कामिनी कामायनी शरद की मार ओस का चादर लपेटे / नाचती जब भोर है / कान सब उसमें लगाए / यह नया क्या शोर है क्यों सिहरती है लताएँ /पत्ते क...
कामिनी कामायनी
शरद की मार
ओस का चादर लपेटे / नाचती जब भोर है /
कान सब उसमें लगाए / यह नया क्या शोर है
क्यों सिहरती है लताएँ /पत्ते क्यों हैं कांपते /
आ रहा है कौन लेकर /बर्फ की ये आँधियाँ /
छुप गया क्यों देखकर सब /घर का ही मालिक कहाँ /
जम गए है अश्क भी /आँखों में बन कर एक सिला /
सट गए हैं तालुओं से /जो जुबान रुकती न थी /
ठंड का आलम ये देखो /हैं सिकुड़े सब के सब /
बांध कर आपादमस्तक /बुत बने सब हैं खड़े /
क्या जुलूम ढाया यहाँ पर/तुमने भी प्यारे शरद /
अब न यूं हमको सताओ /जीने दो कुछ और पल ।
2
लंबी लंबी रातें होती /जुगनू जैसे छोटे दिन /
बर्फानी तूफानी में कटते/जैसे तैसे दिन गिन गिन /
यह भी है इतिहास का इक दिन /थर थर कांप रहे बिन भय के /
चला रहा है कौन ये चाबुक /कौन उझलता हिम मय जल है /
खींच खींच सूरज को लाता /पल में वह लापता हो जाता /
पूछ रहा जड़ चेतन सबसे /देकर के संकेत क्या जाता?
3
तुम्हारे दरवाजे पर/
दस्तक देने के लिए /
उठे तो हमारे हाथ /
अवश्य थे /
मगर /
सारी की सारी उँगलियाँ मुड गई /
हथेलियाँ थर थरा उठीं /
पाव जम गए /
सिले हुए होंठ /
क्या कहते /
पर दिल ने कहा/
कितने निर्दय हो तुम शरद/
बैठ कर /
देवता के बगल में /
बुलाते हो मंदिर के बहाने/
मारते हो डंक कितने /
कहो तुमही/
कैसे आए
गंगा नहाने ?
--
000000000
आरिफा एविस
वह औरत
रोज़ाना उसी चौराहे पर मिलती है
वह औरत
सांवला सा रंग, बाल छोटे पर बिखरे हुए
कुर्ता-सलवार बेमेल
फिर भी साफ़ सुथरे
घर नहीं है उसका
रहती है एक बस स्टैंड पर
बेगानों की तरह
महीनों से देख रही हूं उसे
इसी तरह रोजाना
कभी भी कुछ बडबडाते नहीं सुना
अक्सर पाया है उसे सफाई करते हुए
तरतीब से रखी हुए मैली सी बोतल
जिसमें साफ़ पानी था
कुछ पन्नियाँ जिनमें कुछ
खाने को बंधा था
करीने रखा हर सामान
जैसे वही उसका ताजमहल था
अक्सर कुछ आते जाते लोग
फब्तियां कस्ते
कुछ दया पाकर उसे पैसे भी देते
भीषण गर्मी हो या कड़ाके की सर्दी या हो बरसात
मैंने उसे वहीं पाया उसी जगह सुकड़े हुए
मन में हजारों सवाल उठे
कौन होगी कहाँ से आई होगी
कौन छोड़ गया होगा इसे
कहाँ होगा इसका असली घर
सवालों के इस गुबार में दिखाई दी
एक स्पष्ट छवि
समाज की, इस व्यवस्था की
और सवाल टिका इस समाज के लोगों पर ....
