दर्द की पगडंडी डॉ . हिदायत प्रेम यह दुनिया बड़ी अजीब है। कहाँ कहाँ के लोग आकर मिलते हैं, मिलकर बिछड़ जाते हैं फिर कोई किसी को याद करता है त...
दर्द की पगडंडी
डॉ. हिदायत प्रेम
यह दुनिया बड़ी अजीब है। कहाँ कहाँ के लोग आकर मिलते हैं, मिलकर बिछड़ जाते हैं फिर कोई किसी को याद करता है तो कोई भुला देता है। मिलने, बिछड़ने और फिर मिलने की आस उम्मीद पर आदमी जी रहे हैं, जीते है और ज़िन्दगी गुज़ारते हैं। कुछ आदमी तत्काल मिलते हैं, सिर्फ़ कुछ पलों के लिये फिर भी हमेशा यादों में बस जाते हैं। किन के साथ अरसा गुज़ारने के बावजूद भी याद रखना मुश्किल हो जाता है। ज़िन्दगी में ऐसे कम आदमी मिलते हैं, जिनमें मानवता के मूल्य भरपूर होते हैं और वे खुद अनमोल मोती, उन्हें भुलाना नामुमकिन है।
सिन्ध की रवायती मेहमान-निवाज़ी पाकर कितने ही बाहर के मुल्कों के लोग यहाँ आते हैं और सम्मान पाकर लौटते हैं। ऐसा ही एक जोड़ा, सारा और ख़ज़र इंग्लैंड से यहाँ आया हुआ था। वह लंदन यूनिवर्सिटी के एक रिसर्च प्रोजेक्ट की तहत आया हुआ था। सलीम ने यथारीति उनकी ख़ूब खातिरदारी की थी। बहुत कम उम्मीद के बावजूद भी सलीम को दूसरे साल स्कॉलरशिप मिली और उसका दाखिला लंदन यूनिवर्सिटी में ही हो गया। लंदन यूनिवर्सिटी में ‘कनॉट हॉल’ में पहुँचते ही उसने सारा और ख़ज़र को ‘विंडसर’ में, जहाँ वे रहते थे, फोन किया। जाने क्यों सलीम को यह महसूस हुआ कि ख़ज़र के मुक़ाबले में सारा को ज़्यादा ख़ुशी हुई थी। एक अंग्रेज़ स्त्री सारा, जिसने पाकिस्तान के एक नौजवान ख़ज़र से शादी की थी, सिन्ध घूम कर गई थी। सिंधियों की उदारता से वाक़िफ़ हो चुकी थी। सिंधियों की सादगी और सहृदयता से बहुत प्रभावित हुई थी। उसके भीतर शायद आतिथ्य सत्कार का जज़्बा पैदा हो गया था। फोन पर ही सलीम ने ऐसे ही मनोभावों की ख़ुशबू महसूस की। सारा और ख़ज़र को उसने बताया कि वह कनॉट हॉल में ठहरा हुआ है, क्योंकि उन्होंने लंदन आकर सलीम से मिलने की ख़्वाहिश ज़ाहिर की थी।
शुक्रवार के दिन विंडसर से ख़ज़र ने सलीम को फोन किया, "यार सुनाओ ख़ज़र, पहला हफ़्ता कैसे गुज़रा?"
सलीम ने जवाब दिया- "अभी तो बेगानों की तरह घूम रहा हूँ। फ़क़त यूनिवर्सिटी और ब्रिटिश म्यूज़ियम ही देख पाया हूँ।"
"ये तो बहुत कुछ हुआ। ख़ैर कल कहीं जाने का प्रोग्राम तो नहीं?
