गुफ़ा अमर जलील लगभग हर रोज़ ऐसा होता है कि अम्मा व्याकुल होकर मेरी गुफ़ा में चली आती है। वह पुष्टि करने आती है कि मैं ज़िन्दा हूँ या सौग़ातो...
गुफ़ा
अमर जलील
लगभग हर रोज़ ऐसा होता है कि अम्मा व्याकुल होकर मेरी गुफ़ा में चली आती है। वह पुष्टि करने आती है कि मैं ज़िन्दा हूँ या सौग़ातों से भरा यह जहान छोड़कर चला गया हूँ।
झुककर, मेरे माथे पर हाथ रखकर अम्मा ग़ौर से गर्दन की ओर देखती है, मेरा सर सलामत देखकर, ठंडी साँस लेकर, स्नेह के साथ मुझे सहलाती है और फिर आह को साँसों में समेट लेती है, आँख से लुढ़क आए आँसुओं का मेरे सर पर मेहराब बनाकर अपनी दुनिया में लौट जाती है। बात यह है कि अम्मा अक्सर मेरे लिये परेशान रहती है। वह निरंतर हर रात मेरे बारे में एक डरावना सपना देखती है, ख़्वाब देखकर डर जाती है, काँप जाती है, नींद से चौंक कर उठ बैठती है और ख़ुद को सामान्य करने के लिये पानी का गिलास भर कर पीती है। अम्मा ख़्वाब में मुझे सर के बिना मरुभूमि में भटकता हुआ देखती है। मेरे एक हाथ में मेरा कटा हुआ सर और दूसरे हाथ में काँटों का ताज देखती है।
अम्मा ने दो पंडितों से ख़्वाब की विवेचना निकलवाई थी। दोनों में से एक पंडित देसी था और दूसरा परदेसी। देसी पंडित को वह सखर (सिंध के एक प्रांत का नाम) के क़रीब किसी पुण्य स्थान पर मिली थी। ग़ौर से ख़्वाब सुनकर उसकी कुंडली बनाने के बाद उसने अम्मा को ख़ुशखबरी दी थी- "तुम्हारा बेटा बड़ी दीर्घायु जियेगा। ख़ुदा के वरदान से पाकिस्ताान का बादशाह बनेगा। वक्तव्य की क़ीमत अदा करते हुए अम्मा ने देसी पंडित को पाँच सौ रुपये दिये और साथ में एक काला मुर्गा और काला बकरा, जो इस बात के साक्षी थे। उन्होंने मुझे बताया कि बकरा हू-बहू मुझ जैसा था, जब कसाई ने बकरे का सर धड़ से अलग किया और उसके मस्तिष्क से भेजा निकाला था तब बकरे के सर में से भेजे के बजाय मेंढक निकल आया था। परदेसी पंडित को अम्मा ‘वियना’ में औरतों के संघ में मिली थी। मेरी अम्मा ने अपनी ज़िन्दगी का बड़ा हिस्सा पाकिस्तान में बरबाद हो गई औरतों की उन्नति और उनके मान-सम्मान की स्थापना में गुज़ारा। उसने एक एन.जी. ओ. भी बड़ी क़ामयाबी के साथ चलाया था, जिसके लिये सराहना के स्वरूप में प्रशंसा पत्र और सोने का मेडल हासिल हुआ था। उन दिनों अम्मा को औरतों की बेहतरी के सिलसिले में न्यूयार्क, हेग, लंदन, जेनिवा वगैरह प्रेस कांफ्रेंस में जाना पड़ता था। परदेसी पंडित से अम्मा की मुलाक़ात ‘वियना’ में हुई थी।
उस पंडित ने ख़्वाब का स्पष्टीकरण करने से पहले कुछ टिप्पणियाँ लैपटॉप पर पावरपाइंट और एक्सेल के आधार पर रेखांकित कीं और बहुत ही उदास स्वर में ख़्वाब की विवेचना करते हुए कहा- "मुझे अफ़सोस है कि तुम्हारा बेटा शासकों के हाथों मारा जाएगा और अगर बच गया तो खुदकुशी कर लेगा।"
