(गीता चौधरी के कहानी संग्रह - वसंत की वापसी से साभार) प्रिय सखी लता! सस्नेह वन्दे, तेरा पत्र प्राप्त हुआ । पत्र पढ़ कर अत्यधिक प्रसन्नता ...
(गीता चौधरी के कहानी संग्रह - वसंत की वापसी से साभार)
प्रिय सखी लता!
सस्नेह वन्दे,
तेरा पत्र प्राप्त हुआ । पत्र पढ़ कर अत्यधिक प्रसन्नता हुई । ' आखिर किसी को तो अपनी सहेली की याद आयी ' यह सोच कर मेरे नेत्र अनायास ही छलछला उठे ।
प्यारी बहन! तूने अपने पत्र में बारम्बार यही प्रश्न किया है कि मैंने पढ़ाई क्यों छोड़ दी । कहीं तू भी मुझे गलत न समझ ले, इसलिए मैं तुझे सब कुछ बतला रही हूँ लता! मैं सत्य कह रही हूँ मैंने अपने मन से पढ़ाई नहीं छोड़ी वरन् मुझे विवश करके मेरी पढ़ाई छुड़वा दी गयी ।
जब मेरा इन्टर का परीक्षाफल घोषित हो गया और मैं प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हो गयी, तो सबको अत्यन्त आश्चर्य हुआ । मेरे हर्ष की तो कोई सीमा ही नहीं रही । मैंने तत्क्षण ही आगे की पढ़ाई के बारे में सोचना शुरू कर दिया । कालेज खुलने पर एक दिन मैंने पिताजी से आ कि '' मैं बी. ए. के लिए कौन से कालेज में एडमिशन लूँ?'' पिताजी बिलकुल चौंक गये, मानो उन्हें मेरे इस प्रश्न की किंचित् भी आशा न थी । फिर वे कुछ सोच कर बोले- '' बेटी, मेरी समझ में तुम्हारा आगे पढ़ना बेकार है । तुम्हें कोई नौकरी थोड़े ही करनी है । इंटर तक की पढ़ाई काफी है । लड़कियों को अधिक पढ़ कर क्या करना है?''
लता! पिताजी के इन शब्दों को सुनकर मेरे मन पर कैसी बीती इसका वर्णन करना मेरी शक्ति के बाहर है । बड़ी कठिनाई से आंसू रोक कर मैं दूसरे कमरे में चली आयी । पिताजी के सामने से भी तो नहीं सकती थी ।
पिताजी के दफ्तर चले जाने पर मेरे धैर्य का बांध टूट गया और मैं माताजी के समीप जाकर उनके स्नेहपूर्ण अंक में अपना मुख छिपा लिया और फूट- फूट कर रोने लगी । माताजी धीरे से मेरा मुख ऊपर उठा कर अपने हाथों से मेरे आंसू पोंछती हुई बोलीं- '' रानी बेटी । तू समझदार होकर भी पागल जैसी बात करती है! देख तू ही बता क्या अपनी आर्थिक स्थिति ऐसी है कि अपन लोग उच्च शिक्षा का भार वहन कर सकें । आय कम है और व्यय अधिक। फिर तू सयानी भी तो हो गयी है । तुझे कालेज जाती देख कर इसी प्रकार की बहुत- सी बातें माताजी ने मुझे समझायीं । परन्तु पढ़ने की अपनी धुन के कारण मैंने उनकी एक न सुनी । अपने दृढ़ निश्चय के कारण मैंने दो दिन तक खाना भी नहीं खाया । तब माताजी को भी कुछ क्रोध आ गया और वे पिताजी से बोलीं - '' देख रहे हैं आप शीलू का हठ । हम लोगों के अत्यधिक स्नेह के कारण ही यह सिर पर चढ़ गयी है । जब तक इसकी ही में ही मिलाते रहते हैं, तब तक तो सब ठीक है ज्यों ही इसकी एक बात में ना कर दी त्यों ही इसने कैसा तूफान खड़ा का दिया!''
