पुरस्कार लेना नैतिक, लौटाना अनैतिक !‏ / शैलेंद्र चौहान

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इधर कतिपय साहित्यकारों द्वारा साहित्य अकादमी पुरस्कारों के लौटाने पर कुछ खुदबुदाहट और कुछ खरखराहट जैसी ध्वनियां हौले हौले ध्वनित हो रही है...

इधर कतिपय साहित्यकारों द्वारा साहित्य अकादमी पुरस्कारों के लौटाने पर कुछ खुदबुदाहट और कुछ खरखराहट जैसी ध्वनियां हौले हौले ध्वनित हो रही हैं। इन ध्वनियों से मैं कुछ उग्र और कुछ व्यग्र हो रहा हूं। हालांकि इस प्रदर्शन या प्रहसन मेरा कोई लेना देना नहीं है लेकिन मैं इस बात से खुश हूं कि प्रतीकात्मक ही सही कोई विरोध तो साहित्य समाज में दृष्टिगत हुआ क्योंकि आज जो दिख रहा है वह निश्चित रूप से विघटनकारी और संदेह के घेरे में है। और यदि सत्ता के कुछ प्रतिनिधियों में बेचैनी दिख रही है तो कुछ न कुछ असर हुआ है। कन्नड़ लेखक एम एम कालबुर्गी ही हत्या के कथित विरोधस्वरूप जब हिंदी के सुपरिचित कथाकार उदयप्रकाश ने पहल की तो फिर आगे सिलसिला चल पड़ा और अनेकों लेखकों संस्कृति कर्मियों ने पुरस्कार वापसी का धर्म निभाना शुरू कर दिया।

लेकिन उदय प्रकाश के इस कर्म पर साहित्यिक बिरादरी से सवाल उठाने लगे। उदय प्रकाश का विवादों से पुराना रिश्ता रहा है जैसा कि तमाम अग्रज रचनाकारों का रहता आया हो। फिर चाहे अज्ञेय हों, नामवर सिंह हों, राजेन्द्र यादव हों या कुछ अन्य लेखक हों यह परंपरा अतीत में भी रही है। पर उदय प्रकाश इन दिनों कुछ अधिक सुर्ख़ियों में हैं। उनके अतीत पर प्रश्न उठ रहे हैं उनकी पारिवारिक एवं जातिगत परिस्थितियों को खंगाला जा रहा है। उदय प्रकाश पर लिखते वक़्त मैं सतर्क हूँ क्योंकि मैं भी उसी जाति से हूं जिससे उदय प्रकाश का संबंध हैं। जयपुर में पिछले दिनों मेरी टिप्पणी से नाराज कुछ लेखकों ने मुझे अपमानजनक ढंग से 'ठाकर' कहा। मुझे ऐसा लगा कि यह कहकर उन्होंने मुझे जोरदार जूता मार दिया हो। खैर उदय प्रकाश से मेरे मित्रता पूर्ण संबंध भी रहे हैं। हमारे संबंधों में तबसे ठहराव आया जब उदय प्रकाश योगी आदित्यनाथ से सम्मानित हुए। इसके अलावा एक वजह और रही कि अशोक वाजपेयी का विरोध करते करते वह उनके प्रशंसक बन गए। जो मुझे नहीं रुचा। बहरहाल यह उनका व्यक्तिगत मामला था पर जिसका लेखकीय नैतिकता से सम्बन्ध अवश्य था। लेकिन उदय प्रकाश एकमात्र ऐसे साहित्यकार नहीं हैं हिंदी जगत में, कई अन्य भी हैं जो छुप छुपकर यही सब करते हैं। इस प्रसंग में मुझे मुक्तिबोध की कविता ‘सांझ और पुराना मैं’ याद आ रही है।  उसकी कुछ पंक्तियां नीचे उद्धृत कर रहा हूं -

आभाओं के उस विदा-काल में अकस्मात्

गंभीर मान में डूब अकेले होते से

वे राहों के पीपल अशांत

बेनाम मंदिरों के ऊँचे वीरान शिखर

प्राचीन बेखबर मस्जिद के गुम्बद विशाल

गहरे अरूप के श्याम-छाप

रंग विलीन होकर असंग होते

मेरा होता है घना साथ क्यों उसी समय

मुझे लगता है कि साहित्य जगत में यह आभाओं का विदा काल है। जो अज्ञेय का आभामंडल था वह बाद को किसी रचनाकार का नहीं रहा अलबत्ता नामवर सिंह एक शक्तिशाली साहित्यिक सत्ता के रूप में कई दशकों तक प्रतिष्ठित बने रहे। कई भक्तों को पुरस्कार देते दिलाते रहे। पुरस्कारों की भी एक राजनीति होती हैं जैसी कि अन्य क्षेत्रों में होती है। विगत में राजा या सामंत अपने चाटुकारों को पुरस्कृत करते थे। सरकारें भी वही करती हैं। समयानुसार शैली थोड़ी बदल गयी है। मैंने साहित्य अकादमी के बारे में गूगल पर जब टटोला तो मुझे कुछ मजेदार सामग्री मिली। यथा साहित्य अकादमी  'भारतीय साहित्य के सक्रिय विकास के लिए काम करने वाली राष्ट्रीय संस्था है, जिसका मकसद उच्च साहित्यिक मानदंड स्थापित करना और भारतीय भाषाओं में साहित्य गतिविधियों का समन्वय और पोषण करना है।

