भूमिका सरहदों की कहानियाँ ‘अनुवाद दो भाषाओं के बीच मैत्री का पुल है ’ आज के इस दौर में गद्य में समकालीन कहानी प्रधानता पा रही है। वैसे दे...
भूमिका
सरहदों की कहानियाँ
‘अनुवाद दो भाषाओं के बीच मैत्री का पुल है’
आज के इस दौर में गद्य में समकालीन कहानी प्रधानता पा रही है। वैसे देखा जाय तो कहानी न नयी होती है और न पुरानी। कहानी, कहानी होती है। वह या तो अच्छी लिखी हुई होती है, या अच्छी नहीं होती है। कभी लेखक के आस पास के संदर्भों पर निर्भर, या उस समय की अनुकूलता के ताने-बाने से बुनी हुई होती है, जिसमें कल्पना व यथार्थ का तालमेल होता है। कहानी कोई भी हो, साहित्य की रचनात्मक सशक्तता से ही महत्वपूर्ण बनती है। आज की कहानी जीवन के बिलकुल निकट आ गई है। उसमें मानव के हृदय की धड़कन का अहसास होता है जिसमें शामिल हैं- हालातों की साज़िशी, मुफ़लिसी, बेरोज़गारी, अमानुषता, कहीं खुशहाली, कहीं बेबसी, बीमारी, दरिंदगी, उसूलों की बलि, हद सरहद पर फ़सादों के जंगल। प्यार नफ़रत की फ़स्ल से पनपती इन्सानियत व मज़हबी टकराव के बारे में पढ़कर आम आदमी अपने ही भाई-बंधुओं के दुख-सुख का परिचय पाता है। इसलिए कहानी का रूप भी गतिशील है, वह विस्तृत, विकसित एवं परिवर्तित होता रहता है।
भाषा के आविष्कार के बाद जब मनुष्य-समाज का विकास-विस्तार होता चला गया तब आदान-प्रदान की प्रक्रिया में भी फैलाव की आवश्यकता महसूस हुई होगी, तब ही तो अनुवाद का जन्म हुआ होगा। हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए अनुवाद अत्यंत महत्वपूर्ण व उपयोगी है। अनेक कारणों में एक कारण यह भी है कि राष्ट्रीय एकता व अस्मिता की प्रतीक हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दी को भारत की सभी भाषाओं को साथ लेकर आगे बढ़ना है और सम्पूर्ण राष्ट्र को एकता के सूत्र में बाँधना है। कविवर बच्चन जी, जो स्वयं एक कुशल अनुवादक रहे, उनका कहना कि- ‘अनुवाद दो भाषाओं के बीच मैत्री का पुल है। अनुवाद एक भाषा का दूसरी भाषा की ओर बढ़ाया गया मैत्री
का हाथ है। वह जितनी बार और जितनी दिशाओं में बढ़ाया जा सके, बढ़ाया जाना चाहिए।’ प्राचीनकाल से लेकर अब तक अनुवाद ने कई मंज़िलें तय की हैं। यह सच है कि आधुनिक काल में अनुवाद को जो गति मिली है, वह अभूतपूर्व है। मगर, यह भी उतना ही सत्य है कि अनुवाद की आवश्यकता हर युग में, हर काल में तथा हर स्थान पर अनुभव की जाती रही है। यह अनुवादक ही है जो भौगोलिक सीमाओं को लांघकर भाषाओं के बीच सौहार्द, सौमनस्य एवं सद्भाव को स्थापित करता है। शायद यही एकमात्र सौहार्द भाषायी संगम में एकता के रंग भरने में पहल करे। डॉ. शिबन कृष्ण रैणा इस दिशा में अपना योगदान देते हुए लिखते हैं- ‘अनुवाद-कर्म राष्ट्रसेवा का कर्म है। यह अनुवादक ही है जो दो संस्कृतियों, राज्यों, देशों एवं विचारधाराओं के बीच ‘सेतु’ का काम करता है।’