मैंने भी अपनी तरफ़ से इन्टरनेट से ख़्वाब की विवेचना डाउनलोड की थी। उसमें लिखा था- "तुम एक शादी-शुदा औरत के इश्क में गिरफ़्तार रहोगे और अपने सर में आशिक की तरह भस्म डालकर रेगिस्तान में घूमते रहोगे।"
तीनों विवेचनाओं में से अम्मा ने परदेसी पंडित के स्पष्टीकरण को ज़्यादा अहमियत दी। एक बार मैंने अम्मा से कहा था- "वियाना वाले पंडित की भविष्यवाणी बकवास है। सर सरदारों के गिरते हैं, मैं सीहर हूँ, बेमतलब ही आदमी बन गया हूँ। मैं शिकारी कुत्तों का निवाला तो हो सकता हूँ, पर किसी में अंधविश्वास के कारण अपना सर दे सकूँ, यह मुमकिन नहीं।" अम्मा को मेरी बात नागवार लगी, उसने मुँह दूसरी तरफ फेर लिया। देसी पंडित की भविष्यवाणी मुझे सही लगी है। मैंने कहा था, "पाकिस्तान पर अक्सर मुझ जैसे मतिमंद, दीवानों ने हुकूमत की है। इसी कारण मुमकिन है कि मैं पाकिस्तान पर हुकूमत करूँ।"
मेरी माँ ज़रूरत से ज़्यादा पढ़ी-लिखी थी। शिकागो यूनीवर्सिटी से जातिगत विषय में पी.एच.डी. कर आई है इसीलिये मेरी बात समझ न पाई। मुझे उलझा हुआ, कुछ कुछ बददिमाग़ समझती है। मैं उसका इकलौता बेटा हूँ। उसे तीन बेटियों के बाद जन्मा था। मैं समझता हूँ, सिंधियों के समस्त इकलौते बेटे कुछ कुछ सनकी, कुछ कुछ साँवले होते हैं, पर मैं कुछ ज़्यादा ही श्याम वर्ण का हूँ।
मुझे गुफ़ा से निकाल कर अपनी दुनिया में लाने के लिये अम्मा ने कोई कसर नहीं छोड़ी। पागलों के सर से पागलपन का भूत उतारने वाला शायद ही कोई डॉक्टर हो जिसने मुझे न देखा हो। दो तीन घंटे पूछताछ से मेरा दिमाग चाटने के बाद मुझे नींद आने की और सोच को शांत करने की गोलियाँ नुस्खे में लिखकर देते हैं।
एक बार अम्मा मुझे डॉक्टर सारा सोलंकी के पास ले गई। भगवान का लाख लाख शुक्र है कि वह स्त्री रोग विशेषज्ञ न थी, मनोवैज्ञानिक थी या मानसिक चिकित्सक। आदमियों के सर से पागलपन की बीमारी दूर करने में माहिर। वह बहुत ही सुन्दर थी। जिसने भी उसका नाम रखा था, सोच समझ कर रखा था। बहुत ही प्रशंसा के क़ाबिल थी वह। मुझे विश्वास नहीं कि मैं पागल हूँ या नहीं हूँ, डॉक्टर सारा सोलंकी को देखने के पश्चात् मुझे ख़्याल आया था कि मैं तमाम उम्र पागल बना रहूँगा। डॉक्टर सारा से इलाज करवाऊँगा तो कभी भी ठीक होने की कोशिश नहीं करूँगा। इन्टरनेट से डाउनलोड की हुई अम्मा के ख़्वाब की तीसरी भविष्यवाणी मुझे मुक़द्दर की अभिप्रमाणित कृपा लगी।
डॉक्टर सारा सोलंकी से मेरा परिचय कराते अम्मा ने कहा था- "अदम मेरा इकलौता बेटा है। अल्लाह ने आपके हाथों में शफ़ा दी है। आप मेरे बेटे का इलाज कीजिये, उसे नार्मल कर दीजिये।"
मुझे गुस्सा आ गया था, मैंने तर्क करते हुए कहा था- "मैं नार्मल हूँ।"
डॉक्टर सारा ने एकदम कहा था- "तुम ठीक कह रहे हो। मुझे यक़ीन है कि तुम नार्मल हो।"
"तो फिर अम्मा क्यों समझती है कि मैं नार्मल नहीं हूँ?" मैं उठ खड़ा हुआ और कहने लगा- "डॉक्टर सारा, मेरी और ग़ौर से देखो, क्या मैं तुम्हें अबनार्मल नज़र आता हूँ?"
