जलते अंगारे सहर इमदाद रात शब बारात हुई। उसने शीरा और पूरी बनाई। ख़तिमा देकर आस- पड़ोस में बाँट दिया। आज उसने हर काम अकेले ही किया थ...
जलते अंगारे
सहर इमदाद
रात शब बारात हुई। उसने शीरा और पूरी बनाई। ख़तिमा देकर आस- पड़ोस में बाँट दिया। आज उसने हर काम अकेले ही किया था, बिल्कुल ही मौन की चादर ओढ़कर बड़े ही धीरज से किया। उसकी यह चुप्पी, उसके अंदर की चुप्पी, मौन और सन्नाटे की प्रतिध्वनि थी और आज उसकी बड़ी बेटी उसकी आवाज़ का इंतज़ार करती रही थी। नीना अपनी माँ की इस आदत से बख़ूबी वाक़िफ़ थी- घर का काम करते चिल्लाकर आवाज़ देने की आदत। वह काम करते बार-बार किसी न किसी को बुलाती रहती थी, ख़ास करके नीना जब घर में रहती थी, तब वह नीना को ही बुलाती थी।
"नीना! मुझे बरनी में शक्कर तो भरकर दे।"
"नीना! दौड़कर आओ, मुझे थोड़े बादाम पिस्ते तो काटकर दो।"
"नीना, ओ नीना! बेटे यहाँ आओ- चाशनी तो चख कर बताओ।"
"नीना...."
"नीना.... नीना...."
और नीना आख़िर उन आवाज़ों से तंग आकर कहती थी, "बस अम्मा,
मैं और मेरा कम्प्यूटर दोनों आते हैं शक्कर टेस्ट करने के लिये।" और वह मुस्कराकर प्यार से कहती, "नीना, मज़ाक मत कर, पड़ोसी सुन लेंगे तो कल की अख़बार में मेरी शुगर से ग्रस्त होने की ख़बर मुख्य अख़बारों में लग जायेगी और कल सारे पड़ोसी मेरा हाल जानने के लिये नुस्ख़ों के साथ आकर घर में जमा हो जायेंगे।"
पड़ोसियों को इकट्ठा करना तो दूर की बात, उसने तो अपने बच्चों को भी आज रसोईघर में इकट्ठा नहीं किया। उसने चुपचाप अकेले ही सब काम निपटाया, बिना किसी को आवाज़ दिये, बल्कि उसे महसूस हुआ था कि आज काम कुछ ज़्यादा जल्दी, ज़्यादा अच्छे ढंग से हो गए हैं। उसकी काम वाली ने तो बस आख़िर में आकर फक़त पड़ोसियों में प्रसाद बाँटने का काम आसान किया। बाई, जो दरअसल ख़ुद अपनी ईद लेने आई थी, उसके साथ भी उसने ज़्यादा खींचतान नहीं की, बस ले देकर उसे रवाना कर दिया। उसने बाहर बाहर बेहद ‘कूल लुक’ दी, पर उसके अन्दर में अंगार भभक रहे थे। उसने उन अंगारों की तपिश अपने पति और बच्चों तक नहीं जाने दी इसलिये अपने ऊपर बर्फ़ की तहें चढ़ाती रही वह। परत-दर-परत चढ़ी बर्फ़ की पहाड़ी के नीचे अपने भीतर तक ज्वालामुखी को छुपाए चल रही थी। बिल्कुल ‘कूल’ नज़र आने वाली वह आस पड़ोस में बाँटकर चौकीदार और बाई को ईद देकर फ़ारिग हुई। उसने अपने घर वालों के लिये शीरा ‘हॉट पॉट’ में डाला, सफ़ेद नैपकिन से ढकी हुई प्लेट में पूरियाँ सजाईं। एक प्लेट में बेसन के हलवे के टुकड़े रखे। सच्चे घी में लसुन का बघार देकर आलू की सब्ज़ी और हरे मसाले का रायता उसने उठाकर डाइनिंग टेबल पर रखे, और प्लेटें भी लाकर रख दीं। घर के एक एक सदस्य को उसने ख़ुद जाकर बुलाया।
उसका ससुर अपने कमरे में नमाज़ पढ़ रहा था, इसलिये वह नीना और मीना के कमरे की ओर चली गई। नीना कम्प्यूटर पर कोई गेम खेलने में तन्मय थी और छोटी गोल-मटोल मीना की आँखों तक लटक रहे कट बालों के बीच में से गेम देख रही थी। माँ ने उनके कमरे में आकर प्यार से नीना की पीठ थपथपाते कहा- प्ज पे जपउम जव बसवेम लवनत बवउचनजमतण् (यह कम्प्यूटर बंद करने का समय है।)
उसने छोटी मीना के चेहरे से बाल हटाए, झुककर उसे चूमा और टेबल पर रखे सुंदर रंगारंगी रबर बैंड से उसकी दो छोटी सी ‘पोनी टेल’ बनाईं। कमरे के कुशन ठीक किये, चादर खींची, बाहर निकलते, उसने एक बार फिर दोनों को खाने के लिये आने के लिये ज़ोर दिया।
"नीना मीना, तुम दोनों बस पाँच मिनट में डाइनिंग टेबल पर आओ।प्रेटा सारंग, पिता की कराची से लाकर दी हुई फैंडर की तारों का सेट खोलकर बैठा था और गिटार की तारों को फ़िट करने के काम में व्यस्त था।
वह फ्लोर कुशन पर उसके बाजू में बैठ गई।
"सारंग, क्या सभी तारें बदल रहे हो?"