अनुवाद हमें राष्ट्रीय ही नहीं अन्तर्राष्ट्रीय भी बनाता है, यह कथन एक सत्य की शिला पर टिका हुआ सूरजमुखी है। अनुवाद करते हुए मेरा प्रयास नये प्रयोगों से परिचित होता रहा है। सिन्ध की भाषा, कहीं परिष्कृत और कहीं अशिष्ट पाई जाती है। शब्दों का उपयोग वहाँ के परिवेश, परिस्थितियों से सामंजस्य रखता हुआ पाया जाता है। कहीं पर गावों की ख़ुशबू तो कहीं शहरी वातावरण में बाज़ारवाद की बू, कहीं अमीरी के चंगुल में छटपटाती ग़रीबी, कहीं सूदख़ोरों का दबाव, तो कहीं हालातों में फंसे लोगों के साथ हो रही सौदेबाज़ी माहौल में देखने को मिलती है। ऐसा नहीं कि यह कोई नई बात है, हमारे आस पास भी ये हालत मौजूद हैं, जिन्हें देख कर अनदेखा किया जा रहा है। अनेक व्यवस्थाएँ मौजूद हैं, कहीं ज़ाहिर, कहीं छुपी हुई। खुले आम दिन के उजालों में हो रही कुनीतियों में, न्याय अन्याय के पलड़ों में पिस रहा आदमी सूली पर लटका हुआ है, जहाँ उसकी आवाज़ सुनने वाला कोई नहीं ! इन्हीं संदर्भों को, इन्हीं अनकही बातों को, कहानीकारों ने कलम की धार से, किरदारों के ज़रिये, भाव, भाषा व शिल्प के आधार पर अभिव्यक्त करते हुए कहानी का स्वरूप दिया है। कलमकार का मन भी नदी के प्रवाह की मानिंद उन जी हुई परिस्थितियों, भोगी हुई पीड़ाओं का संदर्भ लेकर अपनी बात कहानी के रूप में सामने लाता है।
सिन्धी कहानी के वजूद में अज़ाब की दास्ताँ लम्बी है। विभाजन का दर्द नसों में लहू बनकर दौड़ रहा है। लेखकों की कहानियों में जो देश, काल और भाषा की सारी दूरियाँ हैं उन सब फ़ासलों को उलांघती आ रही है। शायद भाषा भी खुली हवा में जीना चाहती है, आज़ादी का माहौल चाहती है, मन के वाद-विवाद की कैद तोड़ना चाहती है। भाषा का मज़हब से कोई संबंध नहीं, वह तो संगीत की तरह मनोभावों की अभिव्यक्ति का माध्यम है। उनका आपस में कोई मतभेद नहीं। मिली-जुली गंगा-जमुनी तहज़ीब अब सभी हदें पार करते हुए घुल-मिल रही है। सिन्ध और हिन्द के मक़बूल कहानीकारों की ये अछूती कहानियाँ उस परिवेश के वो सुमन हैं जिनकी अपनी एक अलग ख़ुशबू है। मैंने सिर्फ़ उन फूलों को चुनकर एक गुलदस्ता सजाया है जिसकी सुगन्ध सिन्धी कहानी की आंचलिक मधुरता के साथ हिन्द की फ़िज़ाओं में घुल-मिलकर अपनी एक अलग पहचान बना पाए। भाव और भाषा में संतुलित ताल-मेल बनाए रखने के सफ़र में मैं अनुभूति से अभिव्यक्ति तक पहुँचाने, इस जटिल जीवन की कशमकश में अपने प्रयास में कहाँ तक पूरी उतरी हूँ, यह मैं अपने प्रिय सुधी पाठकों से उनकी प्रतिक्रिया के रूप में पाने के इंतज़ार में रहूँगी।
अनुवाद की वैश्विक भूमिका पर अधिक चर्चा न करते हुए मैं सीमाओं और संभावनाओं के विस्तारपूर्ण प्रदान की पथिक बस एक सकारात्मक दिशा में सतत कोशिश कर रही हूँ, इस उम्मीद पर कि सिन्ध के सिन्धी कहानीकारों की कहानियाँ अनुवाद के माध्यम से हिन्दी साहित्य जगत के परिवेश की खुली हवाओं में अपनी ख़ुशबू बिखेर कर एक नई पहचान पा लें। मैं अयन प्रकाशन की तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ जो इस संग्रह के रूप में सिन्ध की दहलीज से सफ़र करती आ रही इन कहानियों को हिन्द के खुले वातावरण में मुक्त आसमान दिया। आपने समय की परिधि में इस संग्रह को मंज़रे-आम पर लाने की रवायत को बख़ूबी निभाया है। इस महायज्ञ में सिन्धी साहित्य के सारथी लेखकों का योगदान इस संग्रह में उनकी स्वीकृति के साथ शामिल है।