-
000000000
अंश प्रतिभा
”क्यों ? नहीं पनपा प्रेम हमारा“
कुछ तो प्रेम था, हम दोनों में,
ना तू समझा न मैं समझी।
हम बात-बात में लड़ते थे,
और बात-बात में रूठा करते थे।
कोई एक डोर थी बीच हमारे,
जो बांध रखी थी दोनों को।
उस बंधन को तोड़ हमें,
आजादी चाहिए था जीवन में।
क्यों कुछ भी प्रेम न,
शेष बचा था, हम दोनों के बीच।
कहने को तो एक थे हम,
पर विचार हमारे अलग-अलग।
हम दोनों खुश न थे,
खुशी हमारी थी अलग-अलग।
क्यों ? कुछ भी प्रेम न शेष बचा था,
हम दोनों के बीच।
हम दोनों जब अलग हुए,
अलग हमारी दुनिया हुई।
इस एकांकी जीवन में अब
याद तुम्हारी बसती थी।
बार-बार एहसास था होता,
कुछ तो जरूर था बीच हमारे।
न तू समझा न मैं समझी,
आधे-अधूरे दोनों थे लेकिन,
झुकना किसी की आदत नहीं,
कितना अच्छा होता अगर
कुछ तू बढ़ता कुछ मैं बढ़ती।
बढ़ते-बढ़ते फिर प्रेम भी बढ़ता,
हम दोनों साथ में होते,
प्रेम हमारा साथ फिर होता,
पर न तू समझा न मैं समझी।
.....................
0000000000000000000
डॉ नन्द लाल भारती
पेट कुंआ\कविता
जीवन संघर्ष कई बार
ऐसे मोड़ पर पटक देता है
होशोहवास में भी होश खो देते हैं
बसंत की चाह में बोये गए बीज
लू के शिकार हो जाते हैं
हमारे सपने मरणासन्न ,
और हम अनाथ की स्थिति में
बेबसी में अपनों से दूर हो जाते हैं
यक़ीनन यही पेट की भूख
जिसके लिए हम जीवन के बसंत
दर -ब -दर परदेस दर परदेस होते
खो देते है खून के ही नहीं
दर्द के भी रिश्ते
परदेस दर परदेस के होने का दर्द ,
चैन नहीं लेने देता है
सच जीवन संघर्ष बार बार
ऐसे मोड़ पर पटक देता है
अपनों से दूर वनवास जैसा जीवन जीते हैं
पेट कुंआ पुख्ता वजह,
इसी वजह से हर ग़म पीते हैं
--
जीवन अग्नि पथ है/कविता
जीवन अग्नि पथ है अपना
जीवन संघर्ष है दर्द है,सुख की बयार भी
जीवन में भांति -भांति के जन मिलते है
कुछ जोड़ते है अधिक तोड़ते है सपना .......
कोई विष बोता है कोई आग
कोई सुलगता है है
दहन करने को भाग्य
देवतुल्य कोई शीतलता से
जगा देता है लूटा भाग्य .......
फिक्र नहीं होती उनको जो
अग्नि पथ के आदी,कर्मपथ के दीवाने होते है
फ़र्ज़ की राह पर फना होना उनकी फितरत
वही कर्मयोगी काल के गाल पर
कनक सरीखे होते है .......
कायनात जानती है और हम भी
कर्मपथ के दीवानों को
अपनी जहां में जख्म बहुत मिलता है
दीवाना दर्द को पीता है अमृत मानकर
क्योंकि वह जानता है
जीवन अग्नि पथ है
यहाँ सुकरात को विष पीना पड़ता है .......
जीवन अग्नि पथ है पर
जीवन पुष्प भी तो है
कर्म पथ का दीवाना कहता है
पीकर विष भी गैर -बैर का कर परित्याग
अग्नि पथ पर चलता है .......
जीवन अग्नि पथ है सब जाने
वादा तो अपना है
विष पीकर,अग्नि पथ पर चलकर
कर्म की सुगंध सृजना है .......
