शिकायत है- बच्चन को बच्चन से ' 'गलतियाँ, अपराध, माना भूल जाएगा जमाना किंतु अपने आप को कैसे क्षमा मैं कर सकूंगा?' (एकांत संगीत...
शिकायत है- बच्चन को बच्चन से
' 'गलतियाँ, अपराध, माना
भूल जाएगा जमाना
किंतु अपने आप को कैसे क्षमा मैं कर सकूंगा?' (एकांत संगीत)
बच्चन जी,
यह पत्र मैं आपको पहली बार लिख रहा हूँ, पर इसके लिए आपसे किसी प्रकार की क्षमा-याचना की आवश्यकता नहीं समझता। पहला पत्र लिखते समय लोग प्राय: अपना परिचय देते हैं, पर क्या आपको मुझे अपना परिचय देने की जरूरत है? आप मुझे जानते हैं और मैं आपको जानता हूँ-ठीक उतना, जितना अपने को अपने से जाना जा सकता है। इसके यह अर्थ नहीं कि मैं आपको ठीक-ठीक जानता हूँ। अपने को ठीक-ठीक जानना कोई सरल काम नहीं है। ठीक कहूँ तो बहुत कठिन काम है तप है, साधना है। तभी तो सभी दर्शनों का चरम आदेश इसपर जाकर समाप्त होता है, know thyself यानी 'अपने को जानो'। जानने की इस सीमा को स्वीकार करते हुए भी जैसा मैंने आपको जाना है, वैसा यदि मैं आपको आपके सामने रखना चाहता तो मुझे आपका जीवन-चरित ही लिखना चाहिए था, पर अभी मुझे इसके लिए अवकाश नहीं है, और शायद आपको भी इतना अवकाश न हो कि आप मेरा पोथा पढ़ सकें।
आपको याद होगा कि मैं आपके पास अक्सर उस समय रहा हूँ जब आपके पास कोई दूसरा नहीं रहा है- 'तुम मेरे पास होते हो गोया जब कोई दूसरा नहीं होता 1' आप भूले न होंगे कि मैं अक्सर आपकी प्रशंसा करता रहा हूँ, आपको प्रोत्साहन देता रहा हूँ आपको ढाढ़स बंधाता रहा हूँ, आशा दिलाता रहा हूँ- -उस समय भी, जब दुनिया आपकी बुराई करती रही है या आपका विरोध करती रही है। लेकिन आप अपने जीवन की बड़ी भारी गल्ती करेंगे अगर आप मुझको चापलूस या अपना चाटु- कार समझेंगे। मैं आपका आलोचक भी रहा हूँ ' आपकी गल्तियों, आपके अपराधों की ओर भी समय-समय पर संकेत करता रहा हूँ, यह और बात है और शायद स्वाभाविक भी--और मैं मानव की इस दुर्बलता को क्षम्य समझता है-; उन्हें आपने अपने दिमाग से निकाल दिया है। इसीलिए मैंने यह जरूरी समझा कि आपकी कुछ कमजोरियों, कुछ गल्तियों को, इस पत्र के रूप में आपके सामने रख दूं ताकि यह सिद्ध हो जाए कि मैं आपका केवल ऐसा मित्र नही रहा जो 'सुन प्रगटे अवगुनहिं दुरावै,' बल्कि आपके अवगुन भी प्रकट करता रहा हूँ। बाहर मैं दोनों के प्रति मौन हूँ-आपने महाभारत में पढ़ा होगा कि आर्य न अपनी निंदा करे न अपनी स्तुति। कृपया, इस पत्र को गोपनीय समझे ज्यादा अच्छा हो कि पढ़कर फाड़ दें। आपकी खब्तुलहवासी को मैं खूब जानता हूँ। ऐसा न हो कि आप इसे कहीं इधर-उधर रख दें और यह किसी के हाथ लग जाए। किसी शैतान संपादक के हाथ लग गया तो गजब ही हो जाएगा, और इस तबके के लोग अक्सर आपके यहाँ देखे जाते हैं।
यों तो आपके जीवन की बहुत-सी ऐसी गल्तियों और कमजोरियों को मैं जानता हूँ जिनसे मुझे शिकायत है, पर आज जिनकी ओर मैं इशारा करना चाहता हूँ वे आपके लेखक-जीवन की हैं, और एक दृष्टि से अधिक प्रभावपूर्ण हैं। भाई, जीवन में आप गल्तियां करते हैं, आप उनका फल भोगेंगे गल्तियाँ किसी को माफ नहीं करतीं। लेकिन आपके लेखक-जीवन की कमजोरियों का फल आप तक ही सीमित नहीं रहता।
