खुद का सब कुछ बचाये रखो, परायों का इस्तेमाल करो और जहां तक हो सके वहाँ मुफत का माल उड़ाओ, मुफत की तफरी करो, सब कुछ मुफत ही मुफत पाने की चेष...
खुद का सब कुछ बचाये रखो, परायों का इस्तेमाल करो और जहां तक हो सके वहाँ मुफत का माल उड़ाओ, मुफत की तफरी करो, सब कुछ मुफत ही मुफत पाने की चेष्टा करो। वन वे ट्रॉफिक के लिए निरन्तर लगे रहो, जावक के सारे रास्ते बंद कर दो, आवक के तमाम रास्तों, गलियारों और पिछले दरवाजों को खुले रखो, और तलाशते रहो नए-नए आवक के दरवाजे।
हर दिन यही कोशिश रहनी चाहिए कि कहाँ से कुछ अपने लिए पाने का जुगाड़ कर सकें, दुनिया का हर आवक भरा रास्ता अपनी ही तरफ आना चाहिए। हर दिन-हर क्षण एक ही एक चिन्तन यही कि अपना घर भरना चाहिए, अपने बैंक बैलेंस और लॉकर भरे रहें, अपनी ही अपनी तूती बोलती रहे।
इसी तरह की सोच रखने वाले बहुत सारे लोग आजकल सभी स्थानों पर पूर्ण प्रतिष्ठा के साथ विद्यमान हैं जिनकी पूरी जिन्दगी इन्हीं विचारों और कल्पनाओं के इर्द-गिर्द घूमती रहती है। ये लोग हर क्षण इसी सोच में रहा करते हैं कि किस तरह पूरी दुनिया को अपने लिए इस्तेमाल किया जाए।
इन लोगों की यही सोच रहती है कि पूरी दुनिया इनकी सेवा-चाकरी के लिए ही पैदा हुई है और जो लोग दुनिया में हैं वे उनके जरखरीद गुलाम हैं और उन्हीं के लिए सब कुछ मुफत में देने और सेवा करने के लिए हैं इसलिए इनसे जितना कुछ काम, सेवा, मुद्रा या संसाधनों का मुफतिया सहयोग लिया जाए, उतना पाने में कोई परहेज क्यों रखा जाए।
इस किस्म के लोग दुनिया में केवल माँगने और मुफत का जमा करने के लिए ही पैदा हुए हैं। मुफतलाल नाम से भले ही हम परहेज करते रहते हों, मगर मुफतिया किस्म के ये लोग सर्वत्र बेशरमी घास और गाजर घास की तरह पनपते जा रहे हैं।
हर काम और हर क्षण मुफत का ही तलाशने वाले इन लोगों की जिन्दगी को कोई नाम दिया जाए तो यह मुफतलाल से बढ़िया और कुछ हो ही नहीं सकता। अपने पुरुषार्थ का कुछ भी खर्च करना नहीं चाहते।
बहुत सारे लोग हैं जो चाय-काफी और नाश्ता, खाने-पीने से लेकर घूमने-फिरने, वाहनों का सुख पाने, आवास, विश्राम, भ्रमण, परिधानों से लेकर रोजमर्रा की सभी गतिविधियों में मुफत का तलाशते हैं। और अपने लिए ही नहीं दूसरों तथा उनके परिचितों के लिए भी मुफ्त के प्रबन्ध करने के लिए सदैव तत्पर रहा करते हैंं।
आजकल जमाने के लोग सबसे अधिक परेशान हैं तो भिखारियों से, और दूसरे इन मुफतलालों से। देश और दुनिया कोई कोना ऎसा नहीं होगा जहाँ इन दोनों प्रजातियों का कोई प्राणी न मिले। पता नहीं इंसान में यह आसुरी स्वभाव और हरामखोरी की परंपरा क्यों इतनी अधिक बढ़ती जा रही है।
पहले तो कमा खाने में नाकाबिल लोग ही दूसरों के भरोसे कभी सहानुभूति पाकर तो कभी याचना करते हुए कुछ न कुछ मांग खाते थे और इसी तरह अपना पेट भर लिया करते थे, जिन्दगी की गाड़ी को जैसे-तैसे चला लिया करते थे।
