दीपक आचार्य का आलेख - ठिकाने लगाएँ इन भूत-पलीतों को

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यह जरूरी नहीं कि भूत-प्रेत और पलीत अब श्मशान या अंधकार भरे एकान्त कोनों में ही निवास करते हों, शहर और गांव से दूर डेरा जमाए रहते हों या फिर...

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यह जरूरी नहीं कि भूत-प्रेत और पलीत अब श्मशान या अंधकार भरे एकान्त कोनों में ही निवास करते हों, शहर और गांव से दूर डेरा जमाए रहते हों या फिर उन जर्जर भवनों, किलों, राजमहलों और कंदराओं में ही रहते हों।

अब भूत-पलीतों को कहीं भी अनुभव किया जा सकता है। आम तौर पर यह माना जाता है कि ये भूत-प्रेत उन्हीं ठिकानों में रहते हैं जहाँ अंधेरों का साया हो, आपराधिक मानसिकता हावी हो, लूट-खसोट और छीना-झपटी का माहौल हो, निर्जन एकान्त वातावरण हो या फिर मलीनताओं के डेरे हों। 

अब इन्हें बस्तियों या मुख्य स्थलों से दूर रहने की जरूरत नहीं है क्योंकि अब हर कहीं इनके स्वभाव के लोग खूब मिल जाते हैं जिनकी जिन्दगी भूत-पलीतों, डाकिनियों और प्रेतों से काफी कुछ मिलती-जुलती है। इनकी आदतें, आचरण, स्वभाव और तमाम प्रकार की हरकतों का मिलान किया जाए तो इन्हें जिन्दा भूत कहने में किसी को कोई आपत्ति नहीं होती।

हमारे आस-पास और अपने क्षेत्र में ऎसे खूब सारे जिन्दा भूत विद्यमान हैं जिन्हें देखकर ही लगता है कि ये किसी भूत-पलीत से कम नहीं हैं। बात घर-परिवार की हो,  किसी दफ्तर-दुकान की, अथवा किसी भी प्रकार के व्यवसायिक एवं सेवाव्रती ठिकानों की। इनमें भूत-प्रेत किस्म के कुछ लोग हर जगह जरूर होते हैं। इनकी शक्ल तक देखना घातक माना जाता है।

नहाने-धोने से परहेज रखने वाले, गन्दे और मैले कपड़े पहनने वाले, बेवजह दाढ़ी और बाल बढ़ाते हुए भूखमरी के शिकार भीखमंगों की तरह रहने वाले, त्रिभंगी और बहुभंगी मुद्रा में घूमते-फिरने वाले, टेढ़ी-मेढ़ी चाल से चलने वाले, अहंकारों में फूल कर कुप्पा हुए अकड़ में रहने वाले, बेड़ौल, दिन-रात मनहूस शक्ल लिए आवाराओं की तरह घूमने वाले, औरों के टुकड़ों पर पलने वाले, हर जगह की झूठन के लिए मारामारी करने वाले, सूअरों की तरह सूंघ-सूंघ कर कीचड़ उछालने वाले, कुत्तों की तरह बिना कारण के भौं-भौं करने और गुर्राते रहने वाले, हमेशा गुस्से में तरबतर रहते हुए अपने भीतर के जानवरी स्वभाव का सार्वजनीन प्रकटीकरण करने वाले, हराम का खाने-पीने वाले, चोर-उचक्कों और बेईमानों का जीवन जीने वाले और परजीवियों की तरह पराश्रित रहते हुए जीने वाले बहुत सारे लोग हैं जिन्हें देख कर लगता है कि यही वे लोग हैं जो भूत-प्रेतों से भी गए-बीते और गिरे हुए हैं।

भूतों के भी अपने कुछ उसूल होते हैं मगर इन लोगों के लिए कोई सिद्धान्त नहीं होते, अपने आपका वजूद साबित करने और खुद को बुलन्द करने के लिए ये अपने कुटुम्बियों और करीबियों तक का खात्मा कर डालने से नहीं चूकते।

बहुत सारे भूत-पलीत अपने आस-पास हैं। इनकी जिन्दगी को देखें तो लज्जा आती है। कहाँ इनके माता-पिता और परिवारजनों के संस्कार, और कहाँ ये श्वान परंपरा अंगीकार कर चुके किसम-किसम के ऑक्टोपसिया डोगी या फन मारकर इाँत गड़ाने वाले विषधर भुजंग।

