अभी 31वीं दिसम्बर की रात लगभग सम्पूर्ण वैश्विक समुदाय पुराने साल के विदाई और नये साल के शुभारंभ के उत्सव मनाने हेतु प्रतीक्षारत और बिलकुल आ...
अभी 31वीं दिसम्बर की रात लगभग सम्पूर्ण वैश्विक समुदाय पुराने साल के विदाई और नये साल के शुभारंभ के उत्सव मनाने हेतु प्रतीक्षारत और बिलकुल आतुर थे. रात 12 बजे के बाद जनवरी माह के आगाज के साथ नव वर्ष का आगमन हुआ और सम्पूर्ण विश्व आतिशबाजी के साथ ख़ुशी से झूमे, गाये, नाचे और आनंद सागर में गोते लगाये. प्रतीक्षारत लोगों में शुभकामनाओं का आदान-प्रदान भी खूब हुये. त्यौहारों का देश कहे जाने वाले भारतवर्ष भी इससे अछूता नहीं थे.
निःसंदेह वैश्विक समुदाय इस उत्सव के जमकर लुत्फ़ उठाये. वास्तव में उत्सव होते ही हैं आनंद प्राप्ति के लिये और शास्त्रोक्त वचन हैं कि मनुष्य मात्र की उत्पत्ति आनंद से हुई है. इसलिए मानव मात्र के सहज स्वभाव आनंद प्राप्ति के स्त्रोत की खोज हैं और उस हेतु हमारा प्रयत्न निरंतर जारी रहता है. मनुष्य मात्र को आनंद की भूख है,सुख पाने हेतु बेचैनी है इसके लिये सभी अपने सामर्थ्यानुसार अनेक कार्य और जी तोड़ मेहनत करते हैं. वे अपने व्यापार और कार्यक्षेत्र का विस्तार करते हैं,ताकि अधिकाधिक आनंद और सुख प्राप्ति हेतु ज्यादा से ज्यादा भौतिक साधन उपलब्ध हो.
इसी कड़ी में वह सामाजिक व्यवस्था अथवा सरकार सफल मानी जाती है जो अपने नीति और तंत्र से इस उद्यम में जनता-जनार्दन के निमित्त अधिकाधिक सहायता प्रदान करे. इस तरह स्पष्ट है कि जगत में जो कुछ भी कृत्य होते हैं वह उसके कृत्यकर्ता के अपने स्वभावानुसार अथवा स्व-चरित्रानुसार स्वयं आनंद के अनुभव प्राप्ति हेतु होते हैं. किंतु अल्प कालीन या क्षणिक सुख देने वाले वे सब भौतिक साधन क्या उस क्षण भी कुछ सुख दे सकते हैं जब आनंद या उत्सव मनाने के अवसर ही प्राप्त न हों,अर्थात आस पास के माहौल में अशांति हो?क्या होगा जब नजर के सामने अप्रीतिकर नजारे उपस्थित हों या बुरे खबर प्राप्त हों अथवा सामने कोई दयनीय स्थिति में ही हो. पता नहीं कितने दिनों तक वह दृश्य मन को अशांत करता रहे. भौतिक सुख के साधन प्राप्य होने के बावजूद वैसे खबर मन को पीड़ा देती रहे. शायद जुबान से निकलने वाली सम्वेदना के प्रत्येक शब्द भी मन के उस पीड़ा को पूर्णतया बाहर उढ़ेल न सके.
किंतु नव वर्ष के आगमन के अगले ही दिन भारत में पठानकोट वायुसेना ठिकाना पर आतंकी हमला हुआ. भारतीय सुरक्षा व्यवस्था ने आतंकरोधी कार्यवाही में छह आतंकियों को मार गिराया किंतु मुठभेड़ करते हुये सात बहादुर जवान वीरगति को प्राप्त हुये और बाइस घायल बताये गये. इसके बाद भी जम्मू कश्मीर में आतंकी हमले हुये. भारत के जम्मू कश्मीर और एक लम्बे समय तक पंजाब प्रांत अर्थात भारतवर्ष आतंकवाद के शिकार रहे हैं,शायद इससे विश्व समुदाय भली भांति अवगत हैं. अभी पठानकोट आतंकी हमले में वीरगति प्राप्त जवान के परिजन और पूरे देश सन्तप्त हैं,किंतु दुःख के इस घड़ी में भी शहीद के परिजन अथवा सम्पूर्ण देश उचित उपाय और समुचित कार्यवाही की बातें करता है, न कि भावावेश में प्रतिशोध चाहते हैं. भारतीय संस्कृति और संस्कार स्पष्ट कहते हैं कि मानवीय धर्म अर्थात मानवीय गुण के संरक्षक नियम के संरक्षण हेतु शास्त्रों की और सुव्यवस्था रक्षण हेतु शस्त्रों का धारण करना नीति-सम्मत और उचित हैं. जबकि भारत युवाओं के देश हैं और मजबूत इरादों से धनी हैं तथा सामर्थ्यवान भी हैं,किंतु भारतीय संस्कृति में प्रतिशोध के लिए कभी जगह नहीं रहे और विश्व समुदाय के लिये भारत की यही सांस्कृतिक देन एक अमूल्य उपहार है. इस बात की पुष्टि वर्तमान में फेसबुक पर भिन्न-भिन्न लोगों के पोस्ट से होते हैं.
