम भाषा - भाषी तकष़ी को उतना आदर - सम्मान देते हैं । वे उन्हें अपने पथ प्रदर्शक समझते है । तकष़ी मलयालम के मौलिक प्रतिभा संपन्न लेखक है । प्रेमचन्द ने उत्तर भारत के, विशेषकर अवध के किसानों - पद दलितों का चित्रण किया है तो तकष़ी ने ‘आलप्पुष़ा’ को पृष्ठभूमि बनाया है । कुट्टनाडु के किसान, मज़दूर एवं साधारण लोगों के चित्रण ने उन्हें विश्व साहित्यकार के अनुपम पद पर बिठाया था । तकष़ी ‘कुट्टनाडु’ के इतिहासकार है ।
तकष़ी का वास्तविक नाम शिवशंकर पिल्लै है । ‘तकष़ी’ उनके जन्म स्थान का नाम है। इस नाम से वे आगे जाने जाते हैं । उनका जन्म 17 अप्रैल 1912 में केरल के ‘आलप्पुष़ा’ जिले के तकष़ी ‘पटहारम् मुरी’ गाँव में हुआ था । उनके पिता ‘कथकली’ (केरल की एक प्रसिद्ध नृत्य कला) अभिनेता, धर्मपरायण व्यक्ति पोय्प्पल्लिक्कलत्तिल शंकर कुरुप और माता ‘पटहारम् मुरियिल पार्वती अम्मा’ थी ।
प्रेमचन्द के समान बचपन में तकष़ी ने भी आर्थिक संकट झेले थे । परिवार में ‘कथकली’ का ऊँचा स्थान था । पिता शंकर कुरुप का कथकली प्रेम पैतृक रूप में तकष़ी को भी मिला । वे बालक शिवशंकर को पौराणिक कथाएँ सुनाया करते थे । बच्चे के मन में राष्ट्र भक्ति, ब्राह्मण भक्ति, गुरु भक्ति, ईश्वर भक्ति, आचार - व्यवहार की मर्यादाएँ आदि सद्गुण बढ़ाने में पिताजी सदा ध्यान रखते थे । वे प्रेमचन्द के समान बचपन से ही साहित्य - प्रेमी थे ।
‘वड़यार’ (स्थान विशेष) के स्कूल में पढ़ते समय तकष़ी ने अपनी प्रथम कहानी रचकर भी उसे प्रकाशित नहीं किया । प्रेमचन्द ने अपने विद्यार्थी काल में ही गोर्की, चेखव, मोपसांग आदि साहित्यकारों की कृतियाँ पढ़ी थी । तकष़ी भी स्कूल शिक्षा काल में ही इन साहित्यकारों की कृतियों से परिचित थे ।
तकष़ी की प्राथमिक शिक्षा गाँव के सरकारी विद्यालय में हुई । उन दिनों में गाँव में अस्पृश्यता जोरों पर थी । इसलिए उन्हें ‘करुवाट्टा हाईस्कूल’ में भरती करवा दिया, जहाँ सवर्ण बच्चे पढ़ते थे । प्रेमचन्द के समान तकष़ी भी पाँच मील दूर पैदल चलकर ही स्कूल जाते थे । प्रेमचन्द और तकष़ी में एक और समानता थी कि दोनों गणित में पीछे थे । तकष़ी अपनी आत्म कथा में लिखते है :- “उस ज़माने में लड़कों को कुर्ता पहनने का रिवाज न था । जब अंपलप्पुष़ा स्कूल में पढ़ने के लिए जाने लगा, तब मैंने पहले पहल कुर्ता पहन लिया था। साबुन, गाँव की एक अपूर्व एवं विशिष्ट वस्तु थी, जिसका उपयोग धनवान ही करते थे ।”
कहते है कि प्रेमचन्द दिखावा नहीं करते थे । तकष़ी भी आडंबर प्रिय नहीं थे । उन्होंने प्रेमचन्द की तरह सीधा - सादा जीवन बिताया । वे साधारण धोती मात्र पहन कर अपने गाँव भर घूमते थे । दूर कहीं जाते तो कुर्ता पहनते थे , प्रेमचन्द भी ऐसे थे । निर्धन हो या धनी, प्रेमचन्द और तकष़ी को समान लगते थे । कहा जाता है कि प्रेमचन्द और तकष़ी सबेरे और सायंकाल खूब पान खाकर गाँव भर घूमते थे । दोनों की हँसी में भी समानताएँ थी । पान मुंह में भरकर प्रेमचन्द की तरह तकष़ी भी ठहाका मारकर हँसते थे । दोनों प्रसिद्धि और संपत्ति के पीछे दौड़ने वाले नहीं थे । कहते है कि गाँव में प्रेमचन्द के कम मित्र थे, किन्तु तकष़ी के लिए गाँव के करीब सभी लोग सगे संबंधी जैसे थे । तकष़ी ने अपनी आत्म कथा में लिखा है :-“सच्ची आत्म कथा समय की निष्ठा करने वाले ही लिख सकते हैं । लिखने वाले को सत्यवादी भी होना चाहिए । मैं यह नहीं मानता हूँ कि आत्म कथा केवल उच्च श्रेणी के व्यक्तियों में ही सीमित हो । एक साधारण किसान की आत्म कथा भी लाभदायक बन जायेगी ।” यहाँ उनकी आडम्बर हीनता और निष्कलंकत्व व्यक्त होते है ।