आपमें प्रतिभा थी-लेखन-प्रतिभा, पर अपनी लेखन-प्रतिभा के प्रति पूर्ण विश्वास आपको कभी नहीं हो सका। इसलिए विशुद्ध रूप से लेखक आप कभी नहीं हो सके। पहले करते रहे अंग्रेजी की प्रोफेसरी, और लिखते रहे हिंदी की कविता और अब एक सरकारी दफ्तर में क्लर्की करते हैं-सरकारी दफ्तरों में सव क्लर्क ही होते हैं, कोई छोटा क्लर्क, कोई बड़ा क्लर्क। आपने किसी दिन बैठकर यह निश्चय क्यों नहीं किया कि आपको अध्यापक बनना है या कवि। आपने यह कैसे समझ लिया कि आप दोनों बन सकते हैं? सच कहूँ तो आपने दो विरोधी कर्मों को मिलाने का दुःसाहस किया था। लडकों को पढ़ाने वाला कभी अच्छा कवि नहीं बन सकता। आज तक साहित्य के इतिहास में शायद ही कोई मोदर्रिस -प्रोफेसर होकर भी वह मोदर्रिस ही रहता है -अच्छा कवि बन सका हो। कवि गतिशील होता है, वह अपने अनुभवों को दुहराता नहीं, वह नित्य नया खोजता, नित्य नया सीखता, नित्य नये से जूझता है मोदर्रिस साल- दर-साल एक ही गद्य, एक ही पद्य को एक ही तरह से पढ़ाता जाता है, और अंत में उसका सारा ज्ञान उसके विद्यार्थियों के स्तर का होकर रह जाता है। उसे जीवन की बहुत-सी रूढ़ियाँ और मर्यादाएं भी निभानी पड़ती हैं, और कवि जीवन को मुक्त दृष्टि से देखता है, मुक्त पथ का अनुसंधान करता है और मुक्त चरण से उसपर विचरण करता है। बच्चन जी, आपका कवि बड़ा सख्त-जान होगा कि उसे आपकी बीस बरस की मोदर्रिसी भी नहीं मार सकी, और लगभग दस बरस से सरकारी दफ्तरों के दमघोंटू वातावरण में भी उसे आप जिलाए हुए हैं। तभी तो कहता हूँ कि आपने अपने को विशुद्ध कवि के रूप में स्थापित किया होता तो आज? - इसपर मेरा मुँह बंद किए रहना ही ठीक है। कल्पना के धनी आप भी हैं।
फिर आपने एक जुर्रत और की। हिंदी में लिखना था तो हिंदी में एम० ए० करते, हिंदी के प्रोफेसर बनते। हिंदी के प्रोफेसर रहते हुए भी बहुतों ने साहित्यिक कमाल किए हैं। आप स्वाध्याय करते रहे अंग्रेजी का, और लिखते रहे हिंदी में। तीन कम पचास की उम्र तक आप यह निश्चय नहीं कर सके कि आपका कार्य-क्षेत्र हिंदी होगा या अंग्रेजी। 'मधुशाला' से 'मिलन यामिनी' तक जब आपकी एक दर्जन पाए की किताबें निकल चुकी थीं तब आप केम्ब्रिज जाकर वहाँ से अंग्रेजी में पी-एच० डी० की डिग्री ले आए। काश, आपने यह डाक्टरेट हिंदी में की होती तो हिंदी के शोध-साहित्य की अभिवृद्धि हुई होती, और इससे आपकी हिंदी कविता को भी बल मिला होता। इससे हिंदी की जो हानि हुई सो तो हुई ही, आपकी भी बड़ी हानि हुई है। आपको किसी विश्वविद्यालय ने अंग्रेजी विभाग का अध्यक्ष नहीं बनाया, क्योंकि आप विशुद्ध अंग्रेजी के आदमी नहीं हैं-हिंदी भी लिखते हैं। और हिंदीवालों ने आपको टिकने की जगह नहीं दी क्योंकि आप अंग्रेजी में भी टाँग अड़ाए हैं। जवाहरलाल नेहरू स्वर्ग में बैठे हुए घी-शक्कर खाएं जिन्होंने आपकी हिंदी, अंग्रेजी दोनों की योग्यता की उपयोगिता समझी, और आपको अंग्रेजी राजनयिक दस्तावेजों के हिंदी अनुवाद के काम पर लगा गए। पर, कवि जी, यह तो बतलाइए कि इस शब्द-कोषी कुश्ती की पटरी आपके छंद-गान के साथ कैसे बैठती है! मैं जानना चाहता हूँ कि अपनी काव्य-कल्पना के साथ इतना बलात्कार आपने कैसे सहन किया है?