कुछ दिन पहले वैसी ही प्रतिक्रिया फेसबुक पर सम्वेदना व्यक्त करते कुछ टिप्पणियों में दिखीं जब पेरिस पर आतंकी हमला में अपने पत्नी को खो दिये एक फ्रांसीसी युवक जिसके नाम अब स्मरण नहीं,के पोस्ट फेसबुक पर वायरल हुये. उस पोस्ट में अंकित बातें और टिप्पणियाँ मुझे पूरी तरह याद नहीं किंतु उस गमगीन युवक ने फेसबुक के माध्यम से अपने सात्विक विचार में दहशतगर्दों से कुछ सवालात करते हुये लिखा कि वह अपनी बच्ची के साथ अपनी पत्नी को ख्यालात में जिन्दा रखते हुये नये सिरे से जिंदगी शुरू कर रहे हैं और खुश है. वह उस आतंकी हमले को अंजाम देने वाले आतंकियों के बारे में कुछ जानना तक नहीं चाहते. पता नहीं उस पोस्ट के संदेश किसी आतंकी तक पहुंचा भी या नहीं,और उसके कुछ फायदे हुये या नहीं?किंतु उपरोक्त तथ्य का समुचित जवाब पठानकोट आतंकी हमले के रूप में विश्व समुदाय के समक्ष है.
किंतु अति विचारणीय बात यह है कि पठानकोट आतंकी हमले से जुड़े खबर में यह भी एक अहम तथ्य सामने आया है कि एक आतंकी का अपने माँ से बातचीत हुई. उसने माँ से बताया कि वह सुसाइड मिशन पर है. माँ ने कहा कि बेटा पहले कुछ खा लेना. इससे स्पष्ट होता है की आतंकी और उनके परिवार के सदस्यों को यह पता था कि वह कौन सा और कैसे कृत्य कर रहे हैं एवं कैसे मिशन पर हैं. सभी राष्ट्र अथवा देश के बाह्यसुरक्षा और आंतरिक सुरक्षा हेतू सुरक्षा व्यवस्था में अपनी सेना और पुलिस होते हैं और जरूरत पर बहुत से जवान राष्ट्र हित में मोर्चे पर जाते हैं,परंतु कोई जवान अनजाने में भी यह कदापि नहीं सोचते कि वह सुसाइड मिशन पर है. सही और गलत काम में फर्क समझने में यह तथ्य काफी अहम और विचारणीय हैं.
फिर जानते हुये भी लोग कुकृत्य क्यों करते हैं? क्या केवल मजहब के लिए,लोभवश या गरीबी की वजह से? नहीं ऐसा बिलकुल नहीं है. कोई मजहब करूणा रहित और मानवता के विरुद्ध नहीं हो सकते और जो मानवता के विरुद्ध कुछ कहे वह मजहब कदापि हो नहीं सकता. परिवार और समाज के सामने किसी एक का लोभ और मनमानी कदापि नहीं ठहरता. वास्तव में प्रत्येक व्यक्ति का व्यक्तित्व और कृत्य उसके परिवार और मुख्यतः उसके समाज के दर्पण हैं और एक समाज वहाँ के अधिसंख्य लोग के व्यक्तित्व के दर्पण हैं. इसी तरह एक देश वहाँ के समाजिक और वैचारिक स्थिति और संस्कृति के मुखौटा मात्र हैं. फिर गरीब मेहनतकश हो सकते हैं,धैर्यवान हो सकते हैं,यद्यपि वह छोटी-मोटी गलतियां कभी कर सकते हैं,किंतु गलत राह पर नहीं चल सकते. यदि वैसा होता तब विश्व में कुछ धनवान को छोड़ कर बाकी के लोग सीमांत कृषक,छोटे व्यवसायी,नौकरी पेशा या मजदूर ही क्यों होते?इस तथ्य से वे सभी वाकिफ हैं,उपरोक्त माँ-बेटे के बातचीत के बारीकी से विश्लेषण करने पर यह भी स्पष्ट है कि उन्हें भी इस बात के इल्म हैं.