इन भूत-प्रेतोें को न रहने का सलीका आता है, न बैठने का, न बातचीत करने का, और न ही लोक व्यवहार का। काम-धाम के बारे में तो कुछ कहना ही बेकार है। बहुत सारे लोगों की रोजाना की घण्टों की बैठक बंद, अंधेरे और सीलन भरे कमरों में होती है जहाँ न पर्याप्त हवा आती है, न रोशनी। ऊपर से आस-पास कागजों के इतने अम्बार कि इनमें लाखों बैक्टीरिया और घातक सूक्ष्म कीटाणुओं के जाने कितने अभयारण्य पलते रहते हैं।

इन्हीं अंधेरों के बीच रहने वाले इन भूत-प्रेतों की आधी से अधिक जिन्दगी एलर्जी और बीमारियों के कारण अस्पतालोें में बीतने लगती है। फिर भी अंधेरे कमरों का मोह नहीं छूट पाता, निवृत्त होने के बाद भी उतावले रहते हैं इन बाड़ों मेंं घुस कर पिस्सूओं की तरह रहते हुए सुरक्षित मृत्यु पाने के।

बात हम चाहे कितनी ही स्वच्छता अपनाने की करें, बहुत सारे लोग भूत-प्रेतों की तरह गन्दे और मलीन रहने के इतने आदी हो चुके हैं कि इन्हें न समझाया जा सकता है, न कुछ कहा जा सकता है। गंदगी के कीड़ों को इत्र या स्वच्छता भरे परिवेश में कभी आनंद नहीं आ सकता। यही स्थिति इनकी है।

खूब सारे लोग ऎसे हैं जो अपने पास उन संसाधनों, नाकारा सामग्री और अनुपयोगी-अवधिपार कागजों के अम्बार लगाए रखते हैं जिनका कोई उपयोग नहीं है। बावजूद इसके इन्हें हटाने में मौत आती है। होली-दीवाली की सफाई हो या फिर नववर्ष का आगमन, अथवा कोई सा दूसरा अवसर।

ये लोग गंदगी और सडान्ध में बने रहने के आदी ही रहते हैं। इस किस्म के लोगों की हर तरह के बाड़ों और गलियारों में भरमार है। हमारे परिचितों में भी खूब सारे ऎसे हैं जो अंधेरे, बंद और सडांध भरे कक्षों में बैठे रहने के अभ्यस्त हैं और हमेशा बीमार रहते हैं या कामों से जी चुराने के लिए बीमारी के बहाने बनाते रहते हैं।

जिनका परिवेश गंदा होता है उनका मन-मस्तिष्क और शरीर कभी अच्छा नहीं हो सकता। असल में मानसिक और शारीरिक रूप से बीमार लोग ही अपने आस-पास तथा परिसरों की साफ-सफाई के प्रति उदासीन रहा करते हैं।

इस मामले में जिस परिवेश में गंदगी और मलीनता हो, वहाँ बैठने वाले लोग कभी दिल के साफ नहीं हो सकते, इनका मस्तिष्क षड़यंत्रकारी और दूसरों को नुकसान पहुंचाने के नकारात्मक विचारों से ठसाठस भरा होता है।

यह समाज और देश इन्हीं भूत-पर््रेतों की वजह से अंधकार से घिरा हुआ है। ये ही वे शापित लोग हैं जिन्हें उजियारा पसंद नहीं होता, रोशनी आने के तमाम रास्तों को सायास ढंक देने के ये आदी होते हैं। ये भूत-प्रेत खुद भी अंधेरे में जीने के आदी होते हैं और जमाने भर में अंधेरा फैलाने वाले कामों और व्यक्तियों के संगी-साथी बने फिरते हुए धरा पर आसुरी साम्राज्य के प्रतिनिधि बनकर घूमते-फिरते हैं और मृत्यु के बाद भी गति-मुक्ति नहीं हो पाने के कारण भूत-प्रेत के रूप में परिभ्रमण करते रहते हैं।

इन भूत-प्रेतों को ठिकाने लगाए बिना समाज का भला संभव नहीं है। इन्हें किस तरह ठिकाने लगाना चाहिए, इस बारे में किसी को कुछ बताने की आवश्यकता नहीं है, जहाँ मौका मिले, ठिकाने लगाएं, यही आज का सबसे बड़ा युगधर्म और स्वधर्म है।

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दीपक आचार्य के प्रेरक आलेख inspirational article by deepak aacharya

- डॉ0 दीपक आचार्य

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