पुस्तक समीक्षा- समीक्षक-डॉ.दिनेश पाठक'शशि' 28,सारंग विहार,मथुरा-6 मोबा.-9760535755 ....................................................
पुस्तक समीक्षा- समीक्षक-डॉ.दिनेश पाठक'शशि'
28,सारंग विहार,मथुरा-6 मोबा.-9760535755
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समीक्ष्य पुस्तक- धुंधलकों के पार(कहानी एवं लघुकथा संग्रह) रचनाकार-श्री चरण सिंह जादौन पृष्ठ सं.-85 मूल्य- 150 रुपये पेपर बैक, प्र.वर्ष- 2016
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हिन्दी साहित्य में कहानी विधा में लेखन की परिपाटी बहुत पुरानी है। त्राृगवेद में इसकी गणना संसार के प्राचीनतम साहित्य में होती है। इतिहास ,पुराण,रामायण,महाभारत एवं बौध्द धर्म सम्बन्धी अवदान और जातक कथाओं के अक्षय भण्डार भरे पड़े हैं। धार्मिक आग्रह से मुक्त एवं नीतिशिक्षा व मनोरंजन से पूर्ण पंचतन्त्र तथा हितोपदेश की कहानियाँ खूब प्रचलित रही हैं।
वरिष्ठ साहित्यकार एवं अधिवक्ता श्री चरण सिंह जादौन के सद्यः प्रकाशित कहानी संग्रह में उनकी 21 कहानियाँ एवं 31 लघुकथाएँ समाहित की गई हैं।
संग्रह की पहली कहानी है ''जुड़ती कड़ियाँ''। आज भी अनेक ऐसे उदाहरण हैं जिनमें असमान जाति के आधार पर अपने पुत्र या पुत्री को माता-पिता ने विवाह की अनुमति नहीं दी जिसके कारण उन्होंने आत्महत्या कर ली या फिर ऑनर किलर के मामले सामने आये। जातिगत सामाजिक रूढ़ियों एवं विसंगतियों के कारण उत्पन्न त्रासद स्थितियों की ओर ही इंगित करती हुई कहानी है ''जुड़ती कड़ियाँ'' । इस कहानी की नायिका भारती के माता पिता ने अपनी पुत्री को कहानी के नायक ''आकाश जैन'' के साथ विवाह की अनुमति इसलिए नहीं दी कि आकाश जैन, वैश्य जाति का है जबकि भारती एक ब्राहमण परिवार की है।
कहानीकार ने इस कहानी में नायक या नायिका से आत्महत्या न कराकर, दोनों को अपने-अपने क्षेत्र में उन्नति के शिखर चढ़ते हुए दिखाया है। आकाश जैन एम.बी.बी.एस.,एम.डी. करके मद्रास मैडीकल कालेज में प्रवक्ता हो गया तथा सेवानिवृति के बाद दिल्ली में एक प्रख्यात डॉक्टर के रूप में जाना जाने लगा तथा भारती ,माता-पिता द्वारा जबरदस्ती की गई शादी के बन्धन को एक सप्ताह में ही तोड़कर कलकत्ता विद्भविद्यालय में प्रवक्ता और फिर विभागाध्यक्ष होकर सेवानिवृत हो गई।
यद्यपि कहानीकार ने कहानी को सुखान्त बनाने के लिए ,कहानी के अन्त में यानि जब आकाशजैन एवं भारती उम्र के 60-65 पायदान पार कर चुके तब उनका विवाह और दोनों के माता-पिता द्वारा उन्हें आशीर्वाद देना दिखाया है, लेकिन कहानी का ये सुखान्त ऐसा ही लगता है जैसे-''सब कुछ लुटाके होश में आये तो क्या हुआ'' या कि ''का बरसा जब कृषि सुखाने'' जैसा।