वीक-एंड है।" ख़ज़र ने पूछा।
"नहीं, कोई प्रोग्राम तो नहीं है।" सलीम ने कहा।
"अच्छा तो फिर शाम को छः बजे के करीब तुम्हारे पास आएँगे। कनॉट
हॉल वही है न जो न्यू स्टॉक इस्क्वैर पर है और बगीचे में गांधी का पुतला लगा हुआ है।"
"हाँ बिल्कुल वही हॉल है। आपका शायद देखा हुआ है।"
"हाँ, हाँ! मैंने देखा है। अच्छा कल मिलते हैं।" कहकर ख़ज़र ने बात समाप्त की।
कनॉट हॉल, जिसमें सौ शार्गिदों के रहने की गुंजाइश थी, उसकी तीसरी मंज़िल पर सलीम को एक कमरा मिला था। पहले दिन कमरे में आया तो रात हो चुकी थी। थकावट के कारण जल्दी ही सो गया। सुबह जल्दी ही उसकी आँख खुली। पहले उसे सारा माहौल अजनबी लगा तो मन में सवाल उठा- "सलीम, कहाँ आ गए हो?"
याद आते ही- "अरे पागल भूल गए, लंदन पहुँच गए हो।"
सलीम उठा, कमरे की बंद खिड़की पर से लाल रेशमी परदा हटाकर खिड़की खोली तो सामने वाले बग़ीचे से ठंडी-ठंडी बयार ने उसका स्वागत किया। बाग में खड़े बड़े-बड़े मेपल के दरख्तों के पत्तों ने खड़खड़ करते हुए स्वागत में सुर मिलाया। फूल भी न जाने कितने रंगों के, अलग-अलग प्रकार के खिले थे। बग़ीचे के कोनों में प्रतिष्ठित जन के पुतले लगे हुए थे पर एक पुतला बीच में भी लगा हुआ था, किसी आदमी का! पर उसकी ओर पीठ थी। पलथी मारे बैठे किसी शख्स का पुतला। सलीम ने सोचा- महात्मा बुद्ध होगा। पर फिर उसे देखने की चाह मन में हलचल मचाती रही। सलीम ने जल्दी से स्नान किया, कपड़े बदले और नीचे बेसमेंट में बने डाइनिंग हॉल में जाने के लिये लिफ़्ट में नीचे आया। लिफ्ट में उसने बेस्मेंट का बटन दबाने की बजाय ग्राउंड फ्लोर का बटन दबाया और लिफ़्ट हॉल के दरवाज़े के सामने आकर रुकी। वह तुरंत बाहर निकलकर रोड क्रॉस करके बग़ीचे में पहुँचा। वहाँ बीच में पहुँचकर उसे हैरत हुई। वह पुतला गांधी का था, जिसके चरणों में कोई फूल रखकर गया था। काले रंग के धातु से बना गांधी बाग़ के बीच में बैठा था। सलीम ने पुतले के चारों तरफ चक्कर लगाया। गांधी जी ने धोती पहनी थी, कुर्ता नहीं था। नीचे तख्ती के किनारे पुतला बनाने वाले कलाकार का नाम लिखा था- ‘फ्रेडा बैंजमिन’!
शनिवार के दिन शाम को सलीम अपने कमरे में सारा और ख़ज़र का इंतज़ार करता रहा। हॉल की ओर से पौने छः से पौने सात तक रात का खाना खिलाया जाता था। सलीम ने सोचा- वह दोनों को खाने के लिये आग्रह करेगा। डिपार्टमेंटल स्टोर से फ्रूट जूस का डब्बा भी ले आया। अभी छः भी नहीं बजे थे कि नीचे रिसेप्शन ने आगाह किया कि आप के मेहमान आ गए हैं। सलीम नीचे जाकर उनसे मिला। वे जब सिन्ध में आए थे तब उसने कभी भी सारा से हाथ नहीं मिलाया था, आज सारा ने ख़ुद हाथ बढ़ाकर उसके साथ मिलाया। कमरे की ओर जाते हुए सारा ने उससे पूछा- "यहाँ पहुँचने पर यहाँ के माहौल के बारे में तुम्हारे क्या विचार हैं?"
