' ' बताओ किस बात पर गर्व है तुम्हें ' ' 500 वर्ष मुगलों की गुलामी 200 वर्ष अंग्रेजी की गुलामी और इसके पूर्व भी आक्रमणकारिय...
' ' बताओ किस बात पर गर्व है
तुम्हें ' '
500 वर्ष मुगलों की गुलामी
200 वर्ष अंग्रेजी की गुलामी
और इसके पूर्व भी आक्रमणकारियों
के हमले ।
हीरे-जवाहरात,स्वर्ण की लूट
मंदिरों में लूट
आदमियों को गुलाम बनाकर
औरतों की आबरु लूटकर
बच्चों को यतीम बनाकर
हमलावर करते रहे निरन्तर लूट-खसोट
कुछ को तो हम निमंत्रण देकर
बुलाते रहे कि आओ मेरे एक
दुश्मन को मार दो
बदले में लूट लो पूरा हिन्दुस्तान
बाद में आमंत्रण देने वाले भी
लूटे और मारे गये
किस बात का गर्व है तुम्हें ।
निरन्तर गुलामी का
लूटे जाने का ।
चीन ने हजारों हेक्टेयर
भूमि पर कब्जा कर रखा है
और बुरी तरह हराया भी
सम्पूर्ण जीत के बाद भी
आधा कश्मीर, पाकिस्तान
के कब्जे हैं ।
कच्छ के रन की हमारी
भूमि दुश्मनों के कब्जे में है
किस बात का गर्व हैं तुम्हें ।
विदेशी आज भी हम पर
आधिपत्य जमायें हुए हैं
उनकी संस्कृति के दीवाने हम
उनकी भाषा हमारे सिर-चढ़कर
बोल रही है ।
विदेशी सभ्यता
विदेशी शिक्षा
विदेशी टेक्नोलॉजी
विदेशी विज्ञान
विदेशी चिकित्सा
विदेशी कंपनियों
विदेशी कारखाने
विदेशी वस्त्र
सुबह से शाम तक उपयोग में आते
रोजमर्रा की उपयोगी चीजों में विदेशी सामान
हमारे पास खुद का क्या है
कुंभ भी नहीं
फिर किस बात का गर्व है तुम्हें ।
हमारे पास अपना संविधान भी नहीं
अपना कानून भी नहीं ।
आधा इसका आधा उसका
कृषि प्रधान हमारा देश
और हम विदेशों से
अनाज खरीद रहे हैं
हमारे कृषक भूखों मर रहे हैं ।
हम पैदा यहीं होते हैं
और सेवा वहाँ करते हैं ।
डालर के भूखे तुम
किस बात का गर्व है तुम्हें ।
हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दी
को हमारे ही देश में नकारा
जा रहा है ।
हिन्दी हो या हिन्दी प्रदेश
पिछड़ी-देहाती-गरीब
और हंसी की पात्र हिन्दी
राष्ट्र में राष्ट्र भाषा उपेक्षित ।
संसद हमारी विधेयक
विदेशी हित में पारित होते हैं ।
राष्ट्रीय पशु
राष्ट्रीय पक्षी
दिनोंदिन कम किये जा रहे हैं।
झंडा हमारा डंडा उनका
हमारे पास अपना कोई राष्ट्रीय ग्रंथ नहीं ।
वोट की राजनीति,नोटों का लोभ
विभिन्न धर्म,भाषा, जाति के लोगों नेn
ईं देश को धर्मनिरपेक्ष घोषित कर दिया ।
और धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में
धर्म के नाम पर हिंसा, मारकाट, दंगा फसाद
आगजनी, हत्यायें आम बात हो गई है
किस बात का गर्व हैं तुम्हें ।
हम हमेशा से हिन्दू रहे
हम हमेशा से मुसलमान रहे ।
सिख रहे ईसाई रहे
हम लड़ते रहे आपस में
हम बटते रहे आपस में
यहाँ कोई उत्तर भारतीय
कोई दक्षिण भारतीय
कोई मराठी कोई बंगाली
पर कोई हिन्दुस्तानी नहीं ।
किस बात का गर्व हैं तुम्हें ।
धर्म के नाम पर कुरीतियों आडम्बरों का कचरा
ऊँच- नीच के नाम पर मानव को मानव से खतरा
आत्महत्या करते बेरोजगार
अपराध में रोजी- रोटी तलाशते बेकार
भगवान के नाम पर चंदा से चांदी करते भक्त
त्योहारों के नाम पर फसाद
उगाही, वसूली, गुण्डों को टेक्स
भाषा की लड़ाई, प्रान्त की लड़ाई
धर्म की लड़ाई, अहं की लड़ाई
चमत्कारों को चढ़ावा चढ़ाते
सत्ता, धर्म की दलाली
भगवा के भगोडे । पंथ, महन्त
संघ, संस्थान, कपूरों, गिरोह, पार्टी,
दल के दल- दल
कहीं नक्सलवाद
कहीं आतंकवाद
कहीं उग्रवाद
कहीं बोर्डो, कहीं कट्टरवाद
कहीं सिमी, कहीं किसी की सेना
सब भारतीय सब भारतवासी
और सभी भारत के दुश्मन
किस बात का गर्व हैं तुम्हें ।
सीमा पर विदेशी हमले
अन्दर अपनों द्वारा ही विस्फोट
कहीं बन्द कहीं हड़ताल
कभी चक्काजाम,कभी कर्फ्यू
कभी धरना,प्रदर्शन,आन्दोलन ।
कभी काम रोको,कभी रेल रोको
कभी अपनी भड़ास निकालने
अपने ही देश की बसे-देने जला दी ।
अपन ही लोगों को आग के हवाले कर दिया।
बताओ तुम दुश्मन हो देश के या भारतीय ।
एक अरब जनता में कितने भारतीय हैं ।
हम अपने ही टुकड़ों के और टुकड़े
करने में लगे हुए हैं
हमारे पास न ईमानदारी है
न नैतिकता है
न चरित्र है
चारों ओर भ्रष्ट्राचार भाई-भजीतावाद
रिश्वतखोरी,वोट बैंक, नोट बैंक, हत्या,बलात्कार
अपहरण-अत्याचार, अनाचार फैला है
बताओ किस बात का गर्व है तुम्हें ।
अमल-पंसद
ये पृथ्वी मनुष्यों के लिए है
राक्षसों को पाताल खदेड़ो
और देवताओं से निवेदन है
कृपया स्वर्ग की ओर प्रस्थान करें