संग्रह की दूसरी कहानी है-''दोहरा रिश्ता'' । मेरा ऐसा मानना है कि आदि काल से ही नारी के द्वारा ही नारी प्रताड़ित होती आई है।एक पुत्र के जन्म के बाद ही कहानी की नायिका शोभा के पति की मृत्यु हो जाने पर जब घर-परिवार एवं मौहल्ले के लोगों ने शोभा को बात-बात पर अपमानित करना शुरू कर दिया तो शोभा की आत्मा चीत्कार कर उठी। एक ओर पति के बिना जीवन की दुरूहता तो दूसरी ओर समाज द्वारा घोर अपमान व प्रताड़ना से शोभा त्राहि-त्राहि कर उठी। आखिर उसने समाज की दृष्टि में अपने को सधवा सिध्द करने के लिए अपने पति के मित्र,लघुभ्रता समान विकास को अपने पति के रूप् में प्रदर्शित करने के लिए विकास व उसकी पत्नी को सहमत कर लिया किन्तु परोक्ष में वह प्रत्येक रक्षाबन्धन पर विकास के राखी बांष्ध कर दोहरा रिश्ता निभाने पर मजबूर हुई। -1-
कहानीकार ने इस कहानी में विधवा नारी के मनोभावों को और उसकी अंतःपीड़ा को बहुत ही मार्मिक ढंग से व्यक्त किया है।
''अतीत की स्मृतियाँ'' संग्रह की पाँचवी कहानी है।घर की गरीबी,पारिवारिक जिम्मेदारियों का अहसास और बेरोजगारी के दंश को झेलता युवक जब अपनी मंजिल पा जाता है तो बड़ा शुकून महसूस करता है किन्तु जब कोई घटना उसके अतीत को कुरेद जाती है तो वह भाव विहवल हो उठता है।
इस कहानी के नायक के सामने जब करुणा की माँ ''ममता'' अपनी पुत्री की नौकरी के लिए प्रार्थना करती है तो नायक भावविहवल हो अपने अतीत में खो जाता है। उसकी माँ का नाम भी ममता ही था। अपनी माँ के प्यार व उसकी प्रार्थनाओं के सहारे वह जीवन संघर्ष करते हुए इस मुकाम तक पहुँचा था।वह करुणा को अपने दफतर में नियुक्त कर लेता है। पूरी कहानी बहुत ही भावपूर्ण ताने-बाने से बुनी गई सुखान्त कहानी है।
कभी-कभी जीवन में अनजाने और अनचाहे रूप में ऐसा कुछ घटित हो जाता है कि व्यक्ति आजीवन अपने आप को अपराधी महसूस करते हुए उसका प्रायश्चित्त करना चाहता है। संग्रह की सातवीं कहानी का नाम भी ''प्रायश्चित्त'' ही है जिसका नायक सुदीप अभावों एवं उपेक्षाओं के दायरे में पला-बढ़ा अपनी माँ की मजदूरी से कमाये पैसों से एवं अपनी मेहनत के बल पर इंजीनियर के पद पर नियुक्त हो जाता है। उसे अपने दफ्तर के बड़े बाबू की एम.एस-सी. में पढ़ रही कन्या को न्यूमेरीकल्स समझाते-समझाते उसके प्रेमजाल में फंसकर उसके साथ विवाह के लिए विवस होना पड़ता है।
चूंकि सुदीप से उंची जाति की पत्नी रेखा को सुदीप का माता-प्रेम बिल्कुल भी पसन्द नहीं था। वह पूर्णरूपेण सुदीप को अपनी इच्छानुसार ही चलाना चाहती थी इसलिए सुदीप चाहकर भी अपनी माँ को अपने साथ नहीं रख पाता था । पत्नी का माँ के प्रति उपेक्षापूर्ण व्यवहार भी सुदीप को सालता रहता क्योंकि उसने ही रेखा के सौन्दर्य आकर्षण में फंसकर उससे विवाह किया था जिसका प्रायश्चित्त उसे करना पड़ रहा था।
किन्तु माँ तो माँ ही होती है। सुदीप दो महीने बाद जब माँ के पास गाँव जाता है तो माँ के लिए साड़ी,देशी घी व मेवा के पैकेट लेकर जाता है जिसे माँ संदीप को बस में बैठाते समय सब चीजें उसे बहू को देने के लिए थमा देती है। कहानी का ताना-बाना बहुत सुन्दर शैली में , मार्मिक रूप में गढ़ा गया है।