"साफ़ सुथरा मुल्क देखकर आँखों को बहुत सुकून मिला। बहुत ख़ुश हुआ हूँ। स्कूल के उस्ताद भी अच्छे हैं। हॉस्टल भी बिल्कुल ही पास में मिला है।" सलीम ने सरलता से अपने मन की बात सामने रखी।
ख़ज़र ने कहा, "आपका स्कूल भी अच्छा है, लाइब्रेरी भी ढंग की है, आपके मुल्क़ में बतियाई भाषाओं और संस्कृति पर भी सर्वोत्तम पुस्तकें संग्रहीत हैं।"
सलीम ने बात को बदलते हुए कहा, "खाने का समय हो गया है, चलो चलकर खाना खाते हैं।"
"नहीं, हम तुम्हारे यहाँ खाना खाने नहीं आए हैं बल्कि तुम्हें खाने के लिये अपने साथ ले जाने आए हैं। कुछ वक़्त रुककर चलते हैं, किसी इंडियन रेस्टॉरेंट में।" ख़ज़र ने अपनेपन के साथ कहा।
"अच्छा तो जूस पीते हैं!" कहते हुए सलीम ने प्लास्टिक के ग्लास में उन्हें जूस दी।
"हाँ, यहाँ किसी से मित्रता हुई है या नहीं?" ख़ज़र ने उससे पूछा।
"हाँ, यहाँ हॉस्टल में नासिर शाह साहब ख़ैरपुर के हैं। दूसरा लाहौर का रहवासी भी है। दोनों सरकार की ओर से यहाँ पढ़ने आए हैं। भले लोग हैं। दोस्ती हो गई है। एकांत का अहसास नहीं होता। एक सिख भी दोस्त बन गया है, मनप्रीत सिंह बादल- बिल्कुल बादल की तरह, ठंडी छाँव देता हुआ, मन को भाता हुआ।"
"स्कूल में पढ़ाई कैसी चल रही है?" अब सारा ने सवाल किया।
"सच पूछें तो पहले दिन वाले लेक्चर में तो कुछ समझ में नहीं आया, अब आना शुरू हुआ है। किताब भी पढ़ने के सुझाव दिए गए हैं। दो तीन कक्ष के विद्यार्थी भी मदद करते हैं। हर कक्षा में अलग-अलग कक्ष की लड़कियाँ हैं। एक है ‘जूली’, वह अंग्रेज़ है। ‘ओ डीयर’ बार-बार कहती है। मुझसे बड़ा स्नेह है। दूसरी है हांगकांग की ‘छोई यंग चेंग’। उसे तो अंग्रेज़ी भी अच्छी नहीं आती। उसे कहा गया है कि पहले अंग्रेज़ी भाषा सीख ले। एक इंडोनेशिया से आया है, ‘मलियानो’ बहुत ही भला मानुस है। अपने मुल्क में अंग्रेज़ी का लेक्चरार है। सिंगापुर से भी लिसानियत का कोर्स किया है। अच्छी खासी जानकारी रखता है। मेरे साथ भी घुल-मिल गया है। पाँचवाँ है जापानी ‘सातो’, पूरा नाम ‘यासू हैदी सातो’ है। बहुत ख़ामोश रहता है, पर है बहुत होशियार। वैसे हमारे कई जनरल लेक्चर भी होते हैं, जिसमें अनेक विद्यार्थी शामिल होते हैं, और पढ़ाने वाले भी सीनियर प्रोफ़ेसर हैं। कोर्स बड़ी तेज़ रफ़्तार से बढ़ाते हैं। होम वर्क का बोझ भी काफ़ी ज़्यादा है।
