सियासत , मीडिया और अजीब बू तनवीर जोनेजो कालीन सी दरी पर सफ़ेद चुनरी, जिस पर गुलाबी फूल गुंथे हुए थे, सर पर ओढ़े वह ख़ुदा के दर मिन्नत क...
सियासत, मीडिया और अजीब बू
तनवीर जोनेजो
कालीन सी दरी पर सफ़ेद चुनरी, जिस पर गुलाबी फूल गुंथे हुए थे, सर पर ओढ़े वह ख़ुदा के दर मिन्नत कर रही है, नाजुक निर्मल से हाथ उठाकर उस परम दयालू रब से कुछ माँग रही थी।
मुहब्बत की मंज़िल, हमसफ़री का साथ.... प्यार का चंदोवा : "ऐ मेरे पाक परवरदिगार.... वह जैसा भी है.... मुझे बहुत प्यारा है.
... उसके साथ का हर पल मेरे लिये जन्नत समान है.... आप मुझे उनसे दूर न करें.... ऐ मेरे करीम बादशाह तुम्हारे दर हर बंदा एक खुली किताब है। हर बंदे के भीतर के ख़यालों से आप परिचित हैं.... बंदे की मजबूरियों और कमज़ोरियों की सब जानकारी है तुम्हारे पास.... परवरदिगार मुझे लौटा दो वह अपनी तमाम नेकियों और सच्चाइयों से.... निर्दोषता और निर्मलता के साथ।"
उसके होंठ थरथरा रहे थे, आँखों में आंसुओं की लड़ी थी.... ख़यालों की उड़ान.... तेज़ी से बुलंदियों के साथ विगत काल की ओर जा रही है.
.. कुछ यादगार लम्हों के यादगार पल....!
उसका नाम बिलकिश है... और इस वक़्त जिसके लिये ख़ुदा के दर मिन्नत कर रही है वह उसका दोस्त, उसका सहपाठी सलीम है। दोनों बी. ए. के तीसरे साल के विद्यार्थी हैं। बिलकिश में कई गुण हैं..... बात करने की तमीज़ है और कुछ विनम्रता का भाव लिये हुए उसका व्यक्तित्व अपने ढंग का था। उसका परिवार भी इतना संकीर्ण विचारों वाला न था, एक मध्य वर्गीय कुटुंब है जिसमें एक तरफ़ दस्तूरों का रक्षण किया जाता तो दूसरी तरफ़ वक़्त की आवश्यकताओं की भी पूर्ति की जाती। उसकी माँ भी पढ़ी लिखी नौकरीशुदा औरत है। वह विख्यात अस्पताल में डॉक्टर थी और उसके पिता भी एक डॉक्टर थे।
हैदराबाद में सिंधियों की बस्ती कासिमाबाद में उनका चार सौ गज़ का एक शानदार बंगला था। ज़िंदगी ने उसके साथ बहुधा अच्छाइयाँ बख्शीं, बस!
अगर थोड़ी कुछ कमी थी तो उसके भीतर में पनपती हीन भावना का अहसास, या किसी हद तक माँ की नौकरी के सबब उनकी मुहब्बत पाने की कमी। पर उसकी यह कमी भी उसकी दादी ने पूरी कर दी थी। फिर भी कम पढ़ाई और कम सलाहियत के कारण उसकी अपनी ही बुनी हुई विचारधारा थी या नाटकों और फिल्मों से प्राप्त आत्मदया का भाव था, जो उसके ज़हन पर हावी था। इंटर साइंस में अपेक्षित अंक हासिल न करने के कारण यूनिवर्सिटी में दाख़िला लिया था।
सलीम उसका क्लास फेलो था, दादू के गर्वमेंट कॉलेज से इंटर करके यहाँ आया था। बिलकिश की तुलना में उसका परिवार मध्यवर्ग से वास्ता रखता था। उसका बाप एक प्राइमरी स्कूल में हेड मास्टर था। उसे सी. एस. ए. कराकर ‘डिप्यूटी कमिश्नर’ बनाने का ख़्वाब उसकी आँखों में था। सलीम की शख़्सियत पुरक़शिश थी.... कद्दावर.... सुन्दर सुकुमार जवान था। तबीयत में किसी हद तक परिपक्वता की कमी.... पढ़ने में कम चाह.... पर ख़्वाबों की उड़ान कमिश्नरी से भी ऊँची थी।
