सदा याद रहेंगे रवीन्द्र कालिया पंजाब के हिंदी साहित्यकार जिनके बगैर हिंदी साहित्य अधूरा है ,उनमें एक रत्न की तरह शामिल थे रवीन्द्र कालिया।...
सदा याद रहेंगे रवीन्द्र कालिया
पंजाब के हिंदी साहित्यकार जिनके बगैर हिंदी साहित्य अधूरा है ,उनमें एक रत्न की तरह शामिल थे रवीन्द्र कालिया। वे जी हिंदी के साठोत्तरी साहित्य आंदोलन के प्रमुख हस्ताक्षर थे। कल दिल्ली के गंगाराम अस्पताल में उन्होंने जीवन की अंतिम सांस ली। अभी पिछले साल उनकी पुस्तक 'ग़ालिब छूटी शराब ' पढ़ रहा था तो जाना कि पंजाब के जालंधर शहर के क्या मायने है हिंदी साहित्य में। मोहन राकेश ,उपेन्द्रनाथ अश्क़ , जगदीश चन्द्र माथुर ,भीष्म साहनी ,यशपाल ,गुरुदत्त,कुमार विकल,कृष्णा सोबती आदि हिंदी साहित्य के आधार स्तम्भ हैं और उनका लेखन साहित्य की शाश्वतता का प्रतीक बन चूका है।
हिंदी साहित्य में रवींद्र कालिया की ख्याति उपन्यासकार, कहानीकार और संस्मरण लेखक के अलावा एक ऐसे बेहतरीन संपादक के रूप में है , जो मृतप्राय: पत्रिकाओं में भी जान फूंक देते थे. रवींद्र कालिया हिंदी के उन गिने-चुने संपादकों में से एक थे , जिन्हें पाठकों की नब्ज़ और बाज़ार का खेल दोनों का पता था. 11 नवम्बर, 1939 को जालंधर में जन्मे रवीन्द्र कालिया भारतीय_ज्ञानपीठ के निदेशक पद से सेवानिवृत्त हुए , उन्होंने ‘नया ज्ञानोदय’ के संपादन का दायित्व संभालते ही उसे हिंदी साहित्य की अनिवार्य पत्रिका बना दिया। इस पत्रिका के प्रेम विशेषांक और युवा लेखन पर केंद्रित अंक हिंदी की नव लेखन परम्परा के आदर्श बन चुके है। वे कलकत्ता से निकलने वाली भारतीय भाषा परिषद की प्रसिद्ध पत्रिका 'वागर्थ ' के भी संपादक रहे और कई संग्रहणीय अंक निकाले। इनमें मोहन राकेश और अमरकांत पर निकले विशेष अंक आज भी याद किये जाते है। आजकल वे वर्तमान साहित्य पत्रिका जो अलीगढ़ से निकलती है ,में विभूति नारायण राय और नमिता सिंह के साथ जुड़े हुए थे। उनकी पत्नी ममता कालिया भी हिंदी की एक जानी मानी महिला लेखक हैं.
रवीन्द्र कालिया ने जहां भारतीय ज्ञानपीठ जैसे साहित्यिक संस्थान में कार्य किया वहीं नया ज्ञानोदय के संपादक रहते हुए हिंदी साहित्य में नयी कहानी और युवा लेखन को प्रोत्साहन देकर इसे समृद्ध बनाया। वे अपने जीवन में शहरी मध्यवर्ग के प्रिय लेखक रहे ,उन्होंने शहरी जीवन में संघर्षरत रहते हुए इसके परिवेश को अपने साहित्य का आधार बनाया और स्त्री पुरुष संबंधों के मनोविज्ञान को सामने लाए। उनकी प्रसिद्ध कहानियों में 'नौ साल छोटी पत्नी ',गली कूचे ,सत्ताईस साल की उम्र तक ,गरीबी हटाओ आदि ने मानवीय जीवन के ऊहापोह और मानसिकता को सामने रखा। उन्होंने अपनी रचना प्रक्रिया को एक भाषण में साझा करते हुए कहा था ,"मैंने जो कुछ लिखा अपने व्यस्ततम क्षणों में लिखा अपने आस पास की जिंदगी को आप जितना अच्छा समझ सकेंगे ,उतना ही अच्छा लिख सकेंगे ."
