किसी से भी बिना कारण के संघर्ष नहीं करना चाहिए। फिर जहाँ खून का रिश्ता हो, सहोदर हो, अपने परिवार का सदस्य हो या अपना कोई सा आत्मीयजन, किसी ...
किसी से भी बिना कारण के संघर्ष नहीं करना चाहिए। फिर जहाँ खून का रिश्ता हो, सहोदर हो, अपने परिवार का सदस्य हो या अपना कोई सा आत्मीयजन, किसी से भी बेवजह झगड़ा नहीं करना चाहिए।
भौतिकवाद से लक-दक पाश्चात्य मनोविज्ञान से घिरे आजकल के लोग पारिवारिक और कौटुम्बिक की बजाय ऎकान्तिक हो गए हैं। पहले जहाँ इकाई के रूप में सामाजिक और प्रशासनिक दृष्टि से पूरे परिवार को गिना जाता था। वहीं अब हमारा इतना अधिक क्षरण हो गया है कि सब कुछ बिखर गया है और परिवार के नाम पर सब कुछ सिमट कर पति-पत्नी और उनके बच्चे ही रह गए हैं।
यहां तक कि सरकारी लाभ पाने के फेर में हमने छोटी-छोटी इकाइयों के राशन कार्ड बनवा लिए हैं। आने वाले समय में यदि एकल लाभ देने वाली कोई योजना आ धमके तो कोई आश्चर्य नहीं कि हम सब अपने-अपने नाम से एकल राशन कार्ड बनवा लें या अपना-अपना पृथक वजूद साबित कर दें।
निष्कर्ष यह कि हमारे भीतर से परिवार, आत्मीयता और पारस्परिक सहयोग के साथ आगे बढ़ने, साथ-साथ रहकर एक-दूसरे के लिए जीने और सुख-दुःख में काम आने तथा एक-दूसरे की चिन्ता करने जैसे सारे भाव समाप्त हो गए हैं।
हमारा अब किसी पर विश्वास नहीं रहा। यों देखा जाए तो जिसका अपने माता-पिता, भाई-बहनों, घर की बहू-बेटियों और निकटस्थ रिश्तेदारों पर विश्वास नहीं होता, उसका अपने आप पर भी विश्वास नहीं होता।
बहुत सारे पति-पत्नी और बच्चों में भी पारस्परिक विश्वास की कमी देखी जाती है लेकिन मजबूरी में साथ रहने और साथ-साथ दिखने के लिए सब कुछ करना पड़ता है। और दूसरी बात यह है कि परिवार के रूप में इससे छोटी इकाई कोई और हो ही नहीं सकती पति-पत्नी और बच्चों के लिए। इसलिए अब सूक्ष्मीकरण का कोई विकल्प शेष बचा ही नहीं है।
इन तमाम स्थितियों ने इंसान के जिस सर्वोपरि चरित्र को प्रकटाया है वह है उसकी खुदगर्जी, मक्कारी, धूर्तता, स्वार्थ और केवल अपने ही अपने लिए जीने की मनोवृत्ति। अपना पड़ोसी, भाई या बहन, माता-पिता अथवा और कोई परिजन किन विपन्न हालातों में जीने को मजबूर है, उसे किस तरह की सेवा या सहयोग की आवश्यकता है, उसके जीवन की क्या समस्याएं हैं जिसे दूर किया जाना जरूरी है, इस बारे में न हमें सोचने की फुर्सत है, न कुछ कर पाने का उदार माद्दा बचा है।
हम कबाड़ियों की तरह अपने बाड़े में सब कुछ जमा करने और अपना ही राग सभी जगह अलापने के आदी हो गए हैं। हमारे जीवन से परदुःखकातरता, सहृदयता, सहिष्णुता, सेवा-परोपकार और आतिथ्य के भाव गायब होते जा रहे हैं और यही कारण है कि जिन बुनियादी तत्वों पर मानवता टिकी हुई थी उसे दीमक छाप और खुदगर्ज लोगों ने लील लिया है।
यह मानवता न परिवार के प्रति बची रही है, न कुटुम्ब के प्रति, और न ही समाज या देश के प्रति। हमें केवल अपनी जेब गरम करने, घर भरने, बैंक बेलेंस में बढ़ोतरी और बैंक लॉकरों को समृद्ध करने में ही आनंद आता है, भले ही इसके लिए कोई हमसे कुछ भी करवा ले। कितना ही झूठ बुलवा लो, किसी के भी खिलाफ फर्जी शिकायतें करवा लो, दिन-रात षड़यंत्र रचवा लो, मुफत का माल मिलना चाहिए, मुफत का खान-पान मिलना चाहिए और बिना मेहनत किए वो सब कुछ अपने नाम होना चाहिए जो इंसान को भौतिक सम्पन्न होने का दर्जा दिलाता है।