प्रेमचन्द आधुनिक भारतीय साहित्य के ध्रुव तारा है तो तकष़ी अब तक के मलयालम साहित्य के गुंबज है । दोनों सचमुच बहु आयामी कलाकार है । प्रेमचन्द के पात्र और उनके संदेश जहाँ जहाँ व्याप्त है वहाँ वहाँ रचयिता का यश फैले है । उनके कालातीत उपन्यासों की संख्या ग्यारह है, इसके अलावा 300 से भी अधिक कहानियाँ और अनेक निबंध आदि उन्होंने लिखे हैं । तकष़ी ने अपनी लंबी जीवन - यात्रा के बीच तीस से अधिक छोटे - बड़े उपन्यास लिखे हैं । उनके मुख्य उपन्यासों का, जिनमें साम्य अधिक दिखायी पडता हैं, अध्ययन विषय बनाया है । दोनों लेखक मुख्य रूप से उपन्यासकार के रूप में ही जाने जाते हैं । दोनों के मुख्य उपन्यासों का अध्ययन मैं अपनी लक्ष्य - प्राप्ति का अनिवार्य अंग समझता हूँ ।
जिस प्रकार प्रेमचन्द हिन्दी के शीर्षस्थ उपन्यासकार है उसी प्रकार तकष़ी मलयालम के शीर्षस्थ उपन्यासकार है । उनके मुख्य उपन्यासों के सर्वेक्षण मेरी लक्ष्य - पूर्ति का आवश्यक अंग है । मलयालम के आलोचक डॉ. पी. वेणुगोपालन के मत में :- “तकष़ी के साहित्य में कहने वाले और सुनने वाले को एक रस्सी में बाँधने की शक्ति संपन्नता है । उन्हें कथा अपना जीवन ही था ।” तकष़ी के उपन्यास यह साबित करता है कि वे ललित - कोमल, बोल-चाल की भाषा एवं शैली के धनी हैं । प्रेमचन्द की कृतियों में तत्कालीन समाज का इतिहास दृश्यमान है तो तकष़ी ने अपनी कृतियों में तत्कालीन समाज का जीवंत चित्रण प्रस्तुत किया है ।
निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि प्रेमचन्द की तरह तकष़ी ने भी एक दर्जन से अधिक उपन्यास लिखे हैं । प्रेमचन्द के उपन्यासों में दो प्रकार की प्रणालियाँ देख सकते हैं । पहली एक मुख्य कथा को लेकर चलने वाली और दूसरी एक से अधिक कथाओं के साथ चलने वाली है । प्रेमचन्द के उपर्युक्त सारे उपन्यासों में ‘प्रेमा’, ‘प्रतिज्ञा’, ‘गबन’, ‘सेवासदन’, ‘निर्मला’, ‘मंगल सूत्र’ आदि एक मुख्य कथा को ले कर रचित है । ‘रंगभूमि’, ‘प्रेमाश्रम’, ‘कर्मभूमि’, ‘कायाकल्प’ एवं ‘गोदान’ में एक से अधिक कथानक की चर्चा होती है । ये कृतियाँ किसानों के जीवन - विषयों पर आधारित उपन्यास है । ऐसे उपन्यासों में स्वाभाविक रूप से वर्ग संघर्ष का चित्रण आता है । इसलिए दरिद्र - धनिक या किसान - जमींदार का चित्रीकरण अनिवार्य बन पड़ता है । अथवा ऐसे संदर्भों में दुहरी कथा को एक साथ चलाने की नौबत पड़ती है । उन्होंने किसान संबंधी उपन्यासों में संघर्ष का वर्णन कितने ज़ोर से करता है उतना तीष्ण चित्रण पारिवारिक उपन्यासों में नहीं होता है । तकष़ी ने भी किसानों - मज़दूरों का वर्णन बडे ऊर्ज के साथ किया है ।