और मानव जाति को अमन-चैन से रहने दे
शीघ्र जाये अन्यथा हमें कड़ी कार्यवाही करनी होगी
बहुत हो गया, बहुत रह लिया
कंधे दुखने लगे हैँ
आपकी कृपा, दया से भरी
खोखली किताबों का बोझ उठाये हुए
आप भी जायें और साथ में
अपने पुराण-कुरान भी ले जायें
आपके जो स्मारक बनाकर
हमने अपनी विराटता का परिचय दिया था
उसका आपने नाजायज फायदा उठाया
कभी कुर्बानी, कभी बलि, कभी हवन-यज्ञ
कभी व्रत-उपवास करवाकर, खूब ठगा आपने हमको
आपको जितना पूजा हमारी मनुष्य जाति ने
उतनी ही कमजोर, प्रताडित और मोहताज, हो गई
हमारे कर्म में हमारे छूत-पसीने में
आप बैठे-बैठे हिस्सा लेकर साहूकारी दिखाते रहे
हमारी ही जमीनों पर मंदिर-मस्जिद, तीर्थ बनाकर
आप जमींदार और चौकीदार बन गये
पृथ्वी हमारी, धरती हमारी
मेहरबानी करो और चलते बनो
आप तो यहीं डेरा जमाकर बैठ गये
जब आपके स्वर्ग में हमारी जाति का एक भी नहीं
तो फिर आप क्यों हमारी धरती पर कब्जा जमाये बैठे हो ।
वैसी भी हमें बहुत से निर्माण कार्य करने हैं
शौचालय बनवाना है
सराय, घर, मकान बनवाना है
आप हटे जमीन की आवश्यकता है
अनाथ बच्चों को दूध पिलाना हैं
अब आपको दूध नहीं चढ़ा सकते
आप जाये और चाह तो ले जाये एक-एक प्रति
टैगोर, प्रेमचंद की रचनाओं की
और आनंद ले, समझे, जाने-पहचाने
जीवन केवल अपनी पूजा करवाना नहीं
वरन दूसरों के दर्द को समझना है
दूसरों के काम आना है
हटाओ, अपना यह तामझाम
बीमारों के वास्ते अस्पताल बनवाना है
डरवाना मत ग्रह-नक्षत्रों के श्राप से
और ब्रह्मास्त्रों की आड लेकर
हमारे पास भी बहुत कुछ है
पर हम मनुष्य लोग अमन पसन्द हैंn
' ' नालायक कहीं का ' '
मुझे जलना ही था
क्योंकि जन्म के साथ
तय है मृत्यु भी
अच्छी वात ये है कि
मैं देख रहा था स्वयं को
धूं-धूं करते मेरा शरीर
अग्नि में खाक हो रहा था
और विलाप कर रहे थे
मेरे प्रिय,मेरे परिजन
में पूरा भी नहीं जल पाया था
कि मेरे अपने मुझे छोड़कर
एक-एक कर जाने लगे
मेरे अपने जिनके साथ देखे थे
मैंने सपने जिनके सपनों को साकार करने
के लिए मैंने पूरा जीवन गंवा दिया
जिनके लिए मैं कल था
नाम.पद,सहित
अब मैं सभी के लिए
मात्र लाश था ।
सब मुझ आग के हवाले कर
जा चुके थे घर शुद्धि,स्नान से
स्वयं को शुद्ध करना भी जरूरी था ।
तो क्या मैं मरते ही इतना अशुद्ध-अपवित्र हो गया
क्या इसी दिन के लिए मैंने पूरा जीवन गंवा दिया ।
ठीक हे उन्हें अभी तीसरे से तेरहवीं तक के काम निकालने
थे । फिर मेरे अपने तीसरे दिन मेरी राख लेने
आयेंगे उसे भी बहा देंगे नदी में । तेरहवीं कर मेरी फोटो
टांग टो जायेगी और सब अपने-अपने काम पर
चलते बनेंगें । मैं भी तो मरने के पहले यही रस्म
निभाता आया हूँ । कल उनकी बारी थी । आज मेरी ।
तो क्या यही जीवन का सार है ।
क्या इसी अंतगति के लिए दुनिया
मारी-मारी फिरती है 1
शरीर का मान- गुमान,ताकत
बुद्धि की चतुराई
और जीवन भर की कमाई का
अंत मुट्ठी भर राख होना है
जब सभी का यही अंजाम होना है
तो फिर क्यों व्यर्थ की भाग-दौड़
मारा-मारी-जोड़-तोड़ 1
इतनी कामनायें इतनी हवस
इतनी प्रार्थनायें सब धूल-धूसरित
इधर मरे नहीं कि सारे रोते-नाते
सम्बन्ध भाईपिता,पुत्र,पद
के सम्बोधन समाप्त ।
केवल और केवल लाश मात्र ।
जीवन भर तृष्णाओं ने जलाया
और जिनके लिए जलाया मरने के बाद उन्होंने
फिर अकेला आदमी
फिर से कोई नई दौड़
फिर से कोई सम्बन्ध बनाने के प्रयास
एक नई दुनियाँ में प्रवेश
जैसे जन्म के समय
वैसे मृत्यु के बाद
सब कुछ अस्थाई । कहने को कुछ अपना नहीं ।
कुछ भी स्थाई नहीं । देखो कि आदतें फिर भी नहीं छूटती
न जीते जी न मरने के बाद आदमी कुछ भी नहीं सीखता
नालायक कहीं का ।n
'' नौटंकी का अंत ''
तुम्हारा धरना-तुम्हारा प्रदर्शन
तुम्हारा चक्का जाम-तुम्हारा बंद
आम आदमी का नुकसान और परेशान
तुम्हारी सभा-महासभा-तुम्हारा आगमन
तुम्हारा अभिनन्दन समारोह
आम आदमी का रोड पर चलना मुश्किल
तुम्हारे चुनाव तुम्हारी सत्ता,राजनीति
मतलब हिंसा,हत्यायें आगजनी,दंगा-फसाद
आम आदमी के लिए कर्भधारा 144
तुम्हारे आश्वासन,तुम्हारे मुद्दे
मतलब अगड़े-पिछड़े में लड़ाई तनाव
मंदिर मस्जिद के नाम पर मारकाट
भाषा-प्रान्तवाद के झगड़े और टुकड़े-टुकड़े आदमी
तुम्हारा सत्ता में आना
मतलब नया बजट मंहगाई, भ्रष्ट्राचार
बेरोजगारी, अपराध ।
तुम्हारी डील,तुम्हारे करार तुम्हारे समझौते सम्बन्ध
और देश में बिजली,पानी का संकट,बदहाल सड़क