"ऐसे बात नहीं करते बेटे!" अम्मा ने कहा था- "तुम के बदले ‘आप’ कहो, क्या मैं आपको अबनार्मल नज़र आता हूँ?"
मैं कुर्सी पर बैठ गया।
"मैडम, अदम जिस तरह बात कर रहा है, उसे बात करने दीजिये।"
डॉ. सारा ने अम्मा से कहा- "मैं चाहती हूँ कि आप वेटिंग रूम में जाकर बैठें। बुरा मत मानना, मैं अदम से अकेले में बात करना चाहती हूँ।"
अम्मा प्यार से मेरी ओर देखते हुए वेटिंग रूम की ओर चली गई। डॉ.सारा ने दोनों बाँहें टेबल पर रखकर ग़ौर से मेरी ओर देखा। वह मुझे बेहद पंसद आई थी। आख़िर डॉ. सारा ने मौन तोड़ते हुए कहा- "मुझे अपने बारे में बताओ अदम।"
"क्या बताऊँ?"
"अपने स्कूल के बारे में बताओ, कुछ अपने कॉलेज के बारे में बताओ, कुछ यूनिवर्सिटी के बारे में बताओ।"
"वहाँ कुछ भी असाधारण नहीं हुआ था, मैं बहुत साधारण विद्यार्थी था।"
"और नौकरी?"
"नौकरी मैंने छोड़ दी।"
"क्यों?"
"मैं नौकरी कर नहीं पाया।"
"कोई खास सबब था?"
"कोई खास सबब नहीं था।" मुझे माथे से पसीना बहता हुआ महसूस हुआ कहा था- "बस, मैं नौकरी कर नहीं पाया था।"
डॉ. सारा अपनी कुर्सी से उठकर मेरे बाजू में आकर खड़ी हुई। उसने पीने के लिये मुझे पानी का गिलास दिया था।
"अदम!" डॉ. सारा ने मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए कहा था। जहाँ तक मुझे याद आता है, मैं गर्दन ऊपर उठाकर डॉ. सारा की ओर देख नहीं पाया था। मुझे लगा था, अगर उसकी ओर देखा, तो वह हमारे बीच की सीमा-रेखा तोड़कर मेरे वजूद में घुस आएगी, मेरे भीतर हलचल मचा देगी।
"अदम!"
मैंने डॉ. सारा की आवाज़ सुनी।
"मेरी ओर देखो, अदम।"
मैंने डॉ. सारा की ओर देखा, वह अपनी कुर्सी पर बैठ रही थी। उसने पूछा- "तुम अपने कमरे से बाहर क्यों नहीं आते?"
"कमरा!" मैंने हैरत से पूछा था- "कौन सा कमरा?"
"घर में तुम्हारा कमरा।"
"घर, कौन सा घर?
"जहाँ तुम रहते हो।"
"मेरा कोई घर नहीं है।"
"तो फिर तुम कहाँ रहते हो अदम?"
