उपन्यास-सम्राट प्रेमचन्द किसी वर्ग, संप्रदाय, जाति, व्यक्ति या किसी के भी प्रति कभी संवेदनशून्य हो सकते हैं--यह बात गले के नीचे नहीं उतरती।...
उपन्यास-सम्राट प्रेमचन्द किसी वर्ग, संप्रदाय, जाति, व्यक्ति या किसी के भी प्रति कभी संवेदनशून्य हो सकते हैं--यह बात गले के नीचे नहीं उतरती। उनका सृजन-संसार इतना व्यापक है कि कोई भी अथवा कुछ भी अछूता कैसे रह सकता है। यदि उन्होंने दलित वर्ग पर व्यापक रूप से लिखा है तो उनके दलनकर्ताओं पर भी खूब चर्चा की है और उन्हें कटघरे में खड़ा किया है। यदि हिंदुओं को अपने उपन्यासों का पात्र बनाया है तो मुस्लिमों को नायक या सकारात्मक नज़रिया रखने वाला पात्र भी बनाया है और मुसलमानों के प्रति व्याप्त नकारात्मक धारणा को एक झटके में धराशायी कर दिया है। यदि धनाढ्य अभिजात्य वर्ग के व्यक्तियों को गरीबों के शोषक के रूप में चित्रित किया है तो उसी अभिजात्य वर्ग के चुनिंदा पात्रों को गरीबों का मसीहा भी बनाया है। कोई आवश्यक नहीं है कि शहरी लोगों और उनके परिवेश को ही उन्होंने महिमामंडित किया हो; गाँववालों और ग्रामीण जीवन को जितना महत्व दिया है--वह सब कुछ ग्रामीण परिवेश के संबंध में दिए गए उनके व्यापक वर्णन से ही विदित होता है। वहाँ जाति-विशेष के सदस्यों पर कोई ख़ास ध्यान दिए बिना दलित पात्र को महत्ता दी है। व्यक्ति नहीं, उसका गुण महत्वपूर्ण है। मनुष्य नहीं, मनुष्यता चाहिए। दासता, कुंठा, संत्रास और घुटन नहीं; स्वच्छदंता, स्वतंत्रता और जीवन की पूर्णता और सुकून चाहिए। एक संतुष्ट जीवन सभी के लिए अनिवार्य है--चाहे वह किसी समुदाय या वर्ग का हो, पुरुष हो या स्त्री हो। सभी वर्गों, जातियों, संप्रदायों और पुरुषों एवं स्त्रियों के बीच सामाजिक सामंजस्य होना एक पूर्ण और स्वस्थ समाज के लिए अनिवार्य है। जब सामंजस्य और तालमेल की बात चली है तो पारिवारिक स्तर पर इसकी आवश्यकता से इंकार नहीं किया जा सकता। हाँ, परिवार में यदि पुरुषों और स्त्रियों के बीच कोई सामंजस्य नहीं है तो पारिवारिक जीवन तो नरक बनता ही है, इसका दूरगामी प्रभाव पड़ोस और समाज पर भी पड़ता है जिससे सारी सामाजिक संरचना प्रच्छालित हो जाती है। प्रेमचन्द जी के उपन्यास स्त्रियों और पुरुषों के बीच ऐसे सामंजस्य और तालमेल की पड़ताल करते हैं जिससे सामाजिक व्यवस्था पुष्ट और स्थायी हो। भारत के पुरुष-प्रधान समाज में स्त्रियाँ चाहे जिस भी भूमिका में हों--बेटी हों, माँ हों, बहू हों या भाभी, ननद और देवरानी हों, उनकी वास्तविक तस्वीर रूपायित करने में प्रेमचन्द जी ने अन्य लेखकों के लिए एक चुनौतीपूर्ण कार्य किया है। क्योंकि जैसी जीवन्त नारी पात्रों का चित्रण प्रेमचन्द जी ने किया है, वैसी कहीं और नज़र नहीं आती। प्रेमचन्दोत्तर काल में चाहे वह साहित्य हो या फिल्म, प्रेमचन्द जी द्वारा परिकल्पित नारी की छवि सर्वत्र दिखाई देती है। उन्होंने स्त्रियों की सामाजिक स्थिति, उनके विभिन्न स्वरूपों और समाज में उनकी भूमिकाओं पर सोद्देश्य सोच प्रस्तुत करके भावी लेखकों के लिए एक उर्वर जमीन तैयार की। जहाँ-जहाँ कोई स्त्री पात्र उनके उपन्यासों में हमसे मुखातिब होती है, हम उसकी भूमिका का विकल्प किसी अन्य साहित्यकार में नहीं तलाश पाते हैं।