बिलकिश के साथ मुहब्बत की गाँठें कैसे बंधीं, इस का अहसास दोनों को नहीं हुआ। न पहली नज़र में प्यार हुआ था, और न ही सलीम ने बिलकिश को किसी गुंडे से बचाया था। आहिस्ते आहिस्ते बेख़बरी के आलम में दोनों एक दूसरे के नज़दीक आने लगे.... सलीम के लिये नोट्स तैयार करना, असाइन्मेंट बनाना.... बिलकिश के प्रिय काम थे.... पहले फ़ोन पर बातें होतीं, यूनिवर्सिटी के बारे में, फिर धीरे-धीरे भविष्य में साथ गुज़ारने के रेखा-चित्र शुरू होकर ‘हाला नाके’ के अयूब रेस्टॉरंट तक पहुँचे। सलीम अक्सर किसी अनजान ख़ौफ़ का शिकार नज़र आता था, "कहीं अपना ज़िक्र ‘प्रेमी जोड़ो’ में तो नहीं आ जाएगा? ऐसा ही सवाल एक दिन सलीम ने बिलकिश से किया था।
"नहीं सलीम, हमारी फैमिली काफ़ी आज़ाद ख़्याल की है.... और अम्मा तो तुम्हारी मेरी दोस्ती के बारे में जानती है।" बिलकिश ने उसे ढाढस बंधाया।
बिलकिश जो आत्मदया की परिस्थिति में गिरफ़्तार थी, सलीम के साथ उसके वजूद को आत्मविश्वास मिला था। उसी विश्वास के सहारे वह इस गोल गोल घूमती दुनिया में नाज़ के साथ इतराती थी, ख़ुद विश्वास के साथ चलती थी और उसे यह भी यक़ीन था कि सलीम उसका अपना है। सलीम और उसके बीच में कोई भी समाज की दीवार नहीं है। फिर उसे लगा कि सलीम के ध्यान का केन्द्र-बिंदु कोई और लड़की बनने लगी और सलीम उसके पीछे ‘पागलों’ की तरह दौड़ने लगा और वह लड़की सलीम का अल्हड़पन देखकर, उसे अपनी बाँहों में जकड़ती रही.... वह कोई और नहीं
‘सियासत’ थी।
"मैं प्रेशर ग्रुप का अध्यक्ष चुन लिया गया हूँ।" इंटरनेश्नल रिलेशन वाले अनुभाग के पास ऊपर जाती हुई सीढ़ियों पर सलीम ने उसे बताया था।
"सच!" बिलकिश की ख़ुशी की कोई हद न रही थी।
"हाँ.... अब मैं भी लीडर कहलाऊँगा.... मेरे बयान और तस्वीरें अख़बारों में आएँगी।"
"पर सलीम, तुम ध्येय के लिये लड़ना, स्टूडेंट्स की परेशानियों के
लिये संघर्ष करना और धरती के दुखों के ख़िलाफ़ जूझना।" बिलकिश ने लंबी साँस लेते हुए उससे कहा था- "सच सलीम, मेरा सर गर्व से बुलंद होगा, मेरे आत्मविश्वास में और भी इज़ाफ़ा होगा।"
"हाँ बिलकिश, मैं चाहता हूँ कि क़ौम के दुख समेट लूँ। स्टूडेंट्स सुकून से तालीम पाएँ। बसों में लटकते हुए नहीं आराम से बैठ कर आएँ जाएँ।
खुद छुट्टी लेने के ढंग में बदलाव के लिये संघर्ष करूँगा.... और हाँ....
बिलकिश तुम्हें पता है मैं सियासत में क्यों आया हूँ? इसलिये कि तुम्हारा सर गर्व से ऊँचा हो और वो आदर्श जो तुमने संजोए हैं उन को क़ामयाबी मिले...."
सलीम ने प्यार से बिलकिश का हाथ पकड़ा, पर मैडम को आते हुए देखकर हाथ छोड़ दिया। बिलकिश ने शरारती मुस्कान से उसकी ओर देखते हुए कहा- "बस, इतना सा दिल है। अभी तो लीडर बनने चले थे।"
"मूल्यों की रक्षा भी तो करनी है..." सलीम ने मुस्कराते हुए जवाब दिया।
और फिर सलीम के बयान अख़बारों में छपने लगे। तस्वीरें विभाग की दीवारों पर चिपकने लगीं। अब सलीम कोई आम स्टूडेंट नहीं, एक ख़ास स्टूडेंट था जिस पर हर एक इतराता था, सलाम करता था। सलीम में अल्हड़पन की मात्रा बढ़ने लगी।
"बिलकिश.... आज तुम्हारी सालगिरह है न...." सलीम के हाथ में एक गिफ़्ट पैक था।
"यह देखो... तुम्हारे लिये क्या लाया हूँ?"