अरे कुछ बताओगी भी कि क्या हुआ या गाथा ही गाती रहोगी । पिताजी ने आ ।
अजी क्या बतायें? आपने उसे आगे पढ़ने से मना कर दिया न, इसीलिए वह रोटी का एक कौर भी मुँह में नहीं डाल रही है और न कुछ बोल ही रही है । बस लगातार रोये जा रही है । ''
अरे! तो यह बात है शीलू बेटी । तू रही बावली की बावली ही । ''
यह सुन कर माताजी का गला भर आया । वे तुरन्त बोलीं- ' देखिये, यह अपनी एक ही तो बच्ची है, इसका जी नाराज करने में मुझे स्वयं दुगनी पीड़ा होती है । परन्तु हमें अपनी आर्थिक व्यवस्था और जात- बिरादरी का भी तो ध्यान रखना ही पड़ता है । यह बात मैंने इसे कितनी ही बार समझायी परन्तु इसे रोने के अतिरिक्त और कुछ सूझ ही नहीं रहा है । ''
'' ही सो तो है । '' अपने कपोलों पर हाथ रख कर विचारपूर्ण मुद्रा में पिताजी ने कहा- ' एक तो हमारी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है, फिर हमारा समाज भी लड़कियों को अधिक पढ़ाने की अनुमति नहीं देता । सभी व्यक्ति शीलू की शादी के बारे में पूछते रहते हैं । पत्र आते हैं तो उनमें भी यही प्रश्न पूछा जाता है । आखिर किस- किस को ना करें?
लता! पिताजी की यह बात सुन कर मेरे तो प्राण सूख गये । संकोच के कारण मुख लाल हो गया और सिर झुक गया । तब मेरे सिर पर हाथ फेरती हुई माताजी बोलीं- '' यदि यह समाज तंग न करे तो मुझे तो बेटी को पढ़ाने में कोई एतराज नहीं है । वास्तव में मेरी तो सबसे पहली इच्छा यही है कि बेटी खुश रहे । कौन माँ- बाप अपने बच्चों को सुखी नहीं देखना चाहता अन्य खर्चो में कटौती करके बेटी की शिक्षा चलायी जा सकती है । ''
'' ही । कहती तो तुम ठीक हो । '' पिताजी ने माताजी का समर्थन किया- '' यह संसार हमें अपनी बच्ची से अधिक थोड़े ही प्रिय है । लोगों का क्या है वे तो जो मन में आयेगा सो बक कर चुप हो जायेंगे । कुछ वर्षों की ही तो बात और है । बेटी के ही मन की हो जाने दो । ''
मेरे मुख पर प्रसन्नता की एक लहर दौड़ गयी । हर्ष के आवेग में माताजी के गले से जा लिपटी । पिताजी मुझे प्रसन्न देख कर मुस्कुराने लगे । ओह! कितनी उल्लासपूर्ण मुस्कान थी वह!
बस, फिर क्या था । दूसरे ही दिन फार्म भरा गया और मैं खुशी- खुशी कालेज गयी । अब मैंने पूर्ण गति से पढ़ाई आरंभ कर दी । शीघ्र ही अच्छी छात्राओं मेरा भी नाम गिना जाने लगा । अब तो सपनों के सुनहरे संसार में मेरा मन सदैव विचरण करता था । सोचती थी कि बी. ए. के पश्चात् एम. ए. करूंगी । मैं इतना पट्टा?, इतना पढ़ूंगी कि बहुत बड़ी विदुषी बन जाऊँगी । फिर तो जो विशालकाय ग्रन्थ मुझे पढ़ाये जाते हैं, उनसे भी विशाल पुस्तकें मैं स्वयं लिखूंगी जिससे संपूर्ण संसार में मेरा नाम फैल जायेगा और भविष्य में भी लोग मेरा नाम बड़े सम्मान के साथ स्मरण करेंगे । जब मैं किसी महान् व्यक्ति का नाम सुनती, तो अपने मन में यह निश्चय कर लेती कि मैं भी वैसी ही बनूँगी । किसी के महान् कार्य की प्रशंसा होती, तो मैं झट से यह कह उठती कि '' मैं भी यह करूँगी । '' माताजी और पिताजी कभी-कभी विनोद में यह कह देते कि '' तू तो न जाने क्या- क्या करेगी । ''