जीवन अग्निपथ है
जीवन पुष्प भी तो है,
कर्म की सुगंध बाँटते जाना है
जीवन में भांति -भांति के जन मिलते है
फ़ना हुआ कर्मपथ पर जो
उसे कर्मयोगी कहते हैं
चलना है संभल -संभल कर
जीवन चलता वायु के रथ पर
जीवन अग्नि पथ है अग्नि पथ है .......
0000000000000
सुशील कुमार शर्मा
उस पार का जीवन
मृत्यु के उस पार
क्या है एक और जीवन आधार|
या घटाटोप अन्धकार।
तीव्र आत्म प्रकाश।
या क्षुब्द अमिट प्यास।
शरीर से निकलती चेतना।
या मौत सी मर्मान्तक वेदना।
एक पल है मिलन का।
या सदियों की विरह यातना।
भाव के भवंर में डूबता होगा मन।
या स्थिर शांत कर्मणा।
दौड़ता धूपता जीवन होगा।
या शुद्ध साक्षी संकल्पना।
प्रेम का उल्लास अमित।
या विरह की निर्निमेष वेदना।
रात्रि का घुटुप तिमिर है।
या हरदम प्रकाशित प्रार्थना।
है शरीर का कोई विकल्प।
या है निर्विकार आत्मा।
है वहाँ भी सुख दुःख का संताप।
या परम शांति की स्थापना।
है वहां भी पाप पुण्य का प्रसार।
या निर्द्वंद अंतस की कामना।
होता होगा रिश्तों का रिसाव।
या शाश्वत प्रेम की भावना।
----
0000000000000
इरीन जेम्स
तुमसे ना कोई शिकवा ना तुमसे से कोई शिकायत
फक्र मुझे मेरे इश्क़ पर है और इश्क़ ही मेरी बगावत
बस सलाम-ऐ-गुस्ताक़ी मेरा कबूल कर लेना
उधार रही तुझपर मेरी गुमनाम पलों की यादें
इतनी तस्सल्ली कर …उसे मेरी रूह को लौटा ज़रूर देना
तेरी मजबूरियों का मिल गया मुझे है पैगाम
बिन कुछ किये ही हो चले हम बदनाम
लहरों से खेलना होगा शौक इन समन्दरों का
लेकिन जब चोट लग जाए तो मशहूर होगा नाम किनारों का
सज़ा -ऐ -इंतज़ार और खामोशियों की आदत क्यों है
बता मुझे ऐ नाचीज़ ….तुझसे इतनी मोहब्बत क्यों है
फ़िज़ा में तेरी भी बेकरारी की आज खुशबू क्यों है
दिल परेशान और कमबख्त ज़ुबान खामोश क्यों है
आँखें फासलों की दरिया में आज नम्म क्यों है
जो कभी हमारा था ही नहीं उसे खोने का गम क्यों है
---
00000000000000
राधास्वामी! अतुल कुमार मिश्र
देश भक्ति]
देश भक्ति,
न तो स्वभाव है,
न आदत,
न लाचारी, न मजबूरी,
इसमें,
न तो ये जमीन आती है,
न ये आसमान आता है,
न ये लोग आते हैं,
न ये मकान, दुकान, आंगन,
न नदी-नाला, पहाड़, समतल मैदान,
कुछ भी नहीं,
स्वरूपित करता इसे,
फिर भी,
यह है, एक अहसास.....
मेरा देश है, मेरा है देश,
मेरे पास,
कितना पास....
