स्नेह का सावन इमदाद हुसैनी शॉन ने कुर्सी की पीठ पर लेटे, एड़ियों पर घेर देकर, कुर्सी को पिछली टाँगों पर खड़ा किया और फिर दीवार से टिकान...
स्नेह का सावन
इमदाद हुसैनी
शॉन ने कुर्सी की पीठ पर लेटे, एड़ियों पर घेर देकर, कुर्सी को पिछली टाँगों पर खड़ा किया और फिर दीवार से टिकाने के लिए कुर्सी को पीछे की ओर धक्का दिया। संतुलन क़ायम न रहा और झटका खाकर कुर्सी ने उसे मेज़ पर ला पटका, जहाँ वह कुछ पल तो टेबल पर बाँहों को मुँह में दबाये ही पड़ा रहा।
‘दीवार पीछे तो नहीं हट गई है?’ उसने सोचा। कुहनी में जलन महसूस हुई तो कराहते हुए बाँह की ओर देखा। कुहनी में खरोंचें आई थीं और उनसे ख़ून निकलकर वहीं जम गया था। उस जगह मरहम लगाया, फूँक मारी, कमीज़ की बाँह नीचे की, फिर टेबल पर बाँहों के बीच मुँह रख दिया।
"हैलो!" शॉन के कानों में जलतरंग सी झनकार हुई। उसने गर्दन ऊपर उठाई। सामने लालन खड़ी थी। बरसाती वेशभूषा में, कंधों पर गरजते बादल लिए, लबों पर लाली लगाए। वह तो लालन के चेहरे पर टिकी आँखें ही उठा नहीं पा रहा था।
"देख तो ऐसे रहे हो जैसे पहली बार देख रहे हो।" लालन की मुस्कान ने गालों पर पड़े कपोलभंग को और गहरा कर दिया।
"पहली बार नहीं, आख़िरी बार!" वह भी मुस्कराया। एक रूठी हुई मुस्कान के साथ लालन को बैठने के लिए कहकर वह बाहर निकल गया। बाहर कमीज़ की बाँह से आँखें पोंछकर भीतर लौट आया।
"बाहर चलते हैं।" और वे बाहर निकलकर कार में आकर बैठे। कार स्टार्ट हुई और हैदराबाद के रास्तों पर दौड़ने लगी।
"कितनी पास हो और कितनी दूर हो।" शॉन ने जैसे अपने आप से बात की। लालन ने अपना हाथ उसके हाथ पर धर दिया। लालन, जो उसकी सब कुछ थी, और जैसे कुछ भी न थी! वह जो उसकी आदि और अंत थी, वह उससे आख़िरी बार मिल रही थी। वह हर रोज़ मिला करती थी- क्लास में- कॉरीडोर में- सीनेट हॉल में- सम्मेलनों में- मुशायरों में- जश्ने रूह रिहाण में- जलसों में- जुलूसों में- सिन्धू पर- हर जगह...! उससे मिलना तो मुहाल, आज के बाद तो वह उसे कभी देख भी न पाएगा। वह भीतर तक भीग गया था। बाहर बूँदें बरसने लगीं और विंड स्क्रीन पर जमा होकर रेला बनकर बरसने लगीं। फिर बड़ी बूँदें बरसने लगीं।
शॉन ने वाइपर चलाये, हेड लाइट जला दी और लालन उनकी रोशनी में बूँदों की झिलमिलाहट देखने लगी।
"हमारे आँसू भी बादल रो रहा है।" शॉन ने ठहाका मारा जो ख़ुद उसे ही सिसकियों का आभास देता रहा। लालन ने उसके हाथ को होंठों तक लाया और उसे याद दिलाया- "आज हम रोने की कोई भी बात नहीं करेंगे।" शॉन ने ठंडी साँस ली और लालन के हाथ को हलके से दबाते हुए कार को जामशोरो की ओर मोड़ दिया।
‘लालन’ - सिर्फ शॉन ही इस नाम से उसे बुलाया करता था। लालन ने पहले ही उसे बता दिया था कि उनका साथ सिर्फ़ परीक्षाओं तक ही है। फिर जोगी किसी का रिश्तेदार नहीं! परीक्षाओं के बाद वह फिर से जिलों में जा बसेगी। नाते और शिक्षा के संबंध पर उनकी कई बार बात हुई थी, जीवन साथ बिताने की बात हुई पर....!
