परिवर्तन का संदेश पर्व मकर संक्रान्ति / आलेख / दीपक आचार्य

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हर बार की तरह आज फिर आ गई मकर संक्रान्ति। आम तौर पर हर संक्रान्ति परिवर्तन का कोई न कोई संदेश लेकर आती है, बदलाव का संकेत आरंभ कर देती है ...

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हर बार की तरह आज फिर आ गई मकर संक्रान्ति। आम तौर पर हर संक्रान्ति परिवर्तन का कोई न कोई संदेश लेकर आती है, बदलाव का संकेत आरंभ कर देती है और साफ-साफ दर्शा देती है कि प्रकृति करवट ले रही है, परिवेश की रंगत बदलने लगी है, हवाओं का रुख परिवर्तित होने लगा है, और प्रकृति से लेकर पिण्ड तक सब कुछ बदलाव की हद में आ चुका है।

कोई सहजता से स्वीकार ले तो ठीक है, वरना असहज होकर भी स्वीकारना तो पड़ेगा ही। हर संक्रमण काल कुछ न कुछ नयापन लेकर आता है, हमें संदेश देता है कि कुछ-कुछ  बदलने की प्रक्रिया आरंभ कर लो, अपने आपको जानों और प्रकृति के संकेतों को समझ कर साथ-साथ बढ़ो, ताकि पिण्ड और ब्रह्माण्ड की तरंगों में समानान्तर सामन्जस्य बना रह सके।

मकर संक्रान्ति भी पूरे वर्ष की बड़ी और निर्णायक संक्रान्ति है जो लोक में प्रचलित उत्तरायण का आगाज करती है और हर पिण्ड का सूरज के साथ संबंध जोड़ कर इन्द्रधनुषी रोशनी के साथ जीवन के सुनहरे पलों का आगाज करती है।

कोई सूरज को मात्र ग्रहों का राजा या स्थूल प्राकृतिक ग्रह मानता हुआ संक्रमण काल के महत्व को न समझे, तो दोष किसी और का नहीं उसका ही है। बहुत सारे लोग सूरज से शरमा कर ऎसे रहने लगे हैं जैसे कि सूरज की निगाह पाते ही सौंदर्य छीन जाएगा, लावण्य बह जाएगा और पसंद करने वाले लोग छिटक जाएंगे।

कुछ दशकों से हम लोग साल भर आते रहने वाले उत्सवों, पर्र्वों, संक्रान्तियों और विशिष्ट अवसरों को यों ही हल्के रूप में लेकर या तो भार उतार रहे हैं, औपचारिकताओं का निर्वाह भर कर रहे हैं अथवा औरों को दिखाने के लिए ही सारी माथापच्ची कर रहे हैं।

न हमें अपने तिथि-पर्व और उत्सवों की जानकारी है, न हमारी नई पीढ़ी को। इसी अज्ञानता और जानबूझकर की जा रही सांस्कृतिक उपेक्षा का फायदा उठाकर धर्म के नाम पर धींगामस्ती करने वाले सांसारिकता और भोग-विलास में ईश्वर को तलाशने वाले ठेकेदारों और बाबाओं को धर्म की वास्तविकताओं से कोई सरोकार नहीं रहा।

दूसरी ओर बाजारवाद के भूत-पलीतों, नर पिशाचों और राक्षसों ने हमारी पर्व-परंपरा से सनातन और शाश्वत वैज्ञानिक आधारों से जुड़ी हुई सारी परंपराएं छीन ली हैं, शुचिता भंग कर दी है, मूल मर्म से भटका कर हमारे तमाम आयोजनों को धूमधड़ाके, कानफोडू शोरगुल और बाजारवाद की भेंट चढ़ा दिया है जहाँ किसी भी पर्व-त्याहोर और उत्सव का संबंध मन के आनंद से नहीं बल्कि रुपए-पैसों से जोड़ दिया गया है। 

पैसा है तो मजा आएगा वरना ठन-ठन गोपाल। इस दौर ने सारे धार्मिक, सामाजिक और परिवेशीय उत्सवों का इतना अधिक कबाड़ा करके रख दिया है कि गरीब और अल्प आय के लोगों के लिए इन उत्सवों का न ऎकान्तिक आनंद रहा है न सार्वजनीन।  फिर पैसों के आधार पर बिकने वाले बाजारी त्योहारों का आकर्षण ही अब बचा रह गया है, भीतर से उमंग भरी आत्मा गायब हो चली है।

जबकि भारतीय परंपरा में हर उत्सव-पर्व और त्योहार में न पैसे का महत्व रहा है, न इसके आधार पर आनंद में न्यूनाधिकता का। हर इंसान की इन आयोजनों में बराबर की भागीदारी रही है। उत्सवी मंच पर न कोई छोटा-बड़ा, न कोई ऊँचा-नीचा, न कोई प्रभावशाली है, न सामान्य। क्योंकि इन सभी आयोजनों में प्रधान तत्व ईश्वर रहता है जिसके सान्निध्य में सब बराबर हैं।

जब तक यह भाव बना रहा तब तक भारतीय जनमानस का हर उत्सव, पर्व और त्योहार सार्वजनीन आनंद का पर्याय बना रहा। जैसे ही इन सामुदायिक मूल्यों का क्षरण होना आरंभ हो गया, तभी से हमारे उत्सव, पर्व और त्योहार, संक्रांति काल आदि सभी का महत्व घटता चला गया। और अब जो कुछ हो रहा है वह केवल दिखावा, पाखण्ड, पैसा पानी की तरह बहाने और कमाने, लूट-खसोट और मात्र औपचारिकता निर्वाह होकर ही रह गया है।