शायद सबसे ज्यादा पास॥
राधास्वामी! अतुल कुमार मिश्र,
369, कृष्णा नगर, भरतपुर, राजस्थान, मो0 9460515371
000000000000000000
डॉक्टर चंद जैन
श्वेताम्बरा माँ सरस्वती दो ज्ञान का वरदान माँ ।
अज्ञानतम् कि कालिमा ढकने लगी आकाश माँ ।
तुम जला दो ज्योति ज्योतिर्मयी माँ शारदा ।
सहस्त्र नन्हे कर हमारे कर रहें है प्रार्थना ।
श्वेताम्बरा माँ सरस्वती दो ज्ञान का वरदान माँ ।
अज्ञानतम् कि कालिमा ढकने लगी आकाश माँ ।
हंस में तुम हो विराजित अम्र की तरुवर में तुम ।
कोकिला ने तान छेड़ी भौरों ने छेड़ा है धुन ।
बौर से भरनें लगा वन कुञ्ज कुंजन बाग़ माँ
इक अलोकिक पुंज से रक्तिम हुई पूरब दिशा
श्वेताम्बरा माँ सरस्वती दो ज्ञान का वरदान माँ
अज्ञानतम् कि कालिमा ढकने लगी आकाश माँ
पंचमी है आज बासंती हुई चारों दिशा
तुम हो वीणा वादिनी सुख दायनी संगीत हो
तुम हो सरगम ज्ञान माँ आनंद की तुम सृष्टि हो
हम पुत्र है तेरे शरण वात्सल्य का दो दान माँ
श्वेताम्बरा माँ सरस्वती दो ज्ञान का वरदान माँ ।
अज्ञानतम् कि कालिमा ढकने लगी आकाश माँ
तुम हो गीता ज्ञान माँ कृष्ण कि वाणी में तुम
तुम ही केवल ज्ञान माँ धर्म की सदभावना
पर्यावरण का कर हरण हमने किया कलुषित धरा
सुविचार दे हम मानवों को ज्ञान का भण्डार माँ
श्वेताम्बरा माँ सरस्वती दो ज्ञान का वरदान माँ ।
अज्ञानतम् कि कालिमा ढकने लगी आकाश माँ
----
00000000000000
बी.के गुप्ता‘‘हिन्द’’
गीत-‘‘विदाई’’
आना है किसी को किसी को जाना है।
एक रस्म विदाई की भी निभाना है॥
बेटी को एक दिन अपने घर जाना है,
माँ-बाप को अकेला छोड़ जाना है।
होंगी कहीं खुसियाँ तो कहीं तन्हाईयाँ,
शहनाईयों के संग रूला जाना है॥
सबको अपना ,अपना पद निभाना है,
दफ्तर भी एक दिन छूट जाना है।
हो जायेंगे कुछ साथियों से यूँ ही जुदा,
पद मुक्त होने का भी समय आना है॥
जिंदगी को फूलों सा सजाना है,
पाना है किसी को किसी को खोना है।
‘‘हिन्द’’कह रहा है प्यार से जियो सभी,
कुछ ही दिनों में दुनिया छोड़ जाना है॥
---
गीत-‘‘आदमी’’
देख आज कितना बदल गया आदमी।
आदमी को आज खा रहा है आदमी॥
अपने बहन बेटियों से करते हैं गुनाह,
हवस में इस कदर पागल है आदमी।
बिक रहा है जिस्म और बिक रहा है जाम,
पैसों के लिए आज बिक रहा है आदमी॥
गुप्तनीति बेंच दी दुश्मनों को आज,
सैनिक भर्ती हो गए हैं ऐसे आदमी।
रो रहा है आसमां ,रो रही जमीं,
माँ भारती की आँखों मे दिखने लगी नमी॥
अपनी संगिनी को छोड़ वीयर-वार में,
पैसो में जा के प्रीत ढूंढ़ता है आदमी।
खरीदते और बेचते है मौत का सामान,
गुनाहों में इस कदर शामिल है आदमी॥
----
गजल-‘‘जुल्मी-जमाना’’
जाना नहीं था घर से तेरे जाना पड़ा।
जलाना नहीं था खत तेरा जलाना पड़ा॥
हो गई खबर जमाने वालों को जब।
छोड़ करके नौकरी घर आना पड़ा॥
मजबूरियाँ कहीं थी कहीं तन्हाईयाँ।
घरवालों को भी हाल ए दिल बताना पड़ा॥
माँ-बाप की इज्जत को बचाने के लिए।
इल्जाम जमाने के खुद उठाना पड़ा॥
जी नहीं सकते थे एक-दूजे के बिना।
शहर से जा के दूर घर बसाना पड़ा॥
---
गीत-‘‘दुनिया का मेला’’
ये दुनिया का मेला है, यहाँ हंसना है रोना है।
कभी खुशियों को मिलना है, कभी गम का रूलाना है॥
यहीं जीना ,यहीं मरना ,यहीं सब छोड़ जाना है।
किसी को याद करना है ,किसी को याद आना है॥
मुझे एक गीत लिखना है, जहाँ की पीर लिखना है।
हमें जुल्मों से लड़ना है, मिलकर साथ चलना है॥
हमें नफरत मिटाना है ,प्यार का दीप जलाना है।
हमें भी प्यार करना है, तुम्हें भी प्यार करना है॥
----
0000000000000
इतिश्री सिंह राठौर
अनुवाद
सड़क हादसे के बाद..