तुम्हारा विकास तुम्हारी 21 वीं सदी की बातें
देश में आत्महत्या को विवश किसान,पर्यावरण संकट
तुम राजनैतिक व्यक्ति पक्ष में रहो या विपक्ष में
आम आदमी के लिए बस संकट, मुसीबत और खतरे ।
गुण्डे तुम्हारे, पुलिस तुम्हारी, न्याय तुम्हारा महत्वाकांक्षायें
नये कर, नये दर, नकली नोट
नकली दवायें,आतंकवाद,बढ़ते अपराध ।
तुम मर भी गये तो चौराहे पर लटके तुम्हारे बुत तुम्हारी
मूर्तियाँ बम-बारुद से भयानक कभी भी किसी भी बात पर
रक्तपात । बहुत हुई तुम्हारी सत्ता की हवस बस भी करो
देशहित जनहित में कुछ तो करो ।
तुम्हारे तमाशे समझ रही है जनता खामोशी बहुत बडे विद्रोह
का संकेत है सावधान,होशियार,खबरदार
तुम्हारी नौटकी का अंत निकट आ गया है ।n
'' कुल मिलाकर सत्यानाश ' '
उखड़ा हुआ है स्तंभ
बेहोश पड़े हैं शेर
कुचक्र में फंसा पड़ा है चक्र
चूहों और बिल्लियों ने
कुत्तों और सियारों को
अपना नेता बनाकर
भेज दिया है संसद में
अब सभी हुआ-हुआ
भौं-भौं कर रहे हैं
बिल्लियाँ कहती चूहे दो
चूहे कहते रक्षा करो
कुत्ते और सियार
एक- दूसरे पर फेंक
रहे हैं कुर्सियों
लानत- मलामत आरोप- प्रत्यारोप
निंदा, धू-धू
कभी भाग खडे होते सियार
कभी दुम दवा लेते कुल
फिर मिल- मिलाकर विधेयक
करते हैं पारित
मिलबांटकर चूहे और बिल्लियों
को खाने की
और झूठे आश्वासनों की
किसी के हाथ में डंडा
किसी के हाथ में झंडा
कौन फहरायेगा तिरंगा
सो डंडा वाले झंडा के लिए
झंडा वाले डंडा के लिए
कभी झपट्टा
कभी गठजोड़
कुल मिलाकर सत्यानाश ।n
' ' परिचय ' '
क्या इतना ही हैं मेरा परिचय
कि मेरा नाम, मेरा पता, मेरे पिता
मेरे पुत्र र मेरी पत्नी, मेरी सम्पत्ति
मेरे मित्र, मेरी रिश्तेदारी मेरा देश
मेरा प्रदेश,मेरी भाषा, मेरा....
नहीं पूर्ण नहीं है मेरा इतना परिचय
तो फिर मेरा रंग- रुप. कद - काठी
बोल- चाल, हाव-भाव, तौर-तरीके
मेरा स्वभाव मेरी आदतें........
नहीं नहीं ये तो मेरा बाहरी परिचय है
ही मुझे पहचान लेंगे लोग
मुझे जानते हैं सब
लेकिन क्या ये पूर्ण परिचय है
यदि है तो फिर मैं स्वयं को क्यों
नहीं पहचानता?
क्यों मैं आधा- अधूरा सा लगता हूँ
मान लो कल मेरे पास कुछ न रहे
पिता. पुत्र, पत्नी, मित्र, सम्पत्ति, रिश्तेदारी
मान लो मैं बोल न संकू
मेरा स्वभाव, मेरी आदतें, बदल जाये
मान लो कि मेरी याददाश्त चली जाये
और मैं अपना नाम, पता, भी भूल जाऊँ
तो फिर मेरी पहचान मेरा परिचय क्या होगा?
और वैसे भी ये तो सब दिये हुए हैं
मेरी बढ़ती उम्र के साथ बदलता चेहरा
बदलती आदतें
फिर क्या मेरी पहचान?
मान लो कि मैं चेहरे पर चेहरा चढ़ा लूँ
नकाब से ढक लूँ स्वयं को
और बात दूसरे के पहचानने की नहीं है ।
मेरी अपनी पहचान अपना परिचय क्या है?
मेरा हृदय, मेरी बुद्धि, मेरी सोच
मेरा चरित्र,
नहीं..... नहीं..... तो फिर क्या मेरा रक्त
मेरा मांस मेरी हड्डी मेरी पसली आखिर क्या?
कौन हूँ मैं
मेरी अपनी जान
जो थे शरीर में संचारित है
तो फिर कया मेरे सुख, मेरे दुख
मेरे रोग, मेरे भोग, मेरा मन,मेरा तन, मेरा...
नहीं नहीं ये तो फिर वही हो गया ।
मैं वस्त्रहीन हो आइने के सामने खड़ा
पूछता हूँ अपने से अपना परिचय
मेरे सामने मेरा शरीर है
मन है, तन है, बुद्धि है, हृदय है
संस्कार है,जाति है, धर्म है
वेश है परिवेश है
फिर इसे बदलना है समय के साथ
मैं अपने से ही अपरिचित
अपने से ही अंजान
किससे पूछूं मेरा ईश्वर भगवान भी तो
पैदा होते ही थमा दिया गया संस्कारों में
मेरे ग्रंथ,मेरे कुरान-पुरान,मेरे कहां
सब दूसरों का थोपा हुआ
मेरा अपना क्या?
कुछ भी नहीं ।
हो भी कैसे सकता है?
मैं सारे संसार को जानता हूँ
जो नहीं मालूम उसे मालूम कर सकता हूँ
लेकिन स्वयं से स्वयं की पहचान
ही मेरी जान तो मेरी है
पर शरीर में कहां?
क्या धड़कते हृदय में
या सोचती बुद्धि में
या बढ़ते लहू में
या किसी एक स्थान से
जान पूरे शरीर को संचालित करती है
तो उस जान का कैसे जाएं!
कहां है कैसी हे?
जो मेरी है और मुझे ही नहीं दिखाई देती ।
फिर शरीर छोड्कर कहां जाती है
तो क्या मैं और मेरी जान
हम दो हैं या जान ही मैं हूँ और मैं ही जान हूँ
क्या प्राण को ही आत्मा कहते हैंn
अब ये शब्द भी तो किसी के दिये हैं
किसी से सुने हुए हे
तो मेरा प्रश्न यथावत है
हर प्रश्न का उत्तर है
लेकिन प्रश्न अब भी वही है
मेरा परिचय मेरी पहचान
मैं हूँ आखिर कौन?
