मान चुके हैं खुद को मेहमान या वीआईपी - डॉ. दीपक आचार्य 9413306077 dr.deepakaacharya@gmail.com कुछ मामलों में अब ज्यादातर लोग असामान...
मान चुके हैं खुद को
मेहमान या वीआईपी
- डॉ. दीपक आचार्य
9413306077
कुछ मामलों में अब ज्यादातर लोग असामान्य होते जा रहे हैं। भौतिक विलासिता, धन वैभव और चकाचौंध आदि सब कुछ हम खूब पाते जा रहे हैं लेकिन हमारे भीतर से सादगी, सरलता, सहजता, धैर्य, माधुर्य और मानवीय स्वभाव पलायन करता जा रहा है।
पहले स्व पराक्रम, मेहनत और पुरुषार्थ हमारी जिन्दगी के मूलाधार हुआ करते थे। अब हम हर मामले में पराश्रित होते जा रहे हैं। दूसरों पर आश्रित हो जाने के स्वभाव की वजह से हम अब अपनी सामान्य जिन्दगी भी आसानी से नहीं जी पाने की स्थिति में आ गए हैं।
एक जमाने में राजा-महराजा और दरबारी, अभिजात्य वर्ग और वैभवशाली लोग ही अपने हर काम के लिए किसी न किसी नौकर-चाकर और दास के भरोसे रहा करते थे। अब हम सभी को हर पल दरकार रहती है अपनी सेवा-चाकरी करने वाले मातहतों और दासों की।
हर जगह हम अपने आपको वीआईपी और मेहमानों की तरह देखना और उसी तरह का व्यवहार पाना चाहते हैं। पहले यह बीमारी बड़े-बड़े लोगों और अधीशों-अधीश्वरों को ही हुआ करती थी लेकिन अब सभी प्रकार के लोगों में घर कर गई है।
मेजबानी करना कोई नहीं चाहता, सारे के सारे मेहमानों की तरह रहना चाहते हैं। कोई नहीं चाहता जिम्मेदारी उठाना। सब चाहते हैं कि बिना कोई जिम्मेदारी संभाले सब कुछ उनकी झोली में आता रहे, जो कुछ है उसका लाभ उसे ही मिलता रहे, और उसे कोई पूछने वाला नहीं हो,वह स्वच्छन्द होकर जीता हुआ सभी प्रकार के ऎश करता रहे।
हम अपनी इच्छित हर वस्तु को अपने सामने हाजिर कर देने वाला चाहते हैं। हमसे न कुछ होता है न होगा। बिना हिले-डुले या मेहनत किए यही चाहते हैं कि सब कुछ हमारे नाम हो जाए, हमारे काम आ जाए।
हम लोग अपने घरों, कार्यस्थलों से लेकर अपने तमाम प्रकार के व्यवहार स्थलों तक में मेहमानों की तरह पेश आते हैं और हर मामले में वीआईपी ट्रीटमेंट चाहते हैं। यह मिलता रहे तो हम खुश रहते हैं और न मिले तो नाराजगी की सारी हदें पार कर देते हैं।
कुछ लोग तो बकवास और गाली-गलोच तक पर उतर आते हैं और अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना कर जिन्दगी भर किसी न किसी से दुश्मनी मोल लेते रहते हैं।
हमारी दयनीय हालत ही कही जा सकती है कि हम सभी प्रकार का सामर्थ्य होने के बावजूद अशक्तों की तरह जीवन जीने के आदी हो गए हैं। घर में रहते हुए पानी भी पीना हो तो उठकर नहीं पी सकते। इसके लिए भी किसी न किसी का सहारा लेना पड़ता है। दूसरे कामों की तो बात ही क्या है।
शौच और स्नान को छोड़ दिया जाए तो सामान्य दिनचर्या के तकरीबन सारे कामों में हम किसी न किसी का सहारा लेते हैं। यहां तक कि अपने कामों को भी खुद करने का मानस हमारा नहीं रहता। हम घर में भी परिजनों से इसी तरह नौकरों जैसा व्यवहार चाहते हैं। काम-धंधे, दफ्तरों और विभिन्न आयोजनों तक में हम खुद कुछ करना नहीं चाहते।