"मैं गुफ़ा में रहता हूँ।"
अचानक मेरे ऊपर आसमान पर हज़ारों रथ चले आए, और एक पल में गुज़र गए। सदियों से बंद इतिहास के विषादपूर्ण सीने पर किसी ने हाथ रखा। आकाश में आकाशवाणी हुई, बिजली गिरी और क़िले की दीवार में दरार पड़ गई।
मुझे कुछ पता नहीं कि ऐसे क्यों हुआ था, और किसलिये हुआ था। मैंने दुष्ट लोगों से सुना था कि मेरे जन्म के बाद बाबा बहुत उदास हो गए थे, तन्हा और चुपचाप रहने लगे थे। हँसते हुए शायद ही किसी ने देखा हो उन्हें। कराची यूनिवर्सिटी में इतिहास के प्रोफेसर थे। इतिहास को सभी इल्म की सिन्फों का चश्मदीद गवाह मानते थे। देश में और देश के बाहर संस्थानों में उनकी बड़ी धाक थी। अपने पूरे नाम के बजाय ‘प्रोफेसर रोहल’
के नाम से मशहूर हो गए थे। मुझसे बहुत प्यार था उन्हें। बाबा उन इन्सानों में से थे जो बेटे के लिये हताश रहते हैं। तीसरी बेटी शानी के जन्म के बाद, अम्मा की बजाय बाबा ने चौथे बचे का ख़्याल दिल से निकाल दिया।
शानी के तीन साल बाद मैं पैदा हुआ था। दुष्ट लोगों के मुताबिक़ बाबा बहुत उदास हुए थे। मुझे गोद में लेकर ख़्यालों में गुम हो गए थे। कुछ लोगों ने उन्हें रोते हुए देखा था।
होश संभालने के पश्चात् मैंने दुष्टों की बातों को ज़हन के हार्ड-डिस्क से मिटा दिया, हमेशा के लिये डिलीट कर दिया। मैंने महसूस किया कि बाबा के अलावा शायद ही कोई ऐसा बाप होगा, जिसने इतनी शिद्दत से अपने बेटे से प्यार किया होगा। पर मैंने बाबा को कभी भी हँसते नहीं देखा था।
एक बार मैंने बाबा से कहा था, "मेरी सबसे बड़ी तमन्ना है कि मैं यशस्वी मसखरा बनूँ और अपनी हरकतों से, बातों से आपको ठहाका लगाकर हँसने पर मजबूर कर दूँ।"
मेरी बात सुनकर बाबा के होठों पर बहुत उदास, दिल को मसल देने वाली मुस्कान उतर आई थी।
"मेरे हँसने या न हँसने से कोई फर्क़ नहीं पड़ेगा।प्राबा ने मुझे नर्म
छुहाव से प्यार करते हुए कहा था- "इतिहास ने बड़े ठहाके लगाकर हँसने वालों को आख़िर में रोते देखा है।"
कुछ देर की बैचेन खामोशी के बाद बाबा ने कहा था- "तुम्हारे पैदा होने के पहले मैं ज़ोरदार ठहाका लगाकर हँस सकता था।"
तब, बाबा के कहे वाक्य का मतलब मुझे समझ नहीं आया था। कॉलेज में पढ़ता था, लेक्चर सुनने की बजाय, बाबा के वाक्य के अर्थ के बारे में सोचता रहता। एक बार कॉलेज आधे में छोड़कर मैं कराची यूनिवर्सिटी गया था। बाबा ग्रंथालय में थे, किसी इंटरनेशनल सेमीनार के लिये पेपर तैयार कर रहे थे। मुझे देखकर हैरान हो गए।
"बहुत व्याकुल हूँ।" कहा था- "आपसे बात करनी है।प्राबा के चेहरे पर उदास मुस्कुराहट उतर आई। टेबल से पेपर उठाकर ब्रीफकेस में डालते हुए कहा था- "मुझे ठहाका लगाकर हँसने पर मजबूर करने की क़सम तो नहीं खाई है?प्राबा मुझे अपने डिपार्टमेंट के कमरे में लेकर आए, पूछा- "लंच किया है?"