यह बात पुनः ध्यातव्य है कि प्रेमचन्द जी ने स्त्रियों के संबंध में जितने व्यापक रूप से बहुआयामी चित्र खींचा है, वैसा उनके समकालीन और पूर्ववर्ती लेखकों में दृष्टिगोचर नहीं होता। या, यूँ भी कह सकते हैं कि उन्होंने अपने उत्तरवर्ती लेखकों के लिए एक लीक बनाई और स्त्रियों के संबंध में जो विमर्श आज के दौर में चल रहा है, उसके निर्विवाद सूत्रधार प्रेमचन्द जी ही हैं। मात्र स्त्री-पात्र का सृजन करना उनका लक्ष्य नहीं था; बल्कि प्रत्येक स्त्री-पात्र के पीछे एक विचारधारा प्रस्तुत करने की एक ज़िम्मेदारी का सफल निर्वाह करना भी उनका उद्देश्य था। इसीलिए उनके उपन्यासों में पारिवारिक और सामाजिक स्तर पर नारी के विविध रूपों से हम परिचित होते हैं। अस्तु, आख़िर! इतनी विविधतापूर्ण भूमिकाओं में नारी को प्रस्तुत करने के लिए उनके पास ज्ञान का कोश कहाँ से आया? इस सवाल का जवाब उनके अनुभवों से मिलता है जिन्हें उन्होंने अपने जीवन में बटोरा था। बाल्यकाल से लेकर अपने जीवन के अंतिम क्षणों तक उनका नारी से संबंध अत्यंत जटिल और अविलगेय रहा है। अपने परिवार की नारी के साथ सामंजस्य स्थापित करने के लिए वह आजीवन संघर्षशील रहे। नारी के जिन रूपों को उन्होंने बहुत पास देखा, उनमें माँ और पत्नी प्रमुख हैं।
प्रेमचन्द जी का माता और विमाता दोनों से नज़दीक का साबका पड़ा था। उनकी जन्मदात्री माता आनन्दी देवी उन्हें सात वर्ष की अल्पायु में ही रोता-बिलखता छोड़कर परलोक सिधार गई थी और उन्हें ममता से वंचित होना पड़ा। लेकिन, अपनी माता का स्नेह और ममता वह कभी भूल नहीं सके। उनके साहित्य में उनकी माता बार-बार प्रकट होती है और उन्हें आँसुओं के सागर में सराबोर कर जाती है। गरीबी और दरिद्रता के परिवेश में पले-बढ़े प्रेमचन्द सदैव चटपटी चीजों और स्वादिष्ट मिठाइयों के लिए तरसते रहे। किंतु, माँ की स्मृति के आगे ये सारी चीजें भी उन्हें नहीं लुभा पाती थीं। अपनी कहानी 'प्रेरणा' में अपनी माँ की स्मृतियों को वह कुछ इस तरह सहेज कर रखते हैं :
"बच्चों में प्यार की जो भूख होती है--दूध, मिठाई और खिलौनों से भी ज़्यादा मादक--जो माँ की गोद के सामने संसार की निधि की भी परवाह नहीं करतीं..."[1]
ग्रामीण परिवेश में कृषक समाज के अति निकट रहते हुए उनके पिता मुंशी अजायब राय डाकखाने के एक मामूली मुलाजिम थे जो अपने बच्चों की इच्छाओं को संतुष्ट करने में पूरी तरह असक्षम थे। एक तरफ गरीबी तो दूसरी ओर घर की व्यवस्थापिका माँ की अनुपस्थिति। बड़ी विकट स्थिति थी प्रेमचन्द के सामने। अस्तु, बालक प्रेमचन्द के ऊपर उस समय दुःख का पहाड़ टूट पड़ा जब अजायब राय ने दूसरा विवाह किया। सौतेली माता का दुर्व्यवहार वह कभी भी भुला नहीं पाए। चुनांचे, प्रेमचन्द जी ने सौतेली माता के अत्याचार और कठोर व्यवहार को तो झेला था; लेकिन, माता के स्वरूप की कभी भर्त्सना नहीं की। हाँ, सगी माँ की अनुपस्थिति उनके दिल को हमेशा कचोटती रही।
जीवन-चरित
लेखकीय नाम: डॉ. मनोज मोक्षेंद्र {वर्ष 2014 (अक्तूबर) से इस नाम से लिख रहा हूँ। इसके पूर्व 'डॉ. मनोज श्रीवास्तव' के नाम से लिखता रहा हूँ।}
वास्तविक नाम (जो अभिलेखों में है) : डॉ. मनोज श्रीवास्तव
पिता: श्री एल.पी. श्रीवास्तव,
माता: (स्वर्गीया) श्रीमती विद्या श्रीवास्तव
जन्म-स्थान: वाराणसी, (उ.प्र.)