मुझमें क्या है जो स्थिर है
बदलता नहीं शरीर की अवस्थाओं के साथ
और शरीर के न रहने पर
ज्ञानी,संतों,महात्माओं ने आत्मा कहा
तो कैसी है आत्मा?
कहां है? कौन है? क्यों है?
प्रयोजन क्या हे?
कहने से काम न चलेगा
मैं यदि आत्मा हूँ
तो भले न दिखाई दे
महसूस तो हो मुझे चलो मैं भी हटा देता हूँ
सिर्फ आत्मा फिर आगे भी तो कहो
दर्शन तो हो,महरदूस तो हो
समझ तो आये
लो मैं फिर शरीर में घुसने लगा
तो फिर मैं का राग अलापने लगा
तो फिर मैं भी नहीं मैं
मुझसे चलो मैं भी हटाया
फिर क्या बचा-कुछ भी नहीं
फिर जो बचा
क्या वो मेरा परिव्यय-पहचान
खोजना, तलाशना, ढूंढ्ना, पूछना
फिर मैं जोड़ता है
और फिर दो हो जाते है
फिर द्वन्द शुरु
तो फिर मैं ही मैं हूँ
या तू ही तू हे?
बुद्धि से परे
मन की पकड़ से दूर
बाहरी परिचय बेकार
मैं अभी भी अपूर्ण हूँ
पूर्णता की तृप्ति अभी बाकी है
शून्य पूरा नहीं बन रहा
ब्रम्हांड के बाहर नहीं जा पा रहा हूँ
ये बनना,बनाना ये जानना
ये भी झंझट खत्म हो तो फिर शेष क्या बचा
निष्कियता,विदेही, अशरीरी
चलो कामनायें यही काम मरा
फिर राम-राम । तो क्या मैं राम?
फिर मैं । ये मैं मरता क्यों नहीं?
क्यों घूम-फिरकर आ जाता है
चलो फिर हटाया
फिर चलो ये फिर भी फिराया
अब न अ न भविष्य क्या देश क्या परदेश
फिर कर्म तो जारी है स्वाभाविक रुप से
चलो प्रकृति के पार हो गये
फिर शरीर और उसके कर्म क्यों?
चलो ये भी भुलाया अभी भी दो हैं द्रन्द है
चलो सारे प्रश्न ही खत्म
करता हूँ । देखो क्या रहा शेष
तो जो रहा शेष क्या वही आत्मा
वही परिचय-पहचान
अच्छा आनन्द,करुणा,प्रेम
ये तो मानव के गुण है तो फिर अवगुण भी होगे ।
फिर द्वन्द फिर दो कौन मरे? कौन रहे?
द्वन्द भी दो भी द्वन्दातीत ।
जो शेष क्या वही? फिर वही?
नहीं नहीं, मैं खो रहा हूँ मैं को
मैं अब मैं नहीं अब कोई नहीं
जो शेष वही जान वही पहचान
ही वही परिचय, ही वही सत्य ।
ही, ही वही
हों, ही यहीं
अरे इतना प्रकाश ।n
' ' शिकार हो तुम ' '
जिसे तुम ये समझकर
भोगते हो कि तुम
भोग रहे हो
तुम्हारी नासमझी
तुम्हें भोगा जा रहा है
और तुम्हें समझ भी नहीं आ रहा है ।
यदि तुम भोग रहे हो
तो कुकर्मी,रोगी, भोगी तुम क्यों?
तुम तो मालिक हो
शोषण भी तुम्हारा
ओर शोषक का ठप्पा भी तुम पर ।
तुम मक्खी की तरह ललचाते
जाते जरुर हो कि मीठा खाऊंगा
फिर चिपक कर मर कैसे
जाते हो
गुड का क्या फर्क पड़ना है
मक्खी ही फेंकी जानी है
मक्खियाँ तो नई- नई आती रहेगी
स्वयं को भागी समझकर
और मरती रहेगी
गुड को कितना फर्क पड़ना है ।
तुम लोभी, कामी,क्रोधी,भोगी
ताकतवर, शोषक
और फिर चिपककर
मर जाना ।
नादान तुम शिकारी नहीं
शिकार हो गुड़ का ।n
'' संवारे सुन्दर जीवन ' '
व्यवहारिकता. सामाजिकता
औपचारिकता
निभाने में ही गुजार दोगे सारी उम्र
वही बस मुँह से राम-राम, दुआ- सलाम
बस इतना ही होता है दो लोगों का सम्बन्ध
कि आये, मिले, बैठे चाय नाश्ता
या अपने सुखों का बखान या व्यथा कथा
शादी, पार्टी, रिसेप्शन, तीज, त्यौहार
ज्यादा हुआ तो क्रिक्रेट. सिनेमा. राजनीति
पर चर्चा
अरे कुछ तो गहरे उतरो
कुछ तो दिल से मिलो
ऐसे कि एक मुलाकात जीवन भर याद रहे
एक बार की दुआ सलाम से जीवन संवर जाये ।
हाथ मिलाओ गले मिले तो ऐसे
आँख भर आये- कंठ अवरुद्ध हो जाये ।
बोलने की जरुरत न पडे
बिन बोले उतर जाये हृदय में ।
कम तक मुस्कुराने का नाटक करते रहोगे ।
आँखें कुछ और कहती है
मन में कुछ और रहता है ।
बस दो शरीर खडे होते हैं आमने- सामने
सूट-बूट में
न मन धडके न ऑख डवडवाये
ऐसा लगता है शानदार कफन में
दो मुर्दे खडे हों ।
लानत है ऐसी जड़ता पर
व्यवहार, औपचारिकता, सामाजिकता के जाल
से मुक्त होकर
चलो मन की जड़ों को सींचे
और संवारे सुन्दर जीवनn
'' महादेव से बनो ' '
जटाओ में गंगा
मस्तक पर चन्द्रमा
कालकूट से कंठ नीला
सर्पों की माला
जंघा पे पार्वती, बगल में गणेश
नंदी की सवारी,त्रिशूलधारी
बटाकधारी, श्मशानवासी
अजब सा भेष
इतने सारे क्लेश
फिर भी तीसरा नेत्र जागृत
और महादेव, मृत्युन्जय
संसार लिए,रक्षा किये
कर्तव्य बहन, गृहस्थ धर्म
फिर भी कामदेव को भस्म करते
ऐसे ही कोई शिवशंकर नहीं हो जाता ।
तुम या तो सन्यास से भागोगे
या पलायन करोगे संसार से
बचना,छिपना, आड़ लेना
नहीं नहीं ऐसे में कुछ भी संभव नहीं ।
महादेव के चित्र को देखो
वे शिव हो जाते हैं
शक्त हो जाते हैं
संसार का कल्याण करते हैं
और डमरु भी बजाते है
वे संहारक भी रक्षक भी
उनके लिए सभी समान
क्या देव क्या दानव क्या मानव
तुम बनी ऐसे भोले
तब तो माने
तब जो जानेn
' ' ईमानों में ताले पड़े ' '
जमाने पे कितने जमाने चढ़े ।
दुनियाँ पे कितने फसाने पड़े ।
अपनी ही सूरत को पहचानना मुश्किल
चेहरे पर न जाने कितने चेहरे मढ़े ।
जटिलता में जीने की ऐसी आदत पड़ी ।
सरलता लगने लगी मूर्खता
प्रेम, विश्वास बस रह गई किताबी बातें
हर मन में है बस कपट, धूर्तता
सक कुछ गंवाकर बस कमाया है पैसा
घर बन गये मकान
सबके ईमानों पर ताले पड़े ।
न जाने हमको कहां ले जायेगा स्वार्थ
धर्म कर्म का भी नाम,पैसा ही अर्थ
सच.भलाई, ईमान सब बातें व्यर्थ
झूठ, भय से तिल- तिल मरता आदमी
आदमी पे न जाने कितने मुर्दे गढ़े ।
बचा लो अब भी संभालो अब भी
बहके, भटके कदमों को थाम लो अब भी ।
बहुत हो गई धन, धन्धे की बातें
चलो प्रेम की कुछ बातें करें
खुद को ही न खुद भारी पड़े ।n
' ' अधम?..
