बेणेश्वर को बेणको सोम-मही को घाट - डॉ. दीपक आचार्य 9413306077 dr.deepakaacharya@gmail.com नदियों के किनारे-किनारे सभ्यताओं का ...
बेणेश्वर को बेणको
सोम-मही को घाट
- डॉ. दीपक आचार्य
9413306077
dr.deepakaacharya@gmail.com
नदियों के किनारे-किनारे सभ्यताओं का विकास हुआ,संस्कृतियाँ पल्लवित-पुष्पित हुई और लोक जीवन मुखरित होता चला गया।
आज जो कुछ हम देख रहे हैं वह नदियों का ही उपहार है,नदियों के मुहाने ही रचा गया है सृजन का इतिहास, कर्मयोग का आभामण्डल और कालजयी परंपराओं का सेतुबंध।
धन्य हैं वे नदियाँ जो जाने कितने दूर-दूर से जल लाकर मीलों तक को रसीला बनाए रखती हैं, सृष्टि के तमाम जीवों से लेकर वनस्पतियों तक को जीवन देती हैं और खुद अनासक्त, निर्मोही और निष्प्रपंची होकर जीते हुए आगे से आगे बढ़ती चली जाती हैं।
न कभी कुछ पाने की इच्छा, न आभार सुनने में दिलचस्पी। अपना कर्म करते हुए निरन्तर प्रवाहमान ये नदियां ‘चरैवेति-चरैवेति’ का उद्घोष करती रहती हैं।
देश और दुनिया में वागड़ अंचल अपना विशिष्ट स्थान रखता है जहाँ नदियों की पूजा होती है, सदियों से संगम जल में समाहित होकर पीढ़ियां ऊध्र्वगमन की राह पाती रही हैं और वर्तमान इन नदियों के सान्निध्य में आकर उमंग, उल्लास और आनंद की भावभूमि पाकर इस कदर थिरकता और मदमस्त हो जाता है कि इस दिव्य धरा और जल संगम को स्वर्ग स्वीकार करना ही पड़ता है।
तभी तो भगवान श्रीकृष्ण ने अधूरी रह गई रासलीला को पूरी करने के लिए इसके अन्यतम और खास महत्व को देखकर इस पर रीझते हुए कहा था - बेणेश्वर को बेणको, सोम-मही को घाट, आदूदरो आद को त्याँ जो जो म्हारी वाट। योगीश्वर ने जिस जल-थल संगम को इतना अधिक महत्व दिया हो उसे कौन नकार सकता है।
टापू का वजूद और सौन्दर्य तभी है जब नदियां परिपुष्ट और उदार बनी रहें, इनकी अस्मिता और वैभव पर न कोई पहरा बिठाये, न छेड़छाड़ करे। आजकल हमारी मानसिकता जमीन और जायदाद तक सिमटने लगी है। नदियों, प्राकृतिक संसाधनों और परंपरागत जल स्रोतों की बजाय हम जमीन को अधिक महत्व देने लगे हैं। इस चक्कर में जमीनों का आकार बढ़ता जा रहा है और जल राशि सहेजने वाले भण्डारों की बेकद्री होने लगी है।
यह टापू कोई मामूली द्वीप नहीं है। धर्म-अध्यात्म, लोक संस्कृति, साहित्य, परंपराओं, आर्थिक व सामाजिक आयामों से लेकर पिण्ड और ब्रह्माण्ड तक की तमाम गतिविधियों से परोक्ष-अपरोक्ष से सूक्ष्म और स्थूल दोनों ही प्रकार से जुड़ा है यह। यह टापू वर्णनातीत है।
बेणेश्वर की नदियों और संगम के बारे में कई लोक वाणियाँ प्रचलित हैं जिनका सीधा संबंध प्रकृति से है। कहा जाता रहा है कि बेणेश्वर में पहले माही की ओर से उफान हो तो वर्ष उतना अच्छा नहीं बीतता जितनी अपेक्षा होती है। इसके ठीक विपरीत यदि सोम नदी में उफान पहले आए तो वर्ष अच्छा गुजरता है और फसलों से लेकर जनजीवन तक सभी मामलों में खुशहाली सामने आती है। यह बात तब की है जब सोम और माही पर बांध नहीं बांधा गया था।
सोम अपने आप में चन्द्र का प्रतिनिधित्व करता है जिसमें अमृत तत्व की प्रधानता है। उधर माही में धार्मिक यज्ञ से उत्पन्न रस से नदी के प्रकटीकरण का उल्लेख है। दोनों ही दिव्य नदियां हैं जिनमें जाखम का जल भी मिलकर बेणेश्वर की जलराशि को तीन नदियों के जल का पावन धाम बनाता है।
यह संगम सामाजिक समरसता का प्रतीक भी है और सामाजिक सौहार्द, एक्य तथा सामूहिकता का पाठ भी पढ़ाता है। बेणेश्वर सभी का है और सभी यहां आकर वह सब कुछ कर सकते हैं जिनके लिए बेणेश्वर की ख्याति रही है।
जल संगम तीर्थ तटों को सरसब्ज करने से लेकर उस हर इंसान को सरस, स्निग्ध और उदार बनाता है जो इसके आँचल में आकर पावन सान्निध्य पाते हैं। संगम तीर्थ सामाजिक एकता और देश की अखण्डता के साथ ही आत्मिक शांति, सुकून और पावनता पाने का भी पैगाम देता है जिसकी कि आज पूरे विश्व को जरूरत है। संगम की लहरों को देखें और कुछ सीखें इनसे।