"नहीं, तमाम उम्र का साथ नहीं।" लालन ने कहा था।
"इस में शिक्षित होने की बात है भी, नहीं भी है।" सुनकर वह पल दो पल चुप रही।
"देखो शॉन, मैं एक ऐसे परिवार से आई हूँ, जिसमें लड़कियों की पढ़ाई पर प्रतिबंध है। ज़्यादा से ज़्यादा उन्हें क़ुरान की तालीम दी जाती है।"
"फिर क़ुरान उनकी झोली में डालकर, बख़्शाया जाता है!" शॉन ने कहा।
"मैं खानदान की पहली लड़की हूँ।" लालन ने सुना अनसुना करते हुए कहा, "जो यूनिवर्सिटी तक पहुँची हूँ। और मैं.... मैं उस डगर की आख़िरी लड़की बनना नहीं चाहती। उसके पीछे ख़ानदान की और भी लड़कियाँ हैं, जो तालीम की अलग-अलग दुश्वारियों का सामना कर रही थीं। उन्हें भी यूनिवर्सिटी तक पहुँचाना है।" लालन ने अपने पिता को विश्वास दिलाया था कि वह उनके साथ कभी भी, कोई भी विश्वासघात नहीं करेगी।
"और प्यार के साथ विश्वासघात!" शॉन ने जैसे सिसकियों को लफ़्ज़ों में उँडेला था।
"ये लफ़्ज़ तुम्हारे मुँह से अच्छे नहीं लगते।" लालन ने उसके कंधे पर गर्दन टिकाते हुए कहा। "मैं तो तुम्हारे साथ बिताए दो सालों में पूरी ज़िंदगी गुज़ार चुकी।" लालन के इस तरह के सहज-सरल व्यहवार पर शॉन को अचरज होता था।
कार जामशोरो के पुल पर पहुँची तो लालन ने अपने पर्स से सिक्कों की मुट्ठी भरकर, कार की खिड़की का शीशा नीचे करते हुए झनझनाते सिक्के सिंधू की तरंगित लहरों की ओर फेंके। कार पुल पार करके अलमंज़र की ओर मुड़ गई। वे कार से उतरकर अलमंज़र पर जाकर बैठे। वहाँ की हवा लालन के बालों से शरारत कर रही थी। बरसाती बौछारें और सिंधू का शोर आपस में घुल-मिल से गए थे। लालन उठकर रेलिंग के पास जा खड़ी हुई, सिंधू की तरफ़ उसका चेहरा था। शॉन भी उसके पास में आकार खड़ा हुआ। दोनों बारिश में भीगने लगे।
"लालन!"
"हूँ...."
"जब जीवन में तुम ही न रहोगी, तो फिर मेरे पास जीने का कौन सा सबब होगा?"
लालन की हँसी जलतरंग की तरह गूँजी।
"यह तुम्हारी कहानी ‘मरुस्थल में चीख़ हुई’ का संवाद है न?"
"पर यह मेरे सवाल का जवाब तो नहीं।"
"जीने के लिए सबब हो यह ज़रूरी तो नहीं, ज़िन्दगी तो हमपर थोपी गई है और यह हमें हर हाल में दम गुज़र करनी है, पर...." लालन रेलिंग के पास से हटकर टेबल पर आकर बैठी। शॉन कुछ देर वहीं खड़ा रहा, निचला होंठ दाँतों के बीच दबाकर, वह लालन की ओर चला आया। वह चाय पी रही थी। शॉन ने भी चाय की चुसकियाँ लीं और फिर दोनों ने अपनी प्यालियाँ बदलीं।
"पर.... क्या?"
"पर...यह कि तुम्हारे पास जीने का सबब मौजूद है।"
"कौन सा?"
"लिखना....!"
"लिखना!" शॉन के होंठों पर निर्जीव मुस्कान तड़पने लगी। दिल में आया कि वह लालन को सुना दे कि अभी कल रात ही उसके पिता ने उसके नॉवल ‘जो डगर पर मरते’ का पहला अध्याय फाड़कर डस्टबिन में फेंक दिया था। शॉन ने अपने दायें हाथ की ओर देखा और फिर खुले हुए हाथ को मुट्ठी में बंद कर लिया। पिता चाहता था कि शॉन कारोबार में उसका हाथ बंटाए। पर शॉन कारोबारी आदमी न था, और वह यह बात अपने पिता को नहीं समझा पाया था।
लालन ने वॉच में देखा।
"क्या वक़्त ठहर नहीं सकता?" शॉन ने पूछा।
लालन के चेहरे पर मुस्कान खिल उठी।
"वॉच ठहर सकती है, पर वक़्त नहीं।"
शॉन ने बिल का भुगतान किया, और दोनों नीचे उतरकर कार में जा बैठे। कार शुरू होकर रास्तों पर भागती रही। लालन हेड लाइट की रोशनी में बूँदों की झिलमिलाहट देखने लगी। हैदराबाद पहुँचे तो बारिश बंद हो चुकी थी।
"बस, यहीं.... !" लालन ने कहा और शॉन ने कार रोक दी। लालन ने उसका हाथ अपने हाथ में लिया, उसे होंठों तक लाकर चूमा और आँखों पर रखा, फिर चूमा और बिना कुछ कहे कार का दरवाज़ा खोलकर उतर गई और शॉन उसे जाते हुए देखता रहा, जब तक वह नज़रों से ओझल न हुई।
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ईबुक - सरहदों की कहानियाँ / / अनुवाद व संकलन - देवी नागरानी
Devi Nangrani
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(क्रमशः अगले अंकों में जारी…)
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