"नहीं! मैंने जवाब दिया।
"मैंने भी नहीं खाया है।प्राबा ने कहा- "पहले हम खाना खाएँगे, और फिर यूनिवर्सिटी के बाहर चलकर बात करेंगे।"
कैंटीन वालों से फोन पर बात करने के पहले बाबा ने पूछा था- "शामी कबाब खाओगे? अच्छे होते हैं।"
"जो आप खाएँ, वही मेरे लिये भी मंगवा लें।" मैंने कहा था।
यूनिवर्सिटी कैंटीन से लंच आया। दाल, चावल और भाजी साथ में शमी क़बाब भी थे। चुप-चाप लंच किया। रह-रहकर एक दूसरे की ओर देख भी लेते। उस दौरान मुझे फिर-फिर यह ख़्याल आया कि बाबा से कुछ न पूछूँ, अपनी बैचेनी को अपने भीतर दफ़्न कर दूँ, दुष्ट लोगों की बातों पर ध्यान न दूँ, उन्हें बिना वजह परेशान न करूँ। उसमें कौन सी बड़ी बात है कि मेरे पैदा होने के बाद बाबा बहुत उदास और चुपचुप रहने लगे हैं। हो सकता है, मैं उन्हें पसंद न आया हूँ। वैसे भी बाबा ने तीन बच्चों की प्लानिंग की थी। शानी के तीन साल बाद मैं अचानक ही पैदा हुआ था। उनकी योजना अपसेट कर दी थी मैंने, पर इसमें मेरा दोष नहीं था। दुनिया में आना न आना मेरे बस में नहीं था। मुझे बस एक बात का अफ़सोस था कि मैं बाबा के लिये मनहूस साबित नहीं हुआ था। जिस बरस मैं पैदा हुआ था, उसी साल बाबा ने वर्ल्ड हिस्टोरिकल कांग्रेस की अध्यक्षता की थी। मैं बाहर तेरह बरस का था कि बाबा एसोसिएट प्रोफेसर हुए थे और मैं सत्रह-अठारह साल का था कि बाबा डीन फैकल्टी ऑफ आर्ट नियुक्त हुए थे,
मैं मनहूस न था।
बरसों पहले की वारदात है, परदेस में रह रहे बाबा के एक पुराने मित्र अपने बच्चों सहित पाकिस्तान घूमने आए थे। कराची में हमारे पास आकर ठहरे थे। मुझे चॉकलेट खिलाते थे और पक्षियों के लतीफे सुनाते थे। उनके लतीफे पर और लोग कम, वे खुद बहुत हँसते थे। एक दिन मुझे खींचकर, आगोश में भरकर अपनी गोदी में बिठाया था और बाबा की ओर देखते हुए कहा था- "यार रोहल, न तो तुम अपने बेटे जैसे हो, और न ही तुम्हारा बेटा तुम जैसा है।" फिर अम्मा की ओर देखते पूछा था- "यह माजरा क्या है, अमेरिका से किसी काले का बेटा तो नहीं चुराकर ले आए हो?"
खुद ज़ोर-ज़ोर से ठहाके लगाकर हँस पड़े, पर बाबा हँस नहीं सके। उन्होंने हसरत के साथ मेरी ओर देखा। तब मैं छोटा था, प्राइमरी स्कूल में पढ़ता था, पर मुझे सब कुछ याद हैं, मैं कुछ भी भूल नहीं पाया हूँ। मेरा एक-एक अहसास मेरे वजूद में परवान चढ़ा है, मेरे साथ बड़ा हुआ है।
यूनिवर्सिटी में बाबा के साथ लंच करते हुए एक स्पष्ट, अस्पष्ट भय मुझे परेशान करता रहा था- मैं बाबा से कुछ पूछ सकूँगा या हकलाकर चुप हो जाऊँगा?
लंच के बाद बाबा ने पूछा- "चाय पिओगे?"
"आप पीयेंगे? मैंने पूछा था।
"वैसे तो नहीं पीता हूँ, आज पी लेते हैं।प्राबा ने जवाब दिया। चाय भी चुप रहकर पी ली हमने। जाने क्यों मैंने महसूस किया था कि कुछ देर के बाद मैं पल्सरात से गुज़रूँगा। पल्सरात का सफ़र कराची यूनिवर्सिटी ओर ओझा सैनिटोरियम के दरमियान शुरू हुआ था।
"लोग बेटा पैदा होने पर ख़ुश होते हैं, मेरे पैदा होने पर आप ख़ुश क्यों नहीं हुए थे?" मैंने संकोच से पूछा।
"मेरी तीनों बेटियाँ किसी बेटे से कम नहीं हैं।"
"मैंने सुना है मेरे पैदा होने के बाद आप बहुत उदास हो गए थे। आपने लोगों से मिलना और बातचीत करना भी छोड़ दिया था?प्राबा ने कोई जवाब नहीं दिया था।
"मेरी बात सुन रहे हो न, बाबा?"