डा. मृणाल चटर्जी.
सीढ़ी
मेरे लिए सीढ़ी चढ़ना बहुत ही आसान था
लेकिन अब पता चल रहा है कि सीढ़ी चढ़ना कितना मुश्किल होता है
सब समय का खेल है
सीढ़ी जहां थी वहीं है
जैसी थी वैसी ही है
बस बदल गया है मेरा वक्त...
डेटाल
कल तक डेटाल की खुशबू बिल्कुल पसंद न थी.
आज भी पसंद नहीं.
कल तक डेटाल के बिना मेरी जिंदगी चलती थी
लेकिन आज वह मेरी जिंदगी का हिस्सा बन गया है...
डाक्टर ने कहा है कि इनफेक्शन से दूरी बनाए रखने के लिए डेटाल जरुरी है.
जूता
मार्निग वाक के लिए एक जूता खरीदा था बड़े ही शौक से.
हादसे के बाद अब मैं बिस्तर पर हूं
लेकिन जूता मेरा इंतजार कर रहा है मार्निंग वाक पर निकलने के लिए.
फूल
गमले में फूल का पौधा लगाकार
हमारे माली ने उसे आंगन में रख दिया था.
जिस दिन उसने रखा
उसी दिन शाम को मैं सड़क हादसे का शिकार हुआ.
चार-पांच दिन बाद जब मैंने देखा तो पौधा मुरझा चुका है .
माली से पूछने पर उसने कहा, सर पानी तो रोज देता हूं?
- तो पौधा कैसे मुरझा गया?
-आप पांच दिन घर से नहीं निकले
शायद इसीलिए आपका इंतजार करते-करते पौधा मुरझा गया.
औकात
सरकारी अस्पताल के ड्रेसिंग रूम पहुंचते ही
अपनी औकात का पता चलता है.
स्काच से सना खून और देशी शराब मिले खून का रंग एक ही होता है
तभी पता चलता है
हादसा
याद है केवल कुछ अजीब आवाजें
याद है बस सड़क पर पड़े लाल रंग के छींटे
बस एक ही पल में बदल गई मेरी जिंदगी
जैसे सिमट गई हो दस बटा आठ के एक कमरे तक
कमरे के बाहर से पहाड़ जैसे आवाज दे रहा हो आने का
जंगल बुला रहा हो
लेकिन मैं चुपचाप बिस्तर पर
उदास काट रहा हूं बाहर की चांदनी रातें.
डा. मृणाल चटर्जी वतर्मान भारतीय जनसंचार संस्थान, ढेंकानाल शाखा के अध्यक्ष हैं. वह ओडिशा के बहुत ही प्रसिद्ध उपन्यासकार तथा व्यंग्यकार हैं. कुछ महीने पहले वह सड़क हादसे का शिकार हुए जिसके बाद उनके पैरों में गंभीर चोटें आई और डाक्टर ने उन्हें कम से कम एक महीने तक विश्राम लेने की सलाह दी. हादसे से उबरने के बाद डा.चटर्जी से किसी सम्मेलन में मेरी मुलाकात हुई. उस दौरान उन्होंने हादसे के समय महसूस किए हुए पलों को रचनाओं के माध्यम से सभी के साथ साझा किया. सुनने के बाद यह कहीं न कहीं मेरे दिल पर घर कर गया और मैंने इसे हिंदी में अनुवाद करने की इच्छा जताई और बस उन्होंने इजाजत दे दी अपनी भावनाओं को हिंदी के पाठकों के सामने रखने के लिए.
