कोई काम नहीं आते ये .... / आलेख / दीपक आचार्य

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हम सभी लोगों का भ्रमों से सीधा और प्रगाढ़ रिश्ता रहा है। एक औसत इंसान अपनी पूरी जिन्दगी में नब्बे फीसदी संबंध केेवल इसलिए बनाता है, बरकरार र...

हम सभी लोगों का भ्रमों से सीधा और प्रगाढ़ रिश्ता रहा है। एक औसत इंसान अपनी पूरी जिन्दगी में नब्बे फीसदी संबंध केेवल इसलिए बनाता है, बरकरार रखना चाहता है क्योंकि उसे उम्मीद होती है ये संबंध कभी न कभी किसी काम जरूर आएंगे।

कुछ काम तात्कालिक होते हैं जिनमें संबंध बनाने की जल्दबाजी होती है और इसके लिए हम लोग सामने वाली की रुचि, स्वभाव और चाहत का पूरा-पूरा अध्ययन करते हुए उसे वही सब कुछ परोसते रहते हैं जो उसका मनमाफिक हो। इससे कोई भी पसीज जाता है या प्रभावित हो जाता है लेकिन आत्मीयता फिर भी कायम नहीं हो पाती।

इनमें भी अधिकांश लोग इस मनोवृत्ति के होते हैं कि जो कुछ बिना खर्च किए मुफत का मिल रहा है, उसे पाते रहो, हमारा अपना क्या जा रहा है। ये सब कुछ पाने और हजम करने वाले, सभी का हर तरह से इस्तेमाल करने वाले लोग शातिर किस्म के होते हैं जिन्हें अपने स्वार्थ, मुफत की सुख-सुविधाओं से ही मतलब होता है और इसलिए ये एकतरफा आवक के सारे द्वार हमेशा खुले रखते हैं।

इस प्रजाति के लोगों को किसी की मानवीयता, संवेदनाओं और मर्यादाओं से कोई सरोकार नहीं होता। ये केवल एकतरफा छद्म संबध्ांों में रमे रहते हुए आत्मीयता होने का महाभ्रम बनाए रखते हैं और जब तक इन्हें काम होता है या साथ रहने की मजबूरी हो, तब तक ये अपने आपको संवेदनशील, आत्मीय, सहिष्णु, सहयोगी और सहृदय होने का भ्रम बनाए रखते हैं और यही प्रयास करते रहते हैं कि उनकी असलियत का पता औरों को न लग पाए व आदर-सम्मान, श्रद्धा, मुफतिया खान-पान, रहन-सहन और आतिथ्य सब कुछ बिना किसी झंझट के प्राप्त होता रहे। इनमें कोई कमी-बेशी या बाधा न आए।

असंख्यों लोग हैं जो इसी तरह दूसरों को उल्लू बना-बना  कर और भ्रमित करते हुए  अपने स्वार्थ पूरे कर रहे हैं और सीधे-सादे, सज्जनों और भोले लोगों को गुमराह करते रहते हैं। बहुत सारे बड़े-बड़े और स्वनामधन्य महान लोगों का आदतन चरित्र ऎसा ही है।

जो इस सत्य को जान लेता है वह सारे भ्रमों से दूर हो जाता है लेकिन अधिकांश लोग इन्हें समझ नहीं पाते और हमेशा किसी न किसी के मोहपाश में फंसे रहने के आदी हो जाते हैं और अन्ततः पछताते हैं। खूब सारे लोग अपनी नाकामियों, गलत कामों और कामचोरी को छिपाने के लिए भी दूसरों की चापलुसी और पाँव धोक से लेकर सर्वस्व समर्पण के लिए जिन्दगी भर उतावले और उत्साही बने रहते हैं।

आज इसकी खुशामद तो कल दूसरे की। इनके आराध्य और श्रद्धा पात्र ही बदलते हैं, स्वाभिमानहीन कर्म और घोर-घृणित दासत्व की सभी श्रेणियों की विलक्षण परंपराएं सभी के साथ निभाते रहते हैं। और इन्हीं तरह के आशावादी लोगों का फायदा वे लोग उठाते रहते हैं जिन्हें लगता है कि वे राजसी ठाठ और मुफतिया आनंद पाने के लिए ही इस धरती पर अवतरित हुए हैं और दुनिया के सारे लोग उनकी सेवा-चाकरी और गुलामी के लिए।

इन लोगों को लगता है कि वे केवल पाने ही पाने के लिए पैदा हुए हैं और वह भी बिना मेहनत के सब कुछ मुफत का जैसे कि उनके बाप-दादा इनके लिए कमाकर औरों के पास धरोहर संरक्षण के लिए छोड़ गए हों।

ऎसे लोगों की कोशिकाओं, ऊत्तकों रक्त और हाड़-माँस से लेकर सारे अंग-उपांगों का परीक्षण किया जाए तो इनमें अपनी कमाई का कतरा तक न मिले, सब कुछ पराया और परायों का।  फिर जिस इंसान का निर्माण भी परायों की बुनियाद पर हुआ हो, उन लोगों से अपनेपन की कल्पना भी कदापि नहीं की जा सकती।