"हाँ अदम, सुन रहा हूँ।"
"मेरे पैदा होने के बाद, आपको किसी ने हँसते नहीं देखा है।"
"हँसना बस में कहाँ होता है अदम?"
"मेरा पैदा होना आपको नागवार गुज़रा था?प्राबा ने गर्दन नीचे कर ली, जवाब नहीं दिया था। मैंने दूसरी बार अपना
ख़्याल दोहराया- "मेरा पैदा होना आपको नागवार लगा था?"
"बाबा!" मैंने बाबा के हाथ में अपना हाथ दे दिया, उनका दर्द मेरी समझ में नहीं आया, मैंने पूछा था- "मेरे पैदा होने पर आपको बहुत दुख हुआ था?प्राबा ने मेरे हाथ को कुछ इस तरह जकड़ कर पकड़ लिया जैसे कह रहे हों- हाँ! तुम्हारे पैदा होने पर मुझे बहुत दुख हुआ था। पल्सरात के बीच से मैंने बाबा से पूछा था- "क्यों दुख हुआ था आपको?"
"क्योंकि मेरा भरम टूट गया था।प्राबा ने मेरा हाथ छोड़ दिया था। फिर वे आसमान की ओर देखते रहे.... और कहने लगे- "तुम मेरे बेटे नहीं थे, अदम!"
मैंने ग़ैबी आवाज़ सुनी। सब कुछ समूची कायनात के साथ अंधेरे में गुम हो गया। मैं गुम हो गया, बाबा गुम हो गये। अंधेरे में जैसे करोड़ों निशाचर और चमगादड़ गुफ़ाओं से निकल आए, मेरे ऊपर से अंधेरे में घूमते रहे। गुफ़ा के एक पल ने अनश्वर के समस्त पलों को निगल लिया। मैंने फिर गैबी आवाज़ सुनी। निशाचर व चमगादड़ गुफ़ाओं की ओर लौट आए, अंधेरे के बजाय नूर को बेनूर करने वाली रोशनी छा गई। सूरज पूरी तरह से डूब गया। मैंने खुद को बाबा से हज़ारों मील दूर महसूस किया। मैंने बाबा से पूछा, "आपने कैसे समझा कि मैं आपका बेटा न था?"
"शानी के पैदा होने के बाद मैंने आप्रेशन करा लिया था।" हृदय में दरारें डालने वाली दुख भरी आवाज़ में बाबा ने कहा- "मुझसे बच्चे की उम्मीद, संभावना के बाहर थी।"
"अम्मा को पता था इस बात का?" मैंने बाबा की ओर देखते हुए पूछा था।
"छोटी छोटी बातों के लिये उसे फुरसत कहाँ होती है। प्राबा की आवाज़ की गूँज सुनाई दी- "वह अक्सर सियासी मुद्दों में शिरकत करने की ख़ातिर मुल्क के बाहर रहती थी।"
आसमानी किताबों वाली क़यामत जाने कब आएगी, पर मेरे लिये क़यामत आई और सब कुछ तहस-नहस करके चली गई। कुछ बाकी न बचा.... न हिसाब, न किताब, और न सज़ा न प्रतिफल।
बाबा ने यूनिवर्सिटी से इस्तीफा दे दिया। पाकिस्तान छोड़कर चले गए और नेपाल में जोगियों-वैरागियों के साथ हिमालय की गुफ़ाओं में जाकर बस गए। जाने से पहले बाबा ने मुझे बहुत प्यार किया था। उनके सिसकते सीने में मुँह छुपाते हुए मैंने पूछा था- "मेरे कारण सन्यास ले रहे हैं न?"
"नहीं अदम, नहीं।प्राबा ने मेरी आँखों पर, गालों पर, माथे पर प्यार की छाप छोड़ते हुए कहा- "तुम्हारा कोई दोष नहीं बल्कि किसी का भी दोष नहीं है।"
उनके दोनों हाथ चूमते हुए मैंने कहा था- "तो फिर सन्यास क्यों ले रहे हैं?"