पारिवारिक, सामाजिक, सांस्कृतिक-साहित्यिक और सभी प्रकार के सामुदायिक आयोजनों में भी हम हर प्रकार की क्रिया में दूसरों पर निर्भर रहा करते हैं। इनमें भी मेहमानों की तरह ऎन वक्त पर आते हैं और बिना कुछ काम-धाम या सेवा किए समय होते ही चले जाते हैं।
कुल मिलाकर हम इस कदर परश्रित हो गए हैं कि हम अपने बूते जिन्दगी को भी आसानी से नहीं जी सकते। हम इतने अधिक पराश्रित,प्रमादी और आलसी हो चुके हैं कि हमारा कहीं कोई ठौर नहीं है।
जो लोग अपने रोजमर्रा के काम नहीं कर सकते, उन लोगों से समाज और देश की सेवा की उम्मीद कैसे की जा सकती है? हम जिस समाज में रहते हैं, जिस राष्ट्र का नमक खाते हैं उससे जुड़े हुए किसी भी आयोजन में निमंत्रण पत्र पाने की इच्छा रखते हैं और न मिले तो आसमान ऊँचा कर डालते हैं।
हर आयोजन में हम वीआईपी की तरह व्यवहार चाहते हैं। यह दिगर बात है कि हमारी औकात क्या है, यह हमें भी नहीं पता। हमें यदि कहीं किसी जगह अकेला छोड़ दिया जाए तो हम जीना ही भूल जाएं, हर क्षण शिकायत करते रहें वो अलग। हममें से बहुत से लोग हैं जो अपने से संबंधित कामों को भी करना नहीं चाहते।
हम अपने दफ्तरों और सभी प्रकार के कार्यस्थलों में जाते-आते रहते है। तब भी हम मेहमानों की तरह व्यवहार करते हैं। कार्यस्थलों पर साफ-सफाई नहीं हो रही है, पानी फिजूल बह रहा है, बिना काम की बिजली जल रही है, सामान कबाड़ हो रहा है, संसाधन बरबाद हो रहे हैं, गंदगी पसरने लगी है, चोरी हो रही है, जरूरी आवश्यकताएं भी पूरी नहीं हो पा रही हैं, दुरुपयोग हो रहा है आदि-आदि। हमें कोई फरक नहीं पड़ता चाहे पुराने कर्मचारी हों या फिर नये।
हम सब अपने कार्यस्थलों पर मेहमानों की तरह मनमर्जी से आते हैं और चले जाते हैं। हमें इस बात से कोई मतलब नहीं है कि हमारे कार्यस्थलों की दशा क्या हो रही है? शादी-ब्याहों और बाराती मेहमानों की तरह हम मेहमानवाजी चाहते हैं और न मिले तो हमारा पारा सातवें आसमान पर चढ़ जाता है।
दुर्भाग्य से शर्मनाक हालत यह है कि चाहे हमारा अपना घर हो, अपना संस्थान, क्षेत्र या अपना प्रदेश-देश हो, हम अपने आपको मेहमानों और वीआईपी की तरह ही रखने के आदी हो चले हैं। हम सब कुछ अपने लिए कर रहे हैं अपने संस्थानों और कार्यस्थलों को हम केवल मासिक बंधी-बंधायी रकम पाने का जरिया ही मान बैठे हैं, इसके अलावा न हमें अपने उत्तरदायित्वों की कोई समझ है, न अपने फर्ज निभाने का माद्दा।
इस लिहाज से गणना की जाए तो इंसान की अपेक्षा मेहमानों और वीआईपी की संख्या में निरन्तर बढ़ोतरी हो रही है। कोई अपने आपको अच्छा इंसान मानने को तैयार नहीं है, सारे के सारे या तो मेहमानों की तरह पेश आ रहे हैं अथवा वीआईपी बने हुए फिरने के आदी हो गए हैंं। लानत है हमारी इस मानसिकता को जो पूरी की पूरी पीढ़ी को प्रमादी, आलसी और निकम्मी बनाने पर तुली हुई है।
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