पिछले कुछ समय से पुरुषार्थ के मामले में नामर्द सिद्ध होने वाले लोग औरों की जमीन-जायदाद हड़पने, कब्जा जमाने, अतिक्रमण करने-करवाने और इनसे जुड़े दलाली के कामों में जुटे हुए हैं।
भूमि और भवन के मामले में जो लोग अधर्मी होकर अतिक्रमण और हड़पने के कामों में लगे हुए हैं उन्हें यह भान होना चाहिए कि उनकी यह करतूत भूमि पुत्र मंगल बर्दाश्त नहीं करता है। बिना वाजिब कीमत चुकाये जो लोग अतिक्रमण कर लेते हैं, दूसरों की जमीन-जायदाद हड़प लेते हैं वे लोग मंगल ग्रह के तीव्र और घातक प्रकोप का शिकार होते हैं और उन्हें पृथ्वी तत्व से संबंधित सारे विकार होने लगते हैं।
ये लोग किसी भी तरह की कानूनी या सम सामयिक कार्यवाही से भले ही बच जाएं, कब्जे की गई जमीन पर बना खेत, भूमि, दुकान या मकान कभी बरकत नहीं देते। अतिक्रमण करने वाले, जमीन-जायदाद हड़पने वाले या इससे जुड़ी गतिविधियों में मदद करने वालों लोगों का जीवन कभी सुखद नहीं हो सकता।
इन लोगों को कैंसर होने की संभावना रहती है। बिना स्व अधिकार के एक ईंच जमीन का टुकड़ा भी जो दबा लेता है वह भूमि पुत्र मंगल के अनिष्ट का भागी हो जाता है। भूमि दलाली, जमीन हड़पने और अतिक्रमण करने वाले लोगों में से अधिकांश की मौत दुर्घटना में इस तरह होती है कि उनका बहुत सारा खून भूमि पर गिरे।
इसके अलावा ऎसे लोगों के जीवन में रक्त बहने की घटनाएं अक्सर होने के साथ ही शल्य क्रिया के अवसर भी आते रहते हैं। हाल के दो-तीन दशकों में जमीन-जायदाद को लेकर घरेलू विवादों की स्थितियां बनने लगी हैं।
जिन परिवारों में जमीन-जायदाद हड़पने और भूमि व भवनों पर अनधिकृत कब्जा जमा लेने की स्थितियों के कारण विवाद होते हैं, मामले कोर्ट-कचहरी तक जाते हैं, पारिवारिक माधुर्य समाप्त हो जाता है उनमें कुछ अपवादों को छोड़ दें तो अधिकांश में जमीन-जायदाद हड़पने और इसके लिए झगड़े-फसाद करने वाले किसी न किसी अंश में वर्णसंकर ही होते हैं।
जो इंसान अपने मां-बाप, भाई-बहनों और खून के रिश्तों के साथ धोखाधड़ी करते हैं उनमें वर्णसंकरता का प्रतिशत अधिक होता है। इस तरह का संघर्ष घोर कलियुग की निशानी है और जो यह करते हैं वे किसी न किसी रूप में व्यभिचारी, पापी, व्यसनी और पटरी से उतरे हुए ही होते हैं।
जो लोग दूसरों का हक छीनते हैं, औरों की जमीन और जायदाद पर कब्जा जमा लेते हैं, पात्र लोगों को घर से बेदखल कर देते हैं, वे लोग अपने आपको जमींदार, दौलतमन्द तथा दूसरों के मुकाबले अधिक वैभवशाली होने की खुशफहमी तो पाल सकते हैं लेकिन ऎसे लोगों द्वारा हड़पी गई जमीन-जायदाद के मूल्य से दो गुनी धनराशि असाध्य और गंभीर बीमारी, दुर्घटना और कोर्ट-कचहरी के विवादों में खर्च हो जाती है और आने वाली सात पीढ़ियों को मंगल दोष से जूझना पड़ता है इस कारण उनके परिवारों में लम्बे समय तक मांगलिकता का अभाव बना रहता है, शादी-ब्याह में दिक्कतें आती हैं तथा जब कभी मंगल चाहते हैं तब अमंगल हो जाता है।
यह स्थिति तब तक बनी रहती है जब कि हड़पी गई रकम की दो गुनी धनराशि खर्च न हो जाए। जमीन-जायदाद के मामले में धर्म, सत्य और न्याय पर चलें अन्यथा ऎसा बुरा हश्र होता है कि जिसकी हम कभी कल्पना भी नहीं कर सकते।
पर हम सुधरने वाले नहीं हैं, हमें परायों की सम्पत्ति पर मौज उड़ाना अच्छा लगता है क्योंकि हममें अपने दम पर कमाने-खाने का माद्दा, ज्ञान और हुनर नहीं है। आपराधिक मार्गों से सम्पत्तिशाली बनने का भूत हम पर सवार है।
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- डॉ0 दीपक आचार्य
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