साहित्य अकादेमी साहित्यिक हिंदी और अंग्रेजी समेत देश की 24 भाषाओं के साहित्य को आगे बढ़ाने का काम करती है। इस काम में किताबें छापना, साहित्यिक कार्यक्रम आयोजित करना भी शामिल है. साहित्य अकादेमी अपनी जिम्मेदारियों में पढ़ने की आदत को प्रोत्साहित करना भी मानती है। काफी हद तक यह सही है। पर उसका मानना है कि साहित्य अकादेमी का मकसद साहित्यिक गतिविधियों के माध्यम से देश की सांस्कृतिक एकता को आगे बढ़ाना होगा।' यही बात अमूर्त है। क्या किसी लेखक की हत्या पर खेद प्रकट न करना सांस्कृतिक एकता को आगे बढ़ाने का प्रयास है ? जबकि किसी भी लेखक की मृत्यु पर शोक प्रकट करना एक औपचारिक कर्म है। यह भारतीय परंपरा का एक अंग है। साहित्य अकदामी का जब गठन हुआ था तो उसका उद्देश्य था कि सभी भारतीय भाषाओं के साहित्य की समृद्ध परंपरा और विरासत का एक साझा मंच बने, जहां साहित्य पर गंभीर विचार-विनिमय और विमर्श हो सके। साहित्य अकादमी के गठन के पीछे एक भावना यह भी थी कि अकादमी सेमिनार, सिंपोजियम, कांफ्रेंस और अन्य माध्यमों से एक दूसरे भाषा के बीच संवाद स्थापित करेगी। यह सारी चीजें साहित्य अकादमी कर रही है, लेकिन करने के तरीके में घनघोर मनमानी और अपनों को उपकृत करने का काम होता रहा है इस बात को नकारा नहीं जा सकता।

अपने गठन के एक डेढ़ दशक बाद साहित्य अकादमी अपने इस उद्देश्य से भटकगयी। सत्तर के शुरुआती दशक से ही अकादमी मठाधीशों के कब्जे में चली गई और वहां इस तरह की आपसी समझ बनी कि हर भाषा के संयोजक अपनी-अपनी भाषा की रियासत के राजा बन बैठे। साझा मंच की बजाए यह स्वार्थसिद्धि का मंच बनता चला गया। अकादमी की इस मठाधीशी का फायदा अफसरों ने भी उठाया और वे लेखकों पर हावी होते चले गए। आज आलम यह है कि अकादमी सांप्रदायिक मानसिकता के लोगों  का गढ़ बन चुकी है और वहां वही होता है जो भारत की सरकार चाहती है। अकादमी अध्यक्ष सदैव भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय की ओर ताकते रहते हैं। अकादमी के स्वायत्त रूप का क्षय वहां पूरी तरह दिखाई देता है। ऐसी स्थिति में लेखकों की पुरस्कार वापसी  को कोई बुरा कदम तो नहीं कहा जा सकता। अनैतिक भी नहीं माना जा सकता। जिस तरह इन दिनों लेखकों, संस्कृतिकर्मियों, पत्रकारों, कार्टूनिस्टों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, भ्रष्ट तंत्र के खिलाफ बोलने वाले संवेदनशील नागरिकों और महिलाओं तथा बच्चों पर घृणित हमले हो रहे हैं उसके खिलाफ लेखकों का यह सुविधावादी विरोध नाजायज भी तो नहीं है। यद्दपि उन्हें कुछ और प्रभावी विरोध करने की जरुरत थी। यूं इस तरह की घटनाएं आज नहीं बढ़ी हैं न ये अभी शुरू हुईं हैं। दूसरी सत्ताओं के समय भी ऐसी भयावह घटनाएं हुईं हैं पर आज हम अधिक भयभीत हैं। कारण स्पष्ट है इस सरकार की संरचना ही कुछ ऐसी है कि भय लगता है, खुली साम्प्रदायिकता, आक्रामकता, असहिष्णुता, अन्धविश्वास और अवैज्ञानिकता का प्रचार एवं झूठ का प्रभामंडल आज पहले की बनिस्बत कहीं अधिक है। ऐसी स्थिति में न केवल लेखकों का बल्कि तमाम संवेदनशील नागरिकों का यह दायित्व बनता है कि वे आपसी राग द्वेष से  आगे बढ़ इन अमानवीय हो रही परिस्थितियों का विरोध करें।  अन्यथा ये और तेज गति से बढ़ेंगी। मुझे मार्टिन निमूलर की नाज़ियों के विरुद्ध लिखी कविता याद आती है -

जब नाजी कम्युनिस्टों के लिए आये/ मैं खामोश रहा/ क्योंकि, मैं कम्युनिस्ट नहीं था/ जब उन्होंने सोशल डेमोक्रेट्स को जेल में बंद किया/ मैं खामोश रहा/ क्योंकि, मैं सोशल डेमोक्रेट नहीं था/ जब वो यूनियन के मजदूरों के पीछे आये/ मैं बिल्कुल नहीं बोला/ क्योंकि, मैं मजदूर यूनियन का सदस्य नहीं था/ जब वो यहूदियों के लिए आये/ मैं खामोश रहा/ क्योंकि, मैं यहूदी नहीं था/ लेकिन, जब वो मेरे पीछे आये/ तब, बोलने के लिए कोई बचा ही नहीं था/ क्योंकि मैं अकेला था। 

संपर्क : 34/242, सेक्टर -3, प्रताप नगर, जयपुर – 302033 (राजस्थान), मो.न. 07727936225

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  1. मैं आपकी बात से पूरी तरह सहमत हूँ. इस तथ्य पर मेरे विस्तृत विचार जानने हेतु laxmirangam.blogspot.in पर बदलता समाज देखें. अयंगर. 8462021340

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रचनाकार: पुरस्कार लेना नैतिक, लौटाना अनैतिक !‏ / शैलेंद्र चौहान
पुरस्कार लेना नैतिक, लौटाना अनैतिक !‏ / शैलेंद्र चौहान
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रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2016/02/blog-post_20.html
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