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सोम-मही को घाट
- डॉ. दीपक आचार्य
9413306077
dr.deepakaacharya@gmail.com
नदियों के किनारे-किनारे सभ्यताओं का विकास हुआ,संस्कृतियाँ पल्लवित-पुष्पित हुई और लोक जीवन मुखरित होता चला गया।
आज जो कुछ हम देख रहे हैं वह नदियों का ही उपहार है,नदियों के मुहाने ही रचा गया है सृजन का इतिहास, कर्मयोग का आभामण्डल और कालजयी परंपराओं का सेतुबंध।
धन्य हैं वे नदियाँ जो जाने कितने दूर-दूर से जल लाकर मीलों तक को रसीला बनाए रखती हैं, सृष्टि के तमाम जीवों से लेकर वनस्पतियों तक को जीवन देती हैं और खुद अनासक्त, निर्मोही और निष्प्रपंची होकर जीते हुए आगे से आगे बढ़ती चली जाती हैं।
न कभी कुछ पाने की इच्छा, न आभार सुनने में दिलचस्पी। अपना कर्म करते हुए निरन्तर प्रवाहमान ये नदियां ‘चरैवेति-चरैवेति’ का उद्घोष करती रहती हैं।
देश और दुनिया में वागड़ अंचल अपना विशिष्ट स्थान रखता है जहाँ नदियों की पूजा होती है, सदियों से संगम जल में समाहित होकर पीढ़ियां ऊध्र्वगमन की राह पाती रही हैं और वर्तमान इन नदियों के सान्निध्य में आकर उमंग, उल्लास और आनंद की भावभूमि पाकर इस कदर थिरकता और मदमस्त हो जाता है कि इस दिव्य धरा और जल संगम को स्वर्ग स्वीकार करना ही पड़ता है।
तभी तो भगवान श्रीकृष्ण ने अधूरी रह गई रासलीला को पूरी करने के लिए इसके अन्यतम और खास महत्व को देखकर इस पर रीझते हुए कहा था - बेणेश्वर को बेणको, सोम-मही को घाट, आदूदरो आद को त्याँ जो जो म्हारी वाट। योगीश्वर ने जिस जल-थल संगम को इतना अधिक महत्व दिया हो उसे कौन नकार सकता है।
टापू का वजूद और सौन्दर्य तभी है जब नदियां परिपुष्ट और उदार बनी रहें, इनकी अस्मिता और वैभव पर न कोई पहरा बिठाये, न छेड़छाड़ करे। आजकल हमारी मानसिकता जमीन और जायदाद तक सिमटने लगी है। नदियों, प्राकृतिक संसाधनों और परंपरागत जल स्रोतों की बजाय हम जमीन को अधिक महत्व देने लगे हैं। इस चक्कर में जमीनों का आकार बढ़ता जा रहा है और जल राशि सहेजने वाले भण्डारों की बेकद्री होने लगी है।
यह टापू कोई मामूली द्वीप नहीं है। धर्म-अध्यात्म, लोक संस्कृति, साहित्य, परंपराओं, आर्थिक व सामाजिक आयामों से लेकर पिण्ड और ब्रह्माण्ड तक की तमाम गतिविधियों से परोक्ष-अपरोक्ष से सूक्ष्म और स्थूल दोनों ही प्रकार से जुड़ा है यह। यह टापू वर्णनातीत है।
बेणेश्वर की नदियों और संगम के बारे में कई लोक वाणियाँ प्रचलित हैं जिनका सीधा संबंध प्रकृति से है। कहा जाता रहा है कि बेणेश्वर में पहले माही की ओर से उफान हो तो वर्ष उतना अच्छा नहीं बीतता जितनी अपेक्षा होती है। इसके ठीक विपरीत यदि सोम नदी में उफान पहले आए तो वर्ष अच्छा गुजरता है और फसलों से लेकर जनजीवन तक सभी मामलों में खुशहाली सामने आती है। यह बात तब की है जब सोम और माही पर बांध नहीं बांधा गया था।
सोम अपने आप में चन्द्र का प्रतिनिधित्व करता है जिसमें अमृत तत्व की प्रधानता है। उधर माही में धार्मिक यज्ञ से उत्पन्न रस से नदी के प्रकटीकरण का उल्लेख है। दोनों ही दिव्य नदियां हैं जिनमें जाखम का जल भी मिलकर बेणेश्वर की जलराशि को तीन नदियों के जल का पावन धाम बनाता है।
यह संगम सामाजिक समरसता का प्रतीक भी है और सामाजिक सौहार्द, एक्य तथा सामूहिकता का पाठ भी पढ़ाता है। बेणेश्वर सभी का है और सभी यहां आकर वह सब कुछ कर सकते हैं जिनके लिए बेणेश्वर की ख्याति रही है।
जल संगम तीर्थ तटों को सरसब्ज करने से लेकर उस हर इंसान को सरस, स्निग्ध और उदार बनाता है जो इसके आँचल में आकर पावन सान्निध्य पाते हैं। संगम तीर्थ सामाजिक एकता और देश की अखण्डता के साथ ही आत्मिक शांति, सुकून और पावनता पाने का भी पैगाम देता है जिसकी कि आज पूरे विश्व को जरूरत है। संगम की लहरों को देखें और कुछ सीखें इनसे।
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