"तुम्हारे स्कूल में मैंने भी तीन बार खाना खाया है। खाना अच्छा है और सस्ता भी। मैं स्कूल में अक्सर आती हूँ और कॉफी शॉप में भी सैंडविच वगैरह अच्छे मिलते हैं। भूख कम होती है तो कॉफी शॉप में जाती हूँ, नहीं तो यहीं पर खाना खाती हूँ।" सारा ने बताया ख़ज़र ने कहा- "हम तुम्हें दावत देने आए हैं। तुम किसी वीक एंड पर ‘विंडसर’ आओ, तो हम तुम्हें पूरी तरह घुमाएँ। महल भी है, विक्टोरिया वाटर्स भी है, और हाँ अपना वाला कॉलेज ‘रॉयल कॉलेज आफ हॉलवे’ भी दिखाऊँगा।"
"ज़रूर आऊँगा!" सलीम ने कहा- "पहले आपको सूचित करूँगा फिर चला आऊँगा।"
ख़ज़र ने हिदायती नमूने से कहा- "वाटर लू स्टेशन से विंडसर के लिये ट्रेन मिलेगी। स्टेशन पर हम तुम्हें लेने आएँगे।"
सलीम ने सोचा- किसी मौक़े पर विंडसर ज़रूर जाना है। उस दिन उन तीनों ने मिलकर टोटनहॉम कोर्ट रोड पर एक इंडियरन रेस्टॉरेंट में खाना खाया, उसके बाद वे अपनी कॉर से विंडसर की ओर रवाना हुए। सलीम स्कूल की लाइब्रेरी के उस हिस्से में बैठा था जहाँ लसानियत और कानून की किताबें रखी हुई थीं। माहौल बिल्कुल शांत था। उस तरफ़ लोगों का आना-जाना न के बराबर था। सलीम पढ़ने में इतना मग्न था कि उसे पता ही नहीं चला कि बड़े टेबिल के उस छोर पर कोई आकर बैठ गया है। आँखें किताब से हटाकर सलीम ने देखा तो सामने ही एक लड़की बैठी पुस्तक पढ़ रही थी। लड़की ने भी उसकी ओर देखा और फिर पढ़ने में व्यस्त हो गई। काफ़ी देर की ख़ामोशी के बाद सलीम ने लड़की से पूछा-
"आप कहाँ से आई हैं?"
शायद सहजता से यह पूछ बैठा कि लड़की के नाक-नक़्श एशियन से लगे, उसके बाल थोड़े छल्लेदार, रंग गोरा, क़द ठीक-ठाक था। उसने पैंट शर्ट पहन रखी थी, ऊपर से स्वेटर।
"अभी तो ब्रितानियाँ के हैं, और यहीं की नागरिकता बहुत सालो से है।" उसने अंग्रेज़ों के अन्दाज़ में बात की।
"यहाँ क्या पढ़ रही हो?"
"यहाँ कानून की डिग्री के लिये पढ़ रही हूँ। आप कहाँ से आए हैं और स्कूल ऑफ ओरियंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज़ में क्या कर रहे हैं?"
"मैं पाकिस्तान से आया हूँ, लसानियत में डिग्री कोर्स करने। वहाँ मैं यूनिवर्सिटी टीचर हूँ। किस्मत ने यहाँ मुझे विद्यार्थी बनाकर भेजा है। मेरा नाम सलीम कुरैशी है.... और आपका?"
"पायल।"
नाम सुनकर सलीम के कानों में घुँघरू बजने लगे, "इतना सुन्दर और प्यारा नाम किसने रखा है?"
"मम्मा ने नाम रखा है। वह मैनचेस्टर में एशियन डांस स्कूल चलाती हैं और कथक डांस में ख़ास माहिर हैं।"
"फिर तो आप भी नाचती होंगी?"