यदि कोई ठान ले तो पृथ्वी पर कोई भी कार्य असम्भव नहीं है, बस मन में पक्की लगन होनी चाहिए, सफलता मिलने पर जाति-पाति और उंच-नीच के भेद-भाव को परे करके सभी गुणगान करने लगते हैं।
संग्रह की आठवीं कहानी ''जागृति'' में कहानीकार भाई चरणसिंह जादौन जी ने इसी बात की पुष्टि कराई है। हरिजन जाति में पैदा हुई सुखिया ने अपनी लगन के बल पर पी-एच.डी. तक शिक्षा प्राप्त की और जिला पंचायत अध्यक्ष बनकर अपने कार्यों से सभी का दिल जीता तो वही सब लोग जो कभी उसे पानी भरने के लिए कूँए पर भी नहीं चढ़ने देते थे, उसके प्रशंसक बन गये।
दहेज एक ऐसा कोढ़ है जिसने देश में जाने कितने घर बर्बाद किए हैं। कितनी निर्दोष ललनाओं को असमय ही मृत्यु का वरण करने पर विवश किया है। जिसका उल्लेख आये दिन अखबारों में पढ़ने को मिलता है, फिर भी समाज इसे त्यागने को तैयार नहीं है। इसका मुख्य कारण जो मेरी समझ में आता है वह है दिखावा।समाज में अपने आप को सबसे बड़ा सिध्द करने के लिए दिखावा चाहे वर पक्ष के लोगों का हो या फिर कन्या के पिता द्वारा अपनी पुत्री को बड़े घर में व्याहने का दिखावा।
आज हर पिता अपनी पुत्री को अपनी हैसियत से बड़े परिवार में व्याहकर उसे सुखी देखना चाहने की भूल करता है जबकि पुत्री के दाम्पत्य जीवन में सरसता अपने से कुछ कम अथवा अपने बराबर के समृध्द परिवार में ही सम्भव होती है।
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इस संग्रह की 12वीं कहानी -''दहेज'' भी, दहेज की बलिवेदी पर चढ़ जाने वाली एक और युवती सरला की कहानी है।सरला जिसके पिता गोबर्धनदास अपनी पुत्री का विवाह अपने से अधिक धनाड्य रायसाहब सेठ अमृतलाल के पुत्र जगमोहनलाल के साथ ये सोचकर कर देते हैं कि धनाड्य परिवार में उनकी पुत्री ताउम्र सुख पायेगी। किन्तु हुआ सोच के विपरीत ही। समय ने करबट बदली और बिषम परिस्थियों में फॅसकर गोबर्धनदास इतने गरीब हो गये कि न तो वे कैंसरग्रस्त अपने पुत्र श्याम का इलाज करवाकर उसे बचा पाये और न सरला के ससुराल वालों को दहेज में तय की गई कॉन्टेसा कार ही दे पाये। पत्नी ने भी पुत्र शोक में दम तोड़ दिया तो जीवन से निराश गोबर्धनदास ने भी नींद की गोलियाँ खाकर आत्महत्या कर ली। इस सदमें को सहन न कर पाने के कारण सरला भी बेहोश होकर मृत्यु को प्राप्त हो गई। इस प्रकार गोबर्धनदास का पूरा परिवार ही नष्ट हो गया।कहानी सहज,सरल भाषा में लिखी गई है किन्तु दहेज की विभीषिका के कारणों की ओर स्पष्ट इशारा कर पाने में सफल हुई है।
संग्रह-''धुंधलाकों के पार'' में कुल 21 कहानियाँ हैं जो सभी आकाशवाणी पर प्रसारण हेतु लिखी गई कहानियाँ हैं। चूंकि आकाशवाणी की एक समय सीमा निर्धारित होती है उसी समय सीमा का ध्यान रखते हुए इन कहानियों का कलेवर 3 से 4 पृष्ठों में समाहित है।संग्रह की अन्य कहानियों में ''वह स्वप्न'' कहानीकार की प्रथम रचना है जो मात्र एक पृष्ठ की ही है।