- देवी नागरानी
Devi Nangrani
http://charagedil.wordpress.com/
http://sindhacademy.wordpress.com/
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समर्पित
सिन्ध के उन अदीबों को-
जिनकी कहानियों से आज भी
वतन की ख़ुशबू हवाओं में घुलकर
मेरी सांसों को महका रही है।
‘बादे-सहर वतन की चन्दन सी आ रही है
यादों के पालने में मुझको झुला रही है।’
- देवी नागरानी
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भूमिका 2
सरहदों को तोड़ती कहानियाँ
देवी नागरानी द्वारा अनूदित कथा-संकलन अनुवाद के क्षेत्र में एक ताज़ा झोंके की तरह है। ‘सरहदों की कहानियाँ’ की रचनाएँ अनुवाद की आदर्श विधि सहजानुवाद के अधिक निकट पड़ती हैं। इसके अतिरिक्त भी इस संकलन की कुछ विशेषताएँ हैं। ये कहानियाँ वस्तुतः सरहदों की कहानियाँ न होकर अनेक प्रकार से सरहदों को तोड़ती कहानियाँ हैं। देश, धर्म, भाषा, संस्कृति, किसी दीवार पर ये कथाएँ अटकती नहीं। मानव-मन, उसकी आकांक्षाएँ, समस्याएँ, उसकी सोच, उसकी प्रश्नाकुलता सार्वभौम है। फिर, अनुवाद का दामन थाम कर रचना पहले पहल भाषा की सरहद को ही तो तोड़ती है।
इस संकलन की दूसरी विशेषता है- कहानियों का चयन। देवी ने जिन कहानियों का चयन किया है वे किसी भी देश की वर्तमान कहानी हो सकती है। इन कहानियों की युनीवर्सेलिटी कहानीकारों तथा चयनकर्ता अनुवादिका की गहन दृष्टि व मानवीय प्रतिबद्धता को दर्शाती हैं। ये कहानियाँ कई स्तरों पर अनेक सरहदों को तोड़ती हैं। बीमार आकांक्षाओं की खोज में बुद्ध भी सरहद पार कर जाते हैं;
‘सच वो है जिसकी हमेशा तालश रही है, पर कभी मिला नही।’ ‘कोई टूटकर मुझे भी चाहे’ की यूनीवर्सल चाह मुश्ताक़ अहमद शोरो की इस कहानी में मिलती है।
‘दर्द की पगडंडी’ लंदन की ज़मीन पर लिखी गई कहानी है जो किसी भी प्रवासी की, किसी भी देश में हो सकती है। वहाँ अपनों से मिलने की स्वाभाविक चाह है, पर कभी-कभी संस्कृति और इतिहास की सरहदें दिल के रास्ते रोक लेती हैं, जैसा कि सलीम के साथ होता है।
‘गुफ़ा’ कहानी सही अर्थों में वैश्विक कहानी कही जा सकती है। देश, भाषा, जाति की सरहदों को तोड़ती, मानव-मन को प्रस्तुत करती मनोवैज्ञानिक कहानी है जो विश्व के किसी भी कोने में संभव हो सकती है।
देवी नागरानी यद्यपि बड़ी उत्सुकता से, एक हिचक के साथ अनुवाद के इस बीहड़ में उतरी हैं; "ये अछूती कहानियाँ उस परिवेश के वो सुमन है जिनकी अपनी-अपनी ख़ुशबू है। मैंने सिर्फ़ उन फूलों को चुनकर एक गुलदस्ता सजाया है.... भाव और भाषा में संतुलिल ताल-मेल बनाए रखने के इस जटिल सफ़र में मैं अनुभूति से अभिव्यक्ति तक पहुँचने की कश्मकश में कहाँं तक अपने प्रयास में पूरी उतरी हूँ.