अब इसमें बाजारवाद और पूंजीवाद हावी है। जनमानस की भावनाओं और मूर्खताओं को भुनाने के लिए बड़े-बड़े सौदागर और साम्राज्यवादी विदेशी ताकतें हमें उल्लू बनाने के लिए आधुनिकताओं भरे फैशन और लुभावने लालच जोड़ती चली जा रही हैं। और हम मूर्ख और आडम्बरी लोग उनके नापाक इरादों से अनभिज्ञ होकर या किसी निजी स्वार्थ में डूबे होकर जानबूझकर उनके मोहपाशों में अपने को जकड़ते जा रहे हैं।

चाहे चाईनीज मांझा हो या दूसरे खिलौने। मकर संक्राति  उत्सव के नाम पर अब केवल पतंगबाजी की धमाल और कानफोड़ शोरगुल ही बचा है, बाकी सब कुछ गायब है जो अतीत में पूरी विशिष्टता और आकर्षण के साथ विद्यमान रहकर सर्वत्र आनंद और उल्लास की वृष्टि करता था।

अब न परिवेश में उमंग दिखाई दे पा रही है, न हमारे हृदय में उत्साह है। त्योहार, पर्व और उत्सव आकर चले जाते हैं पर कहीं कोई हलचल नहीं होती, कोई बदलाव नहीं आ पाता इंसान की जिन्दगी, स्वभाव और व्यवहार में। जीवन से अतृप्त और वासनात्मक मनोरंजन के भूखे लोगों के लिए लोकानुरंजन का माध्यम होकर रह गए हैं ये आयोजन।

उत्सवों के नाम पर बाजारी हलचलें जरूर उछालें मारती रहती हैं, पूंजीपतियों को सुकून देती रहती हैं और आम आदमी ठगा सा रहकर उत्सव जाने के बाद मायूस हो जाता है।

मकर संक्रांति जैसा पर्व छह माह के उत्तरायण का आगाज पर्व है। बावजूद इसके अब केवल पतंगबाजी और आतिशबाजी ही दिखती है।  भिखारियों की परिक्रमा,  करुण भाव से भीख मांगते हुए अपने खड़िये और झोले भरना, धर्म और पुण्य के नाम पर भीख जमा करने तक ही सीमित हो गया है और हम हैं कि अपने आपको कर्ण जैसा दानी मानी कर आत्म मुग्ध होते हुए अगले दिन से पापों में रम जाते हैं।

हमें पता है कि भिखारियों को पुण्य करने से पाप खत्म हो जाएंगे। इसी महानतम भ्रम में बहुत बड़े-बड़े और महा कृपण लोग भी नरक की यातना से भयभीत होकर दान-पुण्य कर लिया करते हैं।  लोग साल भर गायों और मवेशियों पर डण्डे उछालते रहेंगे, इन पशुओं को कत्लखानों में ले जाते हुए चुपचाप देखते रहेंगे, गौहत्यारों के साथ खाएंगे-पीएंगे, काम करेंगे, उनकी चरणवंदना करते रहेंगे और उनका साथ देते रहेंगे, और मकर संक्रान्ति के दिन इतना चारा और खाद्य सामग्री सड़कों पर डाल देंगे कि बस।

धरती पर जीवों से पुण्य कमाने के फेर में इतना सारा दान-पुण्य और आसमान में परिन्दों की निर्मम हत्या के लिए सारे घातक काम करने में पीछे नहीं। पतंगों को ऊँचाई देने और खुद के अहंकार को पुष्ट करने दूसरों की पतंग काटने के फेर में चाईनीज और धात्विक माँझे का तगड़ा नेटवर्क पूरे आसमान में पसरा दिया करते हैं, इनमें फंस कर पक्षियों की जो दुर्गति होती है, वह हम सनातनियों, परम अहिंसकों और जीवदया का ढोंग करने वालों को नहीं दिखती।

और तो और बड़े सवेरे से लेकर रात तक  डीजे पर गीत-संगीत, आतिशबाजी की घातक गूंज और प्रदूषित हवाओं से आनंद पाने के चक्कर में हम पक्षियों को कहीं का नहीं रहने देते।  इस मामले में हम सब पाखण्डी, धूर्त और दुराचारी हैं जो खुद के आनंद के लिए औरों के डेरे बर्बाद कर रहे हैं, शांति भंग कर रहे हैं।

मकर संक्रान्ति के नाम पर हम सारे लोग जिस तरह बेशर्म होकर उधममस्ती और नालायकियों के साथ अपने आसुरी भावों का नंगा नाच कर रहे हैं उसे देख कर यही कहा जा सकता है कि हम लोग उत्सवों के नाम पर जमाने भर को हैरान-परेशान करने के लिए ही पैदा हुए हैं।

तकरीबन हर उत्सव में हम अपनी मर्यादाहीन धींगामस्ती का परिचय देकर जिस आनंद को  पाने के लिए व्याकुल होते हैं, वह आनंद नहीं बल्कि राक्षसी ताण्डव ही है। मकर संक्रान्ति के मूल मर्म को आत्मसात करें और भारतीय संस्कृति की सनातन परंपराओं का अवलम्बन करें, तभी आज के दिन का महत्व है।

सभी को मकर संक्रमण पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं ....

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दीपक आचार्य के प्रेरक आलेख inspirational article by deepak aacharya

- डॉ0 दीपक आचार्य

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रचनाकार: परिवर्तन का संदेश पर्व मकर संक्रान्ति / आलेख / दीपक आचार्य
परिवर्तन का संदेश पर्व मकर संक्रान्ति / आलेख / दीपक आचार्य
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रचनाकार
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