तुम्हारे खिलाफ बोलना
अधर्म हो गया
और हत्या कर दी तुमने मेरी
धर्म का पालन कर लिया तुमने
क्या मांगा था मैंने
क्या कहां था मैंने
क्या चाहा तो मैंने
पेट के लिये रोटी
तन के लिए कपड़ा
और नींद भर सोया
तो पापी,कामचोर
नमकहराम हो गया मैं ।
तुम्हारी गालियों भरी चेतावनी
सिर न झुकाने पर जान से मारने की धमकी
आत्म सम्मान को तुमने
अभिमान का नाम दे दिया
घमंडी कहकर हथियार खींच लिये तुमने
मैंने पूछा कि मेरा कसूर क्या है?
तुमने जुवान चलाता है पापी, अधम
कहकर मुझ निहत्थे पर
पूरी सेना सहित अस्त्रों-शस्त्रों से भरपूर
वध कर दिया मेरा
और शंखनाद करके विजयी घोषणा कि
और कहकर चले गये कि
जब- जब अधर्म होगा
तब- तब उसका नाश होगा ।
क्या यही है तुम्हारी प्रभुताई
अपना हक मांगना
गुनाह हो गया ।
तुम्हें चिन्ता है इस बात कि
उत्पादन रुक गया
तुम ये सोचकर परेशान हो कि
कारखाना बन्द हो गया
तुम्हें इस बात का गुस्सा है कि
तुम्हारे बैंक बेलेन्स तुम्हारी अट्टालिकाओं
का निरन्तर बढ़ना रुक गया 1
अगर हमने कभी पेट भर रोटी की मांग की
अगर हमने गन्दगी,बीमारी से भरी बस्तियों
के लिए अपने मकानों के लिए रोशनी मांगी
तो तुमने उसे विद्रोह का नाम दे दिया ।
हमने जब-जब रोटी मांगी
तुमने तब-तब ख्त दी ।
हमने जब-जब आवाज उठाई
तुमने दण्ड-भेद से गला दबाने की कोशिश की ।
माना कि न्याय तुम्हारी बपौती है
ये भी माना कि सत्ता,शक्ति तुम्हारी दासी है
हमने अपनी लिजलिजे,सीलन भरे मकान में
दिये के लिए तेल मांगा
तुमने गुस्से में आकर पूरी बस्ती जला दी ।
बराबरी और हिस्सेदारी तो मात्र कोरा स्वप्न हे
हम देखते भी नहीं दिवास्वप्न
हमने तो मांगा पेट के लिए अनाज
अपना खून अपना पसीना
अपना च जीवन अपनी जान
तुम्हारी मिलों, कारखानों के हवाले
कर ही दिया है
मालिक बदले कारखाने बदले
शोषण के तरीके बदले
बात वही है तुम मालिक हम मजदूर ।
पसीने की न सही,खून की न सही
जान के वदले तो रोटी दो ।
मांग है विद्रोह नहीं
रोटी मांगना अधर्म कैसे हुआ?n
' ' उस दिन पूरे हो गये ' '
तुम्हारे हाथ में लाठी है
तो जाहिर सी बात है कि
भैंस भी तुम्हारी ही होगी ।
झंडा तुम्हारा-डंडा तुम्हारा
कहने भर को मुर्गी हमारी
पाले पोसे हम और अंडा तुम्हारा ।
इसको कहते हैं प्रजातंत्र
चीखना-चिल्लाना,हमारा अधिकार है
अनसुनी करना उनका कर्तव्य ।
जब उन्हें अच्छा न लगे ।
तो कानून-कायदा,शांति के नाम पर
लाठी चार्ज,कर्फ्यू ।
हमारी ही फौज दुश्मनों पर कम
उनके कहने पर हम पर ही गोली- बारूद बरसाती है ।
ये कहकर कि हालात काबू से बाहर है
स्थिति नियंत्रण में नहीं है ।
अपनी नासमझी कहें या तुम्हारे द्वारा बहकाना
फूट डालना कहें
हमने तुम्हें चुना और तुमने चुन-चुन कर
हम पर बार किये ।
हम आवाज उठाये तो उपद्रवी असामाजिक तत्व
और तुम टैक्स के नाम पर हमारे बच्चों के मुँह से
निवाला छीनते रहो
और हमारी हलक से जान ।
हमें अन्नदाता कहते हो और विवश करते हो
आत्महत्या करने को
ऐसा घिनौना मजाक
हे कूर शासक
सत्ता मिलते ही रुई ठूंस लेते हो कानों में
तुम्हारे दिये नये बजट
बड़ी दरें बढ़ते कर
तुम हर बार झूठी दिलासा देते रहे चुने जाने से पहले
और बाद में वही मंहगाई,भ्रष्टाचार अत्याचार
अनाचार,बलात्कार,बेरोजगारी देते रहे ।
न कभी सड़कें बनी
न बिजली न बांध
बस प्रगति और आधुनिकता के नाम पर
हम उजड्ते रहे और तुम बसते रहे ।
तुम्हारी राजनीति ने हमें क्या दिया
सिवाय हरसूद, नंदी ग्राम,गुजरात,अयोध्या कांड के
हमने जब-जब आवाज उठाई
तुमने भाषा,प्रान्त,जाति,आरक्षण
के शस्त्रों से वार किया ।
हम निहत्थे तो थे ही ।
हाथ भी काट दिये तुमने ।
जुबान भी बाँध दी तुमने ।
वस इतना समझ लेना
हर अति का अन्त होता है
जिस दिन ये कटे-बंटे लोग
एक हो गये
उस दिन तुम्हारे दिन पूरे हो गये ।n
' ' हार मानने वालों में से नहीं ' '
भाग्य पटकता है
पछाड़ता है बार-बार
और हर बार अपनी दृढ़ता से
खड़ा हो जाता हूँ मैं
मैं सतत् कोशिश में हूँ आगे बढ़ने की