प्रेमचन्द और तकष़ी के आदर्श एवं दृष्टिकोण में जो समानता पायी जाती है, वही समानता दोनों के कथापात्रों में भी दिखायी पड़ती है । ‘प्रेमाश्रम’ का मुख्य पात्र प्रेमशंकर और तकष़ी के ‘पेरिल्ला कथा’ (नामहीन कथा) उपन्यास के शशी साम्यवादी है । जमींदारों के विरुद्ध आवाज़ उठाने वाला प्रेमशंकर और शशी में नवचेतना का ऊर्ज भरा हुआ है ।
प्रेमचन्द और तकष़ी ने अपने - अपने उपन्यासों में स्त्रियों को महत्वपूर्ण स्थान दिया है । दोनों की दृष्टि में अधिकांश स्त्रियाँ विविध कारणों से दुःखी एवं पीड़ित हैं । दोनों ने विरल स्त्री पात्रों को छोड़ कर बाकी सभी के वर्णन में सहानुभूति दर्शायी है । वैसे प्रेमचन्द और तकष़ी के अधिकांश स्त्री पात्र परिवर्तनवादी है । तकष़ी ने अपने कुछ स्त्री पात्रों में साम्यवाद की शक्ति दर्शायी है ।
प्रेमचन्द के समान तकष़ी ने भी स्त्री को लड़की, युवती, प्रेमिका, वेश्या, माता, सेविका आदि विभिन्न रूपों में चित्रित किया है । दोनों के स्त्री पात्रों में कर्तव्य निभाने वालों के साथ कर्तव्य भूलने वाले भी होते है । दोनों उपन्यासकारों ने स्त्री का मातृत्व भाव साकार करने का प्रयास किया है । प्रेमचन्द के ‘वरदान’ की सुवामा, ‘रंगभूमि’ की रानी जाह्नवी एवं मिसिस जॉनसेवक, ‘गोदान’ की धनिया तथा गोविंदी, ‘निर्मला’ की कल्याणी, तकष़ी के ‘चेम्मीन’ की चक्की, ‘रंटिटंङष़ी’ की चिरुता, ‘परमार्थङल’ (सच) की जानकी अम्मा आदि स्त्रियाँ मातृत्व भाव की प्रतिमूर्तियाँ है । ‘गोदान’ की धनिया मातृत्व की सच्ची प्रतिमूर्ति ही है । वह सोना एवं रूपा को अमित प्यार करती है । वैसे मातृ स्नेह ‘चेम्मीन’ की चक्की अपनी संतान करुत्तम्मा तथा पंचमी से करती है । तकष़ी ने ‘चेम्मीन’ (झींगा मछली) में करुत्तम्मा, ‘परमार्थंङल’ (सच) में विजयम्मा, ‘एणिप्पटिकल’ (सीढियाँ) में तंक्कम्मा, ‘औसेप्पिन्टे मक्कल’ (औसेप्प् के बेटे) में क्लारा आदियों में सच्ची प्रेमिका का रूप दर्शाया है । प्रेमचन्द ने ‘रंगभूमि’ की सोफिया, ‘गोदान’ की मालती, ‘कायाकल्प’ की मनोरमा, ‘कर्मभूमि’ की सकीना आदि अनेक पात्रों द्वारा प्रेमिका का भव्य चित्र खींचा है ।
प्रेमचन्द उत्तर भारत में जन्म ले कर, वहाँ के वातावरण में पल कर, वहाँ के लोगों के बीच रह कर साहित्य सर्जना करते थे । तकष़ी दक्षिण भारत में जन्म ले कर, इधर की परिस्थिति में रह कर, यहाँ के लोगों के जीवन से मिल - जुल कर रचना करते थे । दोनों के जीवन काल में भी अंतर है । कहने का तात्पर्य है कि दोनों की रचनाओं में समानताएँ ही नहीं, असमानताएँ भी पायी जाती है । सच कहें तो दोनों में विभिन्नता कम और एकता ज्यादा है । इस प्रकार हम देख सकते है कि जिस प्रकार प्रेमचन्द हिन्दी के शीर्षस्थ उपन्यासकार है, उसी प्रकार तकष़ी भी मलयालम के शीर्षस्थ उपन्यासकार है ।
समग्रत: कह सकते हैं कि प्रेमचन्द और तकष़ी दोनों उपन्यासकारों ने अपने - अपने उपन्यासों में तत्कालीन समाज का भरे - पूरे चित्र उतार दिये हैं ।
Written By: LEMBODHARAN PILLAI. B, Research scholar, under the guidance of Dr.K.P Padmavathi Amma, Karpagam University, Coimbatore.
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