"नहीं! मुझे मम्मा ने पढ़ने के लिये प्रोत्साहित किया है। शुरू में थोड़ा डांस किया था, पर उसे अपना कॅरियर नहीं बनाया।"
सलीम और पायल बहुत धीमी आवाज़ में बातें कर रहे थे। वहाँ कोई तीसरा था भी नहीं, नहीं तो लाइब्रेरी में इतना भी बात नहीं कर सकते। पायल उठकर और पुस्तकें ले आई। टेबिल पर उन्हें रखते कहा- "दक्षिण एशिया में औरतों को अपने मज़हबों ने, जैसे जीवन गुज़ारने की इजाज़त दी है, पर प्रशासन उन्हें उस हद तक आज़ादी देने की बात नहीं करता। आपका क्या विचार है? दरअसल यह एक विषय मेरी असाइन्मेंट का है, जिस पर मैं आजकल काम कर रही हूँ।"
"मर्द को प्राबल्य हासिल है। औरत जुल्म की चक्की में पिस जाती है तो भी उफ़ नहीं करती। अब कुछ औरतें जाग्रत हुई हैं। वे औरों को राह दिखा रही हैं, क़ानूनी तौर पर भी मदद कर रही हैं, ख़ुद भी वे वकील हैं,
इसलिये मिडिल क्लास में थोड़ा पढ़ी हुई औरतों में जागरूकता आई है। आप कभी वहाँ गई हैं?"
"नहीं, मैं कभी भी नहीं गई हूँ। पर मुझे वहाँ के औरत, मर्द और सारी सार्वजनिक जीवन की हालत की पूर्ण ख़बर है, तभी तो यह विषय लिया है।"
पायल की काली आँखें, काली भौंहें, दमकती पेशानी सलीम को घायल करने के लिये काफ़ी थी। उसका चमकता हुआ चेहरा हृदय में बस गया था। लाइब्रेरी में धीरे से चलने का लुभावना अन्दाज़ उसे बहुत भाया। पायल काम में व्यस्त थी, गालों पर बालों की गिरती लटें वह बार-बार अपने हाथ से हटाती रही।
सलीम रह रह कर उसे निहारता रहा और अपना काम भी करता रहा। लंच के समय दोनों उठे, बाहर निकलकर सलीम ने पायल को खाना साथ खाने की दावत दी। पायल ने माफ़ी माँगते हुए कहा- "मैंने एक सहेली को समय दे रखा है, खाना भी उसके पास ही है।" ऐसा कहते पायल और सलीम फिर मिलने की उम्मीद का इज़हार करते हुए अपनी अपनी राह चले। स्वास के कारीडोर्स, लाइब्रेरी, कॉफ़ी शॉप या यूनिवर्सिटी ऑफ़ लंदन यूनियन और डिलन्स बुक शॉप पर पायल और सलीम की मुख़्तसिर ‘हलो हाय’ होती रही, एक दूसरे की तरफ चाहत भरे ख्यालों की लेन-देन और आख़िर में बाइ-बाइ गुड बाई कहते रहे।
उन दिनों पंकज उदास आए हुए थे और वेम्बली एरीना में जाने के प्रोग्राम की सूचना मिली। संगीत के दीवानों में ख़ुशी की लहर दौड़ गई। टिकटें कुछ महंगी ज़रूर थीं, पर अपने सिख दोस्त मनप्रीत सिंह बादल को कहकर उसने दो टिकटें खरीद लीं। सलीम ने पायल को लिख भेजा :
"प्यारी पायल
पंकज उदास के संगीत का प्रोग्राम, ‘वतन से चिट्ठी आई है’ आगामी 28 तारीख को वेम्बली एरीना में है। मैंने अपनी और तुम्हारी, दो टिकटें ले ली हैं। मैं चाहता हूँ कि हम यह प्रोग्राम साथ में देखें। उम्मीद है कि 28 के पहले इस चिट्ठी का जवाब ज़रूर दोगी। तुम्हारा ख़ैरख़्वाह
सलीम"
सलीम खत बंद करके कानून वाले विभाग के ताको में चपकहमद ीवसमे के च् वाले ताक में रख आया। हर विद्यार्थी विभाग के चपकहमद ीवसमे में अपनी डाक क़रीब हर रोज़ देखता था। सलीम को विश्वास था कि एक दो दिनों में चिट्ठी पायल को मिल जाएगी। वैसे ही जवाब लिखकर उसके विभाग में ै वाले ताक में रख जाएगी। काफ़ी दिनों के बाद सलीम को पायल का जवाब मिला। उसने लिखा था :
"प्यारे सलीम,
तुम्हारी प्यार भरी ऑफर मुझे मिली। पर अफ़सोस कि 28 तारीख को मैं मैनचेस्टर जा रही हूँ, दो चार दिन मम्मा के पास रहूँगी, माफ़ी चाहती हूँ।
स्नेह के साथ
पायल
ख़त पढ़ते ही सलीम को काफ़ी दुख हुआ। पंकज का प्रोग्राम वह दोस्तों के साथ देख आया। पायल की बेरुख़ी को भुलाने की कोशिश करता रहा।
एक दिन पायल उसे कॉफ़ी शॉप में मिल गई। वह कॉफ़ी पी रही थी। मुस्कराकर सलीम से मिली। सलीम अपने लिये चाय का कप ले आया। कॉफ़ी शॉप में ज़्यादा विद्यार्थी नहीं थे।
पायल ने बात शुरू की, "पंकज उदास का प्रोग्राम कैसा रहा?"