जब से हरामखोरी और परायों के भरोसे पलने-बढ़ने का युग शुरू हुआ है बड़े-बड़े और अभिजात्य कहे जाने वाले लोग उम्दा दर्जे के बेशर्म भीखमंगों की तरह पेश आने लगे हैं। कोई कहेगा मेरे मोबाइल में रिचार्ज करवा दो, कोई घर-गृहस्थी और रसोई के सामान के लिए औरों पर जिन्दा है, कोई कपड़े-लत्ते और आभूषणों की भीख मांगता रहता है, कोई पैसों का भूखा है इसलिए दुनिया भर की बेईमानी करता है, कमीशन खाता है, रिश्वतखोरी करता है, टाँका मारता है, कोई ब्लेकमेलिंग से कमा रहा है, कोई दूसरों को डरा-धमका कर या कोई न कोई प्रलोभन दिखा कर चाँदी कूट रहा है, कोई मातहतों व अधीनस्थों से जात-जात की भीख मांग रहा है, किसी को रोज होटलों में खाना पीना चाहिए और वह भी दूसरों के पैसों से, कोई गिफ्ट की महाभूख पाले हुए है, कोई साहब के नाम पर खा पी रहा है, कोई मेम साहब से परेशान है।
पुरुषार्थहीनता और कबाड़ जमा करने के मामले में बड़े-बड़े साहबों, मेमों से लेकर सारे स्वनामधन्य महान-महान लोग भी पीछे नहीं हैं। हर तरह के पुरुषार्थहीनों के जमावड़े के कारण ही संस्कार, संस्कृति और सभ्यता की जड़ों से मिट्टी हटने लगी है, समाज और देश से नैतिक चरित्र, मूल्यहीनता, सिद्धान्तहीनता और राष्ट्रीय चरित्र का ह्रास हो रहा है।
इस मामले में अब स्वाभिमानी और पुरुषार्थी लोगों का अकाल होता जा रहा है जो कि सिद्धान्तों पर जीते थे और जो कुछ करते थे वह अपने परिश्रम तथा पुरुषार्थ के बल पर। इस घोर कलिकाल में वे सारे पुरुषार्थी व स्वाभिमानी लोग धन्य हैं जो अपनी कमाई पर ही जिन्दा हैं और पराये धन-द्रव्य और संसाधनों को विष्ठा या धूल से ज्यादा नहीं समझते।
आज की तमाम विषमताओं और समस्याओं की जड़ यही है कि हम लोग दूसरों की देखादेखी वैभव पाने को उतावले होते जा रहे हैं। जबकि यह वैभव किसी काम का नहीं है। पराये वैभव की तरह अपने आपको सम्पन्न बनाने के फेर में हम लोग गलत रास्तों और अनीति का प्रयोग करने के आदी होते जा रहे हैं।
और यही कारण है कि हम अपने पास बहुत कुछ होने का दंभ भर रहे हैं मगर भीतर से खोखले होते जा रहे हैं। हमारे दिमाग में शांति नहीं है, चित्त में प्रसन्नता नहीं है, लोग हमें हृदय से स्वीकारने से कतराने लगे हैं और हम मरते दम तक भी अशांत-उद्विग्न और लालची जीवन जीने को विवश हैं।
हर मुफतलाल की यही कहानी है। जीवन में आनंद, असीम शांति और उल्लास चाहें तो मुफ्त की तलाश छोड़ें। पुरुषार्थ से सब कुछ पाने का यत्न करें। इसके लिए ईमानदारी से कर्तव्य कर्म करें, परिश्रम पर भरोसा रखें और दूसरों की ओर तकना बंद करें। भीख का प्रकार कोई सा हो, यह ईश्वर का सरासर अपमान है।
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- डॉ0 दीपक आचार्य
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(ऊपर का चित्र - धावत सिंह उइके की कलाकृति)
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