"तुम्हारा लाया हुआ ख़ूबसूरत कार्ड भी मेरे लिये सोने से ज़्यादा मूल्यवान होता है।" बिलकिश गिफ़्ट पैक को देखकर कहने लगी।
"पर तुम देखो तो सही।" सलीम ने कहा।
"अरे यह.... यह तो सोने का ब्रेसलेट है।" बिलकिश ने हैरानी से सवाली निगाहें उसकी ओर उठाईं।
"हाँ.....!" सलीम मुस्कराता रहा।
"पर इतने पैसे तुम्हारे पास आए कहाँ से.... सात हज़ार से तो क़तई कम न होगा यह...." बिलकिश हैरान थी।
"पैसों को छोड़ो.... यह बताओ तुम्हें गिफ़्ट पसंद आया न?"
सलीम की आँखों में मुहब्बत का जोश था।
"है तो अच्छा पर...." कुछ चाहकर भी वह कुछ न कह पाई। सिमेस्टर की परीक्षाएँ नज़दीक थीं। बिलकिश पढ़ाई के साथ सलीम की असाइन्मेंट भी तैयार करने में व्यस्त रही।
"ख़ुदा करे जल्दी परीक्षाएँ हों।" हर स्टूडेंट की तरह बिलकिश भी ख़्वाहिशमंद थी। वक़्त पर परीक्षाएँ हों तो बेहतर, नहीं तो देर के कारण नौकरी पाने में भी स्टूडेंट पीछे रह जाते हैं। ‘कायदे आज़म यूनिवर्सिटी’ में इच्छुक विद्यार्थी दाख़िला पाने से वंचित रह जाते हैं.... कितनी स्कॉलरशिप रद्द होती हैं और उसके साथ-साथ माता-पिता पर भी आर्थिक बोझ बढ़ जाता है। आम विद्यार्थी एक अनचाही परिस्थिति के शिकार हो जाते हैं।
"हैलो बिलकिश, क्या कर रही हो?" एक दिन सलीम ने फ़ोन पर पूछा।
"तुम्हारे लिये असाइन्मेंट तैयार कर रही हूँ.... इस बार तुमने पेपर्ज़ के लिये कितनी तैयारी की है?"
"तैयारी कैसी? पहले इम्तिहान तो हों!"
"क्यों? क्या तुम्हारी सियासत भी उन्हीं रास्तों पर चलने लगी है?"
"देखो न बिलकिश, स्टूडेंट्स की कितनी सारी समस्याएँ सामने हैं। उन परेशानियों से निजात पाने के लिये ज़रूरी है बॉइकॉट करवाया जाय क्योंकि उसी से व्यवस्था पर दबाव डाला जा सकता है।"
"पर सलीम, उसमें भी भुगतना तो स्टूडेंट को ही पड़ता है, व्यवस्था पर तो कोई असर नहीं पड़ता और उसी बॉइकॉट के कारण पुलिस वालों को भी यूनिवर्सिटी आना जाना होगा। ऐसा न करें सलीम, कुछ सोचें...." बिलकिश उसे समझाने की कोशिश करने लगी।
"बेहतर यही है कि तुम इस मामले में न उलझो।" सलीम ने फ़ोन रख दिया।
इस बार व्यवस्था ने परीक्षाओं के लिये सेना की मदद ली। परीक्षाएँ
बेहद आराम और सुकून से शुरू हुईं पर ख़ौफ़ का एक अनछुआ अहसास हर स्टूडेंट्स के दिल और दिमाग़ पर छाया रहा.... आज परीक्षाओं को शुरू हुए चार दिन हुए थे।
सुबह का वक़्त था और स्टूडेंट्स दस्तूर के अनुसार परिसर (कैम्पस) में मौजूद हुए, पर आज टीचर्स की बसें अभी तक नहीं पहुँची थीं.... नौ. .... दस.... अचानक एक ख़बर बवंडर की तरह परिसर में आ पहुँची।
"टीचर्स की बस पर पटाखे फेंके गए हैं.... चार टीचर्स ज़ख्मी हालत में अस्पताल पहुँचाए गए हैं।"
"यह किसने किया?"
अलग अलग आवाज़ें..... अलग-अलग विचार सुनने में आए।
"प्रेशर ग्रुप वालों का काम है।’ प्रतिध्वनि बिलकिश के कानों तक पहुँची।
"सलीम.... यह तुमने किया?" बिलकिश के लहज़े में बेयक़ीनी के
साथ दुख का भी अहसास था और ज़हनी तौर पर सलीम के मुँह से ‘नहीं’ सुनने की ख़्वाहिश भी।
"नहीं बिलकिश.... व्यवस्था ने यह ख़ुद करवाया है।" सलीम ने हँसते हुए जवाब दिया।
"प्लीज़ सलीम, ऐसा मत करो.... मेरे ख़्वाब, मेरी तमन्नाएँ.... कहीं घायल न हो जायें!"
"पगली, तुम्हारे ख़्वाबों को हक़ीक़ी स्वरूप देने के लिये तो यह सब कर रहा हूँ। महलों में रहने वाली, चांदी के चम्मच से खाने वाली को झोपड़ी में तो नहीं रखूँगा?"