--------
00000000000
दोहे रमेश के
गणतंत्र दिवस पर
----------------------------------------------------
रचें सियासी बेशरम ,जब-जब भी षड्यंत्र !
आँखें मूँद खड़ा विवश, दिखा मुझे गणतंत्र !!
हुआ पतन गणतंत्र का, बिगड़ा सकल हिसाब !
अपराधी नेता हुए, ........सिस्टम हुआ खराब !!
राजनीतिक के लाभ का, ..जिसने पाया भोग !
उसे सियासी जाति का, लगा समझ लो रोग !!
यूँ करते हैं आजकल, राजनीति में लोग !
लोकतंत्र की आड में, सत्ता का उपभोग !!
भूखे को रोटी मिले,मिले हाथ को काम !
समझेगी गणतंत्र का, अर्थ तभीआवाम !!
---
बसंत पंचमी पर
---------------------------------------------
सरस्वती से हो गया ,तब से रिश्ता खास !
बुरे वक्त में जब घिरा,लक्ष्मी रही न पास !!
जिसको देखो कर रहा, हरियाली का अंत !
आँखें अपनी मूँद कर, रोये आज बसंत !
पुरवाई सँग झूमती,.. शाखें कर शृंगार !
लेती है अँगडाइयाँ ,ज्यों अलबेली नार !!
आई है ऋतु प्रेम की,..... आया है ऋतुराज !
बन बैठी है नायिका ,सजधज कुदरत आज !!
सर्दी-गर्मी मिल गए , बदल गया परिवेश !
शीतल मंद सुगंध से, महके सभी "रमेश" !!
रमेश शर्मा 9820525940
----
0000000000000
सुशील कुमार शर्मा
सौन्दर्य के सन्दर्भों का त्यौहार बसंत
गाडरवारा
आज बसंत बहार है।
जीवन का त्यौहार है।
यह त्यौहार है।
त्याग ,तप संकल्प का।
अज्ञानता के विकल्प का।
मन की तरंग का।
ज्ञान की उमंग का।
बुद्धि की स्फूर्ति का।
विद्या की पूर्ति का।
प्रेम की झंकार का
प्रकृति के प्यार का।
विद्वानों के सम्मान का।
धनवानों के मान का।
विद्या से पुष्टि का।
अटूट अमित भक्ति का।
बीणा के सम्मोहन का।
अनुरागों के अनुमोदन का।
मिलन का मुक्ति का।
सृजन का सृष्टि का।
जीवन के परिवर्तन का।
मनुष्यता के आवर्धन का।
उमंगों का उल्लासों का।
प्यार के प्रयासों का।
सौंदर्य के सन्दर्भों का।
यक्षों का गंधर्बो का ।
फूलों का सुगंधों का
स्नेह के प्रबंधों का।
खुश्बुओं को सजोने का।
स्वप्न के बिछौनों का।
बेटियों को मनाने का।
बेटों को सिखाने का।
माँ के सुकून का।
पिता के जूनून का।
दुश्मनी से दूरी का।
मित्रता जरूरी का।
पशुता से हटने का।
मनुष्यता पर डटने का।
प्यारे संबंधों का।
मन के आबंधों का।
चलो कुछ इस तरह से यह त्यौहार मनाएं।
जीवन में नए आदर्शों को अपनाएँ।
-------
00000000000000000
सुधा शर्मा
लोग अल्हा से कितने अन्जान हो गए,
खुदा के नाम पर बेईमान हो गए.