परन्तु लता! विधाता को मेरे स्वप्नों का सत्य होना स्वीकार न था । शायद अधिक स्वप्न देखने वालों का एक भी स्वप्न साकार नहीं होता । ज्ञान और यश उन्हीं को उपलब्ध होते हैं, जिनके भाग्य में होते हैं । मेरे भाग्य में विद्या- प्राप्ति लिखी ही न थी ।
यदि मेरा भाग्य अच्छा होता तो पिताजी का हाथ भला मेरे सिर पर से क्यों उठता । मुझ पर उनकी मृत्यु का वज्रपात भला क्यों होता? पिताजी के देहावसान ने मुझे और मेरे संपूर्ण जीवन को झकझोर दिया और मुझे सपनों के स्वर्ग से घसीट कर यथार्थ की धरा पर ला पटका । स्वप्नों का महल ताश के पत्तों से बने घर की भांति झंझावात के एक ही झोंक से धराशायी हो गया । परीक्षा के कुछ दिन शेष थे । बीच ही में सिर पर विपत्ति का यह पहाड़ टूट पड़ा । उस वर्ष तो परीक्षा देना असंभव ही था, अगले वर्ष मैंने सबकी बहुत मिन्नतें कीं, सबके आगे बहुत हाथ- पैर जोड़े परन्तु मेरी एक न चली । लोगों ने कहा- '' सुशीला को और पढ़ा कर क्या करना है? अब तो उसका विवाह कर देना चाहिये । '' माताजी ने अवश्य एक- दो बार दबी आवाज में आगे पढ़ाने का आग्रह किया, परन्तु चाचाजी एवं चाचीजी की उदासीनता देखकर वे भी मौन हो गईं। मैंने चार-चार दिनों तक अन्न का एक दाना भी मुँह में नहीं डाला परन्तु फिर भी किसी ने मेरी पीड़ा तक न पूछी।
सच लता! कुछ दिनों तक तो मुझे अपनी पढ़ाई छूटने का बड़ा ही खेद रहा । अब तो मैं भी चुप होकर बैठ गयी हूँ । और किसी को तो क्या कहूँ ही अपने भाग्य को अवश्य दोष दे लेती हूँ । कभी- कभी सोचती हूं कि मेरी तरह कितनी ही लड़कियों के स्वप्नों के संसार छिन्न-भिन्न हो जाते होंगे । मुझे तो ऐसा लगता है हिन्दू समाज के अंतर्गत लड़की को स्वप्न देखने ही नहीं चाहिये क्योंकि वह विवश है, दूसरों पर आश्रित और अवलंबित है । आज भी जब मैं किसी लड़की को पड़ती हुई अथवा परीक्षा देने के लिए जाती हुई देखती हूँ तो हृदय में एक टीस सी उठती है । किसी लड़की की रचना पत्रिका में छपी देख कर हृदय के घाव पुनः हरे होने लगते हैं । एक कोने में बैठ कर जी भर रो लेती हूँ बस! मन कुछ शांत करने के लिए रोना ही तो एकमात्र साधन रह गया है मेरे पास! कभी- कभी तो यह हठीला मन इतना खिन्न हो जाता है कि जब कोई पूछता है कि तुम कितना पढ़ी हो तो मैं कह देती हूँ कि मैं अनपढ़ हूँ ।
प्रिय लता! तूने लिखा है कि पत्र का उत्तर अवश्य देना, परन्तु मेरा हृदय तो यह कहता है कि संपूर्ण संसार से नाता तोड़ लूँ और तुझे भी लिख दूँ कि 'मुझे भूल जाओ ।' तू तो पढ़-लिख कर विदुषी हो गयी है और मैं जो कुछ पढ़ सकी थी, वह भी भूलती जा रही हूँ । अब तेरा मेरा साथ कैसा! अब तो तुझे कुछ लिखते हुए भी शरम आती है । जो स्वप्न संजोये थे वे संसार ने तोड़ डाले हैं, शीशे के महल को बारम्बार ढेले मारकर चकनाचूर कर दिया है । अब रह ही क्या गया है? केवल बिखरे हुए कुछ उपेक्षित कण!
तेरे ही शब्दों में तेरी ही
शीलू
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