ये किसी के नहीं हो सकते, न इनकी किसी के प्रति कोई आत्मीयता हो सकती है। यही कारण है कि किसी एक आनुवंशिक, मानसिक और शारीरिक मर्यादा रेखा से मुक्त होकर भटकाव की श्रेणी में आ जाने वाले ये लोग जिन्दगी भर आवाराओं की तरह फ्रीस्टाईल होकर भटकते ही रहते हैं। और निरन्तर भटकाव के इस दौर में उच्च श्रेणी के भिखारियों की तरह जहाँ से जो मिल जाता है, उसे ग्रहण करते हुए टाईमपास करते रहते हैं।

बहुतेरे अभिजात्यों में इन्हीं प्रकार के लक्षणों की भरमार होती है। एक सामान्य इंसान उस हर व्यक्ति का इंसान मानता है जो उसके लिए किसी न किसी रूप में काम आया हो, और कुछ नहीं तो किसी का माधुर्यपूर्ण व्यवहार ही मिल  जाए तो जिन्दगी भर याद रखता है लेकिन ये दोहरे-तिहरे चरित्र वाले और दूसरों के पैसों पर मौज उड़ाने वाले कभी किसी का अहसान नहीं मानते। क्योंकि इनका साफ मानना होता है कि जो लोग उनकी सेवा-चाकरी कर रहे हैं वह उनका धर्म और फर्ज दोनों ही है और ऎसा करते हुए वे कर्तव्य कर्म का निर्वाह ही कर रहे हैं, कोई अहसान थोड़े ही कर रहे हैं।

हमारे इन भ्रमों की अंतिम स्थिति यह होती है कि हमें काफी समय बाद यथार्थ का पता चलता है और इस बात का खूब पछतावा होता है कि हमने उन लोगों के पीछे समय, परिश्रम और पैसा गँवा दिया जो किसी काम के नहीं थे, हमें उल्लू बनाते रहे और हम बनते रहे। अपनी मूर्खताओं और नासमझी के कारण हुई गलतियों के लिए हम अपने आपको भी माफ नहीं कर पाने की स्थिति में होते हैंं।

इस वस्तुस्थिति का निरपेक्ष और सटीक मूल्यांकन करना हो तो अपने अब तक के जीवन में अपने संपर्क में आए महान, बड़े और अभिजात्य महानुभावों की सूची तैयार करें और यह देखें कि ये लोग हमारे कितने काम आ पाए हैं।

इनमें उन लोगों को भी परखें जो किसी समय हमारे आस-पास, साथ या अपने क्षेत्र में रहे हैं, जिनकी हमने जी भर कर सेवा की हो, जिन पर बहुत कुछ लुटा दिया हो, जिन्हें हमने खूब आवभगत करते हुए अपनी पूरी की पूरी श्रद्धा तक उण्डेल दी हो।  इनमें से कितने लोग ऎसे हैं जिन्होंने हमें याद किया हो, होली-दीवाली पर ही सही।

हमें आश्चर्य होगा कि इनमें से कोई ऎसा नहीं होता जो कि हमें याद करता हो। हालात ये हैं कि इस प्रजाति के लोग किसी काम के नहीं होते और न ये किसी के काम आ सकते हैंं। इन लोगों को सिखाया ही यह जाता है कि कैसे लोगों का उपयोग अपने हक में करें। यह अलग बात है कि स्वार्थ के तंतु यदि लगातार जुड़ हुए हों तो इनसे दोस्ती हमेशा बरकरार रहती है लेकिन जहाँ एकतरफा संबंध हों वहां एक ही पक्ष फायदे में रहा करता है, और वह शोषक की श्रेणी में शुमार हो जाता है।

दुनिया में बहुत सारे लोग हैं जो संसार भर से यह अपेक्षा रखते हैं कि उन्हें मेहमानों की तरह श्रद्धा व आदर-सम्मान दिया जाए, पालकियों की सवारी मिले और दुनिया के लोग कहारों की तरह उन्हें भ्रमण कराए रखें। 

इस प्रजाति के संवेदनहीन लोग अब बढ़ते जा रहे हैं। और हम हैं कि इन लोगों को अपना मानकर, अपने लिए काम आने वाला मानकर इन्हें अपने माँ-बाप, दादा-दादी, नाना-नानी और गुरुजनों-बुजुर्गों से भी अधिक आदर-सम्मान देते हुए इनके पीछे दीवाने हो रहे हैं।

जबकि शाश्वत सत्य यह है कि ये महान कहे जाने वाले लोग बिना स्वार्थ के किसी के काम नहीं आते। इस सत्य को समझने की आवश्यकता हम सभी को है वरना अर्से बाद पछतावे के सिवा हमारे पास कुछ नहीं बचेगा। इंसान को उतना ही सम्मान दें जिसके लिए वह पात्र है, आसमान की ऊँचाइयों पर न चढ़ायें वरना ये स्काईलैब कभी भी हम पर गिर सकते हैं।

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दीपक आचार्य के प्रेरक आलेख inspirational article by deepak aacharya

- डॉ0 दीपक आचार्य

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