"एक माँ की पवित्रता का राज़ मेरे पास अमानत था।प्राबा का गोपनीय जवाब मेरी समझ में नहीं आया था। मैंने हैरानी से बाबा की ओर देखा।
"राज़ राज़ नहीं रहा है अदम।प्राबा ने अलविदा कहती निगाहों से मेरी ओर देखा था और कहा था- "अब तुम जान चुके हो कि इतिहास के प्रारंभी दौर की तरह उसके समाप्ति के दौर में इंसान को बाप की बजाय माँ के नाम से क्यों पुकारा जाता रहा। तुम्हारी ज़िन्दगी में मेरा रोल ख़त्म हुआ अदम।प्राबा फिर ग़ायब हो गए।
कभी भी बाबा का ख़त आता, हर ख़त में हर बार एक वाक्य लिखते हैं, "तुम मुझे बहुत याद आते हो अदम।"
मैंने अपनी गुफ़ा को बाबा की याद से रोशन कर दिया है। एक दिन डॉ. सारा सोलंकी से कहा था- "यक़ीन करो सारा, मैं ठीक हूँ, सारी की सारी गडबड़ अम्मा के सर में है।"
"मैं कहाँ कहती हूँ कि तुम ठीक नहीं हो?" डॉ. सारा ने कहा- "पर तुम ऐसा कैसे कह सकते हो कि गड़बड़ मैडम के सर में है?"
"वह अक्सर मेरे बारे में एक ख़ौफ़नाक ख़्वाब देखती है।" मैंने कहा-
"वह मुझे सर के बिना बयाबान में भटकते देखती है, मेरे एक हाथ में मेरा कटा हुआ सर और दूसरे हाथ में काँटों का ताज होता है।"
डॉ. सारा को कुछ-कुछ ताज्जुब हुआ था, पूछा था- "पर, मैडम ने तो कभी अपने किसी ख़्वाब का ज़िक्र नहीं किया है।"
"वह अपने ख़्वाब का किसी से भी ज़िक्र नहीं करती है।" मैंने कहा।
"तुम्हारे साथ करती हैं?" डॉ. सारा ने पूछा।
"बहुत कम! मैंने कहा- "ख़्वाब देखने के बाद वह गुफ़ा में चली आती है, मेरी गर्दन और सर पर हाथ फिराकर तसल्ली करती है कि मैं ज़िन्दा हूँ, या मर गया हूँ।"
डॉ. सारा ने कागज़ पर कुछ लिखा और पूछा था- "इस ख़्वाब के बारे में मैडम ने तुम्हारे साथ कब ज़िक्र किया था, मेरा मतलब है पहली बार?"
मैं सोच में पड़ गया।
मुझे याद नहीं आ रहा था कि अम्मा ने कब पहली बार मुझसे ख़्वाब का ज़िक्र किया था। बाबा के ग़ायब होने के पहले वह मेरे बारे में डरावना ख़्वाब नहीं देखती थी, मेरे बारे में अच्छे ख़्वाब देखती थी। वह ख़्वाब में मुझे कपास से भरे रीछ के साथ खेलते देखती थी। अम्मा कभी भी अपने ख़्वाब की विवेचना किसी देसी या परदेसी पंडित से नहीं करवाती थी। जब भी विलायत से वापस लौटती मेरे लिये तोहफ़े के रूप में एक कपास से भरा रीछ ज़रूर ले आती। मैं समझता हूँ, या मुझे गुमान है कि बाबा के ग़ायब होने के पश्चात् अम्मा ने मेरे बारे में, पहली बार डरावना ख़्वाब देखा था। इसके पहले कभी भी नहीं देखा था पर बाद में ख़्वाबों की दुनिया में बहुत तोड़-फोड़ हुई।
अम्मा मुझसे बार-बार पूछती, "जाते समय तुम्हारे बाप ने तुमसे क्या बात-चीत की?"