....।" (भूमिका) तो इसके उत्तर में देवी को दिलासा देने को जी चाहता है कि डॉ. भोलानाथ तिवारी ने जो अभिमत दिया है, ‘एक भाषा में व्यक्त विचारों को यथासंभव समान और सहज अभिव्यक्ति द्वारा दूसरी भाषा में व्यक्त करने का प्रयास अनुवाद है’ की रौशनी में यदि इन कहानियों को परखा जाए तो देवी को हार्दिक बधाई दी जा सकती है और शुभकामनाएँ भी क्योंकि लक्ष्य भाषा में इन्होंने मूल भाषा की यथार्थता, शुद्धता, अभिव्यक्ति की स्पष्टता तथा निरपेक्षता को साधे रखा है। इसके दो उदाहरण द्रष्टव्य हैं, जिनमें संकलन की कहानियों के अनुवाद के स्तर को पहचाना जा सकता है।
‘ख़्वाब का पानी की तरह बेनाम ज़ायका होता है। ख़्वाब का तो कोई रंग भी नहीं होता। ख़्वाब पानी की तरह पारदर्शी होता है, जिसकी सतह पर बेहिसाब ख़्वाहिशों की रौशनी जब भी अपनी उंगलियों से छूती है, तो ख़्वाब पानी में कितने ही अलग रूपों में उभरता है। ख़्वाब पानी जैसा ही कुछ है या कुछ सहरा में पानी के घूँट के लिए छलांग भरते हिरण की नाभि में छुपी ख़ुशबू की सुगंध है। (रिश्ता)
‘हालाँकि वह अंधा है फिर भी देख सकता है कि कोठरी का दरवाज़ा कहाँ है और वह ऐसे दरवाज़ों पर खुलता है जो दुनिया की ओर खुलते हैं- वह दुनिया जो आज़ाद और रौशन है। वह रौशनी उसने कभी भी अपनी आँखों से नहीं देखी है पर उसने अपने पूरे वजूद से महसूस किया है।’ (एक गुनाह का अंत)
‘सरहदों की कहानियाँ’ के माध्यम से देवी ने आम आदमी के यथार्थ, राजनीति, भ्रष्टाचार, सामाजिक कुरीतियों से छटपटाते उसके वजूद, बनते-टूटते सपनों, मानसिक चक्रव्यूह में फंसे अस्तित्व के अंतर व मनोभावों को तर्जुमा किया है।
- डॉ. संगीता र. सहजवानी
12 राम जानकी
356, लिंकिंग रोड, खार (प.)