"हाँ माँ, सभी नई तारें लगाई हैं, पुरानी संभाल कर रखूँगा किसी भी वक़्त कोई तार टूट गई तो काम आ जाएगी।"
"बस बेटा- अब यह बाद में बैठकर करना, पहले आओ तो सब मिलकर खाना खाएँ।"
"बस माँ, यह आखिरी म् तार सेट करके आता हूँ।"
"बस बेटा, पाँच मिनटों में टेबल पर आओ, और दादा साईं को भी ले आना।"
वह अपने बेडरूम में जाती है, दरवाज़े के पास रखे सोफ़ा पर उसका पति अपनी डायरी में कुछ हिसाब किताब करने में व्यस्त है। वह उसके कंधों के पास छूकर गुज़रते हुए कहती है- "डार्लिंग, खाना तैयार है- चलो।"
वह चुनरी उतारकर पलंग के किनारे रखती है और श्रृंगार मेज़ के आड़े खड़े होकर ब्रश से अपने बाल संवारती है। अपने जिस्म का एक एक अंग ध्यान से देखते हुए बाथरूम में चली जाती है, हाथ मुँह धोकर, फ्रेश होकर बाहर आती है, आईने के सामने खड़े होकर, पाउडर हाथ में छिड़ककर दोनों हाथों से रगड़कर गर्दन पर लगा कर और फिर वही हाथ अपने चेहरे पर घुमाती है, ज़रा सी वैज़िलीन उँगली पर लेकर लबों पर लगाती है, हैंडलोशन हाथों में लेकर, दोनों हाथों को खुशबू से रगड़ती है, पलंग से चुनरी लेकर सीने पर फैला लेती है तो उसकी नज़र पति की ओर जाती है जो डायरी बंद करके उसे गहरी नज़रों से घूर रहा है। वह दरवाज़े की ओर बढ़ती है
और सोचती है कि जब वह उसके क़रीब से गुज़रेगी तो वह ज़रूर कोई मस्ती करेगा। वह हवा के झोंके की तरह उसके पास से गुज़रती है, तो उसी पल वह उठकर खड़ा होता है और उसे बाँहों से पकड़ झटके से अपनी ओर खींचता है और आगोश में भरते हुए कहता है- "अच्छी लग रही हो।"
वे दोनों बेडरूम के दरवाज़े के बाहर आकर एक दूसरे के हाथ से आहिस्ते से अपना अपना हाथ अलग करते, उँगलियों के पोरों तक एक दूसरे को छूते, हाथ अलग करते हैं- और एक दूसरे की ओर देखकर मुस्कराते, डाइनिंग टेबल पर एक दूसरे के आमने-सामने बैठते हैं। पति बच्चों के नाम ले लेकर पुकारता है- "नीना, मीना, सारंग आओ।" सारंग आया तो उसे दादा को लाने के लिये भेजा।
सब खाना ले लेते हैं। वह अपनी प्लेट में अपनी पसंद का बेसन का हलवा लेती है तो अचानक उसे सुबह वाली वार्ता याद हो आई और उसका सारा जिस्म जैसे ठंडा होता गया। वह उस बात को भूलने की कोशिश करती है और टेबल पर सभी के साथ बात करने में बिज़ी हो जाती है। बच्चों के स्कूल की बातें, सारंग की गिटार की ध्वनि और सुरों की बातें, दादा की आज की ख़ास ख़बरों की बाबत टिप्पणियाँ और ऐसी कई बातें पूरे परिवार में एक दूसरे की छोटी-छोटी ख़ुशियों में मिलकर बाँटीं। इस तरह वह दिन एक ख़ूबसूरत पारिवारिक समारोह बन गया।
टेबल से सभी उठते हैं तो नीना और सारंग बर्तन उठाने में उसकी मदद करते हैं। नीना टेबल साफ़ करके बर्तन माँजने में लग जाती है। तब तक सारंग अपनी ख़र्ची में से खरीदे पटाखे, लड़ियाँ, बम, बिच्छू, साँप, अनार सब लेकर आता है। दादा, बाप और बेटा, छोटी मीना समेत आंगन में जाकर पटाखे जलाते हैं, बम फोड़ते हैं, लड़ी जलाते हैं। नीना भी काम से फ़ारिग होकर उनकी ख़ुशी में शामिल हो जाती है। पटाखों की आवाज़ और धमाके उसके ज़हन को एक बार फिर डावांडोल करते हैं। उसके भीतर का ज्वालामुखी विस्फोटित होना चाहता है। वह उनसे बचना और भागना चाहती है। एक जगह नमाज़ बिछाकर, इबादत की रात का हक़ अदा करने के लिये नफिलु पढ़ते, बाहर बमों के विस्फोट.... उसके भीतर जैसे एक तेज़ाब सा असर पैदा कर रहे थे। उसका बॉस अमानुषता के आवरण में निरंतर उसकी ओर बढ़ रहा है। अपने बचाव में वह हाथ आई लाठी से उसपर नाकाम वार करती है। वह गिरकर फिर उठता है, हर वार को बर्दाश्त करके उसको और भी ज़्यादा जोश और वेग से बढ़ता है।