लेकिन न जाने वे कौन से प्रारब्ध है
कि आगे खाई, पीछे कुंआ और खड़ा हूँ जहां
वहां की जमींन धसकती जा रही है
मुझे भी लगता है कभी-कभी
मैं हार रहा हूँ । पीछे धकेला जा रहा हूँ
लेकिन मैं आत्मविश्वास से भरा हूँ
दृढ़ इच्छा शक्ति मुझे रास्ता निकालने
को प्रेरित करती रहती है ।
मैं छलांग लगाता हूँ और पीछे रह जाता है दुर्भाग्य
माना किसमय की,भाग्य की अपनी शक्ति है
और मैं हाड़ मांस का इंसान
फिर भी भाग्य का रोना रोकर बैठने से क्या होगा?
क्या समस्यायें कम होगी? खत्म होगी ।
नहीं अस्त जीवन को मैं भाग्य के भरोसे
तो नहीं छोड़ सकता ।
मेरा अधिकार कर्म पर हैं
जो मुझे करना है
भाग्य की भाग्य जाने ।
मुझे तो जूझना है
मुझे तो बढ़ना है । मुझे तो लड़ना है
चलता रहे भाग्य अपनी चालें
मैं भी चलता रहूंगा अपनी राह ।
गिरुंगा फिर उडूंगा फिर गिरुंगा फिर प्रयास करुंगा ।
मेरे कर्म और बदकिस्मती में
हारना ही होगा भाग्य को ।
चाहे तो करता रहे अपनी कोशिश भाग्य
मेरा प्रयास तो जारी रहेगा ही ।
हार मानने वालों में से नहीं हूँ मैं ।n
' ' वही वीर वही नायक ' '
पिछला रोना भूल
अगला गाना भविष्य
रोना- गाना, ताना-बाना जीवन
और केवल वर्तमान
में जीना कलाकारी जीने की ।
बाकी सब प्रपंच
जगत एक मंच
आओ खेलो और जाओ
सबसे बेहतर अदाकार वहीं
जो स्वयं अपना सरपंच ।
वही है महानायक
जो प्रपंचों विकारों से परे
केवल देता है रक्षण करता है
अपने ऑसू पीता है
और दूसरों के पोंछता है
ओर हंसते हुए विदा हो जाता है
दुनिया रात है जिसके जाने के बाद
ही वही जिया
वही बेहतर
वही महानायक
जिसने स्वयं को नियंत्रण में रखा ।
जिसने अपना पुण्य बांटा और
दूसरे का पाप भी सुधा समझ पिया ।
शेष तो रोज ही रोते रहे
ढोते रहे अपनी कामनाओं की अर्थी
शब्दों रिश्तों आडम्बरों के जाल में उलझे
संसार से भाग निकले तो धर्म में जा उलझे
वह वीर ही वही नायक
जो भागा न हो, बदला हो जिसनें
लोक परलोक का भय छोड़ प्रेम करुणा का
अमृत -चखा और बांटा हो जिसने ।n
'' धरी रह गई ठकुराई ''
झूलझुलैया
भूल भुलैया
आगे पीछे, पीछे आगे
बच्चों सा अच्छा लगे
कभी भरे उकाई
यहाँ-वहाँ
वहां-यहां
जीवन की एक ही गति भाई ।
उलट-पलटकर
सुख-दुख वही ।
न मानी हमने, संतो ने
तो खूब कही
जी तोड्,जोड् तोड़
झोली तन-मन- धन भरी
मरण में सारी जोड़ घटी
धरी रह गई ठकुराई ।
बड़ा गुमान जीवन जलसों पर
रहा गुम बर जमीनों बाहुवल पर
' कामनाओं के मूसल से दुनियाँ
मसकने की तैयारी
आसमान को जीतने की इच्छा में
उमर अपनी मिटा डाली
कसकर-बंधी रहे मुट्ठी क्ल तक
मौत कर रही द्वार पर खट-खट
बेकार रही जीवन भर जोड़ी पाई-पाई ।
इतिहास के पन्ने पर कालिख
अंत समय तक रहे नाबालिग
रहे दुनियां जब तक
अपने कर्मों से थू-थू तब तक,
अब तो यम के डंडों की बारी
लो मौत आई
धरी की धरी रह गई अब चतुराई ।
राख ही होना है खाक ही होना हे
काफी है जमीन का एक टुकड़ा
जीवन को । फिर कैसी तृष्णाई
काहे इतनी हाय तौबा मचाई ।n
'' बहरा शासक ''
कितना असहाय
मजबूर, लाचार
तुम्हारा जीवन
जीवन से पहले का
मौत के बाद का
कुछ भी पता नहीं
कितना लापता
नामालूम तुम्हारा जीवन
और एक जीवन में
न जाने कितने बार मरण
शिक्षा, दीक्षा, संस्कार, जात-विरादरी
धर्म, अर्थ, काम. मोक्ष से अटा तुम्हारा जीवन
सतत जलती पेट की भट्टी
दाना-पानी के जुगाड़ में
भय, अपमान, पीड़ा कष्ट
बड़ा-छोटा के तकलीफदेह सच
और देह के अपने रोग, कष्ट पीड़ा
के सागर में डूबता-उतरता तुम्हारा जीवन
- फिर ये मन जो तड्फता है भागता है हरदम
प्रेम,मोह,लोभ की पिपासा में
आशा और निराशा के मध्य कभी न खत्म
होने वाली दौड़ में मन
मन के ताने बानों में भटकता तुम्हारा जीवन
जीते जी हजारों नरक
और मरने के बाद सैकड़ों नरकों का भय
तुम दयालु परमात्मा नहीं
निरंकुश तानाशाह हो
जो हरदम मनमानी करते रहते हो
तुम प्रेम नहीं
भय के द्योतक हो
शासक चाहे कोई भी हो
किसी भी रुप में
होता बहरा ही है ।n
' ' मुखौटों की दुनिया ' '
यहाँ कहाँ मिलेगे
तुम्हें प्रेम के पुष्प