मुम्बई-400052
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भूमिका 3
अनुवाद भाषायी सद्भावना का मूलमंत्र हैं
- अमरेन्द्र कुमार
उस संसार की कल्पना भी संभव नहीं जहाँ कहानियाँ नहीं हों।
यही कारण है कि हम किसी भी युग में रहे हों, किसी धर्म-सम्प्रदाय के हों अथवा संसार के किसी भी कोने में रहते हों कहानियाँ सदैव हमारे साथ-साथ हैं। कहानियाँ प्राचीन काल से मानव मन के निकट रही हैं। यही बात हिन्दी के साथ-साथ अन्य भारतीय भाषाओं के लिये भी एक सच है। हर युग में, हर वय के बीच कहानियाँ एक महत्त्वपूर्ण कड़ी की तरह होती हैं। यही नहीं कहानियाँ काल और भूखंड के बीच की कड़ी होती हैं। भावों और संदेशों की संवाहिका कहानियाँ कभी-कभी देश और काल की सीमाओं के परे भी चली जाती हैं। भारतीय सन्दर्भ में कहानियाँ हमारी भावनाओं और संवेदनाओं से अधिक जुड़ी हैं। यही नहीं अध्यात्म से शुरू होकर दैनंदिन के कार्यकलापों को संयोजित और संवर्धित करने का काम भी कहानियाँ करती हैं।
आज से छह महीने पहले जब आदरणीया सुश्री देवी नागरानी जी ने मुझे इस प्रस्तावित कहानी संग्रह के लिये लिखने को कहा था तो मैं अचानक ही उत्साहित हो गया था। मुझे प्रसन्नता थी कि इसी बहाने सिन्धी कहानियों को पढ़ने का अवसर मिलेगा। हिन्दी के इतर अन्य भाषाओं की कहानियाँ पढ़ने में मेरी अधिक अभिरुचि रही है।
यह और बात है कि कुछ कारणों से मैं इन सभी कहानियों को पढ़ने के आनंद से वंचित रह गया।
देवी नागरानी जी अमेरिका और भारत के बीच अपना समय बाँटा करती हैं। मेरा उनसे संपर्क कोई दस साल पुराना है लेकिन उनके स्नेह और अपनेपन को अनुभव करते हुए समय का आकलन अब प्रासंगिक प्रतीत नहीं होता। उनके बारे में उनके दूसरे परिचितों के भी मेरे जैसे ही विचार हैं। वे ग़ज़ल में सिद्धहस्त तो हैं ही साथ-ही-साथ अनुवाद और आलोचना में भी सक्रिय हैं। इस संग्रह को पढ़ते हुए हिन्दी के पाठकों को भी उनके अनुवाद कौशल से परिचित होने का अवसर मिलेगा- ऐसा मेरा विश्वास है। सबको निज की भाषा बहुत ही प्रिय होती है। कहते हैं कि किसी को अगर मित्र बनाना है तो उससे उसकी भाषा में बात करके देखो। भाषा ऐसी मनमोहिनी है। सिन्धी भारत और पाकिस्तान दोनों जगह बोली जाती है। भारत और पाकिस्तान दो अलग देश तो हैं पर दोनों की संस्कृति एक ही है। वैसे भी आज अगर भारत और पाकिस्तान दो अलग-अलग देश हैं तो मात्र राजनैतिक कारण से, नहीं तो एकता की जड़ें इतनी गहरी हैं कि उन्हें अनुभव न कर पाना एक प्रकार की मानसिक जड़ता ही होगी। मैंने कहीं पढ़ा था कि पाकिस्तान का 1947 के पहले का इतिहास भारत का ही तो इतिहास है। सच तो यही है। यह भी एक कारण है कि सिन्धी कहानियों के सरोकार हिन्दी से बहुत अलग नहीं। कहानियों के मूल में परिवेश का बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस संग्रह के माध्यम से सिन्धी भाषा और समाज के परिवेश को समझने में मदद मिलेगी- ऐसी आशा है। अनुवाद साहित्य की सभी विधाओं में अनमोल है। सच्चा अनुवाद दो भाषाओं के बीच सेतू की तरह है। यह दो भाषा-भाषियों के लिये वरदान भी है। इसके माध्यम से हम सहज ही भाषायी अज्ञान के परे जाकर अपने साहित्यानंद में अभ्ठिद्धि कर लेते हैं। हिन्दी के पाठक इस संग्रह के माध्यम से सिन्धी भाषा और समाज से साहित्यिक स्तर पर जुड़ेंगे। इन सिन्धी कहानियों के अनुवाद के माध्यम से देवी जी ने जिस कथा-साहित्य को हिन्दी जगत को भेंट किया है वह निश्चय ही स्वागत योग्य है। इस संग्रह के लिये मेरी असीम शुभकामानाएँ इसके मूल कथाकार, अनुवादिका देवी नागरानी जी, इसके प्रकाशक और हिन्दी-सिन्धी के पाठक वर्ग के साथ हैं।
ऐसे और भी प्रयास दोनों भाषाओं के बीच देखने को शीघ्र ही मिलेंगे- ऐसी आशा है और विश्वास भी।
जून 14, 2014
- अमरेन्द्र कुमार
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(क्रमशः अगले अंकों में जारी…)
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