साहित्यकार कमलेश्वर ने उनकी संस्मरणात्मक पुस्तक ग़ालिब छूटी शराब पढ़ते हुए कहा था ,"एक ऐसे समय में ,जो आम आदमी के विरुद्ध जा रहा है,जब आदर्श वाद,राजनेताओं ,मसीहाओं पर से विश्वास उठना शुरू हो जाय,जब चीजें बड़ी बेहूदी दिखाई देने लगे ,जब संवाद का शालीन सिरा ही न मिले -ऐसे समय में लेखकों ने खुद को उधेड़ना शुरू किया। पहले अपने को तो पहचान लो . देखो तुम भी वैसे नहीं हो। रवीन्द्र कालिया की 'ग़ालिब छूटी शराब' कितनी मूल्यवान पुस्तक है। "
उन्होंने सौ से ऊपर कहानियां हिंदी साहित्य को दी। उनके श्रेष्ठ उपन्यासों में खुदा सही सलामत है ,ए.बी.सी.डी. ,17 रानाडे रोड शामिल है। उनका संस्मरण ' ग़ालिब छूटी शराब ' तो हर उस युवा के लिए पढ़ना जरुरी है जो पंजाब के हिंदी लेखन और हिंदी के स्थापित साहित्यकारों के बारे में नजदीक से जानना चाहता है। उनका यह संस्मरण कई भाषाओँ में अनूदित हो चूका है और इस संस्मरण की किस्सागोई और रोचकता इसे संस्मरण साहित्य में एक शाश्वत रचना की श्रेणी में खड़ा करती है। उनके अन्य संस्मरणों में स्मृतियों की जन्मपत्री, कामरेड मोनालिसा ,सृजन के सहयात्री शामिल हैं। ये भी सुनने में आया था कि वे ग़ालिब छूटी शराब का एक और भाग भी लिख रहे हैं। उन्होंने नींद क्यों रात भर नहीं आती, राग मिलावट माल कौंस शीर्षक से दो व्यंग संग्रह भी लिखे।
रवीन्द्र जी को उनके इस लेखन कार्य के लिए समय समय पर सम्मानित किया जाता रहा। उन्हें मिलने प्रमुख सम्मानों में उ.प्र. हिंदी संस्थान का प्रेमचंद स्मृति सम्मान, म.प्र. साहित्य अकादेमी द्वारा पदुमलाल बक्शी सम्मान, उ.प्र. हिंदी संस्था न द्वारा साहित्यभूषण सम्मान, उ.प्र. हिंदी संस्थान द्वारा लोहिया सम्मान, पंजाब सरकार द्वारा शिरोमणि साहित्य सम्मान आदि कई सम्मानों से नवाजा जाता रहा।
कुछ देर जालंधर के ही एक कालेज में तदर्थ नौकरी करने के बाद उन्हें लगा की की उनका मन साहित्यिक पत्रकारिता और लेखन में ही रमेगा। उन्होंने अपने साहित्यिक गुरु मोहन राकेश के सान्निध्य में रहकर साहित्य को जाना और एक गंभीर साहित्य जिज्ञासु की तरह बहुत पढ़ा और खूब लिखा . अपने समय के प्रसिद्ध साहित्यकारों के साथ उनकी मुलाकातें और मुठभेड़ों का विशद वर्णन उन्होंने अपने संस्मरणों में किया है . दिल्ली के काफ़ी हाउस में होती बहसों और नयी पीढ़ी के अपनी जगह तलाशने का संघर्ष उन्होंने बाखूबी बयान किया है .
आज वे भौतिक रूप से चाहे हमारे बीच नहीं है पर उन्हें साहित्य के पाठको ,लेखकों और प्रेमियों के बीच एक उदार और प्रोत्साहन देने वाले संपादक ,हंसमुख मित्र ,लेखक के रूप में सदा याद किया जाता रहेगा। पंजाब की धरती को उन पर हमेशा गर्व रहेगा। उनका यथार्थ लेखन साहित्य में सदा अमर रहेगा ,ऐसी कामना करते हुए उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि।
डॉ. हरीश कुमार ,
गोबिंद कालोनी,गली न-२
बरनाला ,पंजाब
मो -9463839801
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