सारी कायनात चलाता है वो खुदा,
उसी की सत्ता सलामती के लिए शैतान हो गए.
हवा,पानी,और रोशनी,सब अल्लाह ने उतारी है.
उसी का दमकता नूर है,उसी की कायनात सारी है.
उसी का चिराग बुझाकर,
क्यूँ नाहक ही खाक कर रहा.
हे बंदे तू बता,
ये कैसी अजीब बंदगी कर रहा.
मदद ए खुदा की कोई ,
जहाँ का बंदा कर नहीं सकता.
लाख कोशिश कर शैतान भी ,
उस पर फतह कर नहीं सकता.
वो सबका सहारा है मददगार है,
कौन उसकी मदद करेगा.
जो उसे करना है वो ही करेगा
वो इंसा से क्यों कहेगा?
वो सबका माई-बाप है,
मत उसपर अहसान या करम कर,
यदि कुछ करना ही है तो,
बस इंसानियत से प्यार कर.
---
000000000000
दिनेश कुमार डीजे
बेबाक जियो जिंदगी, पर प्यार हो संभल के,
हसीनों और नेताओं पर ऐतबार हो संभल के।
चेहरे से दिल की परख भूल भी हो सकती है,
दिमाग वालों से दिली व्यवहार हो संभल के।
नेता और महबूब कभी भी धोखा दे सकते हैं,
समझदार लोगों से सरोकार हो संभल के।
महबूब और नेता चुनना जीवन बदल सकता है,
सही उम्मीदवार सही सरकार हो संभल के।
मांझी पे ज्यादा भरोसा नाव डुबो सकता है,
तैरने का हुनर हाथों की पतवार हो संभल के।
शराब शबाब पैसे से नियत डोल सकती है,
सावधान! मुल्क के पहरेदार हो संभल के।
इश्क़ और जम्हूरियत हो जात-धर्म से ऊपर,
सच्ची दोस्ती या वोटों का विचार हो संभल के।
कद्र करो नारी की,पर इश्क करोगे किससे?
वतन की मिट्टी के कर्जदार हो संभल के।
©दिनेश कुमार डीजे
------
00000000000000000
ठाकुर दास 'सिद्ध'
-: उड़ता पंछी पंख पसारे :-
( गीत)
चोंच मारकर चुग लेता है,
वह अपने आँगन के दाने।
धरती उसकी,अम्बर उसका,
वह दुनिया को अपना जाने।।
पर्वत लांघे,सागर लांघे,
कभी नहीं वह हिम्मत हारे।
उड़ता पंछी पंख पसारे।।१।।
डाल-डाल से,पात-पात से,
वह नित करता है अठखेली।
जोड़-जोड़ कर तिनका-तिनका,
लेता अपनी बना हवेली।।
कानों को भाता मनभावन,
गान सुनाता उठ भिनसारे।
उड़ता पंछी पंख पसारे।।२।।
फल पर हक़ है,हक़ फूलों पर,
वह अपनी मर्जी का राजा।
नहीं जमा करके कुछ रखता,
नित करता है भोजन ताजा।।
याचक बनकर भीख माँगने,
जाता नहीं किसी के द्वारे।
उड़ता पंछी पंख पसारे।।३।।
उसके तन पर वसन नहीं हैं,
सर्दी-गर्मी-वर्षा झेले।
उसे तेल ना साबुन लगता,
रोज़ धूल-माटी में खेले।।
फिर भी वह सुन्दर दिखाता है,
बिन दर्पण में रूप निखारे।
उड़ता पंछी पंख पसारे।।४।।
ना वह हिन्दू ,ना वह मुस्लिम,
एक बराबर काबा-काशी।
वह सादा जीवन जीता है,
जैसे हो कोई संन्यासी।।
तिनकों की कुटिया में अपनी,
रैन,चैन से रोज़ गुजारे।