फिर वैसे कुकृत्य में संलिप्त होने के क्या वजह हो सकते हैं? यदि गम्भीरता से विचारा जाय तो प्रत्येक विघटनकारी और अनैतिक कर्म वहाँ के समाज के नैतिक पतन के परिचायक हैं. उस समाज के लोग अपने निजी स्वार्थ सिद्धि हेतु प्रकृति और संपूर्ण सृष्टि में सह-अस्तित्व के सिद्धांतबोध से रहित,मानवीय धर्म के पालन और अपने सामाजिक तथा व्यक्तिगत कर्तव्य एवं जिम्मेवारी के निर्वहन के प्रति लापरवाह हो सकते हैं. उन्हें इस बात का ज्ञान नहीं रहता कि सच्चे आनंद की प्राप्ति भौतिक साधनों में नहीं अपितु अपने सभी कर्तव्य और जिम्मेवारी के निर्वहन ही से प्राप्त हो सकते हैं. एक एककर छोटी छोटी अनैतिक बातें ही नजर अंदाज करने पर उनके समाज में वह अनैतिकता स्थाई हो जाते हैं,फिर उस समाज में विषम स्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं. उस विषम स्थिति से लोगों में धीरे-धीरे जागरूकता का अभाव और नैतिकता का पूर्ण पतन होने लगता है,अशिक्षा,असंतोष और मनमानी बढ़ने लगता है. सीरिया को इसके जीवंत उदाहरण के रूप में लिये जा सकते हैं. फिर कोई स्वार्थी समाज के किसी व्यक्ति को अपने स्वार्थ साधने हेतु गलत रास्ते पर ले जाने के प्रयत्न करता है तब समूचा समाज ही मूक दर्शक बने रह जाते हैं.
उपरोक्त बातें समझने के लिए एक छोटा सा उदाहरण ही पर्याप्त होगा. जब उक्त फ्रांसीसी युवक का फेसबुक पर ऊपरवर्णित मर्माहत कर देने वाला पोस्ट दिखा तब उसमें बहुत सारे लाइक और हजारों समवेदनायुक्त टिप्पणियाँ थे. आतंकी हमले में पत्नी को खो देने के घटना ने उस युवक के हृदय पर निःसन्देह कुठाराघात किया, उससे बाहर आकर अपने धैर्य और विचार को एकत्र करना फिर प्रतिशोध की भावना को दूर रखते हुये पोस्ट करना निश्चय ही एक बहुत बड़ी बात है. यह किस तरह सम्भव हुआ? वैसा सिर्फ परोपकार के भावना ही से संभव हो सकता है कि संसार के कोई अन्य व्यक्ति आगे वैसे आतंकी घटनाओं के शिकार या पीड़ित ना बन जाये,ना कि सम्वेदना के चंद शब्दों के लिये. उनके दुःख किसी भी तरह चंद शब्दों से कम नहीं हो सकते,अपितु उनके जख्म पर मरहम अवश्य लगाये जा सकते है,किंतु वह भी उनके सार्थक उद्देश्य के पूर्ति के रूप में.
किंतु उनके सार्थक उद्देश्य की पूर्ति कैसे हो ? मन में वैसे विचार आने पर स्वतः जिज्ञासा जगना स्वाभाविक है की आखिर संसार में आतंकी घटना होते ही क्यों है,आस पास के संदिग्ध कार्यकलाप क्यों सामाजिक व्यवस्था तंत्र की नजर में आते नहीं या उन्हें इसकी समझ नहीं. किसी समाज के एक व्यक्ति आतंकवादी विचारधारा से प्रभावित होते चले जाते हैं तब उस समाज के अन्य लोगों को इसका पता क्योंकर नहीं चलता. कुछ विद्वानों के किसी समस्या पर राय है कि किसी गाँव या देश अथवा विश्व की स्थिति क्यों नहीं सुधरती,क्योंकि वहाँ जनसामान्य में जागृति नहीं होती. वहां किसी समस्या के समाधान सोचने के सम्बंध में गरीब में हिम्मत नहीं, मध्यम वर्ग को फुर्सत नहीं और अमीरों को जरूरत नहीं हैं. ये बातें कुछ विषय पर अंशतः सत्य हो सकते हैं क्योंकि जो इच्छा हृदय से होते हैं अर्थात जिन बातों पर हमारा विश्वास और जाग्रति हो उसके पूर्ति हेतु हर मुश्किल से सामना हेतु तैयार रहते हैं और इतिहास गवाह हैं कि ऐसे में हर असंभव काम भी संभव हुये. फिर आनंद प्राप्ति हृदय से किसे अच्छे नहीं लगते? फिर आतंकवाद जैसे कुकृत्य में बढ़ोतरी के क्या वजह हो सकते हैं?