गलत राह आ गये
ये कारोबारियों की दुनियाँ हैं
यहीं सब कुछ बस व्यापार हे ।
मुस्कान के भी मोल यहाँ
व्यवहार में भी लाभ- हानि
हाथों का मिलना, गले लगना
सब औपचारिकतायें हैं बस
यहाँ न मन के मीत
न आँसुओं की कीमत
चाहत के अंकुर
राहत के बीज कुछ भी नहीं यहाँ ।
ये सुरा सुन्दरी की महफिल
स्वर्णों की झंकार यहाँ
आह कराह सुनेगा कौन
अंधों, बहरों के बाजार यहाँ ।
बिस्तर है मखमल की नींद नहीं
सिक्कों की झंकार है पर चैन नहीं
सुख की नहीं बस ये स्वप्नों दुनियाँ है ।
यहाँ चेहरे नहीं चेहरों पर मुखौटे हैं
आ गये जो भूले से तो सब कुछ पाओगे ।
लेकिन मुखौटों की दुनिया में अपने को भूल
जाओगे ।n
'' मान के भूखे ''
मान के भूखे
सम्मान के प्यासे
दे दो अभिमानियों का ये मान ये सम्मान ।
मांगने से वैसे मिलता नहीं है मान ।
पर मान के भिखारियों को दे दो सम्मान ।
जिन्हें मुफ्त चाहिए
उन्हें मिलेगा भी तो कितना
मुझे तो दे दो सब अपमान
मैं पीना चाहता हूँ हलाहल
नीलकंठ होना सबसे बड़ा मान
यश कीर्ति और देवत्व भी ।
क्या करें तुच्छ को तुच्छ की ही चाह
अपनों से, उधार से, मिले मान पर ही गुमान्
दो कौड़ी की क्षुद्र अकड़ । अकड़े समझो मुर्दा
मुर्दे का काहे का मान
शरीर से विदा हो जायेंगे प्राण
फिर कहां जायेगा तुम्हारा गुमान-मान सम्मान
कर्मों से,गुणों से,मेहनत से
अपनी कमाई से बिन मांगे मिले जो मान
वो मान ही खरा बाकी सब कोरा मान ।
किस बात का, काहे का मान ।
पशुबल, नरपशु, क्षुद्र कामनाओं वाले
मत कर चाह उधार के मान की ।
अपने शौर्य,पराक्रम,पौरुष से
अपने ज्ञान,ध्यान,तप संयम से
क्षमा,प्रेम,करूणा
कर्त्तव्यों के निर्वहन से
जो मिलता वो सच्चा मोती
बाकी सब बकवास, झीनाझपटी
मान के लिए कैसी होड़ कैसी प्रतियोगिता
किस बात की जोड़-तोड़ ।
जग जाने । जग माने । वो आत्मसुख
वो ही मान। बाकी सब तामझाम ।n
' ' उठो और विराटता को छुओ ' '
तुमने फिर गलती की
फिर डाँट पड़ी
फिर गलती
पिटाई पड़ी
फिर दोहराई
अब की लात पड़ी और मुँह के बल जा गिरे तुम
पर तुम्हारे दिमाग में
बात न पड़ी
तुम्हारी भूल
तुम्हारी अ तुम्हारी लापरवाही
नतीजा ये हुआ कि
आदत पड़ गई तुम्हारी गलतियाँ दुहराने की
बार-बार का सबक
बार- बार की सीख का तुम पर कोई असर नहीं ।.
बुद्धिहीन, बेवकूफ तो तुम बन ही चुके हो
बार- बार वही गलती
फिर दुख, तकलीफ,कष्ट, पीड़ा, अपमान
फिर तुम्हारा रोने,कोसने का नालायकी भरा सिलसिला
इससे पहले कि तुम्हारी आदत
बदल जाये तुम्हारे स्वभाव में
कि तुम चाहकर भी बदल न सकी खुद को
अभी समय है
थोड़े अधिक प्रयास से
हो सकती है सद्गति
हो सकती है मुक्ति
कहीं ऐसा न हो कि आदत बन जाये स्वभाव
और तुम गिर जाओ दलदल में
और फंसकर धीरे- धीरे समा जाओ
और मर जाओ और उलझे रहो 84 लाख में
अभी समय है चेतो, जागो, उठो
काम, क्रोध-लोभ-मोह अहंकार को नष्ट करो
जो तुम्हारी मात्र आदत है, स्वभाव नहीं
उठो और विराटता को छुओ ।n
'' जनता को हराना ही है ''
प्रजातंत्र है और प्रजा
हलाकान है । परेशान है 1
महंगाई, भ्रष्ट्राचारी
अश्लीलता,लूट, अपराध
हत्या,बलात्कार,आतंक
भाई-भतीजावाद
इन सब की तो आदत सी पड़ गई हैं ।
अब तो दुर्गाजी हो गणेशजी हो
ईद हो, होली हो, उर्स हो या कुछ और...
घेर लिए जाते हैं चौराहे तिराहे दुराहे
राह चलते रास्तों पर तंबू लगाकर
आम आदमी के लिए बन्द कर दिया जाता है आम रास्ता
और उस पर चन्दे की उगाही
गुंडों से बचे तो पुलिस की वसूली ।
नेताओं की आम सभा में
आम आदमी के लिए रास्ता बन्द
सुरक्षा व्यवस्था के नामपर
प्रजा को ताड़ना
खास लोगों की बारात हो या अर्थी
नेताओं की अगुवाई हो या पार्टी की आपसी झड़प
पटाखे,गोली बारी,चक्का जाम-पुतला दहन
रास्ता जाम ।
आम आदमी में भय,अफरा-तफरी ।
कभी इस पार्टी का बन्द कभी उस पार्टी का बन्द
गरीब के लिए भूखे रहने का दिन ।
और आम आदमी के लिए असुविधाओं से भरा दिन ।
और पार्टियाँ हमेशा तैयार रहती हैं
चुनाव के लिए
बगैर ये सोचे कि जनता का क्या होगा?