"मुफ़लिसी कोई दोष नहीं, कोई तिरस्कार नहीं और मेरे माता-पिता की कोई माँग भी नहीं है...." बिलकिश ने उसे समझाते हुए कहा।
"प्लीज़ सलीम, इस बार सुकून से परीक्षाएँ चलने दो।"
"तुम्हें पता है, इस बार हमारी योजना क्या है?"
"कौन सी?"
"हॉस्टल पर हमला करेंगे।"
"आखिर परीक्षाओं से आप लोगों को इतनी नाराजगी क्यों?" बिलकिश ने शक़ी अंदाज़ में उससे पूछा।
"परीक्षाओं से हमारा क्या लेना देना.... पता है हम ये सब क्यों कर रहे हैं?"
"क्यों....?"
"हमें आज्ञा मिली है कि वहाँ हॉस्टल ख़त्म किये जायें, और हम वही कर रहे हैं.... हमें व्यवस्था में भय पैदा करना है। तुम्हें तो पता है कि हॉस्टल ताक़त के स्त्रोत होते हैं। हमारे ख़िलाफ़ उठती ललकार की आवाज़ है... कोई भी समस्या हो.... यहाँ पर जलाई गई लौ, रोशनी ज्वाला बनकर घर-घर, बस्ती-बस्ती पहुँच जाती है। हमें यह आदेश मिला है और वह हमें स्वीकार है...." सलीम नशे में सच कहता रहा और बिलकिश का चेहरा तमतमाता रहा, गुस्से से, नफ़रत से.... या शायद बेबसी से। वह तेज़ी से निकल जाती है.... सलीम वहीं बैठा है।
रेखांकित किया हुआ दस्तूर.... परीक्षाएँ शुरू..... हॉस्टलों पर हमले.... सलीम दो बार गिरफ़्तार.... बिलकिश की माँ नसीम अख़बार लेकर बिलकिश के सामने खड़ी है.... बिलकिश की गर्दन झुकी हुई है। रात के पहर वह दरी पर बैठी ख़ुदा के दर मिन्नत कर रही है- "रब करे सलीम सही राह पर आ जाए। क़ौम का हमदर्द बने, उसके ख़्वाबों की तामीर हो।"
"पर मेरा भी तो अहम् है। मैं तुम्हें ऐसे कैसे घर लेकर जाऊँगा?" सलीम का जवाब था।
और फिर.... अख़बार में ख़बर छपी कि प्रेशर ग्रुप के अध्यक्ष को गिरफ़्तार किया गया।
बिलकिश की माँ ने अख़बार बिलकिश को दिखाई, "बेटे, हमने तुम्हें आज़ादी दी है, अपने लिये जीवन-साथी चुनने का अख़्तियार भी तुम्हें है.
... पर तुम्हें मार्गदर्शन करने का अख़्तियार हमें भी है। हमारी ख़्वाहिश है कि तुम जो भी फ़ैसला करो, सोच समझ कर करो।"
बिलकिश ख़ामोश थी। जिस माँ-बाप ने उसकी झोली में हमेशा मुहब्बतों की सौग़ात डाली, उन्हें दुख देने का उसे अख़्तियार न था। जल्दी ही सलीम की आज़ादी की ख़बर भी मिली। सलीम गाँव गया हुआ था।
"बिलकिश.... मैं आज़ाद हो गया हूँ.... ज़मानत पर रिहा हुआ हूँ..
.. जल्द ही हैदराबाद आऊँगा।" सलीम ने दादू (शहर का नाम) से फोन किया था।
"सलीम, मेहरबानी करके इस रास्ते पर मत चलो...." बिलकिश ने अनुरोध किया।
"तुम तो पागल हो, एकदम डरपोक... अगर यही हाल रहा तो तुम मेरे साथ कैसे चल पाओगी?" सलीम हँसने लगा।
दोबारा सिमेस्टर की परीक्षाएँ शुरू होने वाली हैं। सलीम की गतिविधियाँ कुछ गोपनीय हैं.... कभी बिलकिश से मुलाक़ात होती तो कभी कई दिन ग़ायब रहता।
"सलीम, आख़िर तुम्हें क्या हो गया है....?" व्यायामशाला की सीढ़ियों पर बैठी बिलकिश सलीम से कुछ पूछ रही है। बिलकिश उसमें आए हुए बदलाव को बख़ूबी महसूस कर रही है.... आवाज़ में लड़खड़ाहट... लहज़े में असामान्यता....और कुछ अजीब बू!!
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ईबुक - सरहदों की कहानियाँ / / अनुवाद व संकलन - देवी नागरानी
Devi Nangrani
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(क्रमशः अगले अंकों में जारी…)
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