दीपक आचार्य का आलेख - शरीर का क्षरण करता है मुफ्त का खान-पान

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  जन्म लेने के बाद मृत्यु होने तक शरीर को संभाल कर हृष्ट-पुष्ट बनाए रखने और स्वस्थ रखने के सभी प्रकार के प्रबन्ध करना इंसान का अपना व्यक्तिग...

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जन्म लेने के बाद मृत्यु होने तक शरीर को संभाल कर हृष्ट-पुष्ट बनाए रखने और स्वस्थ रखने के सभी प्रकार के प्रबन्ध करना इंसान का अपना व्यक्तिगत उत्तरदायित्व है। जब तक आत्मनिर्भरता प्राप्त न हो जाए तब तक हमारे शरीर की देखभाल घर-परिवार वालों के जिम्मे होती है अथवा अन्य संरक्षकों के जिम्मे।

समझदार होने और अपने पैरों पर खड़े हो जाने के बाद अपने शरीर का पोषण करने के लिए खान-पान और रहन-सहन जैसे तमाम विषयों की जिम्मेदारी हमारी होती है। इसके लिए हम सभी के लिए भगवान और प्रकृति ने अपने-अपने हिसाब से हमें हुनर और ज्ञान दिया है जिससे प्राप्त पुरुषार्थ के सहारे हम जीवन चलाते हैं।

अपने जीवन के लिए खान-पान, पहनने के लिए कपड़े और रहने के लिए छत पाने की सारी ही जिम्मेदारी हमारी अपनी ही है, इसके लिए हमें अपने पुरुषार्थ पर निर्भर रहने की जरूरत है।

हम जो कुछ खान-पान करते हैं, जो कपड़े पहनते हैं और जो कुछ ग्रहण करते हैं वह अपनी कमाई का होना जरूरी है। शरीर निर्माण और पुष्टि का सिद्धान्त यही है कि हमारा शरीर तभी बौद्धिक, मानसिक और शारीरिक रूप से सुदृढ़ एवं परिपक्व होता है जबकि उसके निर्माण में हमारी अपनी कमाई का पैसा लगा हो, हमारी मेहनत का हो, हमारे पुरुषार्थ का हो।

जिन लोगों का शरीर अपनी ही कमाई के पैसों से बना होता है उनसे बीमारियाँ दूर रहती हैं और शारीरिक सौष्ठव एवं शरीर संरचनाओं के निर्माण में मौलिकता का प्रभाव अक्षुण्ण बना रहता है। इन लोगों की संरचनात्मक मौलिकता बरकरार रहने के कारण इनका शरीर ओज से भरा होता है, चेहरे पर तेज होता है और वाणी से लेकर सभी प्रकार की कर्मेन्दि्रयों और ज्ञानेन्दि्रयों में ओज-तेज सहज ही देखा जा सकता है।

अपने आपको बनाने और विलक्षण व्यक्तित्व पाने की कोशिश तभी सफल सिद्ध हो सकती है जबकि हमारे निर्माण में अपना ही पैसा, कपड़े-लत्ते और खान-पान का उपयोग किया गया हो। इस सिद्धान्त का जो इंसान जिन्दगी भर पालन करता है वह सदा स्वस्थ, सुखी और मस्त बना रहता है और मौलिकता के सारे आयामों में खरा उतरते हुए सुखद अंत को प्राप्त होता है।

अधिकांश लोग खान-पान और उपहारों की प्राप्ति, औरों के भरोसे जीवनयापन तथा पराश्रित जिन्दगी जीने को अपनी समृद्धि का मूल कारण मानते हैं और इस वजह से रोजाना इसी कोशिश में लगे रहते हैं कि अपना पैसा बचा कर रखो, जितना दूसरों से प्रेम या चतुराई से पा सको,  लूट-खसोट कर सको, दूसरों के मत्थे मण्डते रहो, उतना अपने हित में है, हमें धेला भी खर्च नहीं करना पड़ता, हमारे लिए दूसरे लोग किसी स्वार्थ या भय के मारे खर्च कर ही दिया करते हैं।

जो लोग हर दिन हराम का खान-पान, पैसा, व्यवहार और उपहार तलाशते हैं, वे लोग भले ही भौतिक रूप से अपने आपको वैभवशाली मानने के भ्रम फैलाए रखें, इनका शरीर साथ नहीं देता, वह किसी न किसी प्रकार से क्षरण का शिकार हो ही जाता है। यह क्षरण उनके मलीन पड़ते जा रहे चेहरे, बेड़ौल और भूतहा छवि दर्शाने वाले शरीर, मैले व्यवहार, नकारात्मक स्वभाव और दुष्ट मनोवृत्ति से अच्छी तरह भाँपा जा सकता है। इनका चेहरा देखने से ही इनके राक्षस होने का आभास लगने लगता है। असली इंसान इन लोगों से हमेशा दूरी बनाए रखने की कोशिश करते रहते हैं।