सत्ताधारी दल येन-कैन प्रकारेण सत्ता में
बने रहने की कोशिश में
मंहगाई बड़े तो बड़े
बिजली नहीं तो चुनावी नारा
अकाल है तो घर भरने की तैयारी
हर हाल में शासकों की जेब भरना है
और गरीब को आश्वासनों में पढ़ना है ।
चुनाव हुए तो नेता मंदिरों-मस्जिदों
के चक्कर लगाकर जनता को प्रभावित करते हैं
फिर उसी मंदिर मस्जिद के नाम पर
दंगा-फसाद,आगजनी,रक्तपात,मारकाट
क्या आया जनता के हाथ सिवाय
कष्ट तकलीफों,प्रताड़ना,परेशानियों के।
शासक वे., शासक उनका
प्रशासक उनका
और जनता में से कोई आवाज उठाये तो
उनकी पुलिस के डंडे, कर्फ्यू मीसा, टाडा, पोटा
और भी न जाने क्या-क्या
और कानूनी लड़ाई तो कभी न खत्म होने वाला तमाशा ।
बेकारी, बेरोजगारी, गरीबी, अभाव
उस पर प्रजा पर कानून के नाम पर
टेक्स के नाम पर और न जाने किस-किस नाम पर
कितनी-कितनी कतारों में ही गुजर जाती है
प्रजा की जिन्दगी
वे हर बात के लिए तैयार हैं
और भुखमरी-अधमरी जनता से अपील करते हैं कि
वे तैयार रहे मरने को,सहने की,रोने को
क्या यही जनता का राज है
लोकतंत्र भी एक नौटंकी बनकर रह गई है
और जनता तमाशा,ज्यादा से ज्यादा मात्र शतरंज के मोहरे
दोनों तरफ शासक हैं
वे चल रहे हैं जनता को मोहरे की तरह ।
जीते चाहे ये चाहे वे
जनता को तो हर बार,हर हाल हारना ही है ।
' ' आम आदमी ' '
अब गरीब के पास
थोड़ा पैसा थोड़ी सुविधायें आ जाती है
तो उसे भ्रम हो जाता है
कि वह अब गरीब नहीं रहा
आम आदमी हो गया है ।
गरीबी उसके लिए अपमानित करने वाला शब्द है
वह निरन्तर अता रहता है
ओम आदमी बनने के लिए
गरीब होने के लिए कुछ नहीं करना पड़ता
सिर्फ मेहनत करनी होती है दो वक्त की रोटी के लिए
लेकिन जो आम आदमी बन गया
उसके लिए गरीब होना श्रापित होना है ।
आम आदमी बने रहने के लिए
उसे उधार के ब्याज पर किश्तों पर
मकान दुकान और भौतिक सुविधायें जुटानी पड़ती है
अनाज, राशन कम से कम एक महीने का
एके दिन का लेगा तो गरीब नहीं हो जायेगा ।
बच्चों का अंग्रेजी श्व में पढ़ाना
टू-व्हीलर, फोर व्हीलर लेनी पडती है
भले ही फाइनेंस करवाना पड़े
फिर ढेरों कर्जा और तनाव
फिर कई छोटी-बड़ी बीमारियाँ
तनाव-नींद गायव,ब्लड प्रेशर
थोडी बहुत फिजूलखर्ची भी आवश्यक है
कभी पार्टी कभी कथा- कीर्तन बच्चों के जन्म दिन
दूसरे के घर गये तो गिफ्ट देने की प्रथा अन्दर ही
अन्दर खोखले और बाहर से ओढ़ी हुई हंसी
से नहीं बच सकते। नहीं तो लोग गरीब-बेचारा
न कहने लगेंगे सो नये फैशन नई संस्कृति के साथ
लोन, फाइनेंस, उधार में उधड़ते
अपने आम होने में जकड़ते जाते आम आदमी ।n
' ' गरीब का विद्रोह ' '
अमीर जब और अमीर होने की सोचता है
गरीब के बुरे दिन और भी बुरे होना शुरु हो जाते हैं
अमीर की अमीरी की धुन
गरीब का झोंपड़ा दांव पर
अमीर की और ऊँची सोच
गरीब की एक वक्त की सूखी रोटी पर भी डाका
अमीर की बढ़ती तृष्णा
गरीब जिस जमीन पर खड़ा है
वो भी दांव पर
अमीर मोबाइल पकड़ाता है गरीब को
और विकास की बात करता है
और गरीब की सूखी रोटी भी गई समझो ।
अमीर अपना काम करता है
झोंपड़े-सूखी रोटी और गरीब का पसीना
सब गया समझो
अमीर के पास सरकार है कानून है
पुलिस है
' और गरीब को हटना है मिटना है टूटना है
किसान आत्महत्या कर रहे है
गरीब रोटी की तलाश में भटक रहे हैं
गरीब की मेहनत उसका पसीना भी
बंधक बना लिया अमीरों ने ।
अमीरों ये तो सोचो
गरीब ही न रहे
तो अमीरी कैसे रहेगी '
क्या करोगे इतने रुपयों कें ।
तुम ही सब बेचोगे बिग वाजार खोल- खोलकर
तो गरीब क्या करेगा?
देखना,सोचना, समझना
गरीब की हाय भी बुरी
और कहीं विद्रोह कर दिया
तो भागने को जगह न मिलेगी ।n
1 नाम देवेन्द्र कुमार मिश्रा
2 जन्मतिथि 21 -०३-१ 973
3. शिक्षा एम ए समाजशास्त्र,
०इ प्रमाणपत्रीय कोर्स
4. भाषा हिन्दी
5 कार्य स्वतंत्र लेखन्
6 लेखन 1991 से सतत् पत्र-पत्रिकाओं में कथा कविता लेखन
7000 से अधिक कवितायें ।
3०० कहानियाँ प्रकाशित ।
8 कथा संग्रह प्रकाशित ।
27 काव्य संग्रह प्रकाशित ।
. सम्मान : देश भर की साहित्यिक संस्थाओं से 225
. पत्राचार का देवेन्द्र कुमार मिश्रा,
वर्तमान पता पाटनी कालोनी. भरत नगर.
चन्दनगाँव-छिन्दवाडा मप्र.)
छिन्दवाडा (मप्र. -४८०१०,
मो 9425405०22
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