वह हमेशा उसे उकसाने वाले वाक्यांश कहता रहता था, "आपका पति बहुत भाग्यवान है, जो उन्हें तुम जैसी पत्नी मिली है।" या मुझे तुम्हारे पति से जलन होती है। कभी उसे घूरता, कभी घिनौनी हरकतें करता, पर वह हमेशा उन बातों को नज़र अंदाज़ करती रही, सुना अनसुना करती रही, देखा अनदेखा करती रही। पर आज, आज तो वह कमीना सब लक्ष्मण रेखाएँ पार कर गया। उसे अपने ऑफिस में एक खास विषय पर विचार-विमर्श करने के लिए बुलाया था। बातचीत ख़त्म करके, चाय की आख़िरी घूँट भरकर, वह जैसे उठी, वह अचानक फुर्ती से उठा और उसे बाँहों में जकड़ने की कोशिश की- "आइ अम डाइंग टू स्लीप विथ् यू हनी।"
और इसने अपने समस्त बल से अपनी बाँह छुड़ाकर बिजली की रफ़्तार से एक ज़ोरदार थप्पड़ उसके गाल पर दे मारा और तेज़ी से दरवाज़ा खोलकर बाहर निकल आई।
वह अपनी सीट पर पहंँची तो पूरी तरह से हाँफ रही थी। उसे लगा कि उसकी रगों में ख़ून की जगह गर्म लावा बह रहा है। गुस्से में उसके हाथों की मुट्ठियाँ भिंचती रहीं और उसने अपनी दोनों मुट्ठियाँ ज़ोर से टेबल पर दे मारीं और उन पर अपना माथा टेक दिया। कुछ देर बाद उसने सर ऊपर उठाया, थर्मस से ठंडा पानी गिलास में भरा और घूँट भरकर पी गई। जिस्म का तनाव कम करने के लिये उसने बदन को ढीला छोड़ा.... फिर एक ग्लास पानी और पिया। ड्राअर खोलकर उसने कुछ कागज़ निकाले- पेन लिया और अपना सेक्शन बदलने के लिये एक दरख़्वास्त लिखी। बीच बीच में वह ठंडा पानी पीती रही। एक और पन्ने पर उसने ‘शॉर्ट लीव’ के लिये नोट लिखा और बेल बजाई। चपरासी आया तो उसे वो लिखे कागज़ दिये। उसने अपना शोल्डर बैग और लंच बाक्स उठाया और ऑफ़िस के बाहर निकल आई।
इतनी बड़े, रौशन और वातानुकूलित ऑफ़िस में आज उसे घोर अंधेरा, घुटन और व्यथा का अहसास हुआ था। उस पल उसके मन में सिवाय नफ़रत के कुछ भी न था। नफ़रत और क्रोध की उस आग की यातना ने उसे बेजान कर रखा था। वह तमाम दिन जलती, सुलगती रही, लम्हा लम्हा जीती और मरती रही थी। सारा दिन उस तपिश जो झेलते झेलते उसका अंग अंग चूर हो चुका था।
वह शाम को उठी तो यह सोचकर उठी कि वह उस वारदात के बारे में नहीं सोचेगी। उसने स्नान घर में क़दम रखा, शावर से बहते पानी की ठंडे फुहारे जैसी धार उसके तन और मन पर से थकावट की हर परत उतार चुकी थी। वह साफ़ आईने की तरह दीप्तिमान लगने लगी। फिर उसने धीरज के साथ घर के सारे काम ठहराव की गति से पूरे किये। उसमें जितनी देर खड़े होने की शक्ति थी वह नफ़िलु पढ़ती रही। पूरा होने के बाद उसने आँखें मूँदकर सलामती के लिये हाथ दुआ के लिये उठाए। बाहर आंगन में ख़ामोशी थी। उनके कमरे से किसी पुरानी क्लासिक मूवी के डायलॉग रोशनी की लकीर के साथ बाहर तक आ रहे थे। समस्त वायुमंडल में गिटार की तान की झनकार थी।
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ईबुक - सरहदों की कहानियाँ / / अनुवाद व संकलन - देवी नागरानी
Devi Nangrani
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(क्रमशः अगले अंकों में जारी…)
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