और आपकी काव्योपलब्धि पर भी एक बात कहूँ तो आप बुरा न मानिएगा। आप साहित्य के क्षेत्र में उल्टे पैदा हुए हैं।
'मधुशाला' तो आपकी पहली ही कविता थी न? -प्रारंभिक पद्य-अभ्यासों को बाद देकर-जो आज से तैंतीस बरस पहले लिखी गई थी, जिसके बाईस संस्करण हो चुके हैं और जिसकी प्रकाशकों द्वारा दिए गए हिसाब के अनुसार- प्रकाशकों द्वारा-दुहराने में जो संकेत है उसे समझते हैं न? दो लाख से अधिक प्रतियां बिक चुकी हैं। इन तैंतीस बरसों में भी आप बराबर कलम-घिसाई करते रहे हैं, पर आपकी बाद की रचनाएँ दस-बारह संस्करणों से ऊपर नहीं गईं, किसी- किसी के तो तीन-चार संस्करण ही हुए हैं, कुछ के केवल दो-एक। 'मधुशाला' ही आपकी सर्वश्रेष्ठ रचना समझी जाती है। जब कभी आप कवि सम्नेलन में जाते हैं, वही रचना लोग आपसे सुनना चाहते हैं। आपका नाम आने पर लोग यही कहते हैं, वही 'मधुशाला' वाले बच्चन। साहित्य में आकर भी आप साहित्यकारों की रीति-नीति से बे-बहरे रहे। प्रसाद' ने .कानन-कुसुम' लिखा, 'आँसू' लिखा, 'झरना' लिखा, तब जाकर उन्होंने अपनी सर्वश्रेष्ठ रचना लिखी 'कामायनी 'निराला' ने 'परिमल' लिखा, 'गीतिका' लिखी, 'तुलसीदास' लिखा, तब जाकर 'राम की शक्ति- पूजा' लिखी पंत ने पव्लव' लिखा, 'ग्रंथि' लिखी, और अन्य एक कोड़ी कृतियाँ, तब जाकर उन्होंने अपनी रचना प्रस्तुत की 'कला और बूढ़ा चाँद' जिसपर साहित्य अकादमी ने पुरस्कार देकर उसपर सर्वश्रेष्ठता की मुहर लगाई। उम्र में आपसे नाटो के भी ऐसे ही उदाहरण हैं। आप है कि आपने आते ही आते अपनी सर्वश्रेष्ठ रचना दे दी। अब आप कुछ भी लिखे, 'मधुशाला' से बढ्कर कोई चीज नहीं लिख सकेंगे। कविवर आपको अपने काव्य का प्रासाद नींव से उठाना चाहिए था, जैसा सब करते हैं। आपने पहले कलश ही गढ़कर धर दिया, मानों आप एलोरा का मंदिर काट रहे हों जो, जाहिर है, ऊपर से नीचे की ओर बना था। मैं क्या बेजा करता हूँ अगर कहता हूँ कि साहित्य की भूमि पर आप उल्टे पैदा हुए थे। अब उतरते जाइए नीचे और नीचे 'दो चट्टानें ' तक, जिन्हें भी काटकर शायद आपको अपने लिए कोई कंदरा बनानी पड़े--जहां आप गीता में वर्णित स्थितप्रज्ञ की समाधि लगा सकें। सिरहाने के तले गीता रखने की बात आप अपनी हाल की किसी कविता में कह चुके हैं। कुछ बरस पहले आपने जनगीता' लिखी थी, अब खबर है आपने 'नागर गीता' भी लिख ली है। कहीं दोनों मिलकर सिरहाने की जगह ही न ले लें।