शरीर निर्माण और विकास के लिए स्व पुरुषार्थ अर्जित खान-पान और रहन-सहन के सिद्धान्त का परिपालन नहीं करने वाले लोगों की जिन्दगी चार दिन की चाँदनी जैसी ही होती है। दिखने में ये लोग भले ही ऊपर से साण्ड, शेर और मायावी, प्रभावशाली, ओजस्वी और तेजस्वी दिखें, मगर इनका दिमाग और शरीर खोखला होता जाता है, इनका भीतर ही भीतर क्षरण होता रहता है।

यह तय मानकर चलना चाहिए कि शरीर की कोशिकाओं, ऊत्तकों, धमनियों, शिराओं और सभी प्रकार के अंग-प्रत्यंगों का विकास तथा इनकी परिपुष्टता तभी संभव है जबकि इन पर अपनी कमाई का पैसा लगा  हो। दूसरों की कमाई का खान-पान और व्यवहार हमारे शरीर का भला नहीं कर सकता।

ऎसा खान-पान केवल स्थूलता दे सकता है, शारीरिक आनंद और लक्ष्य की प्राप्ति कभी नहीं करा सकता। ऎसा खान-पान न जीवन रस दे सकता है, न जीवन निर्माण के सूक्ष्म तत्वों को प्रभावित कर सकता है। केवल स्थूलता के धरातल पर सोचने वाले लोगों के लिए न इंसानी मौलिकता का कोई महत्व है, न जीवन का कोई लक्ष्य है।

इन लोगों के लिए  अपने जीवन का सबसे बड़ा लक्ष्य यही है कि जो अपना है उसे संरक्षित और सुरक्षित करते चलो,  जीवन निर्वाह के लिए औरों के भरोसे चलते रहो। यही कारण है कि ये लोग अपने उपयोग की हर वस्तु, वैभव, भोग-विलास और पैसा सब कुछ हराम का ही चाहते हैं, औरों के भरोसे ही रहते हैं और हर क्षण इसी फिराक में रहा करते हैं उनकी जिन्दगी दूसरों के सहारे चल निकले, खुद को न कोई मेहनत करनी पड़े, न धेला भर खर्च करना पड़े।

आम तौर पर बहुत सारे इंसान अपने आपको धनाढ्य बनाने के फेर में खुद के पैसों को खर्च करने से बचते हैं और हर मामले में औरों पर आश्रित रहा करते हैं। कुछ लोग अपने भय और प्रलोभन का इस्तेमाल करते हैं, कुछ लोग अपने पॉवर का प्रयोग करते हैं और ढेरों ऎसे हैं जो दूसरे लोगों के दम पर कूदते हुए अपनी चवन्नियाँ चला रहे हैं।

इन सभी किस्मों के लोगों के जीवन का अध्ययन किया जाए तो यही सामने आएगा कि ऎसे लोग अपनी इंसानी मौलिकता खो कर ऎसे हो गए कि किसी काम के नहीं रहे, न अपने रहे, न जमाने के रहे, समाज और देश के लिए इनका होना या न होना वैसे भी कोई मायने नहीं रखता।

जितना पैसा हमारे शरीर और जीवन पर स्वाभाविक रूप से खर्च होना चाहिए उसे बचाने के लिए परायों के भरोसे रहने और हरामखोरी करने की कोशिश में हम सफल भले ही हो जाएं, उतना पैसा किसी और रास्ते बाहर निकलेगा ही निकलेगा।

यह पैसा या तो बीमारी में बाहर जाएगा या फिर गलत धंधों, नशे अथवा आपराधिक कृत्यों को ढंकने में जाएगा। ऎसा एक भी इंसान नहीं होगा जिसने अपने लिए पैसे बचाने में सफलता हासिल कर ली हो और मरते दम तक पैसे बचे हुए संरक्षित रहे हों।

जो पैसा शरीर और अपने पर खर्च होना है उसके लिए दूसरों की ओर तकियाने और परायों के भरोसे जिन्दगी चलाने की आदत न पालें, यह केवल भिखारियों के लिए ही उपयुक्त है, हम पुरुषार्थी लोगों के लिए नहीं। 

और ऎसा करना ही है तो अपने आपको सार्वजनीन तौर पर भिखारी घोषित कर डालें, इसके बाद कोई दोष नहीं है, चाहे दूसरों के सहारे जिन्दगी चलाते रहें या हरामखोरी करते हुए पैसों का भण्डार जमा करते रहें। जीवन का आनंद पाना चाहें तो पराया खान-पान, उपहारों का मोह और हराम की कमाई संग्रह करना छोड़ें, पुरुषार्थी बनें, भिखारी नहीं।

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दीपक आचार्य के प्रेरक आलेख inspirational article by deepak aacharya

- डॉ0 दीपक आचार्य

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