शिक्षा: जौनपुर, बलिया और वाराणसी से (कतिपय अपरिहार्य कारणों से प्रारम्भिक शिक्षा से वंचित रहे) १) मिडिल हाई स्कूल--जौनपुर से २) हाई स्कूल, इंटर मीडिएट और स्नातक बलिया से ३) स्नातकोत्तर और पीएच.डी. (अंग्रेज़ी साहित्य में) काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी से; अनुवाद में डिप्लोमा केंद्रीय अनुवाद ब्यूरो से
पीएच.डी. का विषय: यूजीन ओ' नील्स प्लेज: अ स्टडी इन दि ओरिएंटल स्ट्रेन
लिखी गईं पुस्तकें: 1-पगडंडियां (काव्य संग्रह), वर्ष 2000, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, न.दि., (हिन्दी अकादमी, दिल्ली द्वारा चुनी गई श्रेष्ठ पाण्डुलिपि); 2-अक्ल का फलसफा (व्यंग्य संग्रह), वर्ष 2004, साहित्य प्रकाशन, दिल्ली; 3-अपूर्णा, श्री सुरेंद्र अरोड़ा के संपादन में कहानी का संकलन, 2005; 4- युगकथा, श्री कालीचरण प्रेमी द्वारा संपादित संग्रह में कहानी का संकलन, 2006; चाहता हूँ पागल भीड़ (काव्य संग्रह), विद्याश्री पब्लिकेशंस, वाराणसी, वर्ष 2010, न.दि., (हिन्दी अकादमी, दिल्ली द्वारा चुनी गई श्रेष्ठ पाण्डुलिपि); 4-धर्मचक्र राजचक्र, (कहानी संग्रह), वर्ष 2008, नमन प्रकाशन, न.दि. ; 5-पगली का इन्कलाब (कहानी संग्रह), वर्ष 2009, पाण्डुलिपि प्रकाशन, न.दि.; 6. 7-एकांत में भीड़ से मुठभेड़ (काव्य संग्रह--प्रतिलिपि कॉम), 2014; अदमहा (नाटकों का संग्रह--ऑनलाइन गाथा, 2014); 8--मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में राजभाषा (राजभाषा हिंदी पर केंद्रित), शीघ्र प्रकाश्य; 9.-दूसरे अंग्रेज़ (उपन्यास), शीघ्र प्रकाश्य
--अंग्रेज़ी नाटक The Ripples of Ganga, ऑनलाइन गाथा, लखनऊ द्वारा प्रकाशित
--Poetry Along the Footpath अंग्रेज़ी कविता संग्रह शीघ्र प्रकाश्य
--इन्टरनेट पर 'कविता कोश' में कविताओं और 'गद्य कोश' में कहानियों का प्रकाशन
--महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्याल, वर्धा, गुजरात की वेबसाइट 'हिंदी समय' में रचनाओं का संकलन
--सम्मान--'भगवतप्रसाद कथा सम्मान--2002' (प्रथम स्थान); 'रंग-अभियान रजत जयंती सम्मान--2012'; ब्लिट्ज़ द्वारा कई बार 'बेस्ट पोएट आफ़ दि वीक' घोषित; 'गगन स्वर' संस्था द्वारा 'ऋतुराज सम्मान-2014' राजभाषा संस्थान सम्मान; कर्नाटक हिंदी संस्था, बेलगाम-कर्णाटक द्वारा 'साहित्य-भूषण सम्मान'; भारतीय वांग्मय पीठ, कोलकाता द्वारा साहित्यशिरोमणि सारस्वत सम्मान (मानद उपाधि)
"नूतन प्रतिबिंब", राज्य सभा (भारतीय संसद) की पत्रिका के पूर्व संपादक
लोकप्रिय पत्रिका "वी-विटनेस" (वाराणसी) के विशेष परामर्शक, समूह संपादक और दिग्दर्शक
हिंदी चेतना, वागर्थ, वर्तमान साहित्य, समकालीन भारतीय साहित्य, भाषा, व्यंग्य यात्रा, उत्तर प्रदेश, आजकल, साहित्य अमृत, हिमप्रस्थ, लमही, विपाशा, गगनांचल, शोध दिशा, अभिव्यंजना, मुहिम, कथा संसार, कुरुक्षेत्र, नंदन, बाल हंस, समाज कल्याण, दि इंडियन होराइजन्स, साप्ताहिक पॉयनियर, सहित्य समीक्षा, सरिता, मुक्ता, रचना संवाद, डेमिक्रेटिक वर्ल्ड, वी-विटनेस, जाह्नवी, जागृति, रंग अभियान, सहकार संचय, प्राइमरी शिक्षक, साहित्य जनमंच, अनुभूति-अभिव्यक्ति, अपनी माटी, सृजनगाथा, शब्द व्यंजना, अम्स्टेल-गंगा, शब्दव्यंजना, अनहदकृति, ब्लिट्ज़, राष्ट्रीय सहारा, आज, जनसत्ता, अमर उजाला, हिंदुस्तान, नवभारत टाइम्स, दैनिक भास्कर, कुबेर टाइम्स आदि राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं, वेब-पत्रिकाओं आदि में कम से कम 2500 से अधिक बार प्रकाशित
आवासीय पता:--सी-66, विद्या विहार, नई पंचवटी, जी.टी. रोड, (पवन सिनेमा के सामने), जिला: गाज़ियाबाद, उ०प्र०, भारत. सम्प्रति: भारतीय संसद में प्रथम श्रेणी के अधिकारी के पद पर कार्यरत
मोबाइल नं० 09910360249, 07827473040, 08802866625
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