और हर बार मैंने उसे वही एक जवाब दिया था -"उसने मेरे साथ जानकारी की दर्दनाक यंत्रणा के सिलसिले में बात की थी।"
अम्मा जवाब की गहराई तक पहुँचने की कोशिश करती थी, पर पहुँच न पाती, परेशान हो जाती, जैसे तड़पती रहती, खंडहर जैसे घर में बेमक़्सद घूमती थी, अपने आप से बात करती। एक बार उसने कहा था- "मैं रोहल जैसी संवेदनशील नहीं हूँ। इसलिये तुम मेरे साथ जानकारी की बात न कर, सिर्फ़ बता दो कि जाते वक़्त उसने मेरे बारे में क्या कहा था?"
"तुम्हारे बारे में कुछ नहीं कहा था।" मैंने ग़ौर से अम्मा की तरफ देखते हुए कहा था- "उस पुण्यात्मा को ख़बर थी कि मैं उसका बेटा नहीं था।"
धरती हिल गई, भूकंप की तरह, फिर न जाने कितने साल और सदियाँ ख़ामोशी का एक मौसम ले आईं और गुज़र गईं। बाद उसके न कोई जलजला आया, न कहीं ज्वालामुखी फूटा, न बिजली कड़की, न आसमान से झरने बरसे और न समुद्र में बाढ़ आई।
उस ख़ामोशी को मैंने तोड़ा था, यह ज़रूरी था, वर्ना साँस लेना मुहाल हुआ होता।
"अगर आसमान तक मेरी पहुँच मेरी शक्यता में होती तो शायद मैं मरने तक तुमसे कभी न पूछता।" मैंने अम्मा से कहा और फिर पूछा-" इसलिये, तुम सुनाओ कि मैं किसका बेटा हूँ?"
अम्मा काँप गई, मेरी ओर बढ़कर आई, मुझे स्नेह से अपने प्यार में सरोबार करते कहा- "क्या यह काफ़ी नहीं कि मैं तुम्हारी माँ हूँ?"
"जिस घोर यातना से मैं गुज़रा हूँ, उसमें यह काफ़ी नहीं है। मुझे बताओ कि मैं किसका बेटा हूँ?"
अम्मा लाचार होकर यहाँ वहाँ देखने लगी, और फिर टूटे-फूटे लहज़े में जैसे अपने आप से बात करते हुए कहा था- "मुल्कों के बनने और बिगड़ने के बाद कई ऐसे बालक पैदा होते हैं जिन्हें अपने बाप का पता नहीं होता है, वे अपनी माँ से बाप बारे में सवाल नहीं पूछते।"
"मेरे पैदा होने से न मुल्क बना था और न ही कोई मुल्क बिगड़ा था,
हाँ मेरे पैदा होने से एक आदमी का भरम टूट गया था।"
मैं समझता हूँ इसके बाद अम्मा ने फिर कभी भी मुझे ख़्वाब में कपास से भरे रीछ के साथ खेलते नहीं देखा है, न उसके बाद उसने मुझे सर के बिना बयाबान में भटकते देखा है। पर ये बातें डॉ. सारा सोलंकी को बताने जैसी न थीं, इसलिये वह मेरा इलाज करती हैं, अम्मा का इलाज नहीं करतीं। वह मुझे अच्छी लगती हैं और इन्टरनेट से डाउनलोड की हुई अम्मा के ख़्वाब की ताबीर लगती हैं। पर इसके बावजूद भी सारा का ये बातें जानने का जुनून मैं मुनासिब समझता हूँ, बल्कि मैं उस बात का ज़िक्र किसी से भी करना नहीं चाहता। जिस राज़ पर से क़यामत के दिन पर्दा उठना नहीं है, उस राज़ से पर्दा उठाने का हक़ मैं भी नहीं रखता। मेरा बाप जाने कौन है पर हक़ीक़त में मैं बेटा उस शख़्स का हूँ जिसने हिमालय की एक गुफ़ा में जाकर सन्यास लिया है।
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ईबुक - सरहदों की कहानियाँ / / अनुवाद व संकलन - देवी नागरानी
Devi Nangrani
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(क्रमशः अगले अंकों में जारी…)
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