कहानी विधा में प्रारम्भ से ही कहानी,अकहानी,नई कहानी और दलित कहानी आदि के अनेक वाद-विवाद चले हैं किन्तु श्री चरणसिंह जादौन की ये कहानियाँइन सभी वाद-विवादों से परे साथ ही लेखन शैली के किसी चमत्कार से दूर सीधी,सरल भाषा में लिखी गई भोले मन की कहानियाँ हैं । कुछ कहानियाँ विस्तार की दरकार रखती हैं तो कुछ अपने उददेश्य की पूर्ति में असफल रही हैं जैसे कहानी ''टूटते रिश्ते'' की कढ़ियाँ कहीं जुड़ नहीं पा रहीं तो कहानी-''ढलती शाम'' में भावुकता की अधिकता अपने उददेश्य की पूर्ति नहीं करती।
कुछ कहानियों में प्रूफ की गलतियाँ भी दृष्टिगोचर हैं जैसे कहानी ''भाग्य की विडम्बना'' में बार-बार हॅस शब्द को ''हंस''लिख गया है। यानि ''ह'' पर चंद्र की जगह बिन्दी का प्रयोग किया गया है।
संग्रह की पहली कहानी-''जुड़ती कढ़ियाँ'' में पृष्ठ-2 पर कहानीकार द्वारा भारती से यह कहलवाना कि- '' आकाश से चालीस वर्ष बाद मुलाकात, वह भी एक चिकित्सक के रूप में, उसे तो ऐसी कल्पना भी नहीं थी।'' कहानीकार की चूक को प्रदर्शित करता है क्योंकि बचपन के पड़ोसी ,साथ खेले, साथ पले-बड़े और पढ़े भी, साथ- साथ गोल्ड मैडल भी प्राप्त किया, आकाश जैन ने एम.डी. यानि डॉक्टर ऑव मैडीसिन में और भारती ने रसायन शास्त्र में। फिर 40 वर्ष बाद एक डॉक्टर के रूप में आकाश जैन को देखकर भारती को आश्चर्य क्यों हुआ?
मेरे विचार से यह वाक्य इस प्रकार होना चाहिए था- ''आकाश से 40 वर्ष बाद इस तरह मुलाकात की तो उसने कल्पना भी नहीं की थी।''
संग्रह में 21 कहानियों के अन्त में 31 लघुकथाएँ भी समाहित की गई हैं। लघुकथा के बारे में लेखक ने पुस्तक के अन्त में अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखा है कि ''कम शब्दों में, मारक शैली में , किसी समस्या पर अपनी चोट कर, पाठक को सोचने को मजबूर करती है लघुकथा''
इसी के अनुरूप संग्रह की कुछ लघुकथाएँ बहुत ही मारक क्षमता वाली हैं जो पाठकमन को झकझोर कर सोचने पर विवश करती हैं। लघुकथा ''मेरी जिन्दगी'' जीवन के उत्तरार्ध्द में प्रत्येक मनुष्य को ''जीवन में क्या खोया,क्या पाया'' के बारे में सोचने को विवश करती है तो ल.क.-''अंतिम फैसला'' समाज में बढ़ती जा रही अराजकता पर चिंतन के लिए ।ल.क.-''गुर्दा'' दहेज के बिकराल रूप की परिणति की ओर इंगित करती है जिसमें विनीता अपना एक गुर्दा 80 हजार में बेचकर रुपये सास-ससुर व पति को सौप देती है।
इस प्रकार भाई चरणसिंह जादौन जी ने विविध रंगी कहानी एवं लघुकथाएँ इस संग्रह में समाहित की हैं।संग्रह का आवरण, शीर्षक के अनुरूप एवं आकर्षक है। हिन्दी साहित्य जगत में इस संग्रह का स्वागत होगा ऐसी आशा है। संग्रह में प्रकाशन का नाम भी दिया जाना चाहिए था जो कहीं भी नहीं दिया गया है।
समीक्षक-डॉ.दिनेश पाठक'शशि'
28,सारंग विहार,मथुरा-6 मोबा.-9760535755
ईमेल- drdinesh57@gmail.com
तथा
Pustak samiksha prakashnarth Dhanybad.
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