"प्रोग्राम तो निहायत अच्छा था, लोग भी बहुत आए थे। वह गाना लोगों को बहुत भाया- ‘चिट्ठी आई वाला’। पर तुम नहीं चली, मैंने तुम्हें बहुत मिस किया।"
"सलीम, तुम और मैं ऐसी तहज़ीबों से वास्ता रखते हैं जो आपस में मिल नहीं सकतीं।" पायल ने कहा।
"तो क्या हुआ, हम अच्छे दोस्त तो बन सकते हैं!"
"सलीम, यह मत भूल जाना कि मुझे हर तरह की आज़ादी हासिल है पर न जाने क्यों तुम्हें दोस्त बनाते हुए, ख़ौफ़ लगता है।"
सलीम ने जवाब में कहा- "पायल, मैं तो ऐसा नहीं हूँ, मैंने तुम्हारे लिये अपने दिल के दरवाज़े खोल रखे हैं। तुम्हें ऐसी बेबुनियाद बातों पर सोचना नहीं चाहिए।"
"यही तो इस जग की कड़वी हक़ीक़तें हैं, जिनसे मुँह नहीं मोड़ा जा सकता।" पायल ने सफ़ाई देते हुए कहा।
सलीम को मायूसी हुई। शायद वह इस तरह नहीं सोचता। उसके दिल में पायल के लिये जो उल्फ़त पैदा हुई थी, उसका दुःखद अंजाम वह आँखों से देख रहा था। उसे संशय ही नहीं बल्कि विश्वास हो गया कि वह पायल के दिल में स्थान नहीं बना पाएगा। ऐसी चाहत से और कुछ नहीं सिर्फ़ दर्द
ही दर्द मिल सकता था। उसने ऐसे दर्द की पीड़ा को सहने का इरादा कर लिया।
कॉफ़ी पीकर पायल किताबों का थैला कंधे पर लटकाते हुए कुर्सी से उठकर जाने लगी, यह कहते हुए, "सलीम, मैं आने वाले टर्म में ‘स्वास’ से यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ लंदन जा रही हूँ। ओके बाइ, बाइ।"
सलीम इस बात की तह तक पहुँच चुका था कि अब पायल से रास्ते चलते भी मुलाकात नहीं हो पाएगी। यह किस्सा यहीं खत्म समझना चाहिए। सलीम ने कुर्सी से उठते कहा- "बाइ, बाई, गुड बाई!"
सलीम ने पायल की ओर एक स्नेह भरा हाथ बढ़ाया था, जिसका अंजाम वह बेदर्दी के साथ दे गई थी। इस बात का सलीम को जाने कितने दिन अरमान और अफ़सोस रहा। वह अपने दिल को तसल्ली देता रहा कि शायद उसके नसीब में वही दर्द लिखा था, जिसे बर्दाश्त करने के सिवा और कोई चारा न था।
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ईबुक - सरहदों की कहानियाँ / दर्द की पगडंडी - डॉ. हिदायत प्रेम / अनुवाद व संकलन - देवी नागरानी
Devi Nangrani
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(क्रमशः अगले अंकों में जारी…)
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