उड़ता पंछी पंख पसारे।।५।।
ठाकुर दास 'सिद्ध',
सिद्धालय, 672/41,सुभाष नगर,
दुर्ग-491001,(छत्तीसगढ़)
भारत
मो-919406375695
---
0000000000
रवि श्रीवास्तव
गलती
कभी सोचा न था ऐसी गलती करूंगा,
दिल से चाहा जिसे उसको दर्द तो दूंगा।
आवेश में आकर उठ गया वो कदम,
जिसके चेहरे को देखकर जीते थे हम।
हो रहा पछतावा न माफ़ी मिली,
जाने कैसी थी ये मेरी दिल्लगी।
अब तो आंखों से अश्क हूं ही बहते रहें,
हर पल मुझसे यही कहते रहें।
हो गए है वो इस कद़र तो खफ़ा,
भूल को अब मेरी माफ़ कर दो ख़ुदा।
जिंदगी में नहीं ऐसी गलती करूंगा,
खुशियां उनको देकर सारे ग़म को सहूंगा।
---
00000000000
प्रकाश टाटा आनंद
एक लम्हा कहीं, अपना सा मिले
एक लम्हा कभी, सपना सा लगे
यूँही पल-पल में गुज़र जाना स्वीकार है स्वीकार है मुझे
हर कदम पर ये हमने पाया है
हम सफर है जो अपना साया है
यूँ ही सायों में सिमट जाना स्वीकार है स्वीकार है मुझे
गर सितारों की चमक अधूरी है
रात रोशन हो क्या ज़रूरी है
यूँ ही जुगनूँ सा चमक जाना स्वीकार है स्वीकार है मुझे
एक शम्मां जली जलती ही रही
उससे रोशन रही दुनिया की गली
यूँ ही जल-जल के पिघल जाना स्वीकार है स्वीकार है मुझे
कोई तुझसा कहीं जहाँ में पाऊँगी
फिर से दुनिया में मैं लौट आऊँगी
यूँ ही मर-मर के उबर जाना स्वीकार है स्वीकार है मुझे
मेरी चाहत गर, कहीं जाने से मिले
कभी फलक पर, कभी ज़मीन तले
यूँ ही चल-चल के भटक जाना स्वीकार है स्वीकार है मुझे
घनी पलकों के किनारों की नमी
तेरे कदमों को, रोक ले न कहीं
तेरा मुड़ मुड़ के पलट जाना स्वीकार है स्वीकार है मुझे
------------ प्रकाश टाटा आनंद (सर्वाधिकार)
----
000000000000
विश्वम्भर पाण्डेय 'व्यग्र'
गाऊँ मैं कैसे... (गीत)
===============
प्रणय गीत गाऊँ मैं कैसे |
बोले आतंक लहू की भाषा
हर मन बैठी आज हताशा
राजनीति डायन ने देखो
बदली जन-जन की परिभाषा
फिर मैं प्रीति जताऊँ कैसे |
प्रणय गीत गाऊँ मैं कैसे...
श्वांस-श्वांस से शोले निकले
आँखों से हथगोले निकले
एटमबम अब बना आदमी
ऐसे में क्या चाहे पगले
अपने प्राण बचाऊँ कैसे |
प्रणय गीत गाऊँ मैं कैसे...
मन बदले हैं ढंग बदले हैं
कदम कदम पर संग बदले हैं
समय बना गिरगिट के जैसा
पल -पल में वो रंग बदले हैं
फिर मैं तुम्हें रिझाऊँ कैसे |
प्रणय गीत गाऊँ मैं कैसे ...
रिश्ते झूँठे हो गये सारे
हम अपनों से ही हैं हारे
बात-बात में स्वार्थ रमा है
द्वेष-भाव ने पाँव पसारे
प्रेम की बस्ती बसाऊँ कैसे |
प्रणय गीत गाऊँ मैं कैसे...
==========
-
गंगापुर सिटी (राज.)
COMMENTS