आपकी प्रसिद्धि में कवि-सम्मेलनों का कम हाथ नहीं रहा है, और एक तरह से आपको हिंदी कवि-सम्मेलनों का प्रतिष्ठापक माना जाता है। आपके पहले जब छायावादी कवि मंच पर बैठकर अपनी हत्तंत्री के तारों से नीरव-झंकार करते थे तो जनता अपना मुँह बाकर दुकुर-टुकुर उनकी विचित्र वेष-भूषा और अलक-पलक को निहारा करती थी हिंदी को प्रोत्साहन देने के लिए कोई-कोई महारथी 'अति सुंदर' या पुनर्वाद' का उच्चारण भी बीच-बीच में कर देते थे। जब आप मंच पर आए तो जनता में जीवन की एक लहर दौड़ गई, शब्द श्रोता और वक्ता के बीच सेतु बन गए, आग्रहपूर्वक बुलाए गए लोग ललककर कवि-सम्मेलनों में आने लगे, हजारों की भीड़ लगने लगी, संध्या के ही एकाध घंटे में समाप्त हो जाने वाले सम्मेलन रात-रात भर चलने लगे। ऐसे कवि-सम्मेलन की कल्पना ही नहीं की जा सकती थी जिसमें आप न हों। लेकिन उन कवि-सम्मेलनों का स्वस्थ विकास आप नहीं कर सके। आपने इनमें जाना भी अब बंद कर दिया है। शायद आपको समय नहीं, शायद अब कवि-सम्मेलनों से मिलने वाले पारिश्रमिक की आपको दरकार नहीं, शायद बढ़ती उम्र के साथ उनके लिए आपका उत्साह क्षीण हो गया है और अंत में, शायद अब आपका स्वास्थ्य लंबी यात्राएं करने, रात-रात भर जागने, बैठने, और गले की कसरत करने योग्य नहीं रह गया। पूछूं, क्या उनके द्वारा फैलनेवाले अपने सुयश से भी आपको अपच हो गई है? फिर भी कभी जाकर देखें कि उन कवि-सम्मेलनों की, जिन्हें आपने सुरुचि, साहित्यिकता और सप्राणता से संवारा था, क्या दशा हो गई है। मुझे कहते हुए दुःख होता है कि अब वे विदूषकों और भाँड़ों के अखाड़े बन गए हैं। कवि और श्रोता के बीच सजीव संपर्क का यह माध्यम आपकी बड़ी भारी देन होती लेकिन यदि आपने इसे विकृत नहीं किया तो विकृत होने दिया है।
मैं आपकी एक आदत जानता हूँ, आप सुनते सबकी हैं करते अपने मन की ही हैं, चाहे उसका कोई परिणाम हो, या उसकी कोई कीमत आपको चुकानी पड़े। आपको बदलने के लिए मैंने यह पत्र लिखा भी नहीं। शायद आप चाहें भी तो अपने को बदल नहीं सकते। और अब वक्त भी कहाँ है।-
उम्र सारी तो कटी इश्के बुताँ में 'मोमिन'
आखरी वक्त में क्या खाक मुसल्मां होंगे।
आपको मेरी शुभकामनाएँ।
आपका चिरसंगी
हरिवंशराय
(टूटी छूटी कड़ियाँ से साभार)
nice post.....I read it 2 times...
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