शायद इसके आग्रांकित कारण हो सकते हैं. यह कि आज एकल परिवार में भी लोग तनाव और अविश्वास में जी रहे हैं,बाप-बेटे और शौहर-बेगम के बीच तनाव हैं,व्यवसाय के तनाव तो अलग ही हैं. शायद स्वयं के इसी तनाव की वजह से उन्हें आसपास की संदिग्ध गतिविधि भी सामान्य सा अनुभव होते हों. अर्थात हर बात को हल्के में लेने की आदत बन गई हों,इस बात की पुष्टि हेतु उस फ्रांसीसी युवक के पोस्ट पर टिप्पणी में सम्वेदना व्यक्त करते हुये इस आशय की एक राय जोड़ा कि इस दुखद घटना से जनसामान्य,विशेषकर युवाओं को भी स्वयं सचेत होना चहिये की वे अपने बुजुर्गों और आदरणीय व्यक्ति के सदैव सम्मान करें और उन पर बारम्बार अपमान या दोषारोपण करने की कोई कुवृति हों तो उन्हें उसका त्याग करनी चाहिये. क्योंकि बुजर्गों का प्रत्येक बार का अपमान करना भी हरेक बार उनके जीते जी मारने या हत्या करने के समान हैं. किंतु फेसबुक पर आजतक उस राय पर एक भी पसंद या नापसंद से सम्बंधित सूचनाएं प्राप्त नहीं हुई.
माना कि वह राय थोड़ा लीक से हटकर और उस पोस्ट के पूर्णतः अनुरूप नहीं थे,किंतु वह वर्तमान सामाजिक परिस्थिति के बिलकुल विपरीत तो नहीं थे. क्या वैसा भी हो सकता है कि पोस्ट पर प्रतिक्रिया देने वाले केवल अपनी प्रतिक्रिया देते हैं और पहले से मौजूद टिप्पणियाँ नहीं पढ़ते? यदि वैसा है तब तो और भी गम्भीर स्थिति हैं. क्योंकि फेसबुक का उपयोग वही कर सकते हैं जो साक्षर अवश्य होंगे. यदि विश्व के साक्षर जन भी लापरवाह हो जाय फिर भले की आशा क्या हो सकती है? यदि पढ़कर नजरअंदाज की कोशिश हुई,तो इसके दो ही अर्थ हो सकते हैं. पहला यह कि हमारे समाज में वास्तव में वह समस्या हैं और जन सामान्य उस समस्या का होना स्वीकारना नहीं चाहते अर्थात शरमाते हैं. दूसरा यह कि वह समस्या विकट रूप में मौजूद हैं किंतु स्वार्थवश लोग उससे बाहर आना नहीं चाहते अर्थात अनैतिकता के शिकार हैं. यह दोनों ही स्थिति अत्यंत गम्भीर हैं.
वैसी स्थिति में यदि कोई सच्चे व्यक्ति अनैतिकता के विरोध में आवाज उठता है,तब अन्य उसे हल्के में लेते हैं अथवा उसके समर्थन से पहले अपने निजी स्वार्थ पूर्ति हेतु अपने-अपने तराजू में तौलने लगते हैं. सबसे बड़ी बात तो यह की समय रहते सही तथ्यों, बातों की जाँच-परख सच्चे लोग कर पाये अनैतिक कार्यों में लिप्त लोग उन तथ्यों के परख कर उसे दबाने के हर सम्भव उपाय कर चुके होते हैं. बल्कि इससे आगे बढ़कर तो वैसे लोग समाज से हमदर्दी जताने के स्वांग भी रच चुके होते हैं. जिसका सीधा अर्थ यह भी होता है की ईमानदारी के पक्षधर हमेशा जागृत नहीं रहते और अनैतिकता के सिपहसलार भय से ही सही पहले सक्रिय हो जाते हैं. इसीलिए आनंद प्राप्ति के इच्छुक प्रत्येक व्यक्ति को निजी स्वार्थ के दायरे से बाहर आकर सत्य और सृजनात्मक कार्यों में न केवल भावनात्मक और वैचारिक सहयोग करना अपेक्षित है अपितु सदैव सतर्क भी रहने की जरूरत है. इन सब कार्यों में तभी वांछित सफलता मिल सकती है जब प्रत्येक सामाजिक व्यक्ति स्वचरित्र सुधार से प्रारम्भ करे. जुझारू होने के माद्दा स्वयं में विकसित करें और स्वयं आत्म चिंतन की ओर उन्मुख हों तथा सभी तरह से स्वयं में आत्मबल सशक्त करें.
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